जानना और मानना
परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति चाहनेवाले साधक दो तरहके होते हैं- एक विवेकप्रधान और एक श्रद्धाप्रधान अर्थात् एक मस्तिष्कप्रधान होता है और एक हृदयप्रधान होता है। विवेकप्रधान साधकके भीतर विवेककी अर्थात् जाननेकी मुख्यता रहती है और श्रद्धाप्रधान साधकके भीतर माननेकी मुख्यता रहती है।
जानना और मानना – दोनोंमें कोई फर्क नहीं है। जैसे 'जानना' सन्देहरहित (दृढ़ ) होता है, ऐसे ही 'मानना' भी सन्देहरहित होता है। मानी हुई बातमें विचारकी सम्भावना नहीं रहती। जैसे, 'अमुक मेरी माँ है' - यह केवल माना हुआ है, पर इस माने हुएमें कभी सन्देह नहीं होता, कभी जिज्ञासा नहीं होती, कभी विचार नहीं करना पड़ता।
जैसे जानना दृढ़ होता है, ऐसे ही मानना भी दृढ़ होता है अर्थात् दृढ़ मान्यता तत्त्वज्ञान की तरह ही फल देती है । जैसे, 'मैं हिन्दू हूँ', 'मैं अमुक वर्णवाला हूँ' आदि मान्यताओंको जबतक स्वयं नहीं छोड़ता, तबतक ये मान्यताएँ छूटती नहीं।
जैसे (बोध होनेपर ) ज्ञान ( जानने) को कोई मिटा नहीं सकता, ऐसे ही 'परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं' इस मान्यता ( मानने) को कोई मिटा नहीं सकता। जब सांसारिक मान्यताओं- 'मैं ब्राह्मण हूँ', 'मैं साधु हूँ' आदिको (जो कि अवास्तविक हैं) कोई मिटा नहीं सकता, तब पारमार्थिक मान्यताओंको (जो कि वास्तविक हैं) कौन मिटा सकता है ? तात्पर्य यह है कि दृढ़तापूर्वक मानना भी एक साधन है । जाननेकी तरह माननेकी भी बहुत महिमा है।
ज्ञानमार्गमें 'जानना' और भक्तिमार्गमें 'मानना' मुख्य होता है। जिस बातमें किंचिन्मात्र भी सन्देह न हो, उसे दृढ़तापूर्वक ‘मानना' ही भक्तिमार्गमें 'जानना' है।
यदि संसारको जान लें तो भगवान्को माननेकी शक्ति आ जायगी, और भगवान्को मान लें तो संसारको जाननेकी शक्ति आ जायगी।
हमें आज ही सुनना, पढ़ना सीखना आदि बन्द करके 'जानना' और 'मानना' आरम्भ कर देना चाहिये। अनन्त ब्रह्माण्डोंमें एक भी वस्तु अपनी नहीं है - यह जानना है, और केवल भगवान् ही अपने हैं - यह मानना है।
समझी हुई बात श्रेष्ठ नहीं होती, पोली होती है । परन्तु मानी हुई बात श्रेष्ठ, दृढ़ होती है । मेरा विवाह हो गया—यह मान लिया है, समझा नहीं है। यह मान्यता इतनी दृढ़ होती है कि कभी छूटती नहीं। समझनेसे सन्तोष तो अधिक होता है, पर भीतरकी दृढ़ता कम होती है।