Seeker of Truth

ईश्वर

परमात्मतत्त्वका वर्णन नहीं होता, प्रत्युत अनुभव होता है।

अमृत-बिन्दु ३९३··

भगवान्‌को प्राप्त तो कर सकते हैं, पर उनका वर्णन, चिन्तन, ध्यान नहीं कर सकते। प्राप्त इसलिये कर सकते हैं कि हम उनके ही अंश हैं। भगवान्‌की पूरी महिमाको बतानेवाला कोई शब्द, विशेषण, युक्ति या दृष्टान्त संसारकी किसी भाषामें है ही नहीं।

सत्संग-मुक्ताहार ४४-४५··

भगवान् देश, काल आदि सभी दृष्टियोंसे अनन्त हैं। जब भगवान्‌की बनायी हुई सृष्टिका भी अन्त नहीं आ सकता तो फिर भगवान्‌का अन्त आ ही कैसे सकता है? आजतक भगवान्‌के विषयमें जो कुछ सोचा गया है, जो कुछ कहा गया है, जो कुछ लिखा गया है, जो कुछ माना गया है, वह पूरा का पूरा मिलकर भी अधूरा है। इतना ही नहीं, भगवान् भी अपने विषयमें पूरी बात नहीं कह सकते, अगर कह दें तो अनन्त कैसे रहेंगे ?

साधक संजीवनी ७। १० परि०··

वास्तवमें परमात्मतत्त्वका वर्णन शब्दोंसे नहीं कर सकते। उसको असत्की अपेक्षासे सत्, विकारकी अपेक्षासे निर्विकार, एकदेशीयकी अपेक्षासे सर्वदेशीय कह देते हैं, पर वास्तवमें उस तत्त्वमें सत्, निर्विकार आदि शब्द लागू होते ही नहीं । कारण कि सभी शब्दोंका प्रयोग सापेक्षतासे और प्रकृतिके सम्बन्धसे होता है, पर तत्त्व निरपेक्ष और प्रकृतिसे अतीत है।

साधक संजीवनी १३ । १२ परि०··

जब मनुष्य इस बातको जान लेता है कि इतने बड़े संसारमें, अनन्त ब्रह्माण्डों में कोई भी वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत जिसके एक अंशमें अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, वही अपना है, तब उसके भीतर भगवान्‌की आवश्यकताका अनुभव होता है। कारण कि अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें। जो कभी हमारेसे अलग न हो और हम कभी उससे अलग न हों। ऐसी वस्तु भगवान् ही हो सकते हैं।

साधक संजीवनी ७ । ३ परि०··

वह परमात्मा कैसा है, कैसा नहीं है- यह जानना साधकके लिये आवश्यक नहीं है। साधकके लिये केवल इतना ही मानना आवश्यक है कि परमात्मा है और वह मेरा है। उसको इन्द्रियाँ- मन-बुद्धिसे जाना नहीं जा सकता, प्रत्युत केवल माना जा सकता है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ४६··

हमें कोई ऐसा साथी चाहिये, जो हमसे प्रेम करे, हमें आश्रय दे और कभी हमसे बिछुड़े नहीं, सदा साथ रहे। ऐसा साथी ईश्वर ही हो सकता है। तात्पर्य है कि हमें प्रेमके लिये ईश्वरकी आवश्यकता है। इस आवश्यकताकी पूर्ति न स्वयंसे हो सकती है, न संसारसे। इसकी पूर्ति ईश्वरसे ही हो सकती है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १९४··

जब मनुष्य अपनी आवश्यकताकी पूर्ति न तो खुद कर सकता है और न उसकी पूर्ति संसार ही कर सकता है, तब वह स्वतः भगवान्‌की ओर खिंचता है, जिसको उसने देखा नहीं है, प्रत्युत सुना है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ४८··

जब मनुष्यपर कोई संकट आता है और उससे बचनेका कोई उपाय नहीं दीखता तथा उससे बचनेके लिये किये गये सब प्रयत्न व्यर्थ चले जाते हैं, तब उसको भगवान्पर विश्वास करके उनको पुकारना ही पड़ता है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ४८··

जो किसीको मिले, किसीको न मिले, उसका नाम परमात्मा नहीं है। परमात्मा तो वह है, जो सभीको मिल सकता है। क्यों मिल सकता है ? क्योंकि वह मिला हुआ ही है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ७३··

भगवान् संसारकी दृष्टिसे 'न्यायकारी' हैं, ज्ञानकी दृष्टिसे 'उदासीन' हैं और भक्तिकी दृष्टिसे 'दयालु' हैं। भगवान् तीनों हैं और तीनोंसे रहित भी हैं; फर्क हमारी दृष्टिमें है ।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १९९··

किसी घटनामें भगवान्‌का क्या हित भरा है - इसको हमारी बुद्धि नहीं पकड़ सकती। अगर हम अपनी बुद्धिसे भगवान्की परीक्षा करेंगे तो भगवान् फेल हो जायँगे। इसलिये अपनी बुद्धिसे पकड़नेकी चेष्टा न करे, प्रत्युत अपनी बुद्धिको उनके अर्पित कर दे कि भगवान् जो कुछ करते हैं, उसमें उनकी कृपा और सबका हित भरा होता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला २००··

भगवान् जैसे वैकुण्ठमें हैं, वैसे-के-वैसे ही नरकोंमें भे हैं। जो कहीं हो, कहीं न हो, वह भगवान् नहीं हो सकता। जो किसीका हो, किसीका न हो, वह भी भगवान् नहीं हो सकता।

सत्संगके फूल १३०··

यदि 'है' - रूपसे परमात्माको ही मानें तो कौन-सा रूप बाकी रहा? संसारमें भी 'है' रूपसे परमात्मा ही हैं। सत्तारूपसे केवल परमात्मा ही हैं। वही परमात्मा अनेकरूपसे हैं। अनेक रूपोंमें भगवान् तथा उनका लोक (साकेत, गोलोक आदि) एक ही है । भक्तकी निष्ठा, रुचिसे भेद होता है।

सागरके मोती ९५··

शास्त्रोंमें तत्त्वका जो वर्णन आता है, वह हमारी दृष्टिसे है। हमने असत्की सत्ता मान रखी है, इसलिये शास्त्र हमारी दृष्टिके अनुसार, हमारी भाषामें असत्की निवृत्ति और सत्-तत्त्वका वर्णन करते हैं। यही कारण है कि दृष्टिभेदसे दर्शन अनेक हैं। अनेक दर्शन होते हुए भी तत्त्व एक है। जबतक द्रष्टा, ज्ञाता, दार्शनिक और दर्शन हैं, तबतक तत्त्वके वर्णनमें भेद है। जबतक भेद है, तबतक तत्त्व नहीं है; क्योंकि तत्त्वमें भेद नहीं है। दूसरे शब्दोंमें जबतक अहम् (जड-चेतनकी ग्रन्थि) है, तबतक भेद है। अहम्के मिटनेपर कोई भेद नहीं रहता, केवल एक तत्त्व ('है') रह जाता है।

साधन-सुधा-सिन्धु ५९··

सत्-तत्त्व एक ही है। उस तत्त्वका वर्णन नहीं होता; क्योंकि वह मन (बुद्धि) और वाणीका विषय नहीं है—'यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह' ( तैत्तिरीय २९), 'मन समेत जेहि जान न बानी । तरकि न सकहिं सकल अनुमानी' (मानस १ । ३४१ । ४) । जहाँ वर्णन है, वहाँ तत्त्व नहीं है और जहाँ तत्त्व है, वहाँ वर्णन नहीं है। उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य नहीं है, इसलिये केवल उसका लक्ष्य करानेके लिये ही उसका वर्णन किया जाता है । परन्तु जब उसका लक्ष्य न करके कोरा सीख लेते हैं, तब वर्णन ही वर्णन होता है, तत्त्व नहीं मिलता। उसका लक्ष्य रखकर वर्णन करनेसे वर्णन तो नहीं रहता, पर तत्त्व रह जाता है।

साधन-सुधा-सिन्धु ५८··

किसीकी बुद्धि कितनी ही तेज क्यों न हो और वह अपनी बुद्धिसे परमात्माके विषयमें कितना ही विचार क्यों न करता हो, पर वह परमात्माको अपनी बुद्धिके अन्तर्गत नहीं ला सकता । कारण कि बुद्धि सीमित है और परमात्मा असीम अनन्त हैं।

साधक संजीवनी २। ५७··

सर्वव्यापी परमात्माकी हमसे दूरी है ही नहीं और हो सकती भी नहीं। जिससे हम अपनी दूरी नहीं मानते, उस 'मैं' - पनसे भी परमात्मा अत्यन्त समीप हैं। 'मैं' पन तो परिच्छिन्न ( एकदेशीय) है, पर परमात्मा परिच्छिन्न नहीं हैं।

साधक संजीवनी ३।२०··

हमें भगवान्की आवश्यकता क्यों है ? इसपर विचार करें तो मालूम होता है कि हमारी कोई ऐसी आवश्यकता है, जिसको हम न तो अपने द्वारा पूरी कर सकते हैं और न संसारके द्वारा ही पूरी कर सकते हैं । दुःखोंका नाश करनेके लिये और परमशान्तिको प्राप्त करनेके लिये हमें भगवान्की आवश्यकता नहीं है। कारण कि अगर हम कामनाओंका सर्वथा त्याग कर दें तो स्वतः हमारे दुःखोंका नाश होकर परमशान्तिकी प्राप्ति हो जायगी – 'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' ( गीता १२ । १२) अर्थात् हम मुक्त हो जायँगे। हमें परमप्रेमकी प्राप्तिके लिये ही भगवान्‌की आवश्यकता है; क्योंकि हम भगवान्‌के ही अंश हैं।......तात्पर्य यह हुआ कि मुक्ति पानेके लिये ईश्वरकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत भक्ति पानेके लिये ईश्वरकी आवश्यकता है।

साधक संजीवनी ७।३ परि०··

भगवान्‌का तो बड़ा ही उदार एवं प्रेमभरा स्वभाव है कि वे जिस किसीको कुछ देते हैं, उसको इस बातका पता ही नहीं लगने देते कि यह भगवान्‌की दी हुई है, प्रत्युत जिसको जो कुछ मिला है, उसको वह अपनी और अपने लिये ही मान लेता है। यह भगवान्‌का देनेका एक विलक्षण ढंग है।

साधक संजीवनी ७। १४··

भगवान्‌में यह विशेषता है कि वे किसीपर शासन नहीं करते, किसीको अपना गुलाम नहीं बनाते, किसीको अपना चेला नहीं बनाते, प्रत्युत हर एकको अपना मित्र बनाते हैं, अपने समान बनाते हैं।

साधक संजीवनी ७। २२ परि०··

जैसे बिजलीमें सब शक्तियाँ हैं, पर वे मशीनोंके द्वारा ही प्रकट होती हैं, ऐसे ही भगवान्‌में अनन्त शक्तियाँ हैं, पर वे प्रकृतिके द्वारा ही प्रकट होती हैं।

साधक संजीवनी ९ । १०··

परमात्मा सम्पूर्ण शक्तियों, कलाओं, विद्याओं आदिके विलक्षण भण्डार हैं।......... अगर परमात्मामें विशेषता न होती तो वह संसारमें कैसे आती ? जो विशेषता बीजमें होती है, वही वृक्षमें भी आती है। जो विशेषता बीजमें नहीं है, वह वृक्षमें कैसे आयेगी ?

साधक संजीवनी १० । ४१ परि०··

भगवान्‌की दी हुई सामर्थ्यसे ही मनुष्य कर्मयोगी होता है, उनके दिये हुए ज्ञानसे ही मनुष्य ज्ञानयोगी होता है और उनके दिये हुए प्रेमसे ही मनुष्य भक्तियोगी होता है। मनुष्यमें जो भी विलक्षणता, विशेषता देखनेमें आती है, वह सब की सब उन्हींकी दी हुई है। सब कुछ देकर भी वे अपनेको प्रकट नहीं करते यह उनका स्वभाव है।

साधक संजीवनी १० ४१ परि०··

भगवान् साकार हों या निराकार हों, बड़े-से-बड़े हों या छोटे-से-छोटे हों, उनका अनन्तपना नहीं मिटता । सम्पूर्ण सृष्टि उनसे ही उत्पन्न होती है, उनमें ही रहती है और उनमें ही लीन हो जाती है, पर वे वैसे के वैसे ही रहते हैं।

साधक संजीवनी ११ । १५ परि०··

भगवान्‌के एक अंशमें भी अनन्तता है। जैसे स्याहीमें किस जगह कौन-सी लिपि नहीं है ? सोनेमें किस जगह कौन-सा गहना नहीं है ? ऐसे ही भगवान्‌में क्या नहीं है ? अर्थात् भगवान्में स्वाभाविक ही सब कुछ है ।

साधक संजीवनी ११ । १६ परि०··

भगवान् ज्ञानस्वरूप और नित्य परिपूर्ण हैं। अतः उनमें ज्ञानकी भूख (जिज्ञासा) तो नहीं है, पर प्रेमकी भूख (प्रेम-पिपासा) अवश्य है।

साधक संजीवनी १२ १३ १४ परि०··

ब्रह्म और ईश्वर दो नहीं हैं, प्रत्युत एक ही हैं.... अनन्त ब्रह्माण्डोंमें जो निर्लिप्तरूपसे सर्वत्र परिपूर्ण चेतन है, वह ब्रह्म है और जो अनन्त ब्रह्माण्डोंका मालिक है, वह ईश्वर है।

साधक संजीवनी १३ । १२ परि०२··

परमात्मामें सब जगह सब कुछ है।

साधक संजीवनी १३ । १३ परि०··

परमात्मा एक होते हुए भी अनेक हैं और अनेक होते हुए भी एक हैं। वास्तविक सत्ता कभी दो हो सकती ही नहीं; क्योंकि दो होनेसे असत् आ जाता है।

साधक संजीवनी १३ । १६ परि०··

वास्तवमें परमात्माका स्वरूप समग्र है। परमात्मामें कोई शक्ति न हो ऐसा सम्भव नहीं है। अगर परमात्माको सर्वथा शक्तिरहित मानें तो परमात्मा एकदेशीय ही सिद्ध होंगे। उनमें शक्तिका परिवर्तन अथवा अदर्शन तो हो सकता है, पर शक्तिका अभाव नहीं हो सकता। शक्ति कारणरूपसे उनमें रहती ही है, अन्यथा परमात्माके सिवाय शक्ति (प्रकृति) के रहनेका स्थान कहाँ होगा ?

साधक संजीवनी १३ । २० परि०··

भगवान्‌का ही अंश होनेके कारण हम भगवान्से अलग नहीं हो सकते, उनको छोड़ नहीं सकते। सर्वसमर्थ भगवान् भी जीवसे अलग नहीं हो सकते, जीवको छोड़ नहीं सकते। अगर भगवान् जीवको छोड़ दें तो जीव एक नया भगवान् हो जायगा अर्थात् भगवान् एक नहीं रहेंगे, प्रत्युत अनेक हो जायँगे, जो कभी सम्भव नहीं है। जिसको हम छोड़ नहीं सकते, उसके विषयमें यह प्रश्न ही नहीं उठता कि वह कैसा है ? अतः भगवान् कैसे हैं, क्या हैं, यह विचार न करके उनमें प्रेम करना चाहिये।

साधक संजीवनी १५ । २० अ०सा०··

भगवान्‌के समग्ररूप ( विज्ञानसहित ज्ञान ) को जाननेकी मुख्य साधना है-शरणागति । कारण कि समग्रका ज्ञान विचारसे नहीं होता, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासपूर्वक शरणागति होनेपर भगवत्कृपासे ही होता है।

साधक संजीवनी ७। ३० परि०··

जैसे हवाई जहाज चलता है तो उसमें कोई मनुष्य (चालक) दीखता नहीं, पर उसमें मनुष्य जरूर होता है, नहीं तो उसको चलाता कौन है ? ऐसे ही परमात्मा सबमें हैं, नहीं तो सबको चलाता कौन है ?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२··

परमात्माके विषयमें जितनी बातें संसारमें हैं, जितना विवेचन है, जितने मत-मतान्तर हैं, उन सबसे अतीत वास्तविक तत्त्व है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८५··

आपका जो इष्ट है, जिसपर आपका श्रद्धा - विश्वास है, प्रेम है, पहले उसको दृढ़तासे पकड़कर चलो, फिर अन्तमें स्वतः यह बात समझमें आ जायगी कि सब एक ही हैं, कोई फर्क नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२७··

जो भगवान् हमारे हैं, वही सबके हैं और जो सबके हैं, वही हमारे हैं। जो किसीका हो और किसीका नहीं हो, कभी हो और कभी नहीं हो, किसी समय हो और किसी समय नहीं हो, किसीमें हो और किसीमें नहीं हो, वह भगवान् नहीं होता।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४८··

अपनेको दीखता है कि भगवान्ने हमें भुला रखा है, पर वास्तवमें भगवान्‌को हम भूले हैं। भगवान्ह में नहीं भूलते।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५२··

एक परमात्मा मिलने बिछुड़नेवाले नहीं हैं। उनके सिवाय सब मिलने और बिछुड़नेवाले हैं। यह बात इतनी विलक्षण है कि इसके जोड़ेकी बात हमें मिली नहीं। आध्यात्मिक उन्नतिकी यह पहली बात है। इस एक बातमें संसारमात्रका त्याग हो जाता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १५४··

भगवान्‌की ऐसी विशेष कृपा है कि आप भगवान्‌का जैसा चिन्तन करो, भगवान् उसको अपना मान लेते हैं। यह भगवान्‌का स्वभाव है। आप जिस रूपका ध्यान करेंगे, भगवान् उसीको अपना मान लेंगे। जब भगवान्‌ के दर्शन होंगे, तब पहले भगवान् ठीक उसी रूपसे दर्शन देंगे, फिर अपना असली रूप दिखा देंगे, अपना असली रहस्य जना देंगे - 'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई' (मानस, अयोध्या० १२७ । २) ।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४९··

परमात्माको 'है' माननेमें मतभेद नहीं होता। कारण कि 'है' में सब एक हो जाते हैं, कोई भेद नहीं रहता। वास्तविक सत्ता एक ही है, जो 'है' रूपसे है । वह 'है' मेरा है, संसार मेरा नहीं है- यह खास बात है। मेरी आप सब भाई-बहनोंसे प्रार्थना है कि उस 'है' में स्थित हो जायँ। हमारा स्वरूप भी 'है' रूप ही है; क्योंकि हम उस 'है' के ही अंश हैं।

अनन्तकी ओर १०३··

परमात्मा जैसी सुलभ चीज कोई है नहीं, हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं ।

स्वातिकी बूँदें ७९··

उद्योग, परिश्रमसे जिसकी प्राप्ति होती है, वह असत् होता है। असत् हमसे दूर है। परन्तु सत्- तत्त्व परमात्मा हमसे दूर नहीं है। उनसे नजदीक कोई वस्तु नहीं है। वे मैं- पनसे भी नजदीक हैं। मैं-पन अपरा प्रकृति है। 'मैं' से भी 'हूँ' नजदीक है । सुषुप्तिमें मैं पन नहीं रहता, पर स्वयं रहता है।

स्वातिकी बूँदें १०८··

ईश्वर कैसा है - यह विचार तो तब करें, जब हम उसे छोड़ सकें। जब हम उसे छोड़ ही नहीं सकते तो फिर वह कैसा ही हो, उससे हमें क्या मतलब?

स्वातिकी बूँदें १४५··

ईश्वर जैसा है, हमारा है। भगवान्‌के स्वरूपका वर्णन करना वास्तवमें उनका अपमान करना है। वे सगुण-निर्गुण साकार - निराकार, बलवान् निर्बल, सुन्दर कुरूप, धनवान् - निर्धन आदि सब कुछ हैं। वे सबकी आखिरी हद हैं। साधकके लिये तो इतना ही मानना पर्याप्त है कि 'वे मेरे हैं'।

स्वातिकी बूँदें १८८··

परमात्माके सिवाय और कोई चीज आपके साथ रहती ही नहीं, और भगवान् आपका पिण्ड छोड़ते नहीं। ऐसा कोई समय नहीं है, जिस समय भगवान् आपके साथ न हों। परन्तु उस तरफ आपकी दृष्टि नहीं रहती । भगवान् सबके साथ हर समय रहते हैं और बड़ी कृपा करके रहते हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८२··

हम दूर से दूर जिस वस्तुको मानते हैं, शरीर उससे भी अधिक दूर है और नजदीक से नजदीक जिस वस्तुको मानते हैं, परमात्मा उससे भी अधिक नजदीक हैं।

अमृत-बिन्दु ३७५··

भगवान् कहाँ हैं? भगवान् वहाँ हैं, जहाँ 'कहाँ यहाँ-वहाँ' नहीं हैं अर्थात् भगवान् देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिसे सर्वथा अतीत हैं।

अमृत-बिन्दु ३८५··

भगवान्‌का कहीं भी अभाव नहीं है। केवल उनको देखनेवालेका अभाव है।

अमृत-बिन्दु ३८७··

जिसकी दृष्टि संसारपर रहती है, वह कहता है कि 'भगवान् कहाँ हैं?' और जिसकी दृष्टि भगवान्पर रहती है, वह कहता है कि 'भगवान् कहाँ नहीं हैं ?

अमृत-बिन्दु ३८८··

लोग कहते हैं कि देखे बिना परमात्माको कैसे मानें? हम कहते हैं कि जो दीखता है, उसको कैसे मानें? क्योंकि जो दीखता है, वह एक क्षण भी नहीं टिकता, प्रतिक्षण बदलता रहता है।

स्वातिकी बूँदें १६१··

मनुष्य, पशु-पक्षी, लता वृक्ष आदि जितने भी स्थावर जंगम प्राणी हैं, वे किसी-न-किसीको ( किसी- न-किसी अंशमें) अपनेसे बड़ा अवश्य मानते हैं और बड़ा मानकर उसका सहारा लेते हैं। मनुष्यपर जब आफत आती है, तब वह किसीको अपनेसे बड़ा मानकर उसका सहारा लेता है। पशु- पक्षी भी अपनी रक्षा चाहते हैं और भयभीत होनेपर किसीका सहारा लेते हैं। लता भी किसीका सहारा लेकर ही ऊँची चढ़ती है। इस प्रकार जिसने किसीको बड़ा मानकर उसका सहारा लिया, उसने वास्तवमें 'ईश्वरवाद' के सिद्धान्तको स्वीकार कर ही लिया, चाहे वह ईश्वरको माने या न माने।

साधक संजीवनी १७ । ३ मा०··

जो न आत्माको मानते हैं, न परमात्माको, उनके लिये राग-द्वेषको मिटाना कठिन है। उनका भला हो सकता है, पर वह सीमित ही होगा। आत्माको माननेवालेका भी सीमित भला होगा। असीम भला तो परमात्माको माननेवालेका ही होगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६५··

जरा सोचें, संसारमें भगवान्‌को माननेकी जरूरत ही क्यों पड़ी? जरूरत इसलिये पड़ी कि संसार में अपने साथ सदा रहनेवाला कोई मित्र है ही नहीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ८६··

परमात्मा विचारके विषय नहीं हैं, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासके विषय हैं। परमात्माके होनेमें भक्त, सन्त- महात्मा, वेद और शास्त्र ही प्रमाण हैं ।

साधक संजीवनी १५ । १७ परि०··

भगवान् जाननेका विषय नहीं है, प्रत्युत मानने और अनुभव करनेका विषय है। जाननेका विषय खुद प्रकृति भी नहीं है; फिर प्रकृतिसे अतीत भगवान् जाननेका विषय कैसे हो सकते हैं।

साधक संजीवनी १० । ३ परि०··

मनुष्य, देवता, दानव आदि कोई भी अपनी शक्तिसे, सामर्थ्यसे, योग्यतासे, बुद्धिसे भगवान्‌को नहीं जान सकता।...त्याग, वैराग्य, तप, स्वाध्याय आदि अन्तःकरणको निर्मल करनेवाले हैं, पर इनके बलसे भी भगवान्‌को नहीं जान सकते। भगवान्‌को तो अनन्यभावसे उनके शरण होकर उनकी कृपासे ही जान सकते हैं (गीता १० ११ ११ । ५४) ।

साधक संजीवनी १० । १४··

बड़े-बड़े भौतिक आविष्कारोंसे कोई भगवान्‌को नहीं जान सकता।

साधक संजीवनी १० १४ परि०··

परमात्माकी तरफ चलनेवालेके पास बैठनेसे शान्ति मिलती है यह परमात्माके होनेमें प्रत्यक्ष प्रमाण है।

सत्संगके फूल १५४··

परमात्माके होनेमें सन्त महात्मा सबसे प्रबल प्रमाण हैं, वैसा प्रमाण और कोई नहीं है। यदि परमात्मा नहीं हैं तो उन सन्त-महात्माओंमें हमारेसे अधिक विलक्षणता कैसे आयी ?

ज्ञानके दीप जले २२०··

हमारे माँ-बाप हैं - इसका प्रमाण क्या है ? हम बैठे हैं- यह प्रमाण है। अगर माँ-बाप नहीं हैं तो फिर तुम कहाँसे आये ? माँ-बापको मानना ही पड़ेगा। यह मानना जाननेसे कम नहीं है, प्रत्युत जाननेसे भी तेज है। ऐसे ही भगवान्‌को मानना ही पड़ेगा। किस बातको लेकर ? अपनी सत्ताको लेकर। क्या कोई माँ-बापके बिना है? मैं हूँ तो मेरे माँ-बाप भी हैं। संसार है तो उसको उत्पन्न करनेवाला भी कोई है।

बन गये आप अकेले सब कुछ १९४ - १९५··

परमात्मा कैसे हैं - यह निर्णय करनेकी जरूरत नहीं है। परमात्मा हैं इतना ही जाननेकी आवश्यकता है। इसीमें आपकी दृढ़ता होनी चाहिये। वे कहाँ हैं, क्या करते हैं, कैसे हैं, सगुण हैं कि निर्गुण हैं, साकार हैं कि निराकार हैं- इन बातोंको जाननेकी जरूरत नहीं है। परमात्माको कोई जान सकता ही नहीं।

अनन्तकी ओर १६··

भगवान् कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, कैसे करते हैं आदि बातोंको छोड़ दो। वे कहीं भी रहें, कुछ भी करें, वे 'हैं। 'है' में सन्देह मत करो। इससे ज्यादा जाननेकी जरूरत नहीं। वह द्विभुजी है कि चतुर्भुजी है, साकार है कि निराकार है, सगुण है कि निर्गुण है, जैसा भी है, पर वह ' है ' – इसमें सन्देह नहीं । वह सम्पूर्ण प्राणियोंका परम सुहृद् है । भगवान् हैं और वे हमारे हैं- इतनी दृढ़ता रखो। इससे ज्यादा विचार करनेकी जरूरत नहीं । उसको जाननेकी अपनी शक्ति नहीं है।

मैं नहीं, मेरा नहीं २२··

दूसरे लोग जन्मते हैं तो शरीर पहले बालक होता है, फिर बड़ा होकर युवा हो जाता है, फिर वृद्ध हो जाता है और फिर मर जाता है। परन्तु भगवान्में ये परिवर्तन नहीं होते। वे अवतार लेकर बाललीला करते हैं और किशोर अवस्था ( पंद्रह वर्षकी अवस्था ) - तक बढ़नेकी लीला करते हैं। किशोर अवस्थातक पहुँचनेके बाद फिर वे नित्य किशोर ही रहते हैं। सैकड़ों वर्ष बीतने पर भी भगवान् वैसे ही सुन्दर स्वरूप रहते हैं।

साधक संजीवनी ४ । ६··