Seeker of Truth

ज्ञानमार्ग

एक सत्ताके सिवाय कुछ नहीं है- यह ज्ञानमार्गकी सर्वोपरि बात है।

साधक संजीवनी २ । १६ परि०··

सांख्ययोगकी साधनामें विवेक विचारकी मुख्यता रहती है। विवेकपूर्वक तीव्र वैराग्यके बिना यह साधना सफल नहीं होती।

साधक संजीवनी ५। २··

ज्ञानयोगमें तेजीका वैराग्य होनेसे ही सिद्धि होती है। तेजीका वैराग्य न हो तो सीखना हो जाता है, अनुभव नहीं होता।

ज्ञानके दीप जले २६··

मेरा कुछ नहीं है, मेरेको कुछ नहीं चाहिये और मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है- इस सत्यको स्वीकार कर ले तो 'ज्ञानयोग' आरम्भ हो जाता है।

साधक संजीवनी ३ । ३ परि०··

सांख्ययोगीका लक्ष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव करना होता है । परन्तु राग रहते हुए इस साधनके द्वारा परमात्मतत्त्वके अनुभवकी तो बात ही क्या है, इस साधनका समझमें आना भी कठिन है।

साधक संजीवनी ५। ६··

ज्ञानयोगका साधक प्रायः समाजसे दूर, असंग रहता है। अतः उसमें व्यक्तित्व रह जाता है, जिसे दूर करनेके लिये संसारमात्रके हितका भाव रहना अत्यन्त आवश्यक है। वास्तवमें असंगता शरीरसे ही होनी चाहिये। समाजसे असंगता होनेपर अहंभाव दृढ़ होता है अर्थात् मिटता नहीं।

साधक संजीवनी १२ । ३-४··

साधक खाने-पीने, सोने-जागने आदि लौकिक क्रियाओंको तो विचारद्वारा प्रकृतिमें होनेवाली सुगमतासे मान सकता है, पर वह जप, ध्यान, समाधि आदि पारमार्थिक क्रियाओंको अपने द्वारा होनेवाली तथा अपने लिये मानता है तो यह वास्तवमें साधकके लिये बाधक है। कारण कि ज्ञानयोगकी दृष्टिसे क्रिया चाहे ऊँची-से-ऊँची हो अथवा नीची-से-नीची, है वह एक जातिकी ( प्राकृत) ही ........ साधकको चाहिये कि वह पारमार्थिक क्रियाओंका त्याग तो न करे, पर उनमें अपना कर्तृत्व न माने अर्थात् उनको अपने द्वारा होनेवाली तथा अपने लिये न माने। क्रिया चाहे लौकिक हो, चाहे पारमार्थिक हो, उसका महत्त्व वास्तवमें जड़ताका ही महत्त्व है।

साधक संजीवनी १८ । १६ परि०··

ज्ञानयोगके साधकको सबसे पहले अहंताका त्याग करना पड़ेगा; क्योंकि अहंताके त्यागके बिना ज्ञानयोग चलता नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०८··

शरीरके साथ सम्बन्ध रखनेवालोंके लिये ज्ञानमार्ग बहुत कठिन है । फिर जो शरीरकी आवश्यकता मानते हैं, उनके लिये ज्ञानमार्गपर चलना कितना कठिन है । शरीरकी जरूरत मानेंगे तो शरीरमें मैं- मेरेपनका त्याग कैसे होगा ? इसलिये ज्ञानमार्गीको आरम्भसे ही अपनेको शरीर नहीं मानना चाहिये । शरीरकी जरूरत माननेवाला ज्ञानमार्गसे बहुत दूर चला गया । वह ज्ञानमार्गमें जा सकता ही नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०९··

मैं शरीर नहीं हूँ — यह अनुभव हो गया तो ज्ञानमार्ग पूरा हो गया, ज्ञानमार्गका काम हो गया।

स्वातिकी बूँदें ३५··

मान्यता भक्तिमार्गमें चलती है। ज्ञानमार्गमें मान्यता नहीं चलती । ज्ञानमार्गमें जानना होता है। माननेसे ज्ञानमार्गमें भ्रम हो जाता है और साधक अधूरे ज्ञानको ज्ञान मान लेता है।

सागरके मोती ३४··

ज्ञानयोगके जिस साधकमें भक्तिके संस्कार होते हैं, जो अपने मतका आग्रह नहीं रखता, मुक्ति अर्थात् संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदको ही सर्वोपरि नहीं मानता और भक्तिका खण्डन, निन्दा नहीं करता, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता। अतः उसको मुक्ति प्राप्त होनेके बाद भक्ति (प्रेम) - की प्राप्ति हो जाती है।

साधक संजीवनी १८ । ५४ परि०··