Seeker of Truth

ज्ञान (तत्त्वज्ञान)

किसी विषयकी जानकारीको 'ज्ञान' कहते हैं। लौकिक और पारमार्थिक जितना भी ज्ञान है, वह सब ज्ञानस्वरूप परमात्माका आभासमात्र है।........ वास्तवमें ज्ञान वही है जो 'स्वयं' से जाना जाय।

साधक संजीवनी १५ । १५··

वास्तवमें बुद्धिके द्वारा जाने अर्थात् सीखे हुए विषयको 'ज्ञान' की संज्ञा देना और उससे अपने- आपको ज्ञानी मान लेना भूल ही है। बुद्धिको प्रकाशित करनेवाला तत्त्व बुद्धिके द्वारा कैसे जाना जा सकता है ?

साधक संजीवनी १३ । ८··

संसारमें अनेक विद्याओंका अनेक भाषाओंका अनेक लिपियोंका, अनेक कलाओंका तीनों लोक ओर चौदह भुवनोंका जो ज्ञान है, वह वास्तविक ज्ञान नहीं है। कारण कि वह ज्ञान सांसारिक व्यवहारमें काममें आनेवाला होते हुए भी संसारमें फँसानेवाला होनेसे अज्ञान ही है। वास्तविक ज्ञान तो वही है, जिससे स्वयंका शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय और फिर संसारमें जन्म न हो, संसारकी परतन्त्रता न हो।

साधक संजीवनी १३ । २··

जाननेयोग्य एकमात्र परमात्मा ही हैं, जिनको जान लेनेपर फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता । परमात्माको जाने बिना संसारको कितना ही क्यों न जान लें, जानकारी कभी पूरी नहीं होती, सदा अधूरी ही रहती है।

साधक संजीवनी १५ १५··

अगर आप असत्का ज्ञान करना चाहते हैं तो असत्से अलग हो जाइये। अगर आप सत्का ज्ञान करना चाहते हैं तो सत्से अभिन्न हो जाइये। आप तटस्थ होकर जो बात कहेंगे, वह तत्त्वकी बात नहीं होगी। शास्त्रोंकी, पढ़ाईकी जितनी बातें हैं, सब तटस्थ बातें हैं। शास्त्रोंमें पढ़नेसे जीव, ब्रह्म और जगत् – ये तीनों ही बुद्धिका विषय होंगे। इससे तत्त्वका ज्ञान नहीं होगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११७··

तत्त्वज्ञान किसी क्रिया या पदार्थके द्वारा नहीं होता, प्रत्युत अपने ही द्वारा होता है। जिसकी प्राप्ति अपने द्वारा होती है, उसके लिये किसी अभ्यासकी आवश्यकता नहीं होती। अभ्याससे तो उल्टे वह दूर होता है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ४०··

अहंभाव के सर्वथा मिटनेसे ही तत्त्वका वास्तविक बोध होता है।

साधक संजीवनी १८। ५५··

जबतक अहम् है, तबतक तत्त्वज्ञानका अभिमान तो हो सकता है, पर वास्तविक तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता।

अमृत-बिन्दु १८४··

तत्त्वबोध होनेपर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है । अतः तत्त्वबोध होनेपर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है। इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं। अहम् ज्ञानीमें होता है, ज्ञानमें नहीं । अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है। उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, कोई मालिक नहीं है। कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है; अतः स्वयंसे ही स्वयंका ज्ञान होता है। वास्तवमें ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है। अज्ञानके मिटनेको ही तत्त्वज्ञानका होना कह देते हैं।

साधन-सुधा-सिन्धु १४५ - १४६··

अभ्याससे तत्त्वज्ञान कभी हुआ नहीं, कभी होगा नहीं, कभी हो सकता नहीं।

मानवमात्रके कल्याणके लिये २७··

तत्त्वबोध किसी स्थितिका नाम नहीं है। जहाँ स्थिति होगी, वहाँ गति भी होगी - यह नियम है । तत्त्व स्थिति औरर गति दोनोंसे अतीत है।

सब साधनोंका सार ४४··

हम संयोगजन्य सुखका भोग करना चाहते हैं, इसीलिये अपने विवेकका आदर नहीं होता अर्थात् ज्ञान भीतर ठहरता नहीं।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १३९··

जबतक रुपये अच्छे लगते हैं, स्त्री अच्छी लगती है, तबतक बोध नहीं हुआ। बोध होनेपर ये फीके लगने लग जाते हैं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०५··

तत्त्वज्ञान होनेपर न तो स्वयं ( आत्मा ) में फर्क पड़ता है और न अन्त:करण (मन-बुद्धि) - में ही फर्क पड़ता है, प्रत्युत अपनी मान्यतामें फर्क पड़ता है, जो बुद्धिमें दीखती है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ८९··

प्रेमके बिना ज्ञान शून्य है। प्रेमके बिना ज्ञान बिना मल्लाहकी नौका है।

ज्ञानके दीप जले ११··

प्रेमके बिना ज्ञान रूखा, कठोर होता है।

सन्त समागम १०··

तत्त्वज्ञानसे तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत अज्ञानका नाश होता है। अज्ञानका नाश करके तत्त्वज्ञान स्वयं शान्त हो जाता है और स्वरूप ( तत्त्व) शेष रह जाता है।

ज्ञानके दीप जले ८६··

सब बदलनेवाला है - इसका ठीक अनुभव हो जाय तो तत्त्वज्ञान हो जायगा; क्योंकि विनाशीको अविनाशी ही देख सकता है।

ज्ञानके दीप जले १७०··

ब्रह्मज्ञान तो है। ब्रह्मज्ञान होता नहीं। जो होता है, वह ब्रह्मज्ञान नहीं है।

ज्ञानके दीप जले २२८··

तत्त्वज्ञानका अन्तःकरणके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। तत्त्वज्ञान प्रकृतिसे अतीत है, जबकि अन्त:करण प्रकृतिका कार्य है । फिर अन्तःकरणकी शुद्धि - अद्धिका तत्त्वज्ञानसे क्या सम्बन्ध ?

सागरके मोती ५९··

अन्तःकरणकी शुद्धिसे तत्त्वज्ञान नहीं होता। मनोनाशसे, मन एकाग्र करनेसे समाधि होगी, सिद्धियाँ आयेंगी । सिद्धियाँ परमात्मप्राप्तिमें विघ्न हैं।

सत्संगके फूल ६१··

‘मैं' से अपनेको अलग अनुभव करना तत्त्वज्ञान है। 'मैं' से अपनेको एक अनुभव करना अज्ञान है।

सत्संगके फूल ९५··

मैं ज्ञानी हूँ और मैं अज्ञानी हूँ- ये दोनों धारणाएँ अज्ञानियोंकी हैं। ज्ञान होनेपर ज्ञानी नहीं रहता। जबतक ज्ञानी रहता है, तबतक भोग है। जो ज्ञानका भोगी है, वह कभी अज्ञानका भोगी हो सकता है।

सत्संगके फूल १८३··

तत्त्वज्ञान होनेपर भी जल्दी सन्तोष नहीं होता । जैसे, तत्त्वज्ञान होनेपर भी शुकदेवजीको सन्तोष नहीं हुआ तो व्यासजीने उनको जनकजीके पास भेजा। वहाँ जानेपर उनका वहम मिट गया।

सागरके मोती ८०··

जैसे काँटा निकालते समय दर्द तो होता है, पर दुःख नहीं होता, प्रत्युत काँटा निकल रहा है – इसका सुख होता है। ऐसे ही ज्ञान होनेपर पीड़ाका अनुभव तो होगा, पर दुःख नहीं होगा।

सागरके मोती १४०··

ज्ञान परोक्ष होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं। ज्ञान अपरोक्ष ही होता है।

साधन-सुधा-सिन्धु ३५··

श्रवण, मनन आदि साधन तत्त्वके ज्ञानमें परम्परागत साधन माने जा सकते हैं, पर वास्तविक बोध करणनिरपेक्ष (अपने आपसे ) ही होता है।

साधक संजीवनी २।२९··

जैसे संसारमें सुननेमात्रसे विवाह नहीं होता, प्रत्युत स्त्री और पुरुष एक-दूसरेको पति-पत्नीरूपसे स्वीकार करते हैं, तब विवाह होता है, ऐसे ही सुननेमात्रसे परमात्मतत्त्वको कोई भी नहीं जान सकता, प्रत्युत सुननेके बाद जब स्वयं उसको स्वीकार करेगा अथवा उसमें स्थित होगा, तब स्वयंसे उसको जानेगा।

साधक संजीवनी २ । २९ परि०··

परमात्मतत्त्वका ज्ञान करणनिरपेक्ष है। इसलिये उसका अनुभव अपने-आपसे ही हो सकता है, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि करणोंसे नहीं । साधक किसी भी उपायसे तत्त्वको जाननेका प्रयत्न क्यों न करे, पर अन्तमें वह अपने आपसे ही तत्त्वको जानेगा।

साधक संजीवनी ४ । ३८··

यह सिद्धान्त है कि संसारमें लगा हुआ मनुष्य संसारको नहीं जान सकता। संसारसे अलग होकर ही वह संसारको जान सकता है; क्योंकि वास्तवमें वह संसारसे अलग है। इसी तरह परमात्माके साथ एक होकर ही वह परमात्माको जान सकता है; क्योंकि वास्तवमें वह परमात्माके साथ एक है।

साधक संजीवनी २ । ६९ परि०··

अगर असत्‌को जाननेसे असत्की निवृत्ति न हो तो वास्तवमें असत्‌को जाना ही नहीं है, प्रत्युत सीखा है। सीखे हुए ज्ञानसे असत्की निवृत्ति नहीं होती; क्योंकि मनमें असत्की सत्ता रहती है।

साधक संजीवनी २ । ७२ परि०··

वास्तवमें ज्ञान स्वरूपका नहीं होता, प्रत्युत संसारका होता है । संसारका ज्ञान होते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और स्वतः सिद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है।

साधक संजीवनी ४ । ३४··

तत्त्वज्ञान अथवा अज्ञानका नाश एक ही बार होता है और सदाके लिये होता है।....... जब अज्ञानकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है, तो फिर पुनः अज्ञान कैसे होगा ? अतः नित्यनिवृत्त अज्ञानकी ही निवृत्ति होती है और नित्यप्राप्त तत्त्वकी ही प्राप्ति होती है।

साधक संजीवनी ४ । ३५ परि०··

पापोंमें ज्ञानको अटकानेकी ताकत नहीं है। ज्ञानप्राप्तिमें खास बाधा है - नाशवान् सुखकी आसक्ति (गीता ३। ३७-४१)। भोगासक्तिके कारण ही मनुष्यकी पारमार्थिक विषयमें रुचि नहीं होती और रुचि न होनेसे ही ज्ञानकी प्राप्ति बड़ी कठिन प्रतीत होती है।

साधक संजीवनी ४ । ३६ परि०··

अपनी सत्ताको और शरीरको अलग-अलग मानना 'ज्ञान' है और एक मानना 'अज्ञान' है।

साधक संजीवनी ५। १६··

साधक भूलसे अपनेको तत्त्वज्ञ न मान ले, इसलिये यह पहचान बतायी है कि अगर बुद्धिमें समता नहीं आयी है तो समझ लेना चाहिये कि अभी तत्त्वज्ञान नहीं हुआ है, केवल वहम हुआ है । बुद्धिकी समताका स्वरूप है - राग-द्वेष, हर्ष- शोक आदि न होना।

साधक संजीवनी ५। १९ परि०··

परमात्माको जानना और मानना - दोनों ही ज्ञान हैं तथा संसारको सत्ता देकर संसारको जानना और मानना — दोनों ही अज्ञान हैं।

साधक संजीवनी ७ १९ मा०··

संसारको तत्त्वसे जाननेपर संसारकी स्वतन्त्र सत्ताका अभाव हो जाता है, और परमात्माको तत्त्वसे जाननेपर परमात्माका अनुभव हो जाता है।

साधक संजीवनी ७ १९ मा०··

हमारेसे दूर-से-दूर कोई वस्तु है, तो वह शरीर है और नजदीक से नजदीक कोई वस्तु है तो वह परमात्मा है। तात्पर्य है कि शरीर और संसार एक हैं तथा स्वयं और परमात्मा एक हैं (गीता १५ । ७) । यही ज्ञान है।

साधक संजीवनी १३ । २ परि०··

सुख-दुःखका ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उसका असर पड़ना ( विकार होना) दोषी है ।........ज्ञान किसीका भी दोषी नहीं होता; जैसे भोजन करते समय जीभमें स्वादका ज्ञान होना दोष नहीं है, प्रत्युत भोजनके पदार्थोंमें राग या द्वेष होना दोष है।

साधक संजीवनी १३ । ६··

किसीको पौत्रके जन्म तथा पुत्रकी मृत्युका समाचार एक साथ मिला। दोनों समाचार सुननेसे एकके 'जन्म' तथा दूसरेकी 'मृत्यु' का जो ज्ञान हुआ, उस 'ज्ञान' में कोई अन्तर नहीं आया। जब ज्ञानमें भी कोई अन्तर नहीं आया, तो फिर 'ज्ञाता' में अन्तर आयेगा ही कैसे।

साधक संजीवनी १५ । ९··

बोधमें विवेक कारण है, बुद्धि नहीं।

साधक संजीवनी १८ । १६ परि०··

संसारका ज्ञान इन्द्रियोंसे होता है, इन्द्रियोंका ज्ञान बुद्धिसे होता है और बुद्धिका ज्ञान 'मैं' से होता है। वह 'मैं' बुद्धि, इन्द्रियाँ और विषय - इन तीनोंको जानता है । परन्तु उस 'मैं' का भी एक प्रकाशक है, जिसमें 'मैं' का भी भान होता है।

साधक संजीवनी १८ । २०··

ज्ञान होनेपर नयापन कुछ नहीं दीखता अर्थात् पहले अज्ञान था, अब ज्ञान हो गया – ऐसा नहीं दीखता । ज्ञान होनेपर ऐसा अनुभव होता है कि ज्ञान तो सदासे ही था, केवल मेरी दृष्टि उधर नहीं थी। अगर पहले अज्ञान था, पीछे ज्ञान हो गया - ऐसा मानें तो ज्ञानमें सादिपना आ जायगा, जबकि ज्ञान सादि नहीं है, अनादि है। जो सादि होता है, वह सान्त होता है और जो अनादि होता है, वह अनन्त होता है।

साधक संजीवनी १८ । ७३ परि० टि०··

तत्त्वप्राप्तिके उद्देश्यसे सत् असत् का विचार करते-करते जब असत् छूट जाता है, तब 'संसार है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं' इस विचारका उदय होता है। विचारका उदय होते ही विवेक बोधमें परिणत हो जाता है अर्थात् संसार लुप्त हो जाता है। और तत्त्व प्रकट हो जाता है।

साधक संजीवनी १८ । ७३ परि० टि०··

मुक्ति, ज्ञान, प्रेम आदि सब उस परमात्माका ही दिया हुआ है। यह प्रकृतिका कार्य नहीं है। अगर 'मैं मुक्तस्वरूप हूँ'– यह बात सच्ची है तो फिर बन्धन कहाँसे आया, कैसे आया, कब आया और क्यों आया? अगर 'मैं ज्ञानस्वरूप हूँ' – यह बात सच्ची है तो फिर अज्ञान कहाँसे आया, कैसे आया, कब आया और क्यों आया ? सूर्यमें अमावसकी रात कैसे आ सकती है ? वास्तवमें ज्ञान है तो परमात्माका, पर मान लिया अपना, तभी अज्ञान आया है।

साधक संजीवनी १० । ४१ परि०··

ज्ञान अथवा जाननेकी शक्ति प्रकृतिमें नहीं है। प्रकृति एकरस रहनेवाली नहीं है, प्रत्युत प्रतिक्षण बदलनेवाली है। अगर प्रकृतिमें ज्ञान होगा तो वह ज्ञान भी एकरस न रहकर बदलनेवाला हो जायगा। जो ज्ञान पैदा होगा, वह सदाके लिये नहीं होगा, प्रत्युत अनित्य होगा। अगर कोई माने कि ज्ञान प्रकृतिमें ही है तो उसी प्रकृतिको हम परमात्मा कहते हैं, केवल शब्दोंमें फर्क है। तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञान प्रकृतिमें नहीं है, अगर है तो वही परमात्मा है।

साधक संजीवनी १० । ४१ परि०··

मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये – इन दो बातोंपर खास ध्यान दो तो आपको असली ज्ञान हो जायगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १७१··

जो तत्त्वज्ञान चाहते हैं, उनके लिये तो यह बहुत ही सुगम बात है कि अपनी कोई चीज है ही नहीं । मात्र इतना माननेसे कितना ही झंझट मिट जायगा। पढ़ना, सुनना, समझना, श्रवण करना, मनन करना, निदिध्यासन करना, ध्यान करना, समाधि करना, सविकल्प - निर्विकल्प करना, सबीज - निर्बीज करना, सब आफत मिट जायगी।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९६ - १९७··

जहाँ 'मैं' होता है, वहाँ 'जानकार' नहीं होता और जहाँ 'जानकार' होता है, वहाँ 'मैं' नहीं होता । जानना व्यक्तिगत नहीं होता । व्यक्तिगत जानना पण्डिताई होती है। अहम् ( मैंपन ) के साथ जो जानना होता है, उसमें अभिमान होता है; परन्तु अहम्के बिना जो जानना होता है, उसमें अभिमान नहीं होता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३२··

जबतक मन-बुद्धि - इन्द्रियाँ - अहम् साथमें हैं, तबतक अज्ञान है, बोध नहीं है । अभ्याससे एक नयी स्थिति बनती हैं, बोध नहीं होता । असली बोध नींदसे आँख खुलनेकी तरह अचानक होता है । यह कृपासे होता है, अपने उद्योगसे नहीं । कृपा कब, किस समय, कैसे होती है - यह भगवान् ही जानें।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३२··

तत्त्वज्ञान होता है — अतत्त्वको छोड़नेसे । यह कपड़ा मैं नहीं हूँ, यह चमड़ी मैं नहीं हूँ, यह मांस मैं नहीं हूँ, ये हड्डियाँ मैं नहीं हूँ, ये आँतें मैं नहीं हूँ, यह खून मैं नहीं हूँ; इस प्रकार 'यह मैं नहीं हूँ, यह मैं नहीं हूँ' - ऐसा विचार करते-करते तत्त्वज्ञान हो जायगा। किसी भी वस्तुके विषय में यह विचार करो कि यह कहाँसे आयी है, तो उसके मूलकी खोज करते-करते आप तत्त्वतक पहुँच जाओगे । कारण कि सबके मूलमें एक परमात्मतत्त्व है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४७ - १४८··

जैसे मनुष्य धनका संग्रह करता है, ऐसे ही पढ़ाई करनेसे बुद्धिमें तरह- तरहकी बातोंका संग्रह हो जाता है, पर तत्त्वज्ञान नहीं होता। पढ़ाई करनेसे बातें सीख जाओगे, दूसरोंको पढ़ा दोगे, व्याख्यान दे दोगे, शंकाओंका समाधान कर दोगे, पर अपने भीतरकी गाँठ नहीं खुलेगी। ज्यों पढ़ाई अधिक करोगे, त्यों गाँठ अधिक गहरी होती जायगी। उल्टे परमात्मप्राप्तिमें बाधा लग जायगी।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०४··

बहुत-सी बातें जान (सीख) लेनेपर तत्त्वज्ञानमें बाधा लग जाती है।

स्वातिकी बूँदें १४७··

ज्ञानकी बातें सीख जाओगे तो वाचिक ज्ञानी, बद्धज्ञानी बन जाओगे। अज्ञानीकी मुक्ति हो सकती है, पर बद्धज्ञानीकी मुक्ति नहीं हो सकती।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४७ - १४८··

पढ़े-लिखे, नामी विद्वान् आदमी तो कई मिल जायँगे, पर उनमें साधक मिलना कठिन है। ऐसा मैंने खूब विचार करके देखा है। उनमें यह वहम होता है कि हम जानकार हैं। वास्तवमें जानकारी बढ़ानेसे बोध नहीं होगा, प्रत्युत भीतरकी लगनसे बोध होगा।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०४··

तत्त्वज्ञान जिज्ञासुको होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिको अथवा गृहस्थ, साधु आदिको अथवा हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदिको तत्त्वज्ञान नहीं होता।....... जिसके भीतर जिज्ञासा है, उसको तत्त्वज्ञान हो जायगा, चाहे वह कोई क्यों न हो। जिज्ञासा केवल ब्राह्मणको ही हो सकती है - ऐसा कायदा नहीं है । जिज्ञासा मुसलमान, ईसाई, यहूदी आदि किसीको भी हो सकती है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४०··

जो वस्तु कहीं है और कहीं नहीं है, वह कहीं भी नहीं है, किसी जगह भी नहीं है - केवल इस बातसे तत्त्वज्ञान हो सकता है।

स्वातिकी बूँदें ४४··

तत्त्वबोध होनेपर ऐसा नहीं होता कि मैं पहले अज्ञानी था, अब ज्ञानी हो गया, पहले बद्ध था, अब मुक्त हो गया। केवल वहम् था, वह मिट गया। पहले कण्ठी गलेमें थी, फिर अप्राप्त हो गयी, फिर मिल गयी - तीनों अवस्थाओंमें वस्तुस्थिति ज्यों की त्यों रही, केवल वहम् मिट गया।

स्वातिकी बूँदें ६०··

ज्ञानका अज्ञानसे वैर-विरोध नहीं है। अज्ञान ज्ञानके ही आश्रित रहता है। जिज्ञासा ही अज्ञानकी विरोधी है। रस्सी साँपकी विरोधी नहीं है। रस्सी तो साँपको प्रकाशित कर रही है-सर्प दीखनेमें हेतु हो रही है। रस्सीकी जिज्ञासा साँपकी विरोधी है।

स्वातिकी बूँदें ६०··

संसारमें लगे हुएको पारमार्थिक चीज नहीं मिलती, पर परमात्मामें लगे हुएको सांसारिक चीज स्वतः मिलती है । संसारमें लगे हुएको परमात्माका ज्ञान नहीं होता, पर परमात्मामें लगे हुएको परमात्माका भी ज्ञान होता है, संसारका भी । वास्तवमें संसारमें लगा हुआ संसारको जानता नहीं। यदि जानता तो अपना पतन, अहित क्यों करता ?

स्वातिकी बूँदें १०१··

सुखार्थीको लौकिक विद्या भी प्राप्त नहीं होती, फिर तत्त्वज्ञान कैसे होगा ?

स्वातिकी बूँदें १६२··

तत्त्वज्ञानसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। ज्ञान केवल अज्ञान मिटाता है, और अज्ञान मिटाकर खुद भी शान्त हो जाता है। अतः तत्त्वज्ञान अज्ञानका नाशक है।

स्वातिकी बूँदें १६६··

वास्तवमें न ज्ञान है, न अज्ञान है। आजतक कभी कोई ज्ञानी हुआ नहीं, है नहीं, होगा नहीं, हो सकता नहीं । कारण कि ज्ञानमें व्यक्तित्व नहीं है। अतः ज्ञान और ज्ञानी, अज्ञान और अज्ञानी - ये दोनों अज्ञानियोंकी दृष्टिमें ही हैं। इसलिये साधक माना हुआ है और सिद्ध स्वतः सिद्ध है।

साधन-सुधा-सिन्धु ८६··

तत्त्वज्ञानमें स्वतन्त्रता है, पर दर्शन भगवान्‌की मरजीसे होते हैं। अतः दर्शनकी अपेक्षा तत्त्वज्ञान सुगम है।

स्वातिकी बूँदें १९३··

तत्त्वज्ञान शरीरका नाश नहीं करता, प्रत्युत शरीरके सम्बन्धका अर्थात् अहंता - ममताका नाश करता है।

अमृत-बिन्दु १९४··

मूर्तिपूजा आदि जो पहले करते रहे हैं, सिद्धि (तत्त्वज्ञान) होनेके बाद भी वैसे ही करते रहना चाहिये।

स्वातिकी बूँदें ६४··

अहंरहित स्वरूपका ज्ञान ही असली ज्ञान है। अहंरहित स्वरूपके ज्ञान अर्थात् तत्त्वज्ञानके लिये दो बातें बहुत सहायक हैं - १) सुषुप्तिमें अहम् नहीं रहता, पर स्वरूप रहता है - इस प्रकार सुषुप्तिका ज्ञान तत्त्वज्ञानमें बड़ा सहायक है। २ ) अनेक योनियोंमें जानेपर अहम् बदलता है, पर सत्ता नहीं बदलती - यह ज्ञान तत्त्वज्ञानमें बड़ा सहायक है।

जीवन्मुक्तिके रहस्य २५··

तत्त्वज्ञान होनेके बाद तत्त्वनिष्ठा होनेमें समय लगता है, पर मुक्तिमें सन्देह नहीं रहता । तत्त्वज्ञमें कुछ कोमलता रहती है, पर तत्त्वनिष्ठमें स्वतः - स्वाभाविक दृढ़ता रहती है। जैसे नींद खुलनेपर कुछ देर तक आँखों में भारीपन रहता है, आँखोंको प्रकाश सहन नहीं होता, ऐसे ही तत्त्वज्ञान होनेपर पहलेका कुछ संस्कार रहता है। पर तत्त्वनिष्ठा होनेपर यह संस्कार नहीं रहता । तत्त्वज्ञका व्यवहार जलमें लकीरके समान और तत्त्वनिष्ठका व्यवहार आकाशमें लकीरके समान होता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ९०··

तत्त्वबोध होनेपर निष्ठा स्वतः होती है। अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार तत्त्वनिष्ठा होनेमें कम या अधिक समय लगता है। जैसे, शरीरकी प्रकृति अलग होनेसे किसीको जुकाम लगता है तो बहुत जल्दी ठीक हो जाता है और किसीको जल्दी ठीक नहीं होता। साधक असत्को जितनी महत्ता देता है, उतनी ही देरी लगती है और जितनी बेपरवाह करता है, उतनी ही जल्दी निष्ठा होती है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ९१··

जो भगवान्‌का आश्रय न लेकर अपना कल्याण चाहते हुए उद्योग करते हैं, उनको अपने-अपने साधनके अनुसार भगवत्स्वरूपका बोध तो हो जाता है, पर भगवान्‌के समग्ररूपका बोध उनको नहीं होता।

साधक संजीवनी ७।२९··

सब कुछ भगवान् ही हैं - यह वास्तविक ज्ञान है।

साधक संजीवनी ७। १९ परि०··