Seeker of Truth

गुरु-शिष्य

अपना कल्याण न गुरुके अधीन है, न सन्तोंके अधीन है और न ईश्वरके अधीन है, यह तो स्वयंके अधीन है— 'उद्धरेदात्मनात्मानम्' (गीता ६ । ५) ' अपने द्वारा अपना उद्धार करे। आप नहीं करोगे तो कल्याण नहीं होगा, नहीं होगा। लाखों गुरु बना लो तो भी कल्याण नहीं होगा । जब भूख भी खुद रोटी खानेसे ही मिटती है, फिर कल्याण दूसरा कैसे करेगा ?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७४··

भूख लगती है तो भोजन खुदको करना पड़ता है, रोग होता है तो दवाई खुदको लेनी पड़ती है, ऐसे ही कल्याण खुदको करना पड़ेगा। आप सोचो कि मेरा कल्याण कोई सन्त करेंगे, महात्मा करेंगे, गुरु करेंगे, तो इसमें धोखा होगा धोखा। सन्त महात्मा, गुरु भी तब कृपा करेंगे, जब आपमें लगन होगी । कितने बड़े-बड़े महात्मा हो गये, भगवान्‌के अवतार हो गये, फिर भी हमारा उद्धार क्यों नहीं हुआ ? हमारी लगनके बिना दूसरा हमारा उद्धार कर सकता ही नहीं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७०-७१··

जिसने मनुष्यशरीर दिया है, उसने अपने कल्याणके लिये विवेक भी दिया है। वह विवेक ही गुरु है। भगवान्ने पूरा काम किया है। यदि भगवान्ने मनुष्यशरीर तो दे दिया, पर कल्याणके लिये दूसरा गुरु बनाना पड़े तो अधूरा काम किया है, पूरा नहीं । जब भगवान् शरीरके निर्वाह ( अन्न-जल ) - का भी प्रबन्ध करते हैं तो क्या कल्याणका प्रबन्ध नहीं करेंगे ? क्या कल्याण अन्न- जलसे भी कमजोर है ?

स्वातिकी बूँदें ४१··

भगवान्ने मनुष्यशरीर दिया है तो साथमें विवेकरूपी गुरु भी दिया है। इसलिये आपका गुरु आपके साथमें है । यह वहम है कि गुरु मिलेगा तो ज्ञान देगा। एक मार्मिक बात है कि गुरु ज्ञान देता नहीं, प्रत्युत आपमें जो ज्ञान है, उसको ही जाग्रत् करता है। वह ज्ञान गुरुके सिवाय शास्त्र, घटना, परिस्थिति आदिसे भी जाग्रत् हो सकता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३०··

आजकल गुरु तो बना लेते हैं, पर उनकी बात मानते नहीं। क्या दशा होगी ? जो गुरुकी बात नहीं मानता, उसका कल्याण होना दूर रहा, उल्टे अपराध होगा, नरकोंकी प्राप्ति होगी। अगर बिना गुरु बनाये उनकी बात माने तो फायदा होगा, और न माने तो नुकसान नहीं होगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३९··

अगर कोई अपना कल्याण चाहे तो उसे किसीसे भी कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये। जहाँतक हो सके, गुरु नहीं बनाना चाहिये । भगवान् ने पहलेसे ही सबको विवेकरूपी गुरु दे रखा है। विवेक ही असली गुरु है, जो अपने भीतर है। आपको जो साधन ठीक समझमें आये, वह साधन करो, पर गुरु-शिष्यका सम्बन्ध मत जोड़ो। जिसके भीतर लगन है, उसके गुरु परमात्मा हैं, उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २८··

सच्चे चेलेकी जितनी आवश्यकता है, उतनी गुरुकी आवश्यकता नहीं है। सच्ची लालसा होगी तो उद्धारके लिये गुरु भी मिल जायगा, उद्धारका रास्ता भी मिल जायगा । जो सच्चे हृदयसे परमात्माकी प्राप्ति चाहता है, उसकी सहायता करनेके लिये सब-के-सब तैयार बैठे हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २८··

आप गुरुकी खोज न करके अपनी लगन बढ़ाओ, फिर गुरु, महात्मा, ग्रन्थ सब मिल जायँगे । सन्त-महात्मा भगवान्‌के नित्य अवतार हैं। वे लोगोंके उद्धारके लिये हरदम तैयार रहते हैं। उनका कभी अभाव नहीं होता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २९··

अगर सच्चे हृदयसे कल्याण चाहते हो तो गुरु-शिष्यका सम्बन्ध मत जोड़ो, प्रत्युत सत्संग करो और जो बातें अच्छी लगें, उसके अनुसार अपना जीवन बनाओ। आजकलके जमाने में गुरु बनानेसे कल्याण हो जाय – यह बात मुझे दीखती नहीं ।.......मेरी अज्ञता मानो या अभिमान मानो, पर देखनेपर, विचार करनेपर भी मुझे कोई गुरु भगवत्प्राप्त दीखता नहीं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४३··

सत्संग करो, पर किसी साधु या ब्राह्मणसे सम्बन्ध मत जोड़ो। सम्बन्ध पहलेसे ही बहुत हैं, फिर नया सम्बन्ध जोड़नेसे क्या फायदा? सत्संग करनेसे और उसके अनुसार चलनेसे तो फर्क पड़ता है, पर गुरु बनानेसे रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७१-७२··

गुरुको चेलेकी याद आती है तो उसका पतन होता है। चेलेको गुरुकी याद आती है तो वह असली चेला नहीं बना, उसने गुरुकी आज्ञाके अनुसार जीवन नहीं बनाया । गुरुका सिद्धान्त याद आना चाहिये, गुरु नहीं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४४··

आप कृपा करके स्वयं सोचो कि वास्तवमें आपका कल्याण चाहनेवाला कौन है ? ऐसा कौन साधु, ब्राह्मण, व्याख्यानदाता आदि है, जो चाहता हो कि आपका उद्धार हो जाय, आपको परमात्माकी प्राप्ति हो जाय ? जो हृदयसे हमारा कल्याण चाहे, वही हमारा गुरु है, चाहे हम मानें या न मानें, वह गुरु बने या न बने।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५५··

आप कृपा करके स्वीकार कर लो कि हम भगवान्‌के हैं तो निहाल हो जाओगे । परन्तु किसीका चेला बन जाओगे तो मुश्किल हो जायगी । गुरु बनानेमें बड़ा खतरा है । गुरु मिल गया तो भाग्य फूट जायगा । गुरुको रुपया, भेंट मिल जायगी, आप भले ही नरकोंमें जाओ, उसकी कोई परवाह नहीं।

अनन्तकी ओर ४१··

चेला बनने से आप पवित्र नहीं होओगे, पर भगवान्‌के हो जानेसे आप पवित्र हो जाओगे । भगवान्‌के तो आप पहलेसे हो ही, केवल आपको स्वीकार करना है। आप भगवान्‌के हो जाओ - यह असली चीज है। आप गुरुके हो जाओ - यह बनावटी चीज है। आप बनावटी चीजको मानकर असली चीजका तिरस्कार कर रहे हो।

अनन्तकी ओर ७७··

गुरु किसीको मत बनाओ। सत्संग करो, अच्छी बातें सुनो और उनका पालन करो। गुरु भगवान्‌को मानो। सबसे प्रथम गुरु माता है और सबसे बड़ा गुरु भगवान् हैं। आपमें कल्याणकी सच्ची लगन होगी तो सच्चा गुरु स्वतः आपको प्राप्त होगा । सच्चा गुरु नहीं मिला तो इसमें हमारी कमी है। गुरु बनाया नहीं जाता, बन जाता है।

स्वातिकी बूँदें ३६··

गुरुके नामका जप नहीं होता, प्रत्युत आज्ञा-पालन होता है। गुरुके शरीरकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत शब्दकी प्रधानता है।

स्वातिकी बूँदें ३८··

सत्संग करो, पर गुरु मत बनाओ। भगवान्‌को पकड़ो, व्यक्तिको मत पकड़ो। भगवान् पूर्ण हैं। व्यक्ति कभी पूर्ण नहीं होता। गुरु बनानेसे मनुष्य एक जगह बँध जाता है, न तो उसे सन्तोष होता है, न दूसरी जगह जा सकता है।

स्वातिकी बूँदें ४०··

वास्तवमें गुरुकी प्राप्ति है-न संसारसे सम्बन्ध रहे, न गुरुसे सम्बन्ध रहे । यदि गुरुसे सम्बन्ध जोड़ लिया तो क्या पहले कम सम्बन्ध थे ? एक नया सम्बन्ध और जोड़ लिया तो क्या लाभ?

स्वातिकी बूँदें ५९··

गुरुका खास काम है- भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़ना । गुरुको चेलेकी याद आये, चेलेको गुरुकी याद आये - यह गुरु या चेला बनना नहीं है। चेला शरीरका नहीं होता, शब्दका होता है- जो तू चेला देह को, देह खेह की खान । जो तू चेला सबदको, सबद ब्रह्म कर मान ॥ इसलिये गुरुकी बात माननेसे कल्याण होता है।

स्वातिकी बूँदें ६२··

गुरु होता है, बनाया नहीं जाता। गुरु तब होता है, जब शिष्यको तत्त्वबोध हो जाता है। यदि तत्त्वबोध नहीं हुआ है तो केवल ठगाई हुई है।

स्वातिकी बूँदें ८८··

जायदाद लेनेमें गुरुकी मुख्यता है, भगवत्प्राप्ति करनेमें शिष्यकी मुख्यता है । गुरुकी इच्छा होगी, तभी जायदाद मिलेगी । शिष्यकी लगन होगी, तभी भगवत्प्राप्ति होगी।

स्वातिकी बूँदें ११०··

अगर गुरुका देहान्त हो गया, पर उससे हमारी जिज्ञासा पूरी नहीं हुई तो दूसरा गुरु बना ले। शिष्य बनते हैं कल्याणके लिये। एक घरसे पूरी भिक्षा न मिले तो दूसरे घरमें जाते हैं।

स्वातिकी बूँदें ११०-१११··

यह नियम है कि जहाँ स्वार्थ और अभिमान आ जाता है, वहाँ अशुद्धि आ जाती है। गुरुकी बड़ी महिमा है, पर आजकल स्वार्थ और अभिमान आ जानेसे वह महिमा नहीं रही । जहाँ स्वार्थ और अभिमान होगा, वहाँ हमारा कल्याण नहीं हो सकता। अतः मेरी सम्मति यह है कि गुरु-शिष्यका सम्बन्ध न जोड़कर सत्संग करो और अच्छी बातें ग्रहण करो।

स्वातिकी बूँदें १३३··

वास्तवमें आपकी ही लगन, लालसा, मान्यता, श्रद्धा आपका कल्याण करेगी, गुरु कल्याण नहीं करेगा। गीताने साफ कहा है- 'उद्धरेदात्मनात्मानम्' ( गीता ६ । ५) 'अपने द्वारा अपना उद्धार करे'।

स्वातिकी बूँदें १३३ - १३४··

शिक्षा देनेवालोंकी, सन्त-महात्माओंकी कमी नहीं है, प्रत्युत हमारी लगनकी कमी है। कोई अच्छा गुरु मिलेगा तो हमारा उद्धार होगा- यह बात मनसे निकाल दो। केवल आपकी लगन चाहिये।

स्वातिकी बूँदें १३५··

बिना गुरु बनाये बहुत जल्दी कल्याण हो सकता है, केवल लगनकी कमी है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४३··

भगवान्‌की दी हुई विवेकशक्ति जिसमें ज्यादा प्रकट होती है, वह गुरु हो जाता है और जिसमें कम प्रकट होती है, वह शिष्य हो जाता है।

स्वातिकी बूँदें १९५··

जो प्रत्यक्ष दीखता है, वह गुरु नहीं होता। गुरु हाड़-मांसका शरीर नहीं होता । शरीरको तो मरनेपर जला देते हैं। अगर प्रत्यक्ष दीखनेवाला ही गुरु है, तो मरनेपर उनको जला दिया तो गुरु खत्म हो गया । अतः वास्तवमें गुरु व्यक्ति नहीं होता, सिद्धान्त होता है। शास्त्रोंमें गुरुको व्यक्ति मानना और व्यक्तिको गुरु मानना दोष बताया गया है। गुरु सिद्धान्त होता है, जो अटल होता है, कभी मरता नहीं। जो खुद अमर होगा, वही अमर बनायेगा । जो खुद मरता है, वह अमर कैसे बनायेगा ? गुरु अविनाशी होता है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८६··

गुरु और राजाके द्वारा समझानेपर भी मनुष्य स्वयं उनकी बातको वास्तविकतासे नहीं समझेगा, उनकी बातको नहीं मानेगा, तबतक गुरुका ज्ञान और राजाका शासन उसके काम नहीं आयेगा । अन्तमें स्वयंको ही मानना पड़ेगा और वही उसके काम आयेगा।

साधक संजीवनी १० । ४१ वि०··

व्यक्तिमें दोष दीखनेपर भी हम उसमें गुरुभाव करते हैं, उसपर जबर्दस्ती श्रद्धा करते हैं तो इससे साधकका बड़ा नुकसान होता है। जिसपर श्रद्धा न बैठे, उसको छोड़ ही देना चाहिये। परन्तु उसकी निन्दा नहीं करनी चाहिये।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४० - १४१··

वास्तवमें गुरु बनाया नहीं जाता, प्रत्युत गुरु बन जाता है। जिससे ज्ञान-प्रकाश मिले, वही गुरु है। दत्तात्रेयजीने चौबीस गुरु बनाये, पर उन गुरुओंको मालूम ही नहीं कि हमारा कोई शिष्य है । पिंगलाके गुरु दत्तात्रेय बन गये और दत्तात्रेयकी गुरु पिंगला बन गयी, पर दोनोंको एक- दूसरेका पता ही नहीं।

सत्संगके फूल १५६··

अच्छी बातें सुनो, उनको काममें लाओ, पर जहाँतक बने, गुरु मत बनाओ। आपका चेला है रुपया और रुपयेका चेला है गुरु, तो वह गुरु आपका पोता चेला हुआ, फिर वह आपका कल्याण कैसे करेगा ? रुपयेकी चाहनावाला कल्याण नहीं कर सकता। आपके मनमें दया आये, प्रेम आये तो उसको रुपया दे दो, पर गुरु मत बनाओ।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५३··

लोग कहते हैं कि अच्छा सन्त, गुरु नहीं मिलता, पर आप जबतक अच्छे नहीं होंगे, तबतक वे नहीं मिलेंगे। आप अच्छे हो जाओ तो बढ़िया से बढ़िया गुरु, सन्त, ग्रन्थ मिल जायँगे; अच्छी युक्तियाँ मिल जायँगी। इसलिये केवल अपनी लगन बढ़ाओ। भोजन बढ़िया मिल जायगा, पर भूख अपनी चाहिये। भूख नहीं हो तो बढ़िया भोजनसे भी क्या होगा? आप सच्चे हृदयसे लगन लगाओ तो सब चीजें मिलनेको तैयार हैं। अच्छे-अच्छे महात्मा आपको ढूँढ़ेंगे। आम पककर तैयार हो जाय तो तोता अपने-आप उसके पास आता है। आप तैयार हो जाओ तो अच्छे सन्त, अच्छे ग्रन्थ, अच्छी युक्तियाँ खुद आपके पास आयेंगी।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ २४-२५··

जैसे छोटे बालकको किसीकी जरूरत नहीं होती। उसकी गरज माँ करती है। ऐसे ही आपको जरूरत नहीं है, गुरु आपकी गरज करेगा। यह सच्ची बात है, आप मानो चाहे मत मानो । आप गुरुकी खोज करते हो तो क्या बालक माँकी खोज करता है ? खोज गुरु करे, हम क्यों करें ? माँको जितनी गरज है, उतनी बालकको नहीं है। इसी तरह गुरुको जितनी गरज है, उतनी चेलेको नहीं है। इसलिये आप निश्चिन्त रहो। गुरु अपने-आप मिलेंगे।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९६··

अगर अपना कल्याण चाहते हो तो रात-दिन भगवान्‌के नामका जप करो और यह पुकारो कि 'हे नाथ। हे प्रभो । हे स्वामिन्। मैं आपको भूलूँ नहीं। आपके चरणोंमें मेरा चित्त लग जाय ' । अभी ढूँढ़ो तो सही मार्ग बतानेवाले सन्त महात्मा मिलेंगे नहीं, पर आप सच्चे हृदयसे भगवान्‌में लग जाओ तो वे स्वयं आकर आपको बतायेंगे । इतना ही नहीं, गुप्त रीतिसे रहनेवाले सन्त- महात्मा भी आपके सामने प्रकट हो जायँगे।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३४ - १३५··

स्त्रीको किसी भी पुरुषके साथ सम्बन्ध नहीं जोड़ना चाहिये। उसके लिये गुरुका ज्ञान बहुत भयंकर है, व्यभिचारकी जड़ है। मैं तो इसको बिल्कुल अच्छा नहीं मानता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२६··

जो हृदयके अन्धकारको दूर कर दे, ऐसा ठीक तत्त्वको जाननेवाला गुरु आजकल देखनेमें नहीं आता। पहलेके सन्तोंकी पुस्तकें पढ़नेपर भी पूरा सन्तोष नहीं होता। असली गुरु अथवा जानकार पुरुष वही होते हैं, जिनमें द्वैत-अद्वैत आदिका कोई मतभेद नहीं होता। परन्तु ऐसे गुरु देखने-सुनने में बहुत कम आते हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २८··

कई गुरु बनते हैं, पर वे गुरु नहीं हैं, प्रत्युत आपके पोताचेला हैं। आपका चेला (दास) है पैसा और पैसेका चेला है वह गुरु । गुरुके मनमें आपसे पैसा ( भेंट- पूजा, मान-बड़ाई) लेनेकी है तो वह आपका पोताचेला हुआ, गुरु कैसे हुआ ? गुरु वह होता है, जो आपसे कुछ नहीं चाहता, केवल आपका कल्याण चाहता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०५··

वास्तवमें हमारा वही है, जो सच्चे हृदयसे हमारा कल्याण चाहे । आप विचार करो कि क्या गुरुके मनमें आपके कल्याणकी लगन, चिन्ता है ? जिसके मनमें आपके कल्याणकी चिन्ता ही नहीं, जो आपकी सद्गति होगी या दुर्गति होगी - इसका विचार ही नहीं करता, वह आपका गुरु कैसे हुआ ?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५४··

मेरा गुरु बनाने या नहीं बनानेका कोई आग्रह नहीं है। मेरा खास कहना यह है कि आप पाखण्डियोंसे बचो, नहीं तो बड़ी दुर्दशा होगी। आपको वहम हो जायगा कि गुरु बना लिया और निश्चिन्त हो जाओगे, पर नरकोंमें जाओगे।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २००··

ज्ञानमार्गमें गुरुकी जितनी आवश्यकता है, उतनी आवश्यकता भक्तिमार्गमें नहीं है। कारण कि भक्तिमार्ग में साधक सर्वथा भगवान्‌के आश्रित रहकर ही साधन करता है, इसलिये भगवान् स्वयं उसपर कृपा करके उसके योगक्षेमका वहन करते हैं (गीता ९ । २२), उसकी कमियोंको, विघ्न बाधाओंको दूर कर देते हैं (गीता १८ । ५८) और उसको तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति करा देते हैं (गीता १० | ११ ) । परन्तु ज्ञानमार्गमें साधक अपनी साधनाके बलपर चलता है, इसलिये उसमें कुछ सूक्ष्म कमियाँ रह सकती हैं।

साधक संजीवनी १३ । ७··

मैं गुरुकी निन्दा नहीं करता हूँ। मैं रोजाना व्याख्यानमें गुरुको नमस्कार करता हूँ। परन्तु आजकल पाखण्डका जमाना है। सिवाय ठगीके कुछ नहीं है। जो कहता है कि चेला बन जाओ, फिर बतायेंगे, वह बिलकुल ठग है...... बिलकुल ठग है...... बिलकुल ठग है। दुकानदारीके सिवाय कुछ नहीं है। जो असली सन्त महात्मा हैं, उनके हृदयमें उदारता भरी रहती है। वे प्राणिमात्रका कल्याण चाहते हैं—'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भा० ३ । २५। २१ ) । वे कल्याणकी बात हरेक आदमीको बतानेके लिये तैयार रहते हैं। वे किसीसे कुछ नहीं चाहते, नमस्कार भी नहीं।

अनन्तकी ओर ४१··

गुरुकी महिमा बहुत है, पर शिष्यकी दृष्टिसे है, गुरुकी दृष्टिसे नहीं।

स्वातिकी बूँदें १२··

गुरुका कर्तव्य है - शिष्यका कल्याण करना। अगर गुरु अपने कर्तव्यका पालन न करे तो उसका नाम तो गुरु रहेगा, पर उसमें गुरुत्व नहीं रहेगा। गुरुत्व न रहनेसे उसमें शिष्यका दासत्व रहेगा। जबतक गुरु शिष्यसे कुछ भी ( धन, मान, बड़ाई आदि) चाहता है, तबतक उसमें गुरुत्व न रहकर शिष्यकी दासता रहती है।

साधक संजीवनी १३ । ७ वि०··

जो दुनियाका गुरु बनता है, वह दुनियाका गुलाम हो जाता है और जो अपने आपका गुरु बनता है, वह दुनियाका गुरु हो जाता है।

अमृत-बिन्दु १४४··

जो दूसरेका उद्धार करनेमें समर्थ न हो, उसे गुरु बननेका अधिकार नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८२··

चेला बनानेवाले बड़ा अपराध करते हैं कि चेलेकी पूर्ति (कल्याण) तो कर सकते नहीं और चेलेको अटका देते हैं-कहीं जाने देते नहीं।

सत्संगके फूल १४७··

गुरु बनना बड़े खतरेकी बात है। सच्चे सन्त प्रायः गुरु बनते नहीं - ऐसा मैंने सुना है; क्योंकि गुरु बननेसे अपना भी नुकसान है, शिष्यका भी नुकसान है। चेला बना ले और उद्धार न कर सके तो कितना बड़ा धोखा हो जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०५··

अच्छे महापुरुष किसीको शिष्य नहीं बनाते, अगर बनाते हैं तो उसका उद्धार करना पड़ता है; क्योंकि उसको अपने यहाँ रोक लिया, नहीं तो वह कहीं और शिष्य बनता।

ज्ञानके दीप जले १२८··

चेला बनाना कोई तमाशा नहीं है, बड़ी भारी जिम्मेवारी है। उसका कल्याण करना होगा। जिसमें कल्याण करनेकी ताकत नहीं हो, उसे चेला नहीं बनाना चाहिये। जिसको खुद तैरना नहीं आता, वह अगर डूबते हुएको बचाने जायगा तो वह इसको पकड़ेगा, यह उसको पकड़ेगा, दोनों ही बढ़िया रीतिसे डूबेंगे। क्योंकि हाथ-पैर हिला सकेंगे नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११३··

जो गुरु कल्याण कर सकता है, वह कभी नहीं कहेगा कि पहले गुरु बनाओ, फिर बताऊँगा । जो ऐसा कहेगा, वह कल्याण नहीं कर सकेगा। सच्चा गुरु चेला बनाये बिना भी कल्याण कर देगा, ऐसी मेरी धारणा है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०१··

जिनके मनमें गुरु बननेकी ज्यादा इच्छा है, उनके द्वारा गुरु बनानेकी बातका ज्यादा प्रचार किया गया है। जब हम भगवान्‌के साक्षात् अंश हैं, तब बीचमें नया सम्बन्ध बनानेकी क्या जरूरत है ? जो वास्तवमें गुरु बननेके लायक हैं, उनके भीतर शिष्य बनानेकी इच्छा नहीं होती। जिसके भीतर इच्छा होती है, वह छोटा होता है। जिसे खुद चाहिये, वह दूसरेको क्या देगा ?

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६६··

जो गुरु अपनेमें श्रद्धा कराता है, वह बड़ी हानि करता है। जो अपनेमें लगाता है, वह कालनेमि होता है। जो अपनेसे सम्बन्ध जोड़ने देते हैं, वे भी घोर अन्याय करते हैं। विवाहमें ब्राह्मण कन्याका वरके साथ सम्बन्ध जोड़ता है, न कि अपने साथ। इसी तरह गुरुको चेलेका सम्बन्ध भगवान्‌के साथ जोड़ना चाहिये, न कि अपने साथ।

स्वातिकी बूँदें १५३ - १५४··

गुरु वही ज्ञान जाग्रत् करता है, जो हमारेमें पहलेसे विद्यमान है। जो हमारेमें विद्यमान नहीं है, ऐसा ज्ञान गुरु दे सकता ही नहीं।

सागरके मोती ७५··

गुरु शिष्यको कुछ देते नहीं हैं, प्रत्युत शिष्यके भीतर जो है, उसे जाग्रत् करते हैं। मैंने शिष्यको दिया है—यह अभिमान गुरुमें नहीं होता, यदि होता है तो वह गुरु कहलाने लायक नहीं है।

स्वातिकी बूँदें १२··

तुम मेरे (चेले) हो - यह काम डाकू करता है, सन्त अथवा भगवान् नहीं। मेरे चेले बन जाओ - ऐसा कहनेवालेको कालनेमि समझना चाहिये। असली सन्त चेला नहीं बनाते, गुरु बनाते हैं।

स्वातिकी बूँदें १२··

आजकलके जमानेमें ठगाई बहुत है। नकली चीजें बहुत हो गयी हैं। साधु भी नकली, गृहस्थ भी नकली, ब्राह्मण भी नकली, क्षत्रिय भी नकली, वैश्य भी नकली । असलीकी पहचान होती नहीं । जिस गुरुके मनमें चेला बनानेकी इच्छा होती है, वह वास्तवमें गुरु नहीं, चेलादास है । जिसके मनमें रुपयोंकी इच्छा है, जिसको रुपये चाहिये, वह रुपयोंका दास है। जिसे मान-बड़ाई चाहिये, वह मान बड़ाईका दास है। वह आपका कल्याण कैसे करेगा ?

अनन्तकी ओर १५५··

आजकल सब चीज नकली मिल रही है तो क्या गुरु असली मिलेगा । ऐसे गुरुको तो दूरसे ही नमस्कार करो। नजदीक जाओगे तो कोई-न-कोई आफत आयेगी। भगवान्‌की कृपासे सब कुछ होगा। आप कृपाका सहारा लेकर चल पड़ो।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६७··

गुरु बनकर अपनी पूजा करानेवाला भगवद्रोही हैं, वैसे ही जैसे राजद्रोही होता है। उसके पूजनसे कल्याण नहीं होता। तत्त्वज्ञ महापुरुष और भगवान् में कोई भेद नहीं होता, पर वे महापुरुष अपनी पूजा नहीं करवाते । गुरुकी वाणी श्रेष्ठ होती है। गुरु तत्त्व है । गुरु मनुष्य नहीं होता। सच्चे गुरु भगवान्‌का ही पूजन करवाते हैं, अपना नहीं।

स्वातिकी बूँदें ३६··

शरीरको अपना स्वरूप मानना पशुबुद्धि है। अतः अपनी फोटो देना और पुजवाना पशुबुद्धि है, आसुरी सम्पत्ति है। अपनी फोटो पुजवानेवाला भगवद्रोही है, क्योंकि जहाँ भगवान्‌की पूजा होनी चाहिये, वहाँ वह अपनी पूजा करवाता है।

स्वातिकी बूँदें ३७··

पूजन मनुष्यका नहीं, भगवान्‌का ही होना चाहिये। आरती करनी हो तो भगवान्की ही करो।

अनन्तकी ओर ७९··

जो चीज मूल्य देकर मिलती है, वह उससे कमजोर ही होगी। मुक्तिकी बिक्री नहीं होती। जो कहता है कि पहले मेरा चेला बनो, फिर बताऊँगा, वहाँ समझो कि कोई कालनेमि है।

स्वातिकी बूँदें ३६··

गुरुके दिये मन्त्रमें शक्ति तभी आयेगी, जब गुरुमें शक्ति हो, वह जीवन्मुक्त हो।

स्वातिकी बूँदें ३८··

चेला बननेपर ही बात बतायें - यह साम्प्रदायिक चीज हो सकती है, पर महात्माओंकी यह रीति नहीं है।

स्वातिकी बूँदें ३९··

जो कहते हैं कि चेला बन जाओ तो ज्ञान देंगे, उनके पास ज्ञान नहीं है। जिसके भीतर चेला बनानेकी चाह है, वह तो चेलादास है, वह गुरु कैसे बनेगा ? गुरु वही होता है, जिसमें किंचिन्मात्र भी कोई चाह नहीं होती।

ज्ञानके दीप जले १२९··

हमारा कल्याण वही कर सकता है, जो हमसे कुछ नहीं चाहता।

ज्ञानके दीप जले १९९··

जिसके भीतर शिष्य बनानेकी इच्छा है, रुपयोंकी इच्छा है, मकान (आश्रम आदि) बनानेकी इच्छा है, मान-बड़ाईकी इच्छा है, अपनी प्रसिद्धिकी इच्छा है, उसके द्वारा दूसरेका कल्याण होना तो दूर रहा, उसका अपना कल्याण भी नहीं हो सकता।

क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ६··

गुरु, सन्त और भगवान् भी तभी उद्धार करते हैं, जब मनुष्य स्वयं उनपर श्रद्धा-विश्वास करता है, उनको स्वीकार करता है, उनके सम्मुख होता है, उनकी आज्ञाका पालन करता है। अगर मनुष्य उनको स्वीकार न करे तो वे कैसे उद्धार करेंगे ? नहीं कर सकते।

क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? २९··

आजकलके गुरु चेलेको अपना बनाते हैं, पर पुरानी रीतिमें सन्त महात्मा भगवान्‌का बनाते थे कि अब तुम भगवान् के हो गये। चेलेको भी विश्वास हो जाता कि गुरु महाराजने कह दिया तो मैं भगवान्‌का हो गया। महाराजकी बातको भगवान् कैसे टालेंगे ? अब भगवान्‌को मुझे स्वीकार करना ही पड़ेगा। इसलिये गुरुके पास जाकर चेला भगवान्‌का भक्त बन जाता था। इस प्रकार चेलेकी अहंताको बदल देना ही दीक्षा कहलाती थी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७··

सच्चा गुरु अथवा सन्त वह होता है, जो अपना कल्याण कर चुका है और जिसके भीतर दूसरेके कल्याणके सिवाय दूसरी कोई इच्छा नहीं है, जिसमें अपने स्वार्थकी गन्ध भी नहीं है, जो स्वप्नमें भी हमारेसे कोई चाहना नहीं रखता, जिसका संसारसे कुछ लेना-देना नहीं है, सिवाय उद्धारके संसारसे कोई मतलब नहीं है। परन्तु ऐसा गुरु बहुत दुर्लभ है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५२-५३··

आप भगवान्के साक्षात् अंश हो । मेरी तो यह प्रार्थना है कि आप किसी गुरुके फँदेमें न फँसकर सच्चे हृदयसे भगवान्‌के शरण हो जाओ। भगवान्से प्रार्थना करो कि 'हे नाथ। मैं आपको भूलूँ नहीं'। भगवान् जगत्के गुरु हैं- 'कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्' । भगवान्‌को अपना गुरु मानो, आपका कल्याण होगा। किसी मनुष्यके फेरमें मत पड़ो। आजकल ठगाई बहुत होती है।

अनन्तकी ओर १५०- १५१··

जैसे वर्षा नहीं होनेपर खेती नहीं होती, अकाल पड़ जाता है, ऐसे आज गुरुका अकाल पड़ गया है । गुरुकी फसल आयी ही नहीं। इसलिये आप भगवान्‌को गुरु मानो।

बन गये आप अकेले सब कुछ ३९··

भगवान्‌के साथ हमारा सम्बन्ध स्वतन्त्र है, किसीके अधीन नहीं है । बीचमें दूसरेकी आशा रखते हो, दूसरेसे सम्बन्ध जोड़ते हो, यह बाधा होती है। केवल भगवान् हैं और आप हैं, बीचमें किसी दलालकी जरूरत नहीं है। आप सच्चे हृदयसे भगवान्‌के शरण हो जाओ और 'हे नाथ । हे नाथ।' पुकारो। स्वप्नमें भी किसीकी जरूरत नहीं है। भगवान्‌का जो नाम प्यारा लगता हो, उसका जप करो और प्रार्थना करो कि 'हे नाथ। मैं आपको भूलूँ नहीं'। आपका कल्याण जरूर होगा, इसमें सन्देह नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०७··

भगवान्से सम्बन्ध जोड़नेके लिये दलालकी जरूरत नहीं है। गुरु जिसकी बात बतायेगा, उस भगवान्‌ के साथ सबका सीधा सम्बन्ध है - ' ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५ । ७); 'ईस्वर अंस जीव अबिनासी' (मानस, उत्तर० ११७ । १) । भगवान् हमारे परमपिता हैं। उनके और हमारे बीचमें पीढ़ियाँ नहीं पड़तीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६६··

भगवान् श्रीकृष्णको गुरु मान लो – ' कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्' और गीताको उनका मन्त्र मान लो। गुरु अनजाया (जो जन्मा हुआ न हो, जन्म-मरणसे रहित ) होना चाहिये।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २८··