Seeker of Truth

एकता

एक सन्तरेकी एकता होती है, एक खरबूजेकी एकता । सन्तरा बाहरसे एक दीखता है, पर भीतरसे अलग-अलग होता है। खरबूजा बाहरसे (रेखाओंके कारण) अलग-अलग दीखता है, पर भीतरसे एक होता है। आजकलकी एकता सन्तरेकी एकता है, पर पुरानी एकता खरबूजेकी एकता थी । व्यवहारमें सब अलग-अलग थे, पर सुख-दुःखमें सब एक थे।

स्वातिकी बूँदें १५५··

आज कहते हैं कि एक होनेसे लड़ाई मिट जायगी, पर वास्तवमें लड़ाई बाहरसे एकता करनेसे नहीं मिटेगी, प्रत्युत स्वार्थके त्याग और परहितके भावसे मिटेगी। वास्तविक एकता स्वार्थके त्याग और दूसरेके हितके भावसे ही होगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८७··

लड़ाई विभिन्न जातियोंमें नहीं होती, प्रत्युत एक जातिमें होती है। क्या कभी ब्राह्मणों और चमारोंमें लड़ाई हुई है ? महाभारतका युद्ध क्या जातिके कारण हुआ है ? गहरा विचार करें। लड़ाई वहाँ होती है, जहाँ दोनों पक्षोंका एक ही जगह स्वार्थ हो, एक ही जीविका हो । परन्तु आपकी जीविका अलग हो, मेरी जीविका अलग हो तो लड़ाई क्यों होगी ? दूसरेके स्वार्थमें हम बाधा देंगे, तब लड़ाई होगी। अतः लड़ाई होनेमें जाति कारण नहीं है, प्रत्युत स्वार्थ कारण है। आज जो सबमें एकता करते हैं, यह लड़ाईका बड़ा भारी कारण है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९७··

आजकल समाजमें एकताके बहाने वर्ण आश्रमकी मर्यादाको मिटानेकी कोशिश की जा रही है, तो यह बुराई एकतारूप अच्छाईके वेशमें आनेसे बुराईरूपसे नहीं दीख रही है। अतः वर्ण आश्रमकी मर्यादा मिटनेसे परिणाममें लोगोंका कितना पतन होगा, लोगोंमें कितना आसुरभाव आयेगा - इस तरफ दृष्टि ही नहीं जाती।

साधक संजीवनी २।५··

व्यवहारमें अलग-अलग भेद हैं, पर तत्त्वमें भेद नहीं है। व्यवहारमें एकता पशुता है, मनुष्यता नहीं। तत्त्वमें भेद होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं । परन्तु व्यवहारमें एकता होती ही नहीं, हो सकती ही नहीं। किसीको तर्जनी दिखायें और किसीको अँगूठा दिखायें तो दोनोंमें भेद है। पर भेद होनेपर भी हाथ एक है। इसलिये व्यवहारमें भेद रखते हुए भी भीतरमें भेद न हो, प्रत्युत सबके हितका भाव हो ।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६८··

मात्र शरीर (संसार) भी एक है और मात्र शरीरी (जीव) भी एक है तथा अपरा और परा- ये दोनों जिसकी शक्तियाँ हैं, वे परमात्मा भी एक हैं। अतः शरीरोंकी दृष्टिसे, आत्माकी दृष्टिसे और परमात्माकी दृष्टिसे तीनों ही दृष्टियोंसे हम सब एक हैं, अनेक नहीं हैं।

साधक संजीवनी ७।३० अ०सा०··

मनुष्यमात्रको यह शिक्षा लेनी चाहिये कि वह अपने घरोंमें, मुहल्लोंमें, गाँवोंमें, प्रान्तोंमें, देशोंमें, सम्प्रदायोंमें द्वैधीभाव अर्थात् ये अपने हैं, ये दूसरे हैं- ऐसा भाव न रखे। कारण कि द्वैधीभावसे आपसमें प्रेम, स्नेह नहीं होता, प्रत्युत कलह होती है।

साधक संजीवनी १1१··

तत्त्वज्ञानीकी ब्रह्मसे 'तात्त्विक एकता' अर्थात् सधर्मता होती है; परन्तु भक्तकी भगवान् के साथ 'आत्मीय एकता' होती है— 'ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् । तत्त्वज्ञानीकी तात्त्विक एकता ( सधर्मता) - में जीव और ब्रह्ममें अभेद हो जाता है अर्थात् जैसे ब्रह्म सत्-चित्-आनन्दस्वरूप है, ऐसे वह भी सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हो जाता है और एक तत्त्वके सिवाय कुछ नहीं रहता । परन्तु भक्तकी आत्मीय एकतामें जीव और भगवान्‌में अभिन्नता हो जाती है। अभिन्नतामें भक्त और भगवान् एक होते हुए भी प्रेमके लिये दो हो जाते हैं। उनमें दोनों ही प्रेमी और दोनों ही प्रेमास्पद होते हैं। इसलिये वे दो होते हुए भी एक ही रहते हैं।

साधक संजीवनी ७ १८ परि०··