मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका जन्मसिद्ध अधिकार है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका जन्मसिद्ध अधिकार है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३१··
परमात्मप्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है। इसमें न तो भविष्यकी अपेक्षा है और न क्रिया एवं पदार्थकी ही अपेक्षा है।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्ति तत्काल होनेवाली वस्तु है। इसमें न तो भविष्यकी अपेक्षा है और न क्रिया एवं पदार्थकी ही अपेक्षा है।- मैं नहीं, मेरा नहीं १८८
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मैं नहीं, मेरा नहीं १८८··
नित्यप्राप्त परमात्माको प्राप्त करना ही बुद्धिमानोंकी बुद्धिमानी, सज्जनोंकी सज्जनता और श्रेष्ठ पुरुषोंकी श्रेष्ठता है।
||श्रीहरि:||
नित्यप्राप्त परमात्माको प्राप्त करना ही बुद्धिमानोंकी बुद्धिमानी, सज्जनोंकी सज्जनता और श्रेष्ठ पुरुषोंकी श्रेष्ठता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४८
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४८··
परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके समान सुगम और जल्दी सिद्ध होनेवाला कार्य कोई है नहीं, था नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं। परिश्रम और देरी तो उस वस्तुकी प्राप्तिमें लगती है, जो है नहीं, प्रत्युत बनायी जाय। जो स्वतः - स्वाभाविक विद्यमान है, उसकी प्राप्तिमें परिश्रम और देरी कैसी ?
||श्रीहरि:||
परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके समान सुगम और जल्दी सिद्ध होनेवाला कार्य कोई है नहीं, था नहीं, होगा नहीं और हो सकता नहीं। परिश्रम और देरी तो उस वस्तुकी प्राप्तिमें लगती है, जो है नहीं, प्रत्युत बनायी जाय। जो स्वतः - स्वाभाविक विद्यमान है, उसकी प्राप्तिमें परिश्रम और देरी कैसी ?- साधन-सुधा-सिन्धु १४६
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साधन-सुधा-सिन्धु १४६··
मनुष्य कैसा ही हो, पापी हो या मूर्ख हो, वह परमात्मप्राप्तिका पात्र है। परमात्मप्राप्ति के लिये कोई भी कुपात्र नहीं है।
||श्रीहरि:||
मनुष्य कैसा ही हो, पापी हो या मूर्ख हो, वह परमात्मप्राप्तिका पात्र है। परमात्मप्राप्ति के लिये कोई भी कुपात्र नहीं है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १६४
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १६४··
परमात्माकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत क्रिया और पदार्थके त्यागसे अपने ही द्वारा होती है।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्ति क्रिया और पदार्थके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत क्रिया और पदार्थके त्यागसे अपने ही द्वारा होती है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ४९
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ४९··
कर्मोंसे भोग मिलेंगे, परमात्मा नहीं मिलेंगे।
||श्रीहरि:||
कर्मोंसे भोग मिलेंगे, परमात्मा नहीं मिलेंगे।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०४
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०४··
वास्तवमें परमात्माकी प्राप्तिमें शरीर अथवा संसारकी किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है। परमात्मा अपनेमें हैं; अतः कुछ न करनेसे ही उनका अनुभव होगा।......हाँ, नामजप, कीर्तन आदि साधन अवश्य करने चाहिये; क्योंकि इनको करनेसे कुछ न करनेकी सामर्थ्य आती है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें परमात्माकी प्राप्तिमें शरीर अथवा संसारकी किंचिन्मात्र भी जरूरत नहीं है। परमात्मा अपनेमें हैं; अतः कुछ न करनेसे ही उनका अनुभव होगा।......हाँ, नामजप, कीर्तन आदि साधन अवश्य करने चाहिये; क्योंकि इनको करनेसे कुछ न करनेकी सामर्थ्य आती है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १०७
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १०७··
तत्त्वप्राप्तिमें निषेधात्मक साधन मुख्य है। निषेधात्मक साधनमें साधकके लिये तीन बातोंको स्वीकार कर लेना आवश्यक है—मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है ।
||श्रीहरि:||
तत्त्वप्राप्तिमें निषेधात्मक साधन मुख्य है। निषेधात्मक साधनमें साधकके लिये तीन बातोंको स्वीकार कर लेना आवश्यक है—मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है ।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ६
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ६··
परमात्मप्राप्ति शरीरको नहीं होती, प्रत्युत साधकको होती है। साधक अशरीरी होता है।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्ति शरीरको नहीं होती, प्रत्युत साधकको होती है। साधक अशरीरी होता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३१··
जो एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं चाहता, उसको भगवान् सबसे पहले मिलते हैं; क्योंकि वह भगवानको अधिक प्रिय है।
||श्रीहरि:||
जो एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं चाहता, उसको भगवान् सबसे पहले मिलते हैं; क्योंकि वह भगवानको अधिक प्रिय है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ८५
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ८५··
कहीं जानेसे जो परमात्मा मिलेंगे, वे ही परमात्मा जहाँ हम हैं, वहाँ पूरे के पूरे हैं।
||श्रीहरि:||
कहीं जानेसे जो परमात्मा मिलेंगे, वे ही परमात्मा जहाँ हम हैं, वहाँ पूरे के पूरे हैं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये २१६
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मानवमात्रके कल्याणके लिये २१६··
जो वस्तु दूर हो, उसकी प्राप्तिके लिये मार्ग होता है। जो वस्तु सर्वव्यापक हो, सब जगह परिपूर्ण हो, उसकी प्राप्तिके लिये मार्ग नहीं होता। उसकी प्राप्ति केवल चाहनासे होती है। चाहनामात्रसे केवल परमात्मा ही मिलते हैं, और कोई वस्तु नहीं मिलती।
||श्रीहरि:||
जो वस्तु दूर हो, उसकी प्राप्तिके लिये मार्ग होता है। जो वस्तु सर्वव्यापक हो, सब जगह परिपूर्ण हो, उसकी प्राप्तिके लिये मार्ग नहीं होता। उसकी प्राप्ति केवल चाहनासे होती है। चाहनामात्रसे केवल परमात्मा ही मिलते हैं, और कोई वस्तु नहीं मिलती।- मानवमात्रके कल्याणके लिये २१७
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मानवमात्रके कल्याणके लिये २१७··
जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी हमारी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण (मन-बुद्धि) हैं। इसलिये उनसे संसार ही दीखेगा, परमात्मा कैसे दीखेंगे ?
||श्रीहरि:||
जिस धातुका संसार है, उसी धातुकी हमारी इन्द्रियाँ और अन्तःकरण (मन-बुद्धि) हैं। इसलिये उनसे संसार ही दीखेगा, परमात्मा कैसे दीखेंगे ?- सत्संग-मुक्ताहार १
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सत्संग-मुक्ताहार १··
भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं है, भोगोंकी आसक्तिका त्याग कठिन है।
||श्रीहरि:||
भगवत्प्राप्ति कठिन नहीं है, भोगोंकी आसक्तिका त्याग कठिन है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला २३६
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प्रश्नोत्तरमणिमाला २३६··
संसारमें कितने ही भोग, रुपये, मान-आदर आदि मिल जायँ, पर उनमें राजी न हों और परमात्मप्राप्तिके लिये व्याकुल हो जायँ तो बिना गुरुके, बिना उपदेशके अपने-आप परमात्मतत्त्व मिल जायगा ।
||श्रीहरि:||
संसारमें कितने ही भोग, रुपये, मान-आदर आदि मिल जायँ, पर उनमें राजी न हों और परमात्मप्राप्तिके लिये व्याकुल हो जायँ तो बिना गुरुके, बिना उपदेशके अपने-आप परमात्मतत्त्व मिल जायगा ।- सन्त समागम ३१-३२
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सन्त समागम ३१-३२··
खास काम परमात्माकी प्राप्ति करना है। दूसरा काम करें तो वह नया काम शुरू किया है ।
||श्रीहरि:||
खास काम परमात्माकी प्राप्ति करना है। दूसरा काम करें तो वह नया काम शुरू किया है ।- ज्ञानके दीप जले ५४
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ज्ञानके दीप जले ५४··
छः महीनेके बाद ध्रुवजीका जो भाव हुआ, वह पहले होता तो पहले ही भगवान् मिल जाते ।
||श्रीहरि:||
छः महीनेके बाद ध्रुवजीका जो भाव हुआ, वह पहले होता तो पहले ही भगवान् मिल जाते ।- ज्ञानके दीप जले ११५
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ज्ञानके दीप जले ११५··
भगवत्प्राप्तिका अनुभव नहीं होता हो तो संसारकी अप्राप्तिका अनुभव करो ।
||श्रीहरि:||
भगवत्प्राप्तिका अनुभव नहीं होता हो तो संसारकी अप्राप्तिका अनुभव करो ।- ज्ञानके दीप जले १६३
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ज्ञानके दीप जले १६३··
हरदम, हर रूपोंमें हमें भगवान् ही मिलते हैं।
||श्रीहरि:||
हरदम, हर रूपोंमें हमें भगवान् ही मिलते हैं।- सत्संगके फूल २६
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सत्संगके फूल २६··
तत्त्वकी प्राप्ति क्रियाके द्वारा नहीं होती। अप्राप्त वस्तुके लिये क्रिया होती है। प्राप्त तत्त्वके लिये क्रिया करोगे तो तत्त्वसे दूर हो जाओगे।
||श्रीहरि:||
तत्त्वकी प्राप्ति क्रियाके द्वारा नहीं होती। अप्राप्त वस्तुके लिये क्रिया होती है। प्राप्त तत्त्वके लिये क्रिया करोगे तो तत्त्वसे दूर हो जाओगे।- सत्संगके फूल २९
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सत्संगके फूल २९··
कुछ भी मत करो तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी। 'करने' से ही प्रकृतिके साथ सम्बन्ध होता है। कुछ भी करोगे तो अहम्के साथ सम्बन्ध रहेगा।
||श्रीहरि:||
कुछ भी मत करो तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी। 'करने' से ही प्रकृतिके साथ सम्बन्ध होता है। कुछ भी करोगे तो अहम्के साथ सम्बन्ध रहेगा।- सत्संगके फूल ३१
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सत्संगके फूल ३१··
परमात्माकी प्राप्तिमें केवल भाव और बोधकी मुख्यता है। उत्कट अभिलाषा हो तो पापी-से- पापीको भी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है ओर अभिलाषा न हो तो बड़े- बड़े पुण्यात्माको भी प्राप्ति नहीं हो सकती।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्तिमें केवल भाव और बोधकी मुख्यता है। उत्कट अभिलाषा हो तो पापी-से- पापीको भी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है ओर अभिलाषा न हो तो बड़े- बड़े पुण्यात्माको भी प्राप्ति नहीं हो सकती।- सत्संगके फूल ४६
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सत्संगके फूल ४६··
जबतक एक चेतन तत्त्वके सिवाय कल्पनासे भी अन्य (जड़) की सत्ता रहती है, तबतक तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती।
||श्रीहरि:||
जबतक एक चेतन तत्त्वके सिवाय कल्पनासे भी अन्य (जड़) की सत्ता रहती है, तबतक तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती।- सत्संगके फूल १०५
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सत्संगके फूल १०५··
जो सुगमतासे परमात्मप्राप्ति चाहता है, उसे परमात्मा कठिनतासे मिलते हैं। कारण कि सुगमताके बहाने वह शरीरका आराम चाहता है। परन्तु जो कठिनताके लिये तैयार रहता है, उसे परमात्मा सुगमता से मिल जाते हैं ।
||श्रीहरि:||
जो सुगमतासे परमात्मप्राप्ति चाहता है, उसे परमात्मा कठिनतासे मिलते हैं। कारण कि सुगमताके बहाने वह शरीरका आराम चाहता है। परन्तु जो कठिनताके लिये तैयार रहता है, उसे परमात्मा सुगमता से मिल जाते हैं ।- सत्संगके फूल ११५
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सत्संगके फूल ११५··
भगवच्चरणोंकी शरण लें और पुकार करें तो प्राप्ति हो जायगी, अन्य किसी साधनकी जरूरत नहीं।
||श्रीहरि:||
भगवच्चरणोंकी शरण लें और पुकार करें तो प्राप्ति हो जायगी, अन्य किसी साधनकी जरूरत नहीं।- सत्संगके फूल १४८
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सत्संगके फूल १४८··
भगवान् साक्षात् प्रकट हों या स्वप्नमें अथवा ध्यानमें प्रकट हों, वे एक ही हैं। अवस्था हमारेमें है, भगवान्में नहीं।
||श्रीहरि:||
भगवान् साक्षात् प्रकट हों या स्वप्नमें अथवा ध्यानमें प्रकट हों, वे एक ही हैं। अवस्था हमारेमें है, भगवान्में नहीं।- सागरके मोती ९५
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सागरके मोती ९५··
अन्न-जल सब जगह नहीं मिलते। उनको लेनेके लिये कहीं जाना पड़ता है । परन्तु श्वास लेने के लिये कहीं जाना पड़ता है ? कोई उद्योग करना पड़ता है ? परमात्मा इन श्वासोंसे भी सस्ते हैं।
||श्रीहरि:||
अन्न-जल सब जगह नहीं मिलते। उनको लेनेके लिये कहीं जाना पड़ता है । परन्तु श्वास लेने के लिये कहीं जाना पड़ता है ? कोई उद्योग करना पड़ता है ? परमात्मा इन श्वासोंसे भी सस्ते हैं।- सागरके मोती १५१
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सागरके मोती १५१··
जो अपना है, अभी है और अपनेमें है, उस तत्त्वकी प्राप्ति कुछ करनेसे नहीं होती; क्योंकि उसकी अप्राप्ति कभी होती ही नहीं। हम कुछ करेंगे, तब प्राप्ति होगी- यह भाव देहाभिमानको पुष्ट करनेवाला है।
||श्रीहरि:||
जो अपना है, अभी है और अपनेमें है, उस तत्त्वकी प्राप्ति कुछ करनेसे नहीं होती; क्योंकि उसकी अप्राप्ति कभी होती ही नहीं। हम कुछ करेंगे, तब प्राप्ति होगी- यह भाव देहाभिमानको पुष्ट करनेवाला है।- साधक संजीवनी ३ । ४ परि०
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साधक संजीवनी ३ । ४ परि०··
अपने लिये कर्म करनेसे तथा जड़ता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) लग जाती है।
||श्रीहरि:||
अपने लिये कर्म करनेसे तथा जड़ता (शरीरादि) के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे सर्वव्यापी परमात्माकी प्राप्तिमें बाधा (आड़) लग जाती है।- साधक संजीवनी ३।१५
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साधक संजीवनी ३।१५··
कर्मोंसे नाशवान् वस्तु (संसार) की प्राप्ति होती है, अविनाशी वस्तु (परमात्मा) की नहीं; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म नाशवान् (शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि) के सम्बन्धसे ही होते हैं, जबकि परमात्माकी प्राप्ति नाशवान से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है।
||श्रीहरि:||
कर्मोंसे नाशवान् वस्तु (संसार) की प्राप्ति होती है, अविनाशी वस्तु (परमात्मा) की नहीं; क्योंकि सम्पूर्ण कर्म नाशवान् (शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि) के सम्बन्धसे ही होते हैं, जबकि परमात्माकी प्राप्ति नाशवान से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर होती है।- साधक संजीवनी ३। २० मा०
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साधक संजीवनी ३। २० मा०··
सांसारिक वस्तुकी प्राप्ति इच्छामात्रसे नहीं होती; परन्तु परमात्माकी प्राप्ति उत्कट अभिलाषामात्रसे हो जाती है। इस उत्कट अभिलाषाके जाग्रत् होनेमें सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा ही बाधक है, दूसरा कोई बाधक है ही नहीं। यदि परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत् हो जाय तो अभी ही परमात्माका अनुभव हो जाय।
||श्रीहरि:||
सांसारिक वस्तुकी प्राप्ति इच्छामात्रसे नहीं होती; परन्तु परमात्माकी प्राप्ति उत्कट अभिलाषामात्रसे हो जाती है। इस उत्कट अभिलाषाके जाग्रत् होनेमें सांसारिक भोग और संग्रहकी इच्छा ही बाधक है, दूसरा कोई बाधक है ही नहीं। यदि परमात्मप्राप्तिकी उत्कट अभिलाषा अभी जाग्रत् हो जाय तो अभी ही परमात्माका अनुभव हो जाय।- साधक संजीवनी ३ । २० मा०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । २० मा०··
कामनाका त्याग करना और परमात्माको प्राप्त करना-ये दो काम नहीं हैं। कामनाका त्याग कर दें तो परमात्माकी प्राप्ति अपने आप हो जायगी। केवल कामनाके कारण ही परमात्मा अप्राप्त दीख रहे हैं।
||श्रीहरि:||
कामनाका त्याग करना और परमात्माको प्राप्त करना-ये दो काम नहीं हैं। कामनाका त्याग कर दें तो परमात्माकी प्राप्ति अपने आप हो जायगी। केवल कामनाके कारण ही परमात्मा अप्राप्त दीख रहे हैं।- साधक संजीवनी ३।३८ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३।३८ परि०··
केवल भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का ही हूँ; दूसरा कोई भी मेरा नहीं है और मैं किसीका भी नहीं हूँ' - इस प्रकार भगवान्में अपनापन करनेसे उनकी प्राप्ति शीघ्र एवं सुगमता से हो जाती है।
||श्रीहरि:||
केवल भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का ही हूँ; दूसरा कोई भी मेरा नहीं है और मैं किसीका भी नहीं हूँ' - इस प्रकार भगवान्में अपनापन करनेसे उनकी प्राप्ति शीघ्र एवं सुगमता से हो जाती है।- साधक संजीवनी ४।११
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४।११··
ऐसा एक तत्त्व या बोध है, जिसका अनुभव मेरेको हो सकता है और अभी हो सकता है- यही वास्तवमें श्रद्धा है। तत्त्व भी विद्यमान है, मैं भी विद्यमान हूँ और तत्त्वका अनुभव करना भी चाहता हूँ, फिर देरी किस बातकी ?
||श्रीहरि:||
ऐसा एक तत्त्व या बोध है, जिसका अनुभव मेरेको हो सकता है और अभी हो सकता है- यही वास्तवमें श्रद्धा है। तत्त्व भी विद्यमान है, मैं भी विद्यमान हूँ और तत्त्वका अनुभव करना भी चाहता हूँ, फिर देरी किस बातकी ?- साधक संजीवनी ४ । ३९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४ । ३९··
परमशान्तिका तत्काल अनुभव न होनेका कारण है- जो वस्तु अपने-आपमें है, उसको अपने- आपमें न ढूँढ़कर बाहर दूसरी जगह ढूँढ़ना ।
||श्रीहरि:||
परमशान्तिका तत्काल अनुभव न होनेका कारण है- जो वस्तु अपने-आपमें है, उसको अपने- आपमें न ढूँढ़कर बाहर दूसरी जगह ढूँढ़ना ।- साधक संजीवनी ४ । ३९
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साधक संजीवनी ४ । ३९··
परमात्मा किसी साधनसे खरीदे नहीं जा सकते; क्योंकि प्रकृतिके सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ मिलकर भी चिन्मय और अविनाशी परमात्माकी किंचिन्मात्र भी समानता नहीं कर सकते। दूसरी बात, मूल्य देकर जो वस्तु मिलती है, वह उस मूल्यसे कमजोर (कम मूल्यवाली) ही होती है। यदि कर्मोंसे परमात्मा मिल जायँ तो वे कमजोर ही सिद्ध होंगे।
||श्रीहरि:||
परमात्मा किसी साधनसे खरीदे नहीं जा सकते; क्योंकि प्रकृतिके सम्पूर्ण पदार्थ एक साथ मिलकर भी चिन्मय और अविनाशी परमात्माकी किंचिन्मात्र भी समानता नहीं कर सकते। दूसरी बात, मूल्य देकर जो वस्तु मिलती है, वह उस मूल्यसे कमजोर (कम मूल्यवाली) ही होती है। यदि कर्मोंसे परमात्मा मिल जायँ तो वे कमजोर ही सिद्ध होंगे।- साधक संजीवनी ५। १२ मा०
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साधक संजीवनी ५। १२ मा०··
सम्पूर्ण मनुष्योंको एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है। मुक्ति चाहे ब्राह्मणकी हो अथवा चाण्डालकी, दोनोंको एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है। भेद केवल शरीरोंको लेकर है, जो उपादेय है। तत्त्वको लेकर कोई भेद नहीं है। पहले जितने सनकादिक महात्मा हुए हैं, उनको जो तत्त्व प्राप्त हुआ है, वही तत्त्व आज भी प्राप्त होता है।
||श्रीहरि:||
सम्पूर्ण मनुष्योंको एक ही परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होती है। मुक्ति चाहे ब्राह्मणकी हो अथवा चाण्डालकी, दोनोंको एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है। भेद केवल शरीरोंको लेकर है, जो उपादेय है। तत्त्वको लेकर कोई भेद नहीं है। पहले जितने सनकादिक महात्मा हुए हैं, उनको जो तत्त्व प्राप्त हुआ है, वही तत्त्व आज भी प्राप्त होता है।- साधक संजीवनी ५। १९
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साधक संजीवनी ५। १९··
अपने लिये कुछ भी चाहना, किसी भी वस्तुको अपनी मानना और भगवान्को अपना न मानना - ये तीनों बातें भगवत्प्राप्तिमें मुख्य बाधक हैं।......इन तीनोंमेंसे एक बात भी मान लेनेसे शेष बातें स्वतः आ जाती हैं और भगवत्प्राप्ति हो जाती है।
||श्रीहरि:||
अपने लिये कुछ भी चाहना, किसी भी वस्तुको अपनी मानना और भगवान्को अपना न मानना - ये तीनों बातें भगवत्प्राप्तिमें मुख्य बाधक हैं।......इन तीनोंमेंसे एक बात भी मान लेनेसे शेष बातें स्वतः आ जाती हैं और भगवत्प्राप्ति हो जाती है।- साधक संजीवनी ५।२९
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साधक संजीवनी ५।२९··
जो अपने हैं, अपनेमें हैं, अभी हैं और यहाँ हैं, ऐसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिकी आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत्के द्वारा सत्की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत्के त्यागसे सत्की प्राप्ति होती है।
||श्रीहरि:||
जो अपने हैं, अपनेमें हैं, अभी हैं और यहाँ हैं, ऐसे परमात्माकी प्राप्तिके लिये शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धिकी आवश्यकता नहीं है। कारण कि असत्के द्वारा सत्की प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत असत्के त्यागसे सत्की प्राप्ति होती है।- साधक संजीवनी ६ । ५
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साधक संजीवनी ६ । ५··
मनुष्य भगवान्की प्राप्तिके बिना सुख-आरामसे रहता है, वह अपनी आवश्यकताको भूले रहता है । वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य में ही सन्तोष कर लेता है। अगर वह भगवान्की आवश्यकताका अनुभव करे, उनके बिना चैनसे न रह सके तो भगवान्की प्राप्तिमें देरी नहीं है। कारण कि जो नित्यप्राप्त है, उसकी प्राप्तिमें क्या देरी ? भगवान् कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि आज बोयेंगे और वर्षोंके बाद फल मिलेगा । वे तो सब देशमें, सब समयमें, सब वस्तुओंमें, सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियोंमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं। हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए।
||श्रीहरि:||
मनुष्य भगवान्की प्राप्तिके बिना सुख-आरामसे रहता है, वह अपनी आवश्यकताको भूले रहता है । वह मिली हुई वस्तु, योग्यता और सामर्थ्य में ही सन्तोष कर लेता है। अगर वह भगवान्की आवश्यकताका अनुभव करे, उनके बिना चैनसे न रह सके तो भगवान्की प्राप्तिमें देरी नहीं है। कारण कि जो नित्यप्राप्त है, उसकी प्राप्तिमें क्या देरी ? भगवान् कोई वृक्ष तो हैं नहीं कि आज बोयेंगे और वर्षोंके बाद फल मिलेगा । वे तो सब देशमें, सब समयमें, सब वस्तुओंमें, सब अवस्थाओंमें, सब परिस्थितियोंमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं। हम ही उनसे विमुख हुए हैं, वे हमसे कभी विमुख नहीं हुए।- साधक संजीवनी ७ । ३ परि०
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साधक संजीवनी ७ । ३ परि०··
वास्तवमें जो नित्यप्राप्त है, उसमें सुलभता - दुर्लभता कहना बनता ही नहीं। परन्तु लोगोंने उसको दुर्लभ (कठिन) मान रखा है।.... जिसकी खुदकी सत्ता है ही नहीं, उस असत् (शरीर-संसार) - को सत्ता और महत्ता देनेसे तथा उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही नित्यप्राप्त परमात्मा दुर्लभ हो रहे हैं। असत्को सत्ता और महत्ता न दें तो परमात्माकी प्राप्ति स्वतः सिद्ध है। असत् है और वह अपना तथा अपने लिये है- ऐसा मानना ही असत्को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ना है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें जो नित्यप्राप्त है, उसमें सुलभता - दुर्लभता कहना बनता ही नहीं। परन्तु लोगोंने उसको दुर्लभ (कठिन) मान रखा है।.... जिसकी खुदकी सत्ता है ही नहीं, उस असत् (शरीर-संसार) - को सत्ता और महत्ता देनेसे तथा उसके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही नित्यप्राप्त परमात्मा दुर्लभ हो रहे हैं। असत्को सत्ता और महत्ता न दें तो परमात्माकी प्राप्ति स्वतः सिद्ध है। असत् है और वह अपना तथा अपने लिये है- ऐसा मानना ही असत्को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ना है।- साधक संजीवनी ८। १४ परि०
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साधक संजीवनी ८। १४ परि०··
बालक माँकी गोदीमें जाय तो उसके लिये किसी विधिकी जरूरत नहीं है। वह तो अपनेपनके सम्बन्धसे ही माँकी गोदीमें जाता है। ऐसे ही मेरी (भगवान्की) प्राप्तिके लिये विधि, मन्त्र आदिकी आवश्यकता नहीं है, केवल अपनेपनके दृढ़ भावकी आवश्यकता है।
||श्रीहरि:||
बालक माँकी गोदीमें जाय तो उसके लिये किसी विधिकी जरूरत नहीं है। वह तो अपनेपनके सम्बन्धसे ही माँकी गोदीमें जाता है। ऐसे ही मेरी (भगवान्की) प्राप्तिके लिये विधि, मन्त्र आदिकी आवश्यकता नहीं है, केवल अपनेपनके दृढ़ भावकी आवश्यकता है।- साधक संजीवनी ९ । २६
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साधक संजीवनी ९ । २६··
दुराचारी - से दुराचारी और नीच-से-नीच योनिवाला भी भगवत्प्राप्तिका अधिकारी है। अतः जाति और आचरणको लेकर मनुष्यको भगवत्प्राप्तिसे निराश नहीं होना चाहिये। जाति और आचरण अनित्य तथा बनावटी हैं, पर भगवान् के साथ मनुष्यका सम्बन्ध नित्य तथा वास्तविक है। इसलिये भगवान् केवल भक्तिका नाता ( सम्बन्ध ) ही मानते हैं, जाति- आचरणका नहीं।
||श्रीहरि:||
दुराचारी - से दुराचारी और नीच-से-नीच योनिवाला भी भगवत्प्राप्तिका अधिकारी है। अतः जाति और आचरणको लेकर मनुष्यको भगवत्प्राप्तिसे निराश नहीं होना चाहिये। जाति और आचरण अनित्य तथा बनावटी हैं, पर भगवान् के साथ मनुष्यका सम्बन्ध नित्य तथा वास्तविक है। इसलिये भगवान् केवल भक्तिका नाता ( सम्बन्ध ) ही मानते हैं, जाति- आचरणका नहीं।- साधक संजीवनी ९ । ३३ परि०
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साधक संजीवनी ९ । ३३ परि०··
वर्ण, आश्रम, वेश-भूषा, जाति, सम्प्रदाय आदि अलग-अलग होते हुए भी सभी मनुष्य अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी – ये चार प्रकारके भक्त बन सकते हैं और भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं। भगवत्प्राप्तिके विषयमें सब एक हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं है। भगवत्प्राप्तिका अनधिकारी किसी भी योनिमें कोई है नहीं, हुआ नहीं होगा नहीं, हो सकता नहीं।
||श्रीहरि:||
वर्ण, आश्रम, वेश-भूषा, जाति, सम्प्रदाय आदि अलग-अलग होते हुए भी सभी मनुष्य अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी – ये चार प्रकारके भक्त बन सकते हैं और भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं। भगवत्प्राप्तिके विषयमें सब एक हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं है। भगवत्प्राप्तिका अनधिकारी किसी भी योनिमें कोई है नहीं, हुआ नहीं होगा नहीं, हो सकता नहीं।- साधक संजीवनी ९ । ३३ परि०
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साधक संजीवनी ९ । ३३ परि०··
भगवान्की प्राप्ति केवल भगवान्की कृपासे ही होती है। वह कृपा तब प्राप्त होती है, जब मनुष्य अपनी सामर्थ्य, समय, समझ, सामग्री आदिको भगवान्के सर्वथा अर्पण करके अपनेमें सर्वथा निर्बलता, अयोग्यताका अनुभव करता है अर्थात् अपने बल, योग्यता आदिका किंचिन्मात्र भी अभिमान नहीं करता। इस प्रकार जब वह सर्वथा निर्बल होकर अपने-आपको भगवान्के सर्वथा समर्पित करके अनन्यभावसे भगवान्को पुकारता है, तब भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्की प्राप्ति केवल भगवान्की कृपासे ही होती है। वह कृपा तब प्राप्त होती है, जब मनुष्य अपनी सामर्थ्य, समय, समझ, सामग्री आदिको भगवान्के सर्वथा अर्पण करके अपनेमें सर्वथा निर्बलता, अयोग्यताका अनुभव करता है अर्थात् अपने बल, योग्यता आदिका किंचिन्मात्र भी अभिमान नहीं करता। इस प्रकार जब वह सर्वथा निर्बल होकर अपने-आपको भगवान्के सर्वथा समर्पित करके अनन्यभावसे भगवान्को पुकारता है, तब भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं।- साधक संजीवनी ११ । ५३
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साधक संजीवनी ११ । ५३··
भक्तकी खुदकी जो उत्कट अभिलाषा है, उस अभिलाषामें ऐसी ताकत है कि वह भगवान्में भी भक्त से मिलनेकी उत्कण्ठा पैदा कर देती है।
||श्रीहरि:||
भक्तकी खुदकी जो उत्कट अभिलाषा है, उस अभिलाषामें ऐसी ताकत है कि वह भगवान्में भी भक्त से मिलनेकी उत्कण्ठा पैदा कर देती है।- साधक संजीवनी ११ । ५४ वि०
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साधक संजीवनी ११ । ५४ वि०··
भगवान्की प्राप्ति किसी साधन विशेषसे नहीं होती। तपस्यादि साधनोंसे जहाँ भगवान्की प्राप्ति हुई दीखती है, वहाँ भी वह जड़के साथ माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद होनेसे ही हुई है, न कि साधनोंसे। साधनकी सार्थकता असाधन (जड़के साथ माने हुए सम्बन्ध ) - का त्याग करानेमें ही है।....... भगवत्प्राप्ति जड़ताके द्वारा नहीं, प्रत्युत जड़ताके त्याग ( सम्बन्ध-विच्छेद)- से होती है। अतः जो साधक अपने साधनके बलसे भगवत्प्राप्ति मानते हैं, वे बड़ी भूलमें हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्की प्राप्ति किसी साधन विशेषसे नहीं होती। तपस्यादि साधनोंसे जहाँ भगवान्की प्राप्ति हुई दीखती है, वहाँ भी वह जड़के साथ माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद होनेसे ही हुई है, न कि साधनोंसे। साधनकी सार्थकता असाधन (जड़के साथ माने हुए सम्बन्ध ) - का त्याग करानेमें ही है।....... भगवत्प्राप्ति जड़ताके द्वारा नहीं, प्रत्युत जड़ताके त्याग ( सम्बन्ध-विच्छेद)- से होती है। अतः जो साधक अपने साधनके बलसे भगवत्प्राप्ति मानते हैं, वे बड़ी भूलमें हैं।- साधक संजीवनी १२ । ८ वि०
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साधक संजीवनी १२ । ८ वि०··
तरह- तरहकी साधनाओंसे भगवान् नहीं आते हैं। भगवान् आते हैं भीतरकी असली चाहनासे ।
||श्रीहरि:||
तरह- तरहकी साधनाओंसे भगवान् नहीं आते हैं। भगवान् आते हैं भीतरकी असली चाहनासे ।- मैं नहीं, मेरा नहीं ८
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मैं नहीं, मेरा नहीं ८··
जबतक हृदयमें जड़ताका किंचिन्मात्र भी आदर है, तबतक भगवत्प्राप्ति कठिन है।
||श्रीहरि:||
जबतक हृदयमें जड़ताका किंचिन्मात्र भी आदर है, तबतक भगवत्प्राप्ति कठिन है।- साधक संजीवनी १२ । ८ वि०
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साधक संजीवनी १२ । ८ वि०··
साधकको भगवत्प्राप्तिमें देरी होनेका कारण यही है कि वह भगवान्के वियोगको सहन कर रहा है। यदि उसको भगवान्का वियोग असह्य हो जाय, तो भगवान्के मिलनेमें देरी नहीं होगी।
||श्रीहरि:||
साधकको भगवत्प्राप्तिमें देरी होनेका कारण यही है कि वह भगवान्के वियोगको सहन कर रहा है। यदि उसको भगवान्का वियोग असह्य हो जाय, तो भगवान्के मिलनेमें देरी नहीं होगी।- साधक संजीवनी १२ । ९
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साधक संजीवनी १२ । ९··
नित्यप्राप्त परमात्माकी अनुभूति होती है, प्राप्ति नहीं। जहाँ 'परमात्माकी प्राप्ति' कहा जाता है, वहाँ उसका अर्थ नित्यप्राप्तकी प्राप्ति या अनुभव ही मानना चाहिये। वह प्राप्ति जड़तासे नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होती है। ममता, कामना और आसक्ति ही जड़ता है। शरीर, मन, इन्द्रियाँ, पदार्थ आदिको 'मैं' या 'मेरा मानना ही जड़ता है। ज्ञान, अभ्यास, ध्यान, तप आदि साधन करते-करते जब जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, तभी नित्यप्राप्त परमात्माकी अनुभूति होती है।
||श्रीहरि:||
नित्यप्राप्त परमात्माकी अनुभूति होती है, प्राप्ति नहीं। जहाँ 'परमात्माकी प्राप्ति' कहा जाता है, वहाँ उसका अर्थ नित्यप्राप्तकी प्राप्ति या अनुभव ही मानना चाहिये। वह प्राप्ति जड़तासे नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके त्यागसे होती है। ममता, कामना और आसक्ति ही जड़ता है। शरीर, मन, इन्द्रियाँ, पदार्थ आदिको 'मैं' या 'मेरा मानना ही जड़ता है। ज्ञान, अभ्यास, ध्यान, तप आदि साधन करते-करते जब जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद होता है, तभी नित्यप्राप्त परमात्माकी अनुभूति होती है।- साधक संजीवनी १२ । १२ वि०
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साधक संजीवनी १२ । १२ वि०··
भगवान्की प्राप्तिमें संसारसे वैराग्य और भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा- ये दो बातें ही मुख्य हैं। इन दोनोंमेंसे किसी भी एक साधनके तीव्र होनेपर भगवत्प्राप्ति हो जाती है। फिर भी भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठामें विशेष शक्ति है।
||श्रीहरि:||
भगवान्की प्राप्तिमें संसारसे वैराग्य और भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठा- ये दो बातें ही मुख्य हैं। इन दोनोंमेंसे किसी भी एक साधनके तीव्र होनेपर भगवत्प्राप्ति हो जाती है। फिर भी भगवत्प्राप्तिकी उत्कण्ठामें विशेष शक्ति है।- साधक संजीवनी १२ । १२ वि०
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साधक संजीवनी १२ । १२ वि०··
परमात्मतत्त्व सब देशमें है, सब कालमें है, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें है, सम्पूर्ण वस्तुओंमें है, सम्पूर्ण घटनाओंमें है, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें है, सम्पूर्ण क्रियाओंमें है। वह सबमें एक रूपसे, समान रीतिसे ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है । अब उसको प्राप्त करना कठिन है तो सुगम क्या होगा ? जहाँ चाहो, वहीं प्राप्त कर लो।
||श्रीहरि:||
परमात्मतत्त्व सब देशमें है, सब कालमें है, सम्पूर्ण व्यक्तियोंमें है, सम्पूर्ण वस्तुओंमें है, सम्पूर्ण घटनाओंमें है, सम्पूर्ण परिस्थितियोंमें है, सम्पूर्ण क्रियाओंमें है। वह सबमें एक रूपसे, समान रीतिसे ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण है । अब उसको प्राप्त करना कठिन है तो सुगम क्या होगा ? जहाँ चाहो, वहीं प्राप्त कर लो।- साधक संजीवनी १३ । २८
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साधक संजीवनी १३ । २८··
जिसे मालिकपना या अधिकार प्यारा लगता है, वह परमात्माको प्राप्त नहीं कर सकता; क्योंकि जो किसी व्यक्ति, वस्तु, पद आदिका स्वामी बनता है, वह अपने स्वामीको भूल जाता है - यह नियम है।
||श्रीहरि:||
जिसे मालिकपना या अधिकार प्यारा लगता है, वह परमात्माको प्राप्त नहीं कर सकता; क्योंकि जो किसी व्यक्ति, वस्तु, पद आदिका स्वामी बनता है, वह अपने स्वामीको भूल जाता है - यह नियम है।- साधक संजीवनी १५/८
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साधक संजीवनी १५/८··
पापी - पुण्यात्मा, मूर्ख पण्डित, निर्धन-धनवान्, रोगी नीरोग आदि कोई भी स्त्री-पुरुष किसी भी जाति, वर्ण, सम्प्रदाय, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदिमें क्यों न हो, भगवत्प्राप्तिका वह पूरा अधिकारी है । आवश्यकता केवल भगवत्प्राप्तिकी ऐसी तीव्र अभिलाषा, लगन, व्याकुलताकी है, जिसमें भगवत्प्राप्तिके बिना रहा न जाय।
||श्रीहरि:||
पापी - पुण्यात्मा, मूर्ख पण्डित, निर्धन-धनवान्, रोगी नीरोग आदि कोई भी स्त्री-पुरुष किसी भी जाति, वर्ण, सम्प्रदाय, आश्रम, देश, काल, परिस्थिति आदिमें क्यों न हो, भगवत्प्राप्तिका वह पूरा अधिकारी है । आवश्यकता केवल भगवत्प्राप्तिकी ऐसी तीव्र अभिलाषा, लगन, व्याकुलताकी है, जिसमें भगवत्प्राप्तिके बिना रहा न जाय।- साधक संजीवनी १५ १५
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साधक संजीवनी १५ १५··
परमात्माकी प्राप्ति न होनेका कारण यही है कि हम उसकी सत्ता और महत्ता स्वीकार नहीं करते और उसको अपना नहीं मानते। अगर हम उसकी सत्ता, महत्ता और अपनेपनको स्वीकार करते तो फिर वह हमें अप्राप्त नहीं लगता।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्ति न होनेका कारण यही है कि हम उसकी सत्ता और महत्ता स्वीकार नहीं करते और उसको अपना नहीं मानते। अगर हम उसकी सत्ता, महत्ता और अपनेपनको स्वीकार करते तो फिर वह हमें अप्राप्त नहीं लगता।- साधक संजीवनी १५ २० अ०सा०
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साधक संजीवनी १५ २० अ०सा०··
जो भगवान् से मुक्ति चाहता है, उसे भगवान् मुक्ति दे देते हैं, पर जो कुछ भी नहीं चाहता, उसे भगवान् अपने-आपको दे देते हैं।
||श्रीहरि:||
जो भगवान् से मुक्ति चाहता है, उसे भगवान् मुक्ति दे देते हैं, पर जो कुछ भी नहीं चाहता, उसे भगवान् अपने-आपको दे देते हैं।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
परमात्माको प्राप्त करना सम्भव है, पर शरीरको बनाये रखना असम्भव है। उम्र कम ज्यादा हो सकती है, पर शरीर सदा बना रहे - यह सम्भव नहीं है। जो बहुत बड़े चिरंजीवी हैं, उनका भी शरीर सदा बना नहीं रहता। इसलिये शरीरको बनाये रखनेकी धारणा न करके परमात्माको प्राप्त करनेकी धारणा करनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
परमात्माको प्राप्त करना सम्भव है, पर शरीरको बनाये रखना असम्भव है। उम्र कम ज्यादा हो सकती है, पर शरीर सदा बना रहे - यह सम्भव नहीं है। जो बहुत बड़े चिरंजीवी हैं, उनका भी शरीर सदा बना नहीं रहता। इसलिये शरीरको बनाये रखनेकी धारणा न करके परमात्माको प्राप्त करनेकी धारणा करनी चाहिये।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२··
भगवान्की तरफ चलनेमें विघ्न नहीं आते। वास्तवमें हमारा मन ही विघ्न है, हमारी दूसरी इच्छाएँ ही विघ्न हैं । भगवान्की तरफसे कोई विघ्न नहीं आता। हम इच्छा करते हैं कि ऐसा हो जाय, यह मिल जाय, यही विघ्न है। भगवत्प्राप्तिके किसी भी मार्गपर चलो, संसारकी इच्छा ही बाधक होती है।
||श्रीहरि:||
भगवान्की तरफ चलनेमें विघ्न नहीं आते। वास्तवमें हमारा मन ही विघ्न है, हमारी दूसरी इच्छाएँ ही विघ्न हैं । भगवान्की तरफसे कोई विघ्न नहीं आता। हम इच्छा करते हैं कि ऐसा हो जाय, यह मिल जाय, यही विघ्न है। भगवत्प्राप्तिके किसी भी मार्गपर चलो, संसारकी इच्छा ही बाधक होती है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५८··
एक बहुत मार्मिक बात है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर परमात्मप्राप्तिमें न साधक हैं, न बाधक हैं। ये तटस्थ हैं।
||श्रीहरि:||
एक बहुत मार्मिक बात है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीर परमात्मप्राप्तिमें न साधक हैं, न बाधक हैं। ये तटस्थ हैं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ७७
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ७७··
आपने परमात्माकी प्राप्तिको कठिन मान रखा है, पर वास्तवमें यह कठिन नहीं है। परमात्मप्राप्ति कठिन है - आपकी इस मान्यताके कारण परमात्मप्राप्ति कठिन है, और इस मान्यताको छुड़ाना कठिन है। परमात्मा तो अपने हैं। अपनी माँकी गोदीमें जानेमें क्या कठिनता है? इसमें क्या अपनी किसी योग्यता, विद्या, बुद्धि, बल, धन, आदिकी जरूरत पड़ती है? केवल अपनेपनकी जरूरत है।
||श्रीहरि:||
आपने परमात्माकी प्राप्तिको कठिन मान रखा है, पर वास्तवमें यह कठिन नहीं है। परमात्मप्राप्ति कठिन है - आपकी इस मान्यताके कारण परमात्मप्राप्ति कठिन है, और इस मान्यताको छुड़ाना कठिन है। परमात्मा तो अपने हैं। अपनी माँकी गोदीमें जानेमें क्या कठिनता है? इसमें क्या अपनी किसी योग्यता, विद्या, बुद्धि, बल, धन, आदिकी जरूरत पड़ती है? केवल अपनेपनकी जरूरत है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८२
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८२··
संसारकी सब चाहना मिटते ही भगवान्की चाहना पूरी हो जायगी अर्थात् भगवान् मिल जायँगे । संसारकी इच्छा छूट जायगी तो भगवान् बिना बुलाये अपने आप आ जायँगे। आ नहीं जायँगे, आये हुए हैं। कोई ऐसा कण नहीं है, जिसमें भगवान् परिपूर्ण न हों। परन्तु संसारकी चाहना कारण ही वे दीख नहीं रहे हैं। भगवान्की प्राप्तिमें भोग और संग्रहकी चाहना ही आड़ है ।
||श्रीहरि:||
संसारकी सब चाहना मिटते ही भगवान्की चाहना पूरी हो जायगी अर्थात् भगवान् मिल जायँगे । संसारकी इच्छा छूट जायगी तो भगवान् बिना बुलाये अपने आप आ जायँगे। आ नहीं जायँगे, आये हुए हैं। कोई ऐसा कण नहीं है, जिसमें भगवान् परिपूर्ण न हों। परन्तु संसारकी चाहना कारण ही वे दीख नहीं रहे हैं। भगवान्की प्राप्तिमें भोग और संग्रहकी चाहना ही आड़ है ।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९०··
संसारका काम होता है क्रिया करनेसे, और परमात्माकी प्राप्ति होती है अक्रिय होनेसे ।
||श्रीहरि:||
संसारका काम होता है क्रिया करनेसे, और परमात्माकी प्राप्ति होती है अक्रिय होनेसे ।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९९··
आपका मन अपने-आप बिना चेष्टा किये भगवान्में जाना चाहिये। फिर किसीकी ताकत नहीं है कि भगवत्प्राप्ति न होने दे। जैसे नींदमें भी मच्छर काटे तो हाथ स्वतः वहाँ चला जाता है, ऐसे ही हरेक समयमें मन स्वतः भगवान्में लगना चाहिये।
||श्रीहरि:||
आपका मन अपने-आप बिना चेष्टा किये भगवान्में जाना चाहिये। फिर किसीकी ताकत नहीं है कि भगवत्प्राप्ति न होने दे। जैसे नींदमें भी मच्छर काटे तो हाथ स्वतः वहाँ चला जाता है, ऐसे ही हरेक समयमें मन स्वतः भगवान्में लगना चाहिये।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०३
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०३··
आप जो भी काम करें, सब भगवान्के लिये करें तो आपका सब काम भगवत्प्राप्तिमें कारण हो जायगा ।
||श्रीहरि:||
आप जो भी काम करें, सब भगवान्के लिये करें तो आपका सब काम भगवत्प्राप्तिमें कारण हो जायगा ।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०४
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०४··
केवल परमात्माकी आवश्यकताका अनुभव करो तो वह पूरी हो जायगी। इससे सुगम बात और क्या होगी ? धनकी आवश्यकता होनेसे धन नहीं मिलता, पर परमात्माकी आवश्यकता होनेसे परमात्मा मिल जाते हैं। आप केवल अपनी आवश्यकताको बढ़ाओ।
||श्रीहरि:||
केवल परमात्माकी आवश्यकताका अनुभव करो तो वह पूरी हो जायगी। इससे सुगम बात और क्या होगी ? धनकी आवश्यकता होनेसे धन नहीं मिलता, पर परमात्माकी आवश्यकता होनेसे परमात्मा मिल जाते हैं। आप केवल अपनी आवश्यकताको बढ़ाओ।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२८··
जितने भक्त हुए हैं, वे सभी यह बात हृदयसे मानते हैं कि हमारे अवगुणोंकी माफीके बिना भगवान्की प्राप्ति होती नहीं। हम पूरे पात्र हो जायँ, तब भगवान् मिलें- ऐसी बात नहीं है। किसी महात्माको भगवान्ने केवल उसके गुणोंके कारण, उसकी योग्यताके कारण दर्शन दिये हों, ऐसी बात नहीं है। उनको माफी करते ही हैं, और करनी पड़ती ही है।
||श्रीहरि:||
जितने भक्त हुए हैं, वे सभी यह बात हृदयसे मानते हैं कि हमारे अवगुणोंकी माफीके बिना भगवान्की प्राप्ति होती नहीं। हम पूरे पात्र हो जायँ, तब भगवान् मिलें- ऐसी बात नहीं है। किसी महात्माको भगवान्ने केवल उसके गुणोंके कारण, उसकी योग्यताके कारण दर्शन दिये हों, ऐसी बात नहीं है। उनको माफी करते ही हैं, और करनी पड़ती ही है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५९
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५९··
परमात्माकी प्राप्ति ऐसे है, जैसे बालक अपनी माँकी गोदीमें जाय । क्या बालक माँकी गोदी में अपनी योग्यता, शक्ति, बुद्धिमानीके बलपर जाता है ? इसमें केवल माँकी कृपा है। इसी तरह आप यह न मानें कि हम दूजे हैं, भगवान् दूजे हैं। भगवान् हमारी माँ हैं- 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव०' । भगवान् के पास जाना अपनी माँके पास जाना है। माँकी गोदीमें जानेके लिये बालकको तैयारी नहीं करनी पड़ती। माँकी गोदीमें जानेमें क्या संकोच ?
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्ति ऐसे है, जैसे बालक अपनी माँकी गोदीमें जाय । क्या बालक माँकी गोदी में अपनी योग्यता, शक्ति, बुद्धिमानीके बलपर जाता है ? इसमें केवल माँकी कृपा है। इसी तरह आप यह न मानें कि हम दूजे हैं, भगवान् दूजे हैं। भगवान् हमारी माँ हैं- 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव०' । भगवान् के पास जाना अपनी माँके पास जाना है। माँकी गोदीमें जानेके लिये बालकको तैयारी नहीं करनी पड़ती। माँकी गोदीमें जानेमें क्या संकोच ?- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८२
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८२··
परमात्माकी प्राप्तिके लिये न साधु बननेकी जरूरत है, न गृहस्थ बननेकी जरूरत है। जो परमात्माकी प्राप्ति चाहता है, उसको प्राप्ति हो जाती है। परमात्माकी प्राप्तिमें सब अधिकारी हैं। कैसा ही क्यों न हो, जो चाहे वही प्राप्त कर सकता है।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्तिके लिये न साधु बननेकी जरूरत है, न गृहस्थ बननेकी जरूरत है। जो परमात्माकी प्राप्ति चाहता है, उसको प्राप्ति हो जाती है। परमात्माकी प्राप्तिमें सब अधिकारी हैं। कैसा ही क्यों न हो, जो चाहे वही प्राप्त कर सकता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८९
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८९··
क्रिया और पदार्थकी आसक्ति बहुत बाधक है। शरीर, विद्या, बुद्धिकी योग्यता परमात्मप्राप्ति में बाधक है।.........मैंने व्याख्यान अच्छा दिया—ऐसा मनमें आते ही तत्त्वकी प्राप्तिमें बाधा लग जायगी । जड़ताको लेकर जो अच्छापना है, वह परमात्माकी प्राप्तिमें हेतु कैसे होगा ?
||श्रीहरि:||
क्रिया और पदार्थकी आसक्ति बहुत बाधक है। शरीर, विद्या, बुद्धिकी योग्यता परमात्मप्राप्ति में बाधक है।.........मैंने व्याख्यान अच्छा दिया—ऐसा मनमें आते ही तत्त्वकी प्राप्तिमें बाधा लग जायगी । जड़ताको लेकर जो अच्छापना है, वह परमात्माकी प्राप्तिमें हेतु कैसे होगा ?- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९९
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९९··
शरीरसे आप कितनी ही मेहनत कर लें, यह चेतनतक नहीं पहुँच सकता। यह चेतनके साथ न विशेष एकता रखता है, न भेद रखता है; न राग रखता है, न द्वेष रखता है। हम जड़को तो अपना मानते हैं और चेतनको भूल गये – यह मूल बाधा है। मूल बाधाको लेकर ही हम साधन करते हैं, इसलिये परमात्मप्राप्ति नहीं होती।
||श्रीहरि:||
शरीरसे आप कितनी ही मेहनत कर लें, यह चेतनतक नहीं पहुँच सकता। यह चेतनके साथ न विशेष एकता रखता है, न भेद रखता है; न राग रखता है, न द्वेष रखता है। हम जड़को तो अपना मानते हैं और चेतनको भूल गये – यह मूल बाधा है। मूल बाधाको लेकर ही हम साधन करते हैं, इसलिये परमात्मप्राप्ति नहीं होती।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९५
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९५··
ज्ञानयोग, कर्मयोग आदिको समझनेकी जरूरत व्याख्यान देनेवालोंके लिये, लोगोंको समझानेके लिये होती है। भगवान्की प्राप्तिके लिये इन बातोंको जाननेकी कोई जरूरत नहीं है। पढ़ाई करनेसे भगवान् मिल जायँगे - ऐसा नहीं है, और पढ़ाई नहीं करनेसे भगवान् मिल जायँगे - यह भी नहीं है । भगवान् तो प्रेमसे मिलते हैं। भगवान्के बिना मन नहीं लगे। उनके बिना रहा न जाय।
||श्रीहरि:||
ज्ञानयोग, कर्मयोग आदिको समझनेकी जरूरत व्याख्यान देनेवालोंके लिये, लोगोंको समझानेके लिये होती है। भगवान्की प्राप्तिके लिये इन बातोंको जाननेकी कोई जरूरत नहीं है। पढ़ाई करनेसे भगवान् मिल जायँगे - ऐसा नहीं है, और पढ़ाई नहीं करनेसे भगवान् मिल जायँगे - यह भी नहीं है । भगवान् तो प्रेमसे मिलते हैं। भगवान्के बिना मन नहीं लगे। उनके बिना रहा न जाय।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २११
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २११··
हमारे पास जो स्थूल सूक्ष्म और कारणशरीर हैं, उन सबमें 'अहम्' (मैं- पन) मुख्य है। अहम् सबका राजा है। जिस काममें हम अहम्को मिला लेते हैं कि 'मैं करता हूँ', उसके साथ सब हो जाते हैं। उसके अनुसार ही फल मिलता है, गति होती है। इसलिये अगर आप परमात्माको प्राप्त करना चाहते हैं तो यह अहम् परमात्माके साथ मिलना चाहिये। तात्पर्य है कि यदि आपको तत्त्वबोध चाहिये तो आपको 'जिज्ञासु' बनना होगा और भगवान्की प्राप्ति चाहिये तो आपको 'भक्त' बनना होगा, तभी आपकी उपासना सिद्ध होगी।
||श्रीहरि:||
हमारे पास जो स्थूल सूक्ष्म और कारणशरीर हैं, उन सबमें 'अहम्' (मैं- पन) मुख्य है। अहम् सबका राजा है। जिस काममें हम अहम्को मिला लेते हैं कि 'मैं करता हूँ', उसके साथ सब हो जाते हैं। उसके अनुसार ही फल मिलता है, गति होती है। इसलिये अगर आप परमात्माको प्राप्त करना चाहते हैं तो यह अहम् परमात्माके साथ मिलना चाहिये। तात्पर्य है कि यदि आपको तत्त्वबोध चाहिये तो आपको 'जिज्ञासु' बनना होगा और भगवान्की प्राप्ति चाहिये तो आपको 'भक्त' बनना होगा, तभी आपकी उपासना सिद्ध होगी।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६५··
परमात्माकी प्राप्तिके लिये साधु बननेकी जरूरत नहीं है। सदाचारी आदमीके भीतर भी अगर लगन नहीं है तो उसको परमात्मा नहीं मिलते। परन्तु दुराचारी आदमीके भीतर भी लगन लग जाय तो वह परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्तिके लिये साधु बननेकी जरूरत नहीं है। सदाचारी आदमीके भीतर भी अगर लगन नहीं है तो उसको परमात्मा नहीं मिलते। परन्तु दुराचारी आदमीके भीतर भी लगन लग जाय तो वह परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २७··
लगन हो तो परमात्मा हरेकको प्राप्त हो सकते हैं। वे तो मिलनेके लिये तैयार बैठे हैं । लगन नहीं है - इसके सिवाय परमात्मप्राप्तिमें कोई कठिनता नहीं है। लगन हो तो सन्त महात्मा भी मिल जायँगे, पर लगनके बिना वे मिलते हुए भी काम नहीं आयेंगे।
||श्रीहरि:||
लगन हो तो परमात्मा हरेकको प्राप्त हो सकते हैं। वे तो मिलनेके लिये तैयार बैठे हैं । लगन नहीं है - इसके सिवाय परमात्मप्राप्तिमें कोई कठिनता नहीं है। लगन हो तो सन्त महात्मा भी मिल जायँगे, पर लगनके बिना वे मिलते हुए भी काम नहीं आयेंगे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २७··
परमात्मप्राप्ति कठिन नहीं है। जो सब देश, काल आदिमें ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण हो, उसकी प्राप्ति कठिन कैसे हो सकती है ? कठिनता हमने मान रखी है, संसारमें आसक्ति करके । वास्तवमें खराब चीज कठिन होती है, बढ़िया चीज कठिन होती नहीं, कठिन दीखती है।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्ति कठिन नहीं है। जो सब देश, काल आदिमें ज्यों-का-त्यों परिपूर्ण हो, उसकी प्राप्ति कठिन कैसे हो सकती है ? कठिनता हमने मान रखी है, संसारमें आसक्ति करके । वास्तवमें खराब चीज कठिन होती है, बढ़िया चीज कठिन होती नहीं, कठिन दीखती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३२··
एक परमात्माकी ही इच्छा हो, साथमें कोई दूसरी इच्छा न हो तो परमात्मप्राप्ति होते आठ पहर भी नहीं लगेंगे। एक इच्छा रहते ही तत्काल प्राप्ति हो जायगी।
||श्रीहरि:||
एक परमात्माकी ही इच्छा हो, साथमें कोई दूसरी इच्छा न हो तो परमात्मप्राप्ति होते आठ पहर भी नहीं लगेंगे। एक इच्छा रहते ही तत्काल प्राप्ति हो जायगी।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४४··
मैं सब काम भगवान्का ही करता हूँ-यह बात पक्की कर लो, फिर भगवान् आपसे छिपेंगे नहीं ।
||श्रीहरि:||
मैं सब काम भगवान्का ही करता हूँ-यह बात पक्की कर लो, फिर भगवान् आपसे छिपेंगे नहीं ।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६६··
यदि दूकानदार सुबह ही हजार रुपये कमा ले तो वह दिनभर दूकान बन्द नहीं करता। पर आप सुबह थोड़ी देर नामजप, पूजा-पाठ कर लेते हो, फिर दिनभर निकम्मे बैठे रहते हो कि बस, हमने नित्यकर्म कर लिया। ऐसी नीयतसे भगवान् मिल जायँगे क्या ?
||श्रीहरि:||
यदि दूकानदार सुबह ही हजार रुपये कमा ले तो वह दिनभर दूकान बन्द नहीं करता। पर आप सुबह थोड़ी देर नामजप, पूजा-पाठ कर लेते हो, फिर दिनभर निकम्मे बैठे रहते हो कि बस, हमने नित्यकर्म कर लिया। ऐसी नीयतसे भगवान् मिल जायँगे क्या ?- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७९··
आपमें केवल भगवत्प्राप्तिकी लालसा हो जाय। वह लालसा ऐसी हो, जिसकी कभी विस्मृति न हो । तात्पर्य है कि मुझे भगवान्की प्राप्ति हो जाय, तत्वज्ञान हो जाय, उनके चरणोंमें मेरा प्रेम हो जाय इसको केवल याद रखना है, भूलना नहीं है। हम सब भगवानरूपी कल्पवृक्षकी छायामें बैठे हैं, इसलिये हमारी लालसा अवश्य पूरी होगी; क्योंकि इसीके लिये मनुष्यजन्म मिला है। अगर आपकी सच्ची लगन होगी तो दो-चार दिनमें काम सिद्ध हो जायगा । कितनी सुगम बात है। इससे बढ़िया सुगम उपाय मुझे कहीं मिला नहीं।
||श्रीहरि:||
आपमें केवल भगवत्प्राप्तिकी लालसा हो जाय। वह लालसा ऐसी हो, जिसकी कभी विस्मृति न हो । तात्पर्य है कि मुझे भगवान्की प्राप्ति हो जाय, तत्वज्ञान हो जाय, उनके चरणोंमें मेरा प्रेम हो जाय इसको केवल याद रखना है, भूलना नहीं है। हम सब भगवानरूपी कल्पवृक्षकी छायामें बैठे हैं, इसलिये हमारी लालसा अवश्य पूरी होगी; क्योंकि इसीके लिये मनुष्यजन्म मिला है। अगर आपकी सच्ची लगन होगी तो दो-चार दिनमें काम सिद्ध हो जायगा । कितनी सुगम बात है। इससे बढ़िया सुगम उपाय मुझे कहीं मिला नहीं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८५··
जबतक समस्त पाप नष्ट नहीं होंगे, तबतक भगवान् नहीं मिलेंगे'- यह भाव आप बिल्कुल मत रखें। अगर आपकी तीव्र उत्कण्ठा है तो भगवान् मिल जायँगे, चाहे आप कितने ही पापी हों।
||श्रीहरि:||
जबतक समस्त पाप नष्ट नहीं होंगे, तबतक भगवान् नहीं मिलेंगे'- यह भाव आप बिल्कुल मत रखें। अगर आपकी तीव्र उत्कण्ठा है तो भगवान् मिल जायँगे, चाहे आप कितने ही पापी हों।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९८
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९८··
परमात्माकी प्राप्ति न घर छोड़नेसे होगी, न घरमें रहनेसे होगी, प्रत्युत भीतरकी चाहनासे होगी । उनकी प्राप्तिके लिये ऊपरकी क्रियाएँ विशेष कामकी नहीं है।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्ति न घर छोड़नेसे होगी, न घरमें रहनेसे होगी, प्रत्युत भीतरकी चाहनासे होगी । उनकी प्राप्तिके लिये ऊपरकी क्रियाएँ विशेष कामकी नहीं है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११२··
भगवान्के समान सुलभ कोई नहीं है और उनके समान दुर्लभ भी कोई नहीं है। वे सुलभताकी आखिरी सीमा हैं और दुर्लभताकी भी आखिरी सीमा हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्के समान सुलभ कोई नहीं है और उनके समान दुर्लभ भी कोई नहीं है। वे सुलभताकी आखिरी सीमा हैं और दुर्लभताकी भी आखिरी सीमा हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११२··
तीनों शरीरोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही चिन्मयता (परमात्मतत्त्व ) की प्राप्ति होगी । चिन्मयताकी प्राप्तिमें शरीर बाधक नहीं है, प्रत्युत उसका सम्बन्ध बाधक है।
||श्रीहरि:||
तीनों शरीरोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही चिन्मयता (परमात्मतत्त्व ) की प्राप्ति होगी । चिन्मयताकी प्राप्तिमें शरीर बाधक नहीं है, प्रत्युत उसका सम्बन्ध बाधक है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२०
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२०··
शरीर और उसकी क्रियासे कल्याण नहीं होगा। कल्याण संसारकी सेवासे होगा, भगवान्के सम्बन्धसे होगा, निष्कामभावसे होगा, त्यागके भावसे होगा। श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, समाधिसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी। परमात्माकी प्राप्ति जड़ताके त्यागसे होगी, जड़ताके द्वारा नहीं । कल्याण न तो करनेसे होता है, न नहीं करनेसे होता है, प्रत्युत सम्बन्ध-विच्छेदसे होता है।
||श्रीहरि:||
शरीर और उसकी क्रियासे कल्याण नहीं होगा। कल्याण संसारकी सेवासे होगा, भगवान्के सम्बन्धसे होगा, निष्कामभावसे होगा, त्यागके भावसे होगा। श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, समाधिसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी। परमात्माकी प्राप्ति जड़ताके त्यागसे होगी, जड़ताके द्वारा नहीं । कल्याण न तो करनेसे होता है, न नहीं करनेसे होता है, प्रत्युत सम्बन्ध-विच्छेदसे होता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६१··
मनमें कल्याणकी इच्छा हुए बिना कल्याण कैसे हो जायगा ? भूखके बिना भोजन भी नहीं कर सकते तो क्या लगनके बिना परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ? कोई किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, धर्म आदिका हो, जो हृदयसे परमात्माको चाहता है, उसको परमात्मा नहीं मिलेंगे तो किसको मिलेंगे ? चाहनेसे परमात्मा ही मिलते हैं, संसार नहीं मिलता।
||श्रीहरि:||
मनमें कल्याणकी इच्छा हुए बिना कल्याण कैसे हो जायगा ? भूखके बिना भोजन भी नहीं कर सकते तो क्या लगनके बिना परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी ? कोई किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, धर्म आदिका हो, जो हृदयसे परमात्माको चाहता है, उसको परमात्मा नहीं मिलेंगे तो किसको मिलेंगे ? चाहनेसे परमात्मा ही मिलते हैं, संसार नहीं मिलता।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १००-१०१
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १००-१०१··
परमात्माकी प्राप्ति न ब्राह्मणको होती है, न साधुको होती है, न पुरुषको होती है, न स्त्रीको होती है, प्रत्युत 'भक्त' को होती है।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्ति न ब्राह्मणको होती है, न साधुको होती है, न पुरुषको होती है, न स्त्रीको होती है, प्रत्युत 'भक्त' को होती है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०१
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०१··
परमात्माकी प्राप्ति 'भक्त' को होती है। जो भक्त होता है, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, संन्यासी, वानप्रस्थ नहीं होता।......जो अपनेको किसी वर्ण आश्रमका समझता है, उसको परमात्माकी प्राप्ति कैसे होगी? परमात्माकी प्राप्ति उसको होगी, जो अपनेको परमात्माका समझता है।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्ति 'भक्त' को होती है। जो भक्त होता है, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, संन्यासी, वानप्रस्थ नहीं होता।......जो अपनेको किसी वर्ण आश्रमका समझता है, उसको परमात्माकी प्राप्ति कैसे होगी? परमात्माकी प्राप्ति उसको होगी, जो अपनेको परमात्माका समझता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८०
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८०··
भगवत्प्राप्तिमें बाहरका समय काम नहीं आता, भीतरकी लगन काम आती है। लगन हो तो थोड़े समयमें भगवत्प्राप्ति हो जाती है।
||श्रीहरि:||
भगवत्प्राप्तिमें बाहरका समय काम नहीं आता, भीतरकी लगन काम आती है। लगन हो तो थोड़े समयमें भगवत्प्राप्ति हो जाती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८६··
अपनी योग्यतासे, शक्तिसे परमात्माको प्राप्त नहीं कर सकते। जैसे, बच्चेको माँकी गोद किसी ताकतसे नहीं मिलती, प्रत्युत रोनेसे मिलती है। रोनेमें बहुत विलक्षण शक्ति है। रोनेमें शक्ति कारण नहीं है। रोना तब आता है, जब अपनेमें शक्तिहीनताका अनुभव होता है। शक्तिसे जो चीज प्राप्त नहीं होती, वह चीज रोनेसे प्राप्त हो जाती है। सर्वथा सामर्थ्यरहित हो जाय तो भगवान् प्रकट हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
अपनी योग्यतासे, शक्तिसे परमात्माको प्राप्त नहीं कर सकते। जैसे, बच्चेको माँकी गोद किसी ताकतसे नहीं मिलती, प्रत्युत रोनेसे मिलती है। रोनेमें बहुत विलक्षण शक्ति है। रोनेमें शक्ति कारण नहीं है। रोना तब आता है, जब अपनेमें शक्तिहीनताका अनुभव होता है। शक्तिसे जो चीज प्राप्त नहीं होती, वह चीज रोनेसे प्राप्त हो जाती है। सर्वथा सामर्थ्यरहित हो जाय तो भगवान् प्रकट हो जाते हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९५-१९६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९५-१९६··
कोई ऊँचे-से-ऊँचा है, वेदों-शास्त्रोंका बड़ा ज्ञाता है, बड़ा विद्वान् है, पर उसमें भगवत्प्राप्तिकी लालसा नहीं है, तो उसको भगवान्की प्राप्ति नहीं होगी। परन्तु कोई नीचे-से-नीचा है, पढ़ा- लिखा नहीं है, पर उसमें भगवत्प्राप्तिकी लालसा है, तो उसको भगवान्की प्राप्ति हो जायगी ।
||श्रीहरि:||
कोई ऊँचे-से-ऊँचा है, वेदों-शास्त्रोंका बड़ा ज्ञाता है, बड़ा विद्वान् है, पर उसमें भगवत्प्राप्तिकी लालसा नहीं है, तो उसको भगवान्की प्राप्ति नहीं होगी। परन्तु कोई नीचे-से-नीचा है, पढ़ा- लिखा नहीं है, पर उसमें भगवत्प्राप्तिकी लालसा है, तो उसको भगवान्की प्राप्ति हो जायगी ।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०८
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०८··
आपने जोरसे भजन, जप, तप किया; परन्तु 'भगवान् मिलते हैं कि नहीं मिलते' - यह सन्देह है तो भगवान् नहीं मिलेंगे। 'मैं पापी हूँ, भगवान् नहीं मिलेंगे' तो भगवान् नहीं मिलेंगे। 'मैं अधिकारी नहीं हूँ' तो भगवान् नहीं मिलेंगे। 'मैं कैसा ही हूँ, पर भगवान् मिलने चाहिये' तो भगवान् मिल जायँगे। केवल अपनी चाहना बढ़ाओ।
||श्रीहरि:||
आपने जोरसे भजन, जप, तप किया; परन्तु 'भगवान् मिलते हैं कि नहीं मिलते' - यह सन्देह है तो भगवान् नहीं मिलेंगे। 'मैं पापी हूँ, भगवान् नहीं मिलेंगे' तो भगवान् नहीं मिलेंगे। 'मैं अधिकारी नहीं हूँ' तो भगवान् नहीं मिलेंगे। 'मैं कैसा ही हूँ, पर भगवान् मिलने चाहिये' तो भगवान् मिल जायँगे। केवल अपनी चाहना बढ़ाओ।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०९··
हमारे भीतर यह बात बैठी हुई है कि हम संसारी आदमी हैं और हमें परमात्माको प्राप्त करना है। वास्तवमें यह बात नहीं है। परमात्माकी प्राप्ति नयी बात नहीं है, प्रत्युत जन्म-मरणमें पड़ना नयी बात है। हम तो पहलेसे ही भगवान्के खास अपने हैं।
||श्रीहरि:||
हमारे भीतर यह बात बैठी हुई है कि हम संसारी आदमी हैं और हमें परमात्माको प्राप्त करना है। वास्तवमें यह बात नहीं है। परमात्माकी प्राप्ति नयी बात नहीं है, प्रत्युत जन्म-मरणमें पड़ना नयी बात है। हम तो पहलेसे ही भगवान्के खास अपने हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१५ - २१६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१५ - २१६··
मैं मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी मानता हूँ। जो अनपढ़ है, एक अक्षर भी नहीं जानता, उसको भी तत्त्वज्ञान हो सकता है, परमात्मप्राप्ति हो सकती है। कारण कि स्वरूपसे सब परमात्माके अंश हैं। जड़की तरफ अर्थात् भोग और संग्रहकी तरफ आकर्षण होनेके कारण ही चिन्मय स्वरूपका अनुभव नहीं हो रहा है।
||श्रीहरि:||
मैं मनुष्यमात्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी मानता हूँ। जो अनपढ़ है, एक अक्षर भी नहीं जानता, उसको भी तत्त्वज्ञान हो सकता है, परमात्मप्राप्ति हो सकती है। कारण कि स्वरूपसे सब परमात्माके अंश हैं। जड़की तरफ अर्थात् भोग और संग्रहकी तरफ आकर्षण होनेके कारण ही चिन्मय स्वरूपका अनुभव नहीं हो रहा है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५२··
आप अपने कर्तव्यकी तरफ दृष्टि रखें। दूसरोंके कर्तव्यकी तरफ दृष्टि ही नहीं जानी चाहिये। भगवान् दर्शन दें न दें, कृपा करें न करें, यह उनकी मरजी है। यह हमारे हाथकी बात नहीं है। हम अपनी तरफसे उनके शरण हुए या नहीं हुए, हमने उनपर विश्वास किया या नहीं किया— यह बात सोचनेकी है तथा यही करनेकी है। हम तो वही सोचें, जो हमारे हाथकी बात है। हम अपना काम ठीक करेंगे तो भगवान् अपने कर्तव्यका पालन करेंगे ही, निश्चित बात है।
||श्रीहरि:||
आप अपने कर्तव्यकी तरफ दृष्टि रखें। दूसरोंके कर्तव्यकी तरफ दृष्टि ही नहीं जानी चाहिये। भगवान् दर्शन दें न दें, कृपा करें न करें, यह उनकी मरजी है। यह हमारे हाथकी बात नहीं है। हम अपनी तरफसे उनके शरण हुए या नहीं हुए, हमने उनपर विश्वास किया या नहीं किया— यह बात सोचनेकी है तथा यही करनेकी है। हम तो वही सोचें, जो हमारे हाथकी बात है। हम अपना काम ठीक करेंगे तो भगवान् अपने कर्तव्यका पालन करेंगे ही, निश्चित बात है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १८२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ १८२··
अगर चिन्मयताकी प्राप्ति चाहते हो तो जड़ताका मोह अर्थात् जो उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं, जिनका आरम्भ और अन्त होता है, ऐसी चीजोंका मोह छोड़ना पड़ेगा.....पड़ेगा पड़ेगा । यह पक्की बात है।
||श्रीहरि:||
अगर चिन्मयताकी प्राप्ति चाहते हो तो जड़ताका मोह अर्थात् जो उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं, जिनका आरम्भ और अन्त होता है, ऐसी चीजोंका मोह छोड़ना पड़ेगा.....पड़ेगा पड़ेगा । यह पक्की बात है।- अनन्तकी ओर ५६
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अनन्तकी ओर ५६··
नामजप करोगे, कीर्तन करोगे, गीता-रामायणका पाठ करोगे तो लाभ जरूर होगा ही, यह नियम है; परन्तु कल्याण होगा जड़ताका त्याग करनेसे । भजन, सत्संग, गीता -रामायणका पाठ निरर्थक नहीं जायगा, लाभ जरूर होगा, पर कल्याण हो जायगा इसका पता नहीं है। भगवान्की कृपासे भी भगवान्की प्राप्ति हो सकती है; परन्तु अगर आप अपनी तरफसे भगवान्की प्राप्ति चाहते हो तो जड़ताका त्याग करना पड़ेगा।
||श्रीहरि:||
नामजप करोगे, कीर्तन करोगे, गीता-रामायणका पाठ करोगे तो लाभ जरूर होगा ही, यह नियम है; परन्तु कल्याण होगा जड़ताका त्याग करनेसे । भजन, सत्संग, गीता -रामायणका पाठ निरर्थक नहीं जायगा, लाभ जरूर होगा, पर कल्याण हो जायगा इसका पता नहीं है। भगवान्की कृपासे भी भगवान्की प्राप्ति हो सकती है; परन्तु अगर आप अपनी तरफसे भगवान्की प्राप्ति चाहते हो तो जड़ताका त्याग करना पड़ेगा।- अनन्तकी ओर ५६-५७
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अनन्तकी ओर ५६-५७··
जिस दिन आपका विचार हो जायगा कि भगवान्के बिना मैं रह नहीं सकता तो भगवान् भी आपके बिना रह नहीं सकेंगे। एक मच्छर गरुड़जीसे मिलना चाहे और गरुड़जी मच्छरसे मिलना चाहें तो मच्छरसे मिलनेमें गरुड़की ताकत काम करेगी और वे यहीं उसे मिल जायँगे। मच्छरमें उड़नेकी कितनी ताकत है? इसी तरह भगवान्से मिलनेकी इच्छा हो तो आपसे मिलनेमें भगवान्की ताकत काम करेगी, आपकी ताकत काम नहीं करेगी। आप विचार करो आप भगवान्के पास नहीं पहुँच सकते तो क्या भगवान् भी आपके पास नहीं पहुँच सकते ? वे तो आपके हृदय में विराजमान हैं। भगवान्को आप दूर मानते हो, इसलिये भगवान् दूर होते हैं। आप मानोगे कि भगवान् मेरेको नहीं मिलेंगे तो वे नहीं मिलेंगे।
||श्रीहरि:||
जिस दिन आपका विचार हो जायगा कि भगवान्के बिना मैं रह नहीं सकता तो भगवान् भी आपके बिना रह नहीं सकेंगे। एक मच्छर गरुड़जीसे मिलना चाहे और गरुड़जी मच्छरसे मिलना चाहें तो मच्छरसे मिलनेमें गरुड़की ताकत काम करेगी और वे यहीं उसे मिल जायँगे। मच्छरमें उड़नेकी कितनी ताकत है? इसी तरह भगवान्से मिलनेकी इच्छा हो तो आपसे मिलनेमें भगवान्की ताकत काम करेगी, आपकी ताकत काम नहीं करेगी। आप विचार करो आप भगवान्के पास नहीं पहुँच सकते तो क्या भगवान् भी आपके पास नहीं पहुँच सकते ? वे तो आपके हृदय में विराजमान हैं। भगवान्को आप दूर मानते हो, इसलिये भगवान् दूर होते हैं। आप मानोगे कि भगवान् मेरेको नहीं मिलेंगे तो वे नहीं मिलेंगे।- अनन्तकी ओर ६८
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अनन्तकी ओर ६८··
आज भी किसीके मनमें भगवान्से मिलनेका विचार हो तो आज विचार कर लो, आज ही मिल जायँगे । रात्रिमें बैठ जाओ कि भगवान् मिलेंगे। परन्तु आपके मनमें यह छाया नहीं आनी चाहिये कि इतनी जल्दी कैसे मिलेंगे? फिर दुनिया कुछ भी कहे, कोई परवाह नहीं । भगवान् आपके कर्मोंसे अटकते नहीं। आपके पापोंसे, दुष्कर्मोंसे भगवान् अटक जायँ तो मिलकर भी क्या निहाल करेंगे। ऐसी कोई शक्ति है ही नहीं, जो आपको भगवान्से न मिलने दे । कोई भाई-बहन कैसा ही क्यों न हो, जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान् मिलेंगे मिलेंगे मिलेंगे । जरूर मिलेंगे । भगवान्को मिलना ही पड़ेगा । परन्तु आपके भीतर यह बात नहीं रहनी चाहिये कि इतनी जल्दी भगवान् नहीं मिलते। यह बात रहेगी तो भगवान् अटक जायँगे ।
||श्रीहरि:||
आज भी किसीके मनमें भगवान्से मिलनेका विचार हो तो आज विचार कर लो, आज ही मिल जायँगे । रात्रिमें बैठ जाओ कि भगवान् मिलेंगे। परन्तु आपके मनमें यह छाया नहीं आनी चाहिये कि इतनी जल्दी कैसे मिलेंगे? फिर दुनिया कुछ भी कहे, कोई परवाह नहीं । भगवान् आपके कर्मोंसे अटकते नहीं। आपके पापोंसे, दुष्कर्मोंसे भगवान् अटक जायँ तो मिलकर भी क्या निहाल करेंगे। ऐसी कोई शक्ति है ही नहीं, जो आपको भगवान्से न मिलने दे । कोई भाई-बहन कैसा ही क्यों न हो, जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान् मिलेंगे मिलेंगे मिलेंगे । जरूर मिलेंगे । भगवान्को मिलना ही पड़ेगा । परन्तु आपके भीतर यह बात नहीं रहनी चाहिये कि इतनी जल्दी भगवान् नहीं मिलते। यह बात रहेगी तो भगवान् अटक जायँगे ।- अनन्तकी ओर ६९
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अनन्तकी ओर ६९··
अगर हमारे पापोंके कारण भगवान् न मिलते हों तो हमारे पाप भगवान् से बलवान् हुए। अगर पाप बलवान् हुए तो भगवान् मिलकर क्या निहाल करेंगे । भगवान् इतने निर्बल नहीं हैं कि पापकर्मोंसे अटक जायँ। उनके समान बलवान् कोई है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं। ऐसे भगवान् हमारेको क्यों नहीं मिलते? क्योंकि हम उन्हें चाहते नहीं । हमारे भीतर रुपयोंकी चाहना है, फिर भगवान् बीचमें क्यों आयेंगे ? मानो भगवान् कहते हैं कि अगर मेरे बिना तेरा काम चलता है तो मेरा काम भी तेरे बिना चलता है।
||श्रीहरि:||
अगर हमारे पापोंके कारण भगवान् न मिलते हों तो हमारे पाप भगवान् से बलवान् हुए। अगर पाप बलवान् हुए तो भगवान् मिलकर क्या निहाल करेंगे । भगवान् इतने निर्बल नहीं हैं कि पापकर्मोंसे अटक जायँ। उनके समान बलवान् कोई है ही नहीं, हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं। ऐसे भगवान् हमारेको क्यों नहीं मिलते? क्योंकि हम उन्हें चाहते नहीं । हमारे भीतर रुपयोंकी चाहना है, फिर भगवान् बीचमें क्यों आयेंगे ? मानो भगवान् कहते हैं कि अगर मेरे बिना तेरा काम चलता है तो मेरा काम भी तेरे बिना चलता है।- अनन्तकी ओर ६९- ७०
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अनन्तकी ओर ६९- ७०··
आप संसारके लिये रोओ तो भी संसार राजी नहीं होगा, पर भगवान्के लिये व्याकुल हो जाओ तो भगवान् व्याकुल हो जायँगे । जितना सत्संग करोगे, विचार करोगे, उतना फायदा जरूर होगा- इसमें सन्देह नहीं है; परन्तु परमात्माकी प्राप्ति जल्दी नहीं होगी। कई जन्म लग जायँगे, तब होगी । केवल परमात्मप्राप्तिकी जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान्को आना ही पड़ेगा.....आना ही पड़ेगा । किसीकी ताकत नहीं कि भगवान्को रोक दे । भगवान् कहते हैं कि जो जैसा मेरा भजन करते हैं, मैं भी उनका वैसा ही भजन करता हूँ- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' (गीता ४। ११)। जो मेरे बिना रो पड़ता है, उसके बिना मैं भी रो पड़ता हूँ ।
||श्रीहरि:||
आप संसारके लिये रोओ तो भी संसार राजी नहीं होगा, पर भगवान्के लिये व्याकुल हो जाओ तो भगवान् व्याकुल हो जायँगे । जितना सत्संग करोगे, विचार करोगे, उतना फायदा जरूर होगा- इसमें सन्देह नहीं है; परन्तु परमात्माकी प्राप्ति जल्दी नहीं होगी। कई जन्म लग जायँगे, तब होगी । केवल परमात्मप्राप्तिकी जोरदार इच्छा हो जाय तो भगवान्को आना ही पड़ेगा.....आना ही पड़ेगा । किसीकी ताकत नहीं कि भगवान्को रोक दे । भगवान् कहते हैं कि जो जैसा मेरा भजन करते हैं, मैं भी उनका वैसा ही भजन करता हूँ- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्' (गीता ४। ११)। जो मेरे बिना रो पड़ता है, उसके बिना मैं भी रो पड़ता हूँ ।- अनन्तकी ओर ७०
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अनन्तकी ओर ७०··
परमात्मा दुर्लभ नहीं हैं, उनकी प्राप्तिकी इच्छावाला आदमी दुर्लभ है। परमात्माके मिलनेमें देरी नहीं है। देरी वास्तवमें अपनी चाहनामें है। परमात्मा दूर थोड़े ही हैं। परमात्मा जितने सस्ते हैं, उतनी सस्ती कोई चीज है ही नहीं। उनकी प्राप्ति तत्काल हो सकती है, दिनकी बात तो दूर रही । परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं— 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः ' (गीता १५ । १५ ) । जो हृदयमें स्थित है, उसके मिलनेमें देरी क्या लगे? अतः वास्तवमें परमात्मप्राप्तिकी इच्छा दुर्लभ है, परमात्मा दुर्लभ नहीं हैं। उनकी इच्छा अनन्य होनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
परमात्मा दुर्लभ नहीं हैं, उनकी प्राप्तिकी इच्छावाला आदमी दुर्लभ है। परमात्माके मिलनेमें देरी नहीं है। देरी वास्तवमें अपनी चाहनामें है। परमात्मा दूर थोड़े ही हैं। परमात्मा जितने सस्ते हैं, उतनी सस्ती कोई चीज है ही नहीं। उनकी प्राप्ति तत्काल हो सकती है, दिनकी बात तो दूर रही । परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं— 'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः ' (गीता १५ । १५ ) । जो हृदयमें स्थित है, उसके मिलनेमें देरी क्या लगे? अतः वास्तवमें परमात्मप्राप्तिकी इच्छा दुर्लभ है, परमात्मा दुर्लभ नहीं हैं। उनकी इच्छा अनन्य होनी चाहिये।- अनन्तकी ओर ९१
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अनन्तकी ओर ९१··
परमात्मासे नजदीक कोई चीज है ही नहीं। परमात्मा जितने नजदीक हैं, उतना नजदीक आपका शरीर भी नहीं है, प्राण भी नहीं हैं, मन-बुद्धि भी नहीं हैं । जो परमात्मा कभी मिलेंगे, वे अब भी मिले हुए ही हैं। जो कभी आपसे अलग होगा, वह अब भी अलग ही है।
||श्रीहरि:||
परमात्मासे नजदीक कोई चीज है ही नहीं। परमात्मा जितने नजदीक हैं, उतना नजदीक आपका शरीर भी नहीं है, प्राण भी नहीं हैं, मन-बुद्धि भी नहीं हैं । जो परमात्मा कभी मिलेंगे, वे अब भी मिले हुए ही हैं। जो कभी आपसे अलग होगा, वह अब भी अलग ही है।- अनन्तकी ओर ९२
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अनन्तकी ओर ९२··
संसारका वियोग भी अभी है और परमात्माकी प्राप्ति भी अभी है।
||श्रीहरि:||
संसारका वियोग भी अभी है और परमात्माकी प्राप्ति भी अभी है।- स्वातिकी बूँदें २३
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स्वातिकी बूँदें २३··
जो सब जगह व्यापक होता है, उसके लिये मार्ग नहीं होता। मार्ग उसके लिये होता है, जो दूर होता है। जो सब जगह समान रीतिसे परिपूर्ण हैं, जहाँ आप हैं, वहाँ भी परिपूर्ण है तो फिर जाना कहाँ है? जाना कहीं नहीं है। जिस जगह आप हैं, वहीं पूरे के पूरे परमात्मा हैं ।
||श्रीहरि:||
जो सब जगह व्यापक होता है, उसके लिये मार्ग नहीं होता। मार्ग उसके लिये होता है, जो दूर होता है। जो सब जगह समान रीतिसे परिपूर्ण हैं, जहाँ आप हैं, वहाँ भी परिपूर्ण है तो फिर जाना कहाँ है? जाना कहीं नहीं है। जिस जगह आप हैं, वहीं पूरे के पूरे परमात्मा हैं ।- बन गये आप अकेले सब कुछ १७३
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बन गये आप अकेले सब कुछ १७३··
मैं ब्राह्मण हूँ'– यह भी देहाभिमान है और 'मैं मेहतर हूँ' - यह भी देहाभिमान है। ये दोनों ही परमात्मप्राप्तिमें समानरूपसे बाधक हैं। हमारा स्वरूप सत्तामात्र है। स्वाभाविक स्थिति सबकी बराबर है। अपनेको कुछ भी मानेंगे तो संसार आयेगा।
||श्रीहरि:||
मैं ब्राह्मण हूँ'– यह भी देहाभिमान है और 'मैं मेहतर हूँ' - यह भी देहाभिमान है। ये दोनों ही परमात्मप्राप्तिमें समानरूपसे बाधक हैं। हमारा स्वरूप सत्तामात्र है। स्वाभाविक स्थिति सबकी बराबर है। अपनेको कुछ भी मानेंगे तो संसार आयेगा।- अनन्तकी ओर १३४
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अनन्तकी ओर १३४··
परमात्माकी प्राप्तिमें युक्तियाँ, क्रियाएँ मुख्य नहीं होतीं, प्रत्युत हृदयकी लालसा, लगन मुख्य होती है। प्यास लगती है तो जलको याद करना नहीं पड़ता, स्वतः याद आती है। इस तरह स्वतः भगवान्की याद आनी चाहिये। भगवान् कैसे मिलें। क्या करें। किससे पूछें। यह लालसा मुख्य होनी चाहिये। लालसा जितनी मुख्य होगी, उतना ही काम जल्दी होगा ।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्तिमें युक्तियाँ, क्रियाएँ मुख्य नहीं होतीं, प्रत्युत हृदयकी लालसा, लगन मुख्य होती है। प्यास लगती है तो जलको याद करना नहीं पड़ता, स्वतः याद आती है। इस तरह स्वतः भगवान्की याद आनी चाहिये। भगवान् कैसे मिलें। क्या करें। किससे पूछें। यह लालसा मुख्य होनी चाहिये। लालसा जितनी मुख्य होगी, उतना ही काम जल्दी होगा ।- अनन्तकी ओर १६१
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अनन्तकी ओर १६१··
जिसको प्राप्त करना हो, उसीकी जातिका बनना पड़ता है। जो विद्यार्थी बनता है, वही पढ़ता है। इसी तरह परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना हो तो अपनेको निराकार मानना होगा । ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नहीं मानना होगा। स्त्री-पुरुष भी नहीं मानना होगा। परमात्माके अंश होनेसे हमारा सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। परमात्मा निराकार हैं; अतः निराकार ही हमारा स्वरूप है। हमारा स्वरूप साकार नहीं है। अतः अपनेको निराकार ही मानना होगा।
||श्रीहरि:||
जिसको प्राप्त करना हो, उसीकी जातिका बनना पड़ता है। जो विद्यार्थी बनता है, वही पढ़ता है। इसी तरह परमात्मतत्त्वको प्राप्त करना हो तो अपनेको निराकार मानना होगा । ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नहीं मानना होगा। स्त्री-पुरुष भी नहीं मानना होगा। परमात्माके अंश होनेसे हमारा सम्बन्ध परमात्मा के साथ है। परमात्मा निराकार हैं; अतः निराकार ही हमारा स्वरूप है। हमारा स्वरूप साकार नहीं है। अतः अपनेको निराकार ही मानना होगा।- अनन्तकी ओर १६२
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अनन्तकी ओर १६२··
परमात्मप्राप्ति करना चाहो तो अपनेको स्त्री-पुरुष मत मानो अपना सम्बन्ध भगवान्से जोड़ो कि मैं तो भगवान्का हूँ। अपनेको भगवान्का मान लो तो बड़ा भारी काम हो गया । अपनेको स्त्री-पुरुष मानोगे तो भगवान् कैसे मिलेंगे? अपनेको स्त्री मानोगे तो पुरुष मिलेगा, भगवान् थोड़े ही मिलेंगे। परमात्मप्राप्तिमें स्त्रीपना - पुरुषपना भी बाधक है। स्त्री-पुरुषका भेद व्यवहारमें लौकिक मर्यादामें आवश्यक है।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्ति करना चाहो तो अपनेको स्त्री-पुरुष मत मानो अपना सम्बन्ध भगवान्से जोड़ो कि मैं तो भगवान्का हूँ। अपनेको भगवान्का मान लो तो बड़ा भारी काम हो गया । अपनेको स्त्री-पुरुष मानोगे तो भगवान् कैसे मिलेंगे? अपनेको स्त्री मानोगे तो पुरुष मिलेगा, भगवान् थोड़े ही मिलेंगे। परमात्मप्राप्तिमें स्त्रीपना - पुरुषपना भी बाधक है। स्त्री-पुरुषका भेद व्यवहारमें लौकिक मर्यादामें आवश्यक है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०७
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०७··
मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं साधु हूँ आदि मान्यताएँ व्यवहारमें तो ठीक हैं, पर परमात्मप्राप्तिमें बाधक हैं। परमात्मप्राप्तिमें जैसे 'मैं ब्राह्मण हूँ' - यह बाधक है, ऐसे ही 'मैं मेहतर हूँ' - यह भी उसीके बराबर बाधक है। ये सब ऊपरके चोले हैं। भीतरसे सब परमात्माके अंश हैं।
||श्रीहरि:||
मैं स्त्री हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं साधु हूँ आदि मान्यताएँ व्यवहारमें तो ठीक हैं, पर परमात्मप्राप्तिमें बाधक हैं। परमात्मप्राप्तिमें जैसे 'मैं ब्राह्मण हूँ' - यह बाधक है, ऐसे ही 'मैं मेहतर हूँ' - यह भी उसीके बराबर बाधक है। ये सब ऊपरके चोले हैं। भीतरसे सब परमात्माके अंश हैं।- अनन्तकी ओर १६३
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अनन्तकी ओर १६३··
जो परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, उनको सकाम उपासना बिल्कुल नहीं करनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
जो परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, उनको सकाम उपासना बिल्कुल नहीं करनी चाहिये।- अनन्तकी ओर १६४
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अनन्तकी ओर १६४··
मेरा कुछ नहीं है'- इस बातको स्वीकार करनेसे 'मेरेको कुछ भी नहीं चाहिये' - इस बातको माननेकी आपमें ताकत आ जायगी, और ताकत आते ही आप संसारसे ऊँचे उठ जाओगे। ऊँचे उठनेसे जीव परमात्मामें और शरीर संसारमें मिल जायगा। शरीर संसारमें मिलनेपर सब संसार राजी हो जायगा और जीव परमात्मामें मिलनेपर भगवान् मिल जायँगे।
||श्रीहरि:||
मेरा कुछ नहीं है'- इस बातको स्वीकार करनेसे 'मेरेको कुछ भी नहीं चाहिये' - इस बातको माननेकी आपमें ताकत आ जायगी, और ताकत आते ही आप संसारसे ऊँचे उठ जाओगे। ऊँचे उठनेसे जीव परमात्मामें और शरीर संसारमें मिल जायगा। शरीर संसारमें मिलनेपर सब संसार राजी हो जायगा और जीव परमात्मामें मिलनेपर भगवान् मिल जायँगे।- अनन्तकी ओर १७२
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अनन्तकी ओर १७२··
परमात्मप्राप्तिका लक्ष्य रखकर चलनेपर भी वर्षोंतक जो बात नहीं मिली, वह बात आपको कहता हूँ। मनुष्यशरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है; परन्तु मनुष्यशरीरसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । मनुष्यशरीरसे संसारकी सेवा होगी, और संसारकी सेवाका फल होगा परमात्माकी प्राप्ति । आपके पास जितनी सामग्री है, वह सब की सब केवल निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करनेके लिये है। शरीरसे सेवा होती है और सेवामें निष्कामभाव होनेसे कल्याण होता है।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्तिका लक्ष्य रखकर चलनेपर भी वर्षोंतक जो बात नहीं मिली, वह बात आपको कहता हूँ। मनुष्यशरीर परमात्माकी प्राप्तिके लिये मिला है; परन्तु मनुष्यशरीरसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती । मनुष्यशरीरसे संसारकी सेवा होगी, और संसारकी सेवाका फल होगा परमात्माकी प्राप्ति । आपके पास जितनी सामग्री है, वह सब की सब केवल निष्कामभावसे दूसरोंकी सेवा करनेके लिये है। शरीरसे सेवा होती है और सेवामें निष्कामभाव होनेसे कल्याण होता है।- अनन्तकी ओर १७७
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अनन्तकी ओर १७७··
प्यासे आदमीको जलका मिलना क्या है ? जल मिलनेपर तृप्ति हो जाती है। फिर जलकी इच्छा नहीं रहती। ऐसे ही भूखेको भोजन मिलनेपर तृप्ति हो जाती है। इस तरह भगवान्के मिलनेपर सब प्रकारकी तृप्ति हो जाती है। वैसी तृप्ति सब का सब संसार मिलनेपर भी नहीं हो सकती।
||श्रीहरि:||
प्यासे आदमीको जलका मिलना क्या है ? जल मिलनेपर तृप्ति हो जाती है। फिर जलकी इच्छा नहीं रहती। ऐसे ही भूखेको भोजन मिलनेपर तृप्ति हो जाती है। इस तरह भगवान्के मिलनेपर सब प्रकारकी तृप्ति हो जाती है। वैसी तृप्ति सब का सब संसार मिलनेपर भी नहीं हो सकती।- अनन्तकी ओर १९२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १९२··
वास्तवमें प्रत्यक्ष परमात्मा ही हैं। संसार प्रत्यक्ष नहीं है। असत्की सत्ता ही नहीं है। केवल सत्-ही-सत् है। जैसे अनपढ़ व्यक्ति देखते हुए भी पढ़ नहीं सकता, ऐसे ही स्थूल बुद्धिवाले मनुष्य परमात्माको देख नहीं सकते । इसलिये परमात्माको 'सूक्ष्म' कहा गया है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें प्रत्यक्ष परमात्मा ही हैं। संसार प्रत्यक्ष नहीं है। असत्की सत्ता ही नहीं है। केवल सत्-ही-सत् है। जैसे अनपढ़ व्यक्ति देखते हुए भी पढ़ नहीं सकता, ऐसे ही स्थूल बुद्धिवाले मनुष्य परमात्माको देख नहीं सकते । इसलिये परमात्माको 'सूक्ष्म' कहा गया है।- स्वातिकी बूँदें ३०
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स्वातिकी बूँदें ३०··
जो दीखे, उसीमें भगवान्का दर्शन करें। भगवान्की कमी नहीं है, भगवान्को देखनेवालेकी कमी है। आप भगवान्को अपने मनके अनुरूप देखना चाहते हैं तो भगवान् उसी रूपसे दीख जायँगे, पर आपको भगवान्के अनुरूप बनना पड़ेगा। आपके पास समय, समझ, सामर्थ्य और सामग्री बाकी न रहे, सब की सब भगवान्में लगा दें। आपके पास जो है, वही भगवान्की कीमत है।
||श्रीहरि:||
जो दीखे, उसीमें भगवान्का दर्शन करें। भगवान्की कमी नहीं है, भगवान्को देखनेवालेकी कमी है। आप भगवान्को अपने मनके अनुरूप देखना चाहते हैं तो भगवान् उसी रूपसे दीख जायँगे, पर आपको भगवान्के अनुरूप बनना पड़ेगा। आपके पास समय, समझ, सामर्थ्य और सामग्री बाकी न रहे, सब की सब भगवान्में लगा दें। आपके पास जो है, वही भगवान्की कीमत है।- स्वातिकी बूँदें ७३
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स्वातिकी बूँदें ७३··
भगवान् श्वाससे भी सस्ते हैं । श्वास भी लेने पड़ते हैं, पर भगवान् लेने नहीं पड़ते ।
||श्रीहरि:||
भगवान् श्वाससे भी सस्ते हैं । श्वास भी लेने पड़ते हैं, पर भगवान् लेने नहीं पड़ते ।- स्वातिकी बूँदें १०१
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स्वातिकी बूँदें १०१··
परमात्मप्राप्ति वास्तवमें सुगम है, पर लगन न होनेके कारण कठिन है।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्ति वास्तवमें सुगम है, पर लगन न होनेके कारण कठिन है।- अमृत-बिन्दु ४३८
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अमृत-बिन्दु ४३८··
जैसे कोई आदमी दूसरे देशमें रहता हो और उसे अपने देशमें जाना है, ऐसे ही यह संसार दूसरा देश है और परमात्माको प्राप्त करना अपने देशमें, अपने घरमें जाना है। जब हम भगवान्के ही अंश हैं तो हमारा देश वही हुआ, जो भगवान्का है। संसार हमारा देश नहीं हुआ । इसलिये परमात्माको प्राप्त करना हमारे देशमें जाना है, हमारे गाँवमें जाना है, हमारी माँके पास जाना है, हमारे पिताके पास जाना है। वही हमारी असली जगह है।
||श्रीहरि:||
जैसे कोई आदमी दूसरे देशमें रहता हो और उसे अपने देशमें जाना है, ऐसे ही यह संसार दूसरा देश है और परमात्माको प्राप्त करना अपने देशमें, अपने घरमें जाना है। जब हम भगवान्के ही अंश हैं तो हमारा देश वही हुआ, जो भगवान्का है। संसार हमारा देश नहीं हुआ । इसलिये परमात्माको प्राप्त करना हमारे देशमें जाना है, हमारे गाँवमें जाना है, हमारी माँके पास जाना है, हमारे पिताके पास जाना है। वही हमारी असली जगह है।- परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ११७
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परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ११७··
कर्ता' शुद्ध होना चाहिये अर्थात् कर्तामें लगन होनी चाहिये। सदन कसाई, बिल्वमंगल, अजामिल आदिको भगवान् मिल गये तो क्या उनका अन्तःकरण शुद्ध था ? गजेन्द्र और द्रौपदीने क्या अन्तःकरण शुद्ध किया था? उनको भगवान् मिले कि नहीं मिले? द्रौपदीके मनमें कौरवोंके प्रति द्वेषभाव था तो क्या उसका अन्तःकरण शुद्ध था ? पर उसके बुलानेसे भगवान् आ जाते थे। परमात्मप्राप्तिमें अपनी लगन चाहिये। वह लगन अशुद्ध अन्तःकरणवालेमें भी लग सकती है।
||श्रीहरि:||
कर्ता' शुद्ध होना चाहिये अर्थात् कर्तामें लगन होनी चाहिये। सदन कसाई, बिल्वमंगल, अजामिल आदिको भगवान् मिल गये तो क्या उनका अन्तःकरण शुद्ध था ? गजेन्द्र और द्रौपदीने क्या अन्तःकरण शुद्ध किया था? उनको भगवान् मिले कि नहीं मिले? द्रौपदीके मनमें कौरवोंके प्रति द्वेषभाव था तो क्या उसका अन्तःकरण शुद्ध था ? पर उसके बुलानेसे भगवान् आ जाते थे। परमात्मप्राप्तिमें अपनी लगन चाहिये। वह लगन अशुद्ध अन्तःकरणवालेमें भी लग सकती है।- स्वातिकी बूँदें १३७
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स्वातिकी बूँदें १३७··
भगवान्के बिना रहा न जाय तो अन्तःकरण अशुद्ध होनेपर भी उनकी प्राप्ति हो जायगी। बालकको माँ क्या अन्तःकरण शुद्ध होनेपर मिलती है ? भगवान्के लिये रो पड़ें तो भगवान् मिल जायँगे । अन्तःकरण शुद्ध होनेसे ही प्राप्ति होती है - यह नियम नहीं है। भगवान् करणको नहीं मिलते, प्रत्युत स्वयंको मिलते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्के बिना रहा न जाय तो अन्तःकरण अशुद्ध होनेपर भी उनकी प्राप्ति हो जायगी। बालकको माँ क्या अन्तःकरण शुद्ध होनेपर मिलती है ? भगवान्के लिये रो पड़ें तो भगवान् मिल जायँगे । अन्तःकरण शुद्ध होनेसे ही प्राप्ति होती है - यह नियम नहीं है। भगवान् करणको नहीं मिलते, प्रत्युत स्वयंको मिलते हैं।- स्वातिकी बूँदें १३७
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स्वातिकी बूँदें १३७··
इसको परमात्मप्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इसका अन्तःकरण अशुद्ध है- ऐसा कहना उसी तरह है, जैसे कोई कहे कि इसको दिखायी नहीं दे सकता; क्योंकि इसका कान खराब है । कान खराब हो तो सुनायी कम देगा, पर दीखेगा कम कैसे ? कानसे दीखता है या आँखसे दीखता है? कान कैसा ही हो, आँखसे दीख जायगा।
||श्रीहरि:||
इसको परमात्मप्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इसका अन्तःकरण अशुद्ध है- ऐसा कहना उसी तरह है, जैसे कोई कहे कि इसको दिखायी नहीं दे सकता; क्योंकि इसका कान खराब है । कान खराब हो तो सुनायी कम देगा, पर दीखेगा कम कैसे ? कानसे दीखता है या आँखसे दीखता है? कान कैसा ही हो, आँखसे दीख जायगा।- स्वातिकी बूँदें १३८
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स्वातिकी बूँदें १३८··
जैसे आँखसे रूप ही दीखता है, शब्द नहीं सुनायी देता, कानसे शब्द ही सुनायी देता है, रूप नहीं दीखता, ऐसे ही हमारे पास जो अन्तःकरण है, इन्द्रियाँ हैं, उनसे संसार ही दीखता है, परमात्मा नहीं दीखते । स्वयं परमात्माका अंश है, इसलिये परमात्माको स्वयंसे ही देख सकते हैं, मन-बुद्धि- इन्द्रियोंसे नहीं।
||श्रीहरि:||
जैसे आँखसे रूप ही दीखता है, शब्द नहीं सुनायी देता, कानसे शब्द ही सुनायी देता है, रूप नहीं दीखता, ऐसे ही हमारे पास जो अन्तःकरण है, इन्द्रियाँ हैं, उनसे संसार ही दीखता है, परमात्मा नहीं दीखते । स्वयं परमात्माका अंश है, इसलिये परमात्माको स्वयंसे ही देख सकते हैं, मन-बुद्धि- इन्द्रियोंसे नहीं।- मैं नहीं, मेरा नहीं १५७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मैं नहीं, मेरा नहीं १५७··
जिसके भीतर लालसा नहीं है, वह भगवान्को देखते हुए भी नहीं देखता । संसारका ग्राहक होनेसे संसार ही दीखता है, परमात्मा नहीं।
||श्रीहरि:||
जिसके भीतर लालसा नहीं है, वह भगवान्को देखते हुए भी नहीं देखता । संसारका ग्राहक होनेसे संसार ही दीखता है, परमात्मा नहीं।- स्वातिकी बूँदें १४०
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स्वातिकी बूँदें १४०··
अनन्य इच्छा न होनेके कारण सब जगह रहते हुए भी परमात्माको देख नहीं सकते। जैसे बिना आँखोंवाला आदमी देख नहीं सकता, ऐसे दूसरी इच्छा रखनेवाला परमात्माको देख नहीं सकता । दूसरी इच्छा रहनेसे परमात्माको देखनेमें आड़ लग जाती है। इसलिये एक परमात्माकी इच्छा के सिवाय दूसरी कोई इच्छा नहीं रहे। कुछ भी इच्छा नहीं करोगे तो दूसरी चीज सामने आयेगी ही नहीं, केवल परमात्मा ही सामने आयेंगे।
||श्रीहरि:||
अनन्य इच्छा न होनेके कारण सब जगह रहते हुए भी परमात्माको देख नहीं सकते। जैसे बिना आँखोंवाला आदमी देख नहीं सकता, ऐसे दूसरी इच्छा रखनेवाला परमात्माको देख नहीं सकता । दूसरी इच्छा रहनेसे परमात्माको देखनेमें आड़ लग जाती है। इसलिये एक परमात्माकी इच्छा के सिवाय दूसरी कोई इच्छा नहीं रहे। कुछ भी इच्छा नहीं करोगे तो दूसरी चीज सामने आयेगी ही नहीं, केवल परमात्मा ही सामने आयेंगे।- ईसवर अंस जीव अबिनासी ३३
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ईसवर अंस जीव अबिनासी ३३··
प्रत्येक वस्तुको देखनेमें दो चीजोंकी जरूरत पड़ती है— नेत्रोंकी और प्रकाशकी । नेत्रोंके बिना और प्रकाशके बिना (अँधेरेमें) हम कुछ नहीं देख सकते । परन्तु भगवान्को देखनेमें इन दोनोंकी जरूरत नहीं। भगवान् नेत्रहीन सूरदासजीको भी दीख गये।
||श्रीहरि:||
प्रत्येक वस्तुको देखनेमें दो चीजोंकी जरूरत पड़ती है— नेत्रोंकी और प्रकाशकी । नेत्रोंके बिना और प्रकाशके बिना (अँधेरेमें) हम कुछ नहीं देख सकते । परन्तु भगवान्को देखनेमें इन दोनोंकी जरूरत नहीं। भगवान् नेत्रहीन सूरदासजीको भी दीख गये।- स्वातिकी बूँदें १५९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १५९··
भगवान्के लिये केवल लगन चाहिये। केवल आपका भाव ही अटकानेवाला है। यदि आपका भाव हो कि भगवान् अभी मिलेंगे तो वे अभी मिल जायँगे। मान लो, कोई मुझे कम्बल दे और दूसरा कहे कि स्वामीजी तो बड़े त्यागी हैं, ये कम्बल कैसे ले लेंगे । तो इच्छा होते हुए भी मैं कम्बल नहीं ले सकूँगा। ऐसे ही परमात्माकी प्राप्तिमें आपके सिवाय और कोई आड़ लगानेवाला नहीं है।
||श्रीहरि:||
भगवान्के लिये केवल लगन चाहिये। केवल आपका भाव ही अटकानेवाला है। यदि आपका भाव हो कि भगवान् अभी मिलेंगे तो वे अभी मिल जायँगे। मान लो, कोई मुझे कम्बल दे और दूसरा कहे कि स्वामीजी तो बड़े त्यागी हैं, ये कम्बल कैसे ले लेंगे । तो इच्छा होते हुए भी मैं कम्बल नहीं ले सकूँगा। ऐसे ही परमात्माकी प्राप्तिमें आपके सिवाय और कोई आड़ लगानेवाला नहीं है।- स्वातिकी बूँदें १६५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १६५··
स्वतः - स्वाभाविक, बिना प्रयत्न किये बिना प्रेरणा किये आपका मन भगवान्में लगता है क्या ? जैसे भूखेको भोजनकी आवश्यकता होती है, ऐसे आप परमात्माकी आवश्यकताका अनुभव करते हैं क्या? जैसे बदरीनाथका यात्री रास्तेमें ठहरता है तो भोजन भी करता है, नींद भी लेता है; परन्तु उसमें बदरीनाथ जानेकी धुन हरदम रहती है। इसी तरह खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते- जागते हरदम भगवान्को प्राप्त करनेकी धुन रहती है क्या? अगर नहीं रहती है तो भगवान्की प्राप्ति कैसे होगी, बताओ?
||श्रीहरि:||
स्वतः - स्वाभाविक, बिना प्रयत्न किये बिना प्रेरणा किये आपका मन भगवान्में लगता है क्या ? जैसे भूखेको भोजनकी आवश्यकता होती है, ऐसे आप परमात्माकी आवश्यकताका अनुभव करते हैं क्या? जैसे बदरीनाथका यात्री रास्तेमें ठहरता है तो भोजन भी करता है, नींद भी लेता है; परन्तु उसमें बदरीनाथ जानेकी धुन हरदम रहती है। इसी तरह खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते- जागते हरदम भगवान्को प्राप्त करनेकी धुन रहती है क्या? अगर नहीं रहती है तो भगवान्की प्राप्ति कैसे होगी, बताओ?- मामेकं शरणं व्रज ९६
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मामेकं शरणं व्रज ९६··
भगवत्प्राप्ति नामसे अथवा मन्त्रसे नहीं होती, प्रत्युत भावसे होती है।
||श्रीहरि:||
भगवत्प्राप्ति नामसे अथवा मन्त्रसे नहीं होती, प्रत्युत भावसे होती है।- स्वातिकी बूँदें १७४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १७४··
जो संसारमें जितना अयोग्य होता है, उतना परमात्मप्राप्तिमें योग्य होता है। संसारमें जितना योग्य हो, उतनी परमात्मप्राप्तिमें देरी होगी।
||श्रीहरि:||
जो संसारमें जितना अयोग्य होता है, उतना परमात्मप्राप्तिमें योग्य होता है। संसारमें जितना योग्य हो, उतनी परमात्मप्राप्तिमें देरी होगी।- स्वातिकी बूँदें १७९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १७९··
आत्मसाक्षात्कार तो हरेक साधकको हो सकता है; उसको भी हो सकता है, जो ईश्वरको नहीं मानता। परन्तु ईश्वरदर्शन उसीको होते हैं, जो ईश्वरको मानता है।
||श्रीहरि:||
आत्मसाक्षात्कार तो हरेक साधकको हो सकता है; उसको भी हो सकता है, जो ईश्वरको नहीं मानता। परन्तु ईश्वरदर्शन उसीको होते हैं, जो ईश्वरको मानता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २२··
पदार्थ और क्रियाका आदर संसारका ही आदर है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति संसारसे ऊँचा उठनेपर ही होगी। श्रवण-मनन-निदिध्यासनके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। हम शरीरको मुख्य मानेंगे तो हमारा सब का सब विवेचन जड़ताकी तरफ ही जायगा। बातें बढ़िया-बढ़िया हो जायँगी, पर कल्याण नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
पदार्थ और क्रियाका आदर संसारका ही आदर है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति संसारसे ऊँचा उठनेपर ही होगी। श्रवण-मनन-निदिध्यासनके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। हम शरीरको मुख्य मानेंगे तो हमारा सब का सब विवेचन जड़ताकी तरफ ही जायगा। बातें बढ़िया-बढ़िया हो जायँगी, पर कल्याण नहीं होगा।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४४
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४४··
भगवत्प्राप्तिमें व्याकुलतासे जितना लाभ होता है, उतना जल्दी लाभ विचारपूर्वक किये गये साधनसे नहीं होता।
||श्रीहरि:||
भगवत्प्राप्तिमें व्याकुलतासे जितना लाभ होता है, उतना जल्दी लाभ विचारपूर्वक किये गये साधनसे नहीं होता।- अमृत-बिन्दु ४११
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अमृत-बिन्दु ४११··
भगवान् हठसे नहीं मिलते, प्रत्युत सच्ची लगनसे मिलते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान् हठसे नहीं मिलते, प्रत्युत सच्ची लगनसे मिलते हैं।- अमृत-बिन्दु ४२७
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अमृत-बिन्दु ४२७··
केवल भगवान्की इच्छा हो तो भगवान् प्रकट हो जायँगे अथवा कोई भी इच्छा न हो तो भगवान् प्रकट हो जायँगे। अधूरापन नहीं होना चाहिये।
||श्रीहरि:||
केवल भगवान्की इच्छा हो तो भगवान् प्रकट हो जायँगे अथवा कोई भी इच्छा न हो तो भगवान् प्रकट हो जायँगे। अधूरापन नहीं होना चाहिये।- अमृत-बिन्दु ४४३
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अमृत-बिन्दु ४४३··
संसार है, अभी है और अपना है-ऐसा माननेसे ही परमात्मा है, अभी है और अपना है- इसका अनुभव नहीं होता।
||श्रीहरि:||
संसार है, अभी है और अपना है-ऐसा माननेसे ही परमात्मा है, अभी है और अपना है- इसका अनुभव नहीं होता।- अमृत-बिन्दु ४६०
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अमृत-बिन्दु ४६०··
वास्तविक दृष्टिसे देखें तो भगवान् भी विद्यमान हैं, गुरु भी विद्यमान हैं, तत्त्वज्ञान भी विद्यमान है और अपनेमें योग्यता, सामर्थ्य भी विद्यमान है। केवल नाशवान् सुखकी आसक्तिसे ही उनके प्रकट होनेमें बाधा लग रही है।
||श्रीहरि:||
वास्तविक दृष्टिसे देखें तो भगवान् भी विद्यमान हैं, गुरु भी विद्यमान हैं, तत्त्वज्ञान भी विद्यमान है और अपनेमें योग्यता, सामर्थ्य भी विद्यमान है। केवल नाशवान् सुखकी आसक्तिसे ही उनके प्रकट होनेमें बाधा लग रही है।- साधक संजीवनी ६।५ परि०
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साधक संजीवनी ६।५ परि०··
जबतक कामना होती है, अनुकूलता अच्छी लगती है, प्रतिकूलता बुरी लगती है, तबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई।
||श्रीहरि:||
जबतक कामना होती है, अनुकूलता अच्छी लगती है, प्रतिकूलता बुरी लगती है, तबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं हुई।- मामेकं शरणं व्रज ४९
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मामेकं शरणं व्रज ४९··
भगवान् भक्तोंको भी मिलते हैं और पापीको भी मिलते हैं- इस बातपर विश्वास करें। भगवान् जैसे भक्तवत्सल हैं, ऐसे पतितपावन भी हैं। हम भक्त नहीं हैं तो कोई बात नहीं, पापी तो हैं ही । अपना नाम भक्तोंमें नहीं लिखवा सकते तो पापियोंमें लिखवा लो । भगवान्भ क्तोंपर ही कृपा करें, पापियोंपर नहीं करें तो इसमें उनकी महिमा नहीं है। उनकी महिमा तो पतितपावन होनेमें है।
||श्रीहरि:||
भगवान् भक्तोंको भी मिलते हैं और पापीको भी मिलते हैं- इस बातपर विश्वास करें। भगवान् जैसे भक्तवत्सल हैं, ऐसे पतितपावन भी हैं। हम भक्त नहीं हैं तो कोई बात नहीं, पापी तो हैं ही । अपना नाम भक्तोंमें नहीं लिखवा सकते तो पापियोंमें लिखवा लो । भगवान्भ क्तोंपर ही कृपा करें, पापियोंपर नहीं करें तो इसमें उनकी महिमा नहीं है। उनकी महिमा तो पतितपावन होनेमें है।- ईसवर अंस जीव अबिनासी ६४
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ईसवर अंस जीव अबिनासी ६४··
जब परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है और जो परमात्माको चाहनेवाला है, उस जगह भी परमात्मा पूर्णरूपसे है तो उसको जल्दी प्राप्ति क्यों नहीं होगी ?
||श्रीहरि:||
जब परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है और जो परमात्माको चाहनेवाला है, उस जगह भी परमात्मा पूर्णरूपसे है तो उसको जल्दी प्राप्ति क्यों नहीं होगी ?- मैं नहीं, मेरा नहीं १७४
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मैं नहीं, मेरा नहीं १७४··
पूरे के पूरे भगवान् आपकी मुट्ठीमें हैं ।। जब सुईकी तीखी नोक टिके, इतनी जगह भी भगवान्से खाली नहीं है तो फिर मुट्ठी खाली कैसे ? आँखें मीचकर भगवान्को पकड़ लो ।
||श्रीहरि:||
पूरे के पूरे भगवान् आपकी मुट्ठीमें हैं ।। जब सुईकी तीखी नोक टिके, इतनी जगह भी भगवान्से खाली नहीं है तो फिर मुट्ठी खाली कैसे ? आँखें मीचकर भगवान्को पकड़ लो ।- पायो परम बिश्रामु९८
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पायो परम बिश्रामु९८··
भगवान्को प्रकट करनेके लिये, उनका प्रेम प्राप्त करनेके लिये भगवान्को अपना मानना बहुत जरूरी है। जैसे बालक कहता है कि माँ मेरी है, ऐसे भगवान् मेरे हैं। भगवान्में मेरापन प्रेमका मन्त्र है, जिससे भगवान् प्रकट हो जाते हैं। आपके भीतर यह भाव आना चाहिये कि मेरी माँ मेरेको गोदमें क्यों नहीं लेती ?
||श्रीहरि:||
भगवान्को प्रकट करनेके लिये, उनका प्रेम प्राप्त करनेके लिये भगवान्को अपना मानना बहुत जरूरी है। जैसे बालक कहता है कि माँ मेरी है, ऐसे भगवान् मेरे हैं। भगवान्में मेरापन प्रेमका मन्त्र है, जिससे भगवान् प्रकट हो जाते हैं। आपके भीतर यह भाव आना चाहिये कि मेरी माँ मेरेको गोदमें क्यों नहीं लेती ?- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ७२
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ७२··
अगर आप सुगमतासे भगवत्प्राप्ति चाहते हैं तो मेरी प्रार्थना है कि आप 'मैं भगवान्का हूँ'- यह मान लें। यह 'चुप साधन' अथवा 'मूक सत्संग' से भी बढ़िया साधन है ।...... मैं हाथ जोड़कर प्रेमसे कहता हूँ कि मेरी जानकारीमें यह सबसे बढ़िया साधन है।
||श्रीहरि:||
अगर आप सुगमतासे भगवत्प्राप्ति चाहते हैं तो मेरी प्रार्थना है कि आप 'मैं भगवान्का हूँ'- यह मान लें। यह 'चुप साधन' अथवा 'मूक सत्संग' से भी बढ़िया साधन है ।...... मैं हाथ जोड़कर प्रेमसे कहता हूँ कि मेरी जानकारीमें यह सबसे बढ़िया साधन है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८··
भगवान्के दर्शन करना हमारे अधीन नहीं है। दर्शन देना भगवान्के अधीन है।
||श्रीहरि:||
भगवान्के दर्शन करना हमारे अधीन नहीं है। दर्शन देना भगवान्के अधीन है।- स्वातिकी बूँदें ३७
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स्वातिकी बूँदें ३७··
आत्मसाक्षात्कार अपने स्वरूपका होता है, और दर्शन भगवान्के होते हैं। आत्मसाक्षात्कारको तत्त्वबोध अथवा तत्त्वसाक्षात्कार भी कहते हैं। आत्मसाक्षात्कार साधन है, भगवद्दर्शन साध्य है- 'भक्त्या सञ्जातया भक्त्या' (श्रीमद्भा० ११ । ३ । ३१)।
||श्रीहरि:||
आत्मसाक्षात्कार अपने स्वरूपका होता है, और दर्शन भगवान्के होते हैं। आत्मसाक्षात्कारको तत्त्वबोध अथवा तत्त्वसाक्षात्कार भी कहते हैं। आत्मसाक्षात्कार साधन है, भगवद्दर्शन साध्य है- 'भक्त्या सञ्जातया भक्त्या' (श्रीमद्भा० ११ । ३ । ३१)।- पायो परम बिश्रामु ४४
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पायो परम बिश्रामु ४४··
भगवान् नामजप, गोसेवा आदि किसी साधनसे दर्शन नहीं देते, प्रेमसे दर्शन देते हैं— 'प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना' (मानस, बाल० १८५ । ३)।
||श्रीहरि:||
भगवान् नामजप, गोसेवा आदि किसी साधनसे दर्शन नहीं देते, प्रेमसे दर्शन देते हैं— 'प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना' (मानस, बाल० १८५ । ३)।- स्वातिकी बूँदें १७६
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स्वातिकी बूँदें १७६··
केवल स्वयंकी व्याकुलतापूर्वक उत्कण्ठा हो, भगवान्के दर्शन बिना एक क्षण भी चैन न पड़े। ऐसी जो भीतरमें स्वयंकी बेचैनी है, वही भगवत्प्राप्तिमें खास कारण है।
||श्रीहरि:||
केवल स्वयंकी व्याकुलतापूर्वक उत्कण्ठा हो, भगवान्के दर्शन बिना एक क्षण भी चैन न पड़े। ऐसी जो भीतरमें स्वयंकी बेचैनी है, वही भगवत्प्राप्तिमें खास कारण है।- साधक संजीवनी ११ । ५४
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साधक संजीवनी ११ । ५४··
जप, ध्यान, कीर्तन, पाठ-पूजा, तीर्थ आदि करनेसे भगवान्के दर्शन नहीं होते। ऐसी दशा हो जाय कि भगवान्के बिना मेरे प्राण निकल जायँगे, तो जरूर मिल जायँगे। इसके सिवाय और किसी उपायसे नहीं मिलेंगे, नहीं मिलेंगे, नहीं मिलेंगे। पक्की बात है।
||श्रीहरि:||
जप, ध्यान, कीर्तन, पाठ-पूजा, तीर्थ आदि करनेसे भगवान्के दर्शन नहीं होते। ऐसी दशा हो जाय कि भगवान्के बिना मेरे प्राण निकल जायँगे, तो जरूर मिल जायँगे। इसके सिवाय और किसी उपायसे नहीं मिलेंगे, नहीं मिलेंगे, नहीं मिलेंगे। पक्की बात है।- मैं नहीं, मेरा नहीं १५८
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मैं नहीं, मेरा नहीं १५८··
आप तत्त्वज्ञ हो सकते हो, जीवन्मुक्त हो सकते हो, पर भगवान् मिल जायँ - यह बात नहीं है ....... भगवान् बहुत विचित्र हैं। वे एक गायको, बछड़ेको दर्शन दे देंगे, पर बड़े सन्त-महात्मा, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्तको दर्शन नहीं देंगे। उनको सच्चा प्रेम चाहिये। नकली प्रेमसे आप मर जाओ तो भी आयेंगे नहीं। सच्चा प्रेम हो तो वे आ जायँगे। प्रेमके कारण उन्होंने करमाबाईका खीचड़ खा लिया। प्रेम सबसे विलक्षण है।
||श्रीहरि:||
आप तत्त्वज्ञ हो सकते हो, जीवन्मुक्त हो सकते हो, पर भगवान् मिल जायँ - यह बात नहीं है ....... भगवान् बहुत विचित्र हैं। वे एक गायको, बछड़ेको दर्शन दे देंगे, पर बड़े सन्त-महात्मा, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्तको दर्शन नहीं देंगे। उनको सच्चा प्रेम चाहिये। नकली प्रेमसे आप मर जाओ तो भी आयेंगे नहीं। सच्चा प्रेम हो तो वे आ जायँगे। प्रेमके कारण उन्होंने करमाबाईका खीचड़ खा लिया। प्रेम सबसे विलक्षण है।- मैं नहीं, मेरा नहीं १५९