Seeker of Truth

ईश्वरमें अपनापन

अनन्त ब्रह्माण्डोंमें केशभर भी कोई वस्तु अपनी नहीं है, पर अनन्त ब्रह्माण्ड जिसके एक अंशमें हैं, वे परमात्मा अपने हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८९··

भगवान्‌ के साथ अपनापन माननेके समान दूसरा कोई साधन नहीं है, कोई योग्यता नहीं है, कोई बल नहीं है, कोई अधिकारिता नहीं है।...... प्रभुको अपना माननेमें मन, बुद्धि आदि किसीकी सहायता नहीं लेनी पड़ती, जबकि दूसरे साधनोंमें मन, बुद्धि आदिकी सहायता लेनी पड़ती है..........साधक भक्तमें कुछ गुणोंकी कमी रहनेपर भी भगवान्की दृष्टि केवल अपनेपनपर ही जाती है, गुणोंकी कमीपर नहीं । कारण कि भगवान्‌के साथ हमारा जो अपनापन है, वह वास्तविक है ।

साधक संजीवनी ७ । १६ वि०··

सैकड़ों तप, व्रत, तीर्थ, उपवास आदि कर लो तो भी भगवान्‌में अपनेपनके समान कुछ नहीं है । भगवान्में अपनापन भजन- ध्यानसे भी श्रेष्ठ है । भगवान्‌के नामका जप, भगवान्‌का चिन्तन, भगवान्का ध्यान, भगवान् ‌में समाधि - इन सबसे श्रेष्ठ बात है कि 'मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैं'। इसमें आपका विश्वास जितना दृढ़ होगा, उतना आपका काम ठीक हो जायगा।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १७०-१७१··

भगवान्‌को अपना मानना सबसे श्रेष्ठ साधन है। भगवान्‌को अपना माननेसे भगवत्कृपासे राग- द्वेष भी दूर हो जाते हैं, समता भी आ जाती है, शान्ति भी मिल जाती है, मुक्ति भी हो जाती है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९··

जो भगवान् को अपना मान लेता है, वह संसारसे ऊँचा उठ जाता है, सन्त महात्मा हो जाता है । उसको शान्ति मिल जाती है, आनन्द मिल जाता है। उसको किसी चीजकी परवाह नहीं रहती। इसलिये भगवान्‌को अपना मानकर मस्त हो जाओ। 'मैं भगवान्‌का हूँ' - इस बातको भूलो मत तो भगवान् जरूर मिलेंगे। अपने-आप सत्संग मिलेगा, सन्त महात्मा मिलेंगे।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३०··

कोई पूछे कि आप कौन हो, तो आपके भीतर सबसे पहले यह बात आनी चाहिये कि मैं भगवान्‌का हूँ। मैं भगवान्‌का हूँ- यह घरके भीतर गड़ा हुआ धन है, जिसको न जाननेके कारण आप गरीब होकर दुःख पा रहे हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३४··

मूल भूल यह है कि जो अपना नहीं है, उस ( शरीर - इन्द्रियाँ- मन-बुद्धि) को अपना मान लिया और जो अपना है, उस परमात्माको अपना नहीं माना। इस एक भूलमें सब भूल है। गणितमें एक अंककी भी भूल हो जाय तो सब का सब रद्दी हो जाता है, एक भी नम्बर नहीं मिलता। इसलिये कम-से-कम आप इतना मान लें कि 'हम परमात्माके हैं और परमात्मा हमारे हैं'।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ६०··

वर्षोंतक सत्संग करनेसे जो लाभ नहीं होता, वह भगवान्‌को अपना मान लेनेसे एक दिनमें हो जाता है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८७··

सांसारिक वस्तुओं तथा व्यक्तियोंको जितना अपना मानोगे, उतना परमात्मामें अपनापन दीखेगा नहीं। जब यह ठीक अनुभव हो जायगा कि अनन्त ब्रह्माण्डोंमें तिल - जितनी वस्तु भी अपनी नहीं है, शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि- अहम् भी अपने नहीं हैं और अपने लिये भी नहीं है, तब असली तत्त्व समझमें आयेगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८८··

तीनों शरीरोंसे होनेवाली क्रिया, चिन्तन और समाधि भी अपनी और अपने लिये नहीं है। क्रिया, चिन्तन और समाधि से सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर जिसकी प्राप्ति होती है, वह तत्त्व ही अपना और अपने लिये है। उसी परमात्मतत्त्वके हम अंश हैं। मनुष्य जबतक शरीर - संसारको अपना और अपने लिये मानता रहेगा, तबतक वह बातें सुन लेगा, सीख लेगा, सुना देगा, व्याख्यान दे देगा, पर उस तत्त्वको ठीक नहीं समझेगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८८··

भगवान्‌को अपना माने बिना भजन करनेसे भजनकी वैसी सिद्धि नहीं होती। परन्तु भगवान्‌को अपना मान लें तो भजन किये बिना स्वाभाविक भजनकी सिद्धि हो जायगी । मैं भगवान्का हूँ- ऐसा भीतरसे मान लें तो आपकी अवस्था बदल जायगी, आपका पूरा परिवर्तन हो जायगा, आपको शान्ति मिल जायगी, आपकी शंका मिट जायगी, सन्देह मिट जायगा । 'हे नाथ। मैं आपका हूँ'- इतना भीतरसे मान लो तो संसारका सम्बन्ध स्वतः छूट जायगा । संसारको छोड़नेके लिये आपको प्रयत्न नहीं करना पड़ेगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०८··

भगवान् हमारे हैं, हम भगवान्के हैं- इस प्रकार भगवान् से सम्बन्ध होनेपर भगवान्‌को याद करना नहीं पड़ेगा, प्रत्युत उनकी याद स्वतः आयेगी।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३२··

हम भगवान्‌के हैं- इतना माननेमात्रसे अनन्त, अपार शुद्धि आ जायगी।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४२··

भगवान् भक्तके अपनेपनको ही देखते हैं, गुणों और अवगुणोंको नहीं अर्थात् भगवान्को भक्तके दोष दीखते ही नहीं, उनको तो केवल भक्तके साथ जो अपनापन है, वही दीखता है।

साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··

एक भगवान्‌के सिवाय दूसरा कोई हमारा बन सकता नहीं, हमारे साथ रह सकता नहीं। जैसे अपने बच्चेको खेलते देखकर माँके हृदयमें स्नेह उमड़ता है, ऐसे इस जीवको देखकर भगवान् के हृदयमें प्यार आ रहा है कि मैं इसको अपना लूँ, इससे मिलूँ, बात करूँ । परन्तु यह जीव भगवान् की तरफ देखता ही नहीं इसलिये आप सबसे मेरा कहना है कि आप कैसे ही हों, कम-से-कम, कम-से-कम यह बात याद रखो कि भगवान् मेरे हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १६२··

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई'- यह मान लो तो दुःख कभी होगा ही नहीं। इसे मानने से हानि है ही नहीं, कोरा लाभ ही लाभ है। शरीर इन्द्रियाँ - प्राण-मन-बुद्धि आदि कुछ भी मेरा नहीं है, केवल भगवान् ही मेरे हैं- यह मान लो तो निहाल हो जाओगे......निहाल हो जाओगे......निहाल हो जाओगे ।। आपको कोई बाधा नहीं रहेगी। बीमारीमें भी दुःख नहीं होगा, प्रत्युत आनन्द होगा । शरीरमें शक्ति नहीं रहेगी, पर भीतर आनन्द रहेगा। आपको चार-पाँच डिग्री बुखार हो जाय, आपका बोलना बन्द हो जाय, आप बेहोश हो जायँ, तो भी भीतरके आनन्दमें फर्क नहीं पड़ेगा । यह बिलकुल सच्ची बात है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १६९··

भगवान् मेरे हैं - ऐसा मान लिया तो बहुत काम हो गया, भगवान्‌के बहुत नजदीक आ गये । आपको जो निवृत्ति करनी है, वह अब प्रभुकी कृपासे, उनकी शक्तिसे होगी।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १७३··

आप सत्संग करने आये हो तो इतनी बात मान लो कि हम जैसे भी हैं, भगवान्के हैं। एक भगवान्‌को अपना न माननेसे दुःख पाना ही पड़ेगा, इसमें सन्देह नहीं है। जगह-जगह जन्मोगे, मरोगे, दुःख पाओगे । भगवान्‌के हो गये तो अब मौज करो। अब कुछ करनेकी जरूरत नहीं । भगवान् ‌को अपना मान लो तो भगवान् भी राजी सन्त भी राजी, सब लोग राजी।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १७७··

संसारमें हमारी कोई चीज नहीं है - इसमें जितनी शंका करो सब चलेगी; परन्तु भगवान् हमारे हैं- इसमें शंका नहीं चलेगी। इसको तो मानना ही पड़ेगा। पहले संसारको जानना पड़ता है और भगवान्‌को मानना पड़ता है। पीछे भगवान् माने हुए नहीं रहते, साक्षात् हो जाते हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८६··

संसारमें मेरा कुछ नहीं है - यह संसारको पूरा जानना हो गया । संसारमें मेरा कुछ नहीं है- यह जान लो और भगवान् मेरे हैं- यह मान लो तो काम पूरा हो जायगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८८··

जैसे आपके घरकी कन्या विवाहके बाद उस घरकी हो जाती है, ऐसे ही आप भगवान्‌के घरके हो जाओ। ऐसा मान लो कि अब हम कुँआरे नहीं हैं। हम जंगली पशुकी तरह बिना मालिकके नहीं हैं। हम भगवान्‌के हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९३··

मेरा कुछ नहीं है और भगवान् मेरे हैं- ये दो बातें अगर आप स्वीकार कर लें तो बेड़ा पार है। बहुत जल्दी आपकी आध्यात्मिक उन्नति हो जायगी । अन्य उपायोंकी अपेक्षा यह उपाय बहुत जल्दी सिद्धि करनेवाला है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९६··

श्रवण-मनन-निदिध्यासन करनेकी, आँख - कान-नाक बन्द करनेकी जरूरत नहीं है। बात इतनी-सी ही है- 'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई'। भगवान्‌के सिवाय कोई अपना नहीं है । आपको नहीं जँचे तो भी मान लो । बात सच्ची है। इसको आप कठिन मत मानो।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०२··

हे नाथ। मैं आपका हूँ'- यह स्वीकार कर लो तो यह भगवान्‌के यहाँ बीमा हो गया । फिर हर समय भगवान्‌को याद करते रहो, नामजप करते रहो-यह उस बीमाकी किश्त भरना है।

ज्ञानके दीप जले १०८··

ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि समझनेकी जरूरत नहीं। बालक ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि कुछ नहीं जानता, केवल यही जानता है कि मेरी माँ है। मेरी माँ मेरेको गोदमें क्यों नहीं लेती — ऐसी व्याकुलता होनी चाहिये।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २११··

भजन अखण्ड नहीं होता, पर सम्बन्ध अखण्ड होता है। इसलिये आप 'मैं भगवान्‌का हूँ'- इस प्रकार अपना अहम् बदल दें अर्थात् भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़कर एक जातिके हो जायँ तो जल्दी सिद्धि होगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६··

जो किसीको भी अपना मानता है, वह वास्तवमें भगवान्‌को सर्वथा अपना नहीं मानता, कहनेको चाहे कहता रहे कि भगवान् मेरे हैं।

साधक संजीवनी ५।२९··

भगवान्‌का होनेका जो प्रभाव है, वह भजनका नहीं है। भगवान्‌का होकर भजन करनेसे जो शक्ति आती है, वह संसारका होकर भजन करनेसे नहीं आती। भगवान्‌का होकर भगवान्‌का भजन करनेसे मनुष्य भगवान्से भी बड़ा हो जाता है- 'राम ते अधिक राम कर दासा' (मानस, उत्तर० १२० । ८), पर बड़ा होता है भगवान्‌से ही शक्ति पाकर वह शक्ति भगवान्‌का होनेसे ही प्राप्त होती है । भगवान्‌का होकर ही मनुष्य वह शक्ति ले सकता है। जैसे माँके दूधसे बच्चेमें शक्ति आती है, ऐसे ही भगवान्‌के साथ भक्तकी जितनी एकता, तल्लीनता होगी, उतनी ही भगवान्की शक्ति उसमें आ जायगी।

साधक संजीवनी ६-७··

आप भगवान्‌के, घर भगवान्‌का, कुटुम्ब भगवान्‌का, वस्तुएँ भगवान्‌की - यह मान लो तो आपका सत्संग करना सफल हो गया । सब कुछ भगवान्का मान लें- इससे सरल उपाय और क्या बताऊँ ?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४१··

आप कितने ही पापी हों तो भी आप परमात्माके साथ हैं। पाप-पुण्य आपका स्पर्श ही नहीं करते। आप परमात्मा हैं और परमात्मा आपके हैं- इसको आप भूल जायँ तो भी बात वैसी-की वैसी ही है। भूलना और न भूलना तो बुद्धिमें है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४६··

भगवान् पापी से पापी व्यक्तिके लिये भी यह नहीं कह सकते कि यह मेरा नहीं है।

ज्ञानके दीप जले १९५··

मैं परमात्माका हूँ- यह चिन्तन करनेकी बात नहीं है, प्रत्युत माननेकी बात है। दो और दो चार ही होते हैं, इसमें चिन्तन करनेकी क्या बात है?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४७··

मनमें कामना, राग-द्वेष न हों, पर भगवान्‌में अपनापन न हो तो मुक्ति हो जायगी, पर परमात्मा नहीं मिलेंगे। परन्तु मनमें कामना, राग-द्वेष हों, पर भगवान्में अपनापन हो तो परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी। तात्पर्य है कि निर्विकारताका सम्बन्ध मुक्तिके साथ है, पर अपनेपनका सम्बन्ध भगवान्‌के साथ है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४७··

जीव परमात्माका अंश है'- यह आपने सुन लिया है, पर मैं परमात्माका हूँ' - ऐसा आप मानते हो क्या?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६४··

जैसे विवाह होनेपर तत्काल बेटा नहीं होता, प्रत्युत समय पाकर होता है, ऐसे ही आप भगवान्के हो जाओ, फिर समय पाकर वह सब हो जायगा, जो आप चाहते हो । स्वतः अनुभव हो जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८५··

अपनेको भगवान्का मान लो फिर किसी गुरुकी जरूरत नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८५··

हम भगवान्‌के हैं और भगवान् हमारे हैं-इतना स्वीकार कर लो तो हमारा सत्संग सफल हो गया और आपका काम भी सफल हो गया।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८५··

वस्तुओं तथा व्यक्तियोंको अपना मानेंगे तो अभिमानरूपी विष चढ़ेगा, पर 'सब कुछ भगवान्का है और भगवान् मेरे हैं' - ऐसा माननेसे अभिमानरूपी विष नहीं चढ़ेगा; क्योंकि बीचमें भगवान् आ गये।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०७··

मैं संसारका हूँ- इसमें महान् पतन है। मैं भगवान्‌का हूँ-इसमें महान् उत्थान है। भगवान्‌में अपनापन होनेसे शरीरका अध्यास छोड़ना नहीं पड़ता, स्वतः छूट जाता है। 'मैं शरीर हूँ' – ऐसा मानोगे तो सब दोष आ जायँगे, पर 'मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैं' - ऐसा मानोगे तो कोई दोष नजदीक नहीं आयेगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२५··

आप यह याद कर लिया करो कि हम उस भगवान्‌के अंश हैं, जिसके समान भी कोई नहीं है, फिर अधिक कैसे होगा । इसलिये आप मायासे डरो मत। हम भगवान्‌के हैं - यह याद करनेसे अपने आप बल आ जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२८··

हम भगवान्‌के हैं, फिर हम चिन्ता क्यों करें ? चिन्ता वह करे जो भगवान्का न हो।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२८··

एक भगवान्‌के सिवाय कोई चीज मेरी नहीं यह मान लो तो निहाल हो जाओगे। इसके समान आनन्दकी, शान्तिकी दूसरी कोई बात है ही नहीं। यह सब शास्त्रोंकी, सन्त-महात्माओंकी सार बात है। नामजप, भजन, कीर्तन आदि कोई साधनकी जरूरत नहीं, मन चाहे वशमें करो या न करो, बस, इतना मान लो कि भगवान्‌के सिवाय कोई चीज हमारी है ही नहीं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३४··

अनन्त ब्रह्माण्डोंकी रक्षा करनेवाले परमात्मा हमारे पिता हैं, फिर हमें किस बातकी चिन्ता है ? अगर आप स्वीकार कर लो कि 'भगवान् हमारे हैं, हम भगवान्के हैं तो आपमें एक दिनमें बड़ा भारी फर्क पड़ जायगा। आप निश्चिन्त, निर्भय हो जायँगे । भगवान्‌को अपना मान लो तो सब काम पूरा हो जायगा, कोई काम किंचिन्मात्र भी बाकी नहीं रहेगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५०··

यदि भगवान्में प्रेम चाहते हो तो उनको अपना मान लो फिर उनकी याद स्वतः आयेगी, करनी नहीं पड़ेगी।....... भगवान् मेरे हैं- इसमें जो शक्ति है, वह त्याग तपस्यामें नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५५-१५६··

जीवमात्र भगवान्‌का पुत्र है ।....... आप केवल स्वीकार कर लें कि हम भगवान्‌के पुत्र हैं तो क्या बाधा है? इतना स्वीकार कर लें तो बहुत काम हो गया । वर्षोंतक साधन करनेसे जो स्थिति नहीं बनती, वह स्थिति इतना स्वीकार करनेसे बन जायगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५६··

भगवान् हमारे हैं, उनके सिवाय कोई हमारा नहीं है - ऐसा मान लो तो आप जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, महात्मा हो जाओगे । भगवान् के सिवाय अगर गुरुको भी अपना मान लिया तो बाधा लगी है, फायदा नहीं हुआ है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५७··

हम भगवान्‌के हैं' - यह इतनी बढ़िया बात मिल गयी, अब और क्या चाहिये? अगर हम इस बातको न भूलें कि हम भगवान्‌के हैं तो सब काम ठीक हो जायगा, 'चेतन अमल सहज सुख रासी' का अनुभव हो जायगा । हमें साधन करना नहीं पड़ेगा, होने लग जायगा । 'हम भगवान्‌के हैं' – इस बातको याद रखें तो अवगुण नजदीक नहीं आयेंगे, भाग जायँगे। भूल जायँगे तो अवगुण घेर लेंगे।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५९··

हम भगवान्‌के हैं' - ऐसा मानकर आप सब-के-सब जहाँ हैं, वहीं रहते हुए सन्त हो सकते हैं। इसमें कोई आपको बाधा नहीं दे सकता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८३··

जैसे बेटा स्वतः, बिना पढ़े-लिखे बापकी सम्पत्तिका मालिक होता है, ऐसे ही भगवान्‌का होनेपर आप भगवान्की सम्पत्तिके मालिक हो जाओगे।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८३··

भगवान्‌के विषयमें बहुत-सी बातें आती हैं। परन्तु जो अपना कल्याण चाहता है, उसको 'भगवान्कै से हैं, कैसे नहीं हैं'- इन बातोंमें नहीं पड़ना चाहिये। कल्याण करनेवाली बात यह है कि 'भगवान् हैं और वे जैसे भी हैं, हमारे हैं'। खास बात यह है कि 'हम सनाथ हैं, अनाथ नहीं हैं' - इस बातको पकड़ लेना चाहिये।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९१··

संसारको अपना मानना और भगवान्‌को अपना न मानना महान् अनर्थ है...... महान् अनर्थ है..... महान् अनर्थ है । मन मेरा है, बुद्धि मेरी है, शरीर मेरा है तो भगवान् कैसे मिलेंगे?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०७··

समझमें नहीं आये तो भी भगवान्‌को अपना मान लो । उनको नकली भी अपना मान लो तो वह असली हो जायगा; क्योंकि असलमें वे अपने हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१०··

भगवत्प्राप्तिकी सबसे बढ़िया युक्ति यही है कि 'मैं भगवान्‌का हूँ'। मन-बुद्धि प्रकृतिके हैं। अतः मन-बुद्धि ठीक नहीं हैं तो प्रकृतिके ठीक नहीं हैं, मैं तो भगवान्का हूँ।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२०··

वास्तवमें भक्त वही है, जो भगवान्‌का है।...... कोई काम करते समय यह सोच लो कि मैं भगवान्का हूँ तो यह काम किस ढंगसे करूँ, आपके मनमें स्वतः स्फुरणा हो जायगी। आप सच्चे हृदयसे भगवान्‌को चाहोगे तो भगवान्‌का भजन क्या करें, यह आपके मनमें स्वतः आ जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२१··

हम भगवान्‌के हैं, भगवान् हमारे हैं' - यह मामूली बात नहीं है। यह बहुत ऊँचा भजन है। इसके समान कोई साधन नहीं है। 'हम भगवान्‌के हैं, भगवान् हमारे हैं' - यह पता लग गया तो अब हमारा दूसरा जन्म क्यों होगा?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३१··

सेवा करनेके लिये तो सभी अपने हैं, पर अपने लिये (लेनेके लिये) कोई अपना नहीं है। अपने लिये केवल भगवान् अपने हैं । भगवान्‌को आप सगुण-निर्गुण साकार - निराकार आदि जैसा भी मानो, पर वे अपने हैं। यह आपको दुर्लभ और सार बात बतायी है, जो हरेक जगह मिलती नहीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ९··

यमराजके सामने भी कह दो कि 'मैं भगवान्‌का हूँ' तो यमराज भी थर्रायेगा ।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३··

हम भगवान्के हैं, भगवान् हमारे हैं'- यह असली मन्त्र है। इसे मान लो तो थोड़े दिनोंमें आपका जीवन बदल जायगा।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ २१··

शरीरसे जो साधन होता है, वह साधन भी दामी नहीं होता। भीतरसे 'भगवान् मेरे हैं' - इसका जितना मूल्य है, उतना शरीरसे किये जप आदिका मूल्य नहीं है। पतिव्रता स्त्री पतिका नाम नहीं लेती, पर पतिमें प्रेम कम होता है क्या? उसको सैकड़ों आदमियोंमें केवल पति अपना दीखता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ २५··

शरीर अपना नहीं दीखे तो कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनों सुगम हो जायँगे। इतने वर्ष सत्संग करके भी शरीरको संसारका और अपनेको भगवान्‌का नहीं माना तो क्या किया ।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ २६··

जीव भगवान्‌का अंश है - इसके समान बढ़िया बात कोई है ही नहीं। मेरा आपसे हाथ जोड़कर कहना है कि इस बातको महत्त्व दो कि मैं भगवान्‌का हूँ। इस बातको आप पक्का करो। इसके समान कोई चीज है नहीं, हुई नहीं, होगी नहीं, हो सकती नहीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६५··

‘मैं भगवान्का हूँ’- ऐसा भाव होनेसे अहंतामें भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। फिर भजन बड़ा सुगम और श्रेष्ठ होगा। अहंता बदले बिना भजन बढ़िया नहीं होता । यह सिद्धान्त है कि आप भगवान्‌के हो जाओ तो भगवान्की प्राप्ति सुगमतासे होगी, नहीं तो भगवत्प्राप्ति कठिनतासे होगी। भगवत्प्राप्तिमें होनेवाली कई तरहकी कठिनताओंमें यह मुख्य कठिनता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४२··

मैं अच्छा या मन्दा जैसा हूँ, भगवान्‌का हूँ। फिर सब काम ठीक हो जायगा। आपके आचरण, आपके भाव, आपका जीवन अपने-आप सुधर जायगा।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४३··

भगवान् सर्वसमर्थ हैं, वे सब कुछ दे सकते हैं, सब कुछ कर सकते हैं, इसलिये मेरे हैं, मेरी सहायता करेंगे, मेरी रक्षा करेंगे - यह सकामभाव नहीं रहना चाहिये। भगवान् मेरे हैं, बस, उनसे कुछ लेना नहीं है। दर्शन भी दें या न दें, उनकी मरजी । भगवान् कहाँ हैं, कैसे हैं, क्या करते हैं, क्या नहीं करते हैं इन बातोंकी इतनी जरूरत नहीं है, जितनी जरूरत मेरापनकी है। वे दर्शन दें तो मेरे हैं, दर्शन न दें तो मेरे हैं। वे सुख दें तो मेरे हैं, दुःख दें तो मेरे हैं। वे किसी भी परिस्थितिमें रखें तो भगवान् मेरे हैं, परिस्थिति मेरी नहीं है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १७१··

भगवान् मेरे हैं - यह एक बात याद कर लो, मनमें जमा लो। हरदम भगवान्‌का होकर रहो। भजन- ध्यानमें तो विघ्न पड़ता है, पर अपनेपनमें विघ्न नहीं पड़ता। जैसे सूर्यका उदय होनेपर सूर्यको प्रकाश करना नहीं पड़ता, अपने-आप प्रकाश होता है, ऐसे ही भगवान्का होनेपर सुधार करना नहीं पड़ता, भगवान्‌की कृपासे अपने-आप सुधार होता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १७१··

भगवान्‌को अपना न माननेसे तरह- तरहकी, नयी-नयी आफत आयेगी, और भगवान्‌को अपना मान लेनेसे सब आफत मिट जायगी।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १७१··

आपसे कोई पूछे, कभी पूछे कि कहाँके हो ? कौन हो? तो स्वतः मनमें आना चाहिये कि मैं भगवान्का हूँ। यह बात हरेकके सामने नहीं कहनी है, पर मनमें यही बात पैदा होनी चाहिये कि मैं भगवान्का हूँ।

अनन्तकी ओर १४··

सम्पूर्ण जीव साक्षात् परमात्माके अंश हैं- 'ईस्वर अंस जीव अबिनासी' (मानस, उत्तर० ११७ । १) । अतः हरेकके भीतर यह बात होनी चाहिये कि हम भगवान्‌के लाड़ले बेटा-बेटी हैं। आप अपने-आपको भगवान्का अंश मानोगे तो बिना कहे सुने आपमें अच्छे गुण, सद्गुण-सदाचार अपने- आप आ जायँगे। ऐसी-ऐसी बातें आपमें आ जायँगी कि खुद आपको आश्चर्य होगा । परन्तु यह होगा भगवान् के साथ अपना सम्बन्ध माननेसे। हम भगवान्‌के हैं - यह सब बातोंकी सार बात है।

अनन्तकी ओर १८-१९··

भगवान्‌को अपना मान लो तो सब कमी पूरी हो जायगी। भगवान् के साथ सम्बन्ध जुड़ते ही आपकी कपूताई मिट जायगी, आप सपूत हो जाओगे।

अनन्तकी ओर ४२··

भगवान्‌को याद करनेसे भी बढ़िया चीज है- भगवान् के साथ अपना सम्बन्ध मानना कि मैं भगवान्का हूँ । सम्बन्ध अखण्ड होता है । सम्बन्ध माननेसे भगवान्‌की याद स्वतः आती है, करनी नहीं पड़ती। बिना याद किये याद आती है। मेरी माँ है— इस प्रकार माँको मान लिया तो अब याद करनेकी जरूरत नहीं। जैसे धनी आदमीके भीतर एक गरमी रहती है कि मेरे पास इतना धन है, ऐसे ही आपके भीतर गरमी रहनी चाहिये कि मैं भगवान्‌का हूँ।

अनन्तकी ओर ४७··

आप कैसे ही हों, इस बातको मत छोड़ो कि हम भगवान्‌के हैं। सुख आये या दुःख आये, स्वस्थ रहें या बीमार रहें, नफा हो जाय या घाटा लग जाय, पर 'मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं' - इस सिद्धान्तसे कभी आपका मन विचलित नहीं होना चाहिये।

अनन्तकी ओर ४७··

आप चाहे गृहस्थ हों या साधु हों, एक भगवान्‌को अपना मान लो तो आप श्रेष्ठ बन जाओगे । मीराबाईने भगवान् ‌को अपना मान लिया था- 'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई'। मीराबाईका न तो कोई बेटा हुआ, न कोई चेला हुआ, पर सन्तलोग भी बड़े आदरसे उनका नाम लेते हैं।

अनन्तकी ओर ६६··

अगर आपमें भगवान्पर श्रद्धा-विश्वास है और 'भगवान् मेरे हैं'- ऐसा भाव है तो आप भले ही पढ़े-लिखे न हों, सबसे तेज हो जाओगे।

अनन्तकी ओर १३७··

आप भगवान्‌के हो जाओ और हरदम भगवान्‌के ही होकर रहो कि 'हमारे प्रभु हैं, हम प्रभुके हैं।

ईसवर अंस जीव अबिनासी १११··

आपका शरीर माँ-बापका बेटा है, पर आप स्वयं भगवान्के बेटे हो। हम भगवान्‌के हैं - यह बात आप मान लो तो आपका सत्संग सफल हो गया। जैसे धनी आदमीके बेटेके भीतर एक गरमी रहती है, राजाके बेटेके भीतर एक गरमी रहती है, ऐसे ही आपके भीतर यह गरमी रहनी चाहिये कि मैं भगवान्‌का बेटा हूँ।

अनन्तकी ओर १४५··

सभी साधन श्रेष्ठ हैं, पर भगवान् मेरे हैं- यह भगवान्‌के नजदीक पड़ता है। उपासनामें यह बात है कि हम जितना भगवान् के नजदीक होंगे, उतनी उपासना बढ़िया होगी।

अनन्तकी ओर १६४··

प्रेमके सिवाय और किसीमें भगवान्‌को खींचनेकी ताकत नहीं है। उस प्रेमकी प्राप्तिमें खास चीज है— अपनापन अपनापन भगवान्‌को खींचता है। बालकका अपनापन ही माँको खींचता है। अतः अपनापन ही भगवान्के प्रकट होनेमें खास कारण है।

स्वातिकी बूँदें ९१··

मनुष्यकी आफत, दुःख मिटानेके लिये भगवान्‌के मनमें एक भूख है, लालसा है कि यह मुझे अपना कहे । सच्चे हृदयसे कह दे कि 'हे नाथ। मैं आपका हूँ' तो भगवान् खुश हो जाते हैं।

सत्संगके फूल १०६··

जब मनुष्य भगवान् से कहता है कि 'हे नाथ। मैं आपका हूँ, आप मेरे हो' तो इसे सुनकर भगवान् बड़े प्रसन्न होते हैं। यह भीतरकी मार्मिक बात है।

स्वातिकी बूँदें १०७··

एक सीधी सरल बात- भगवान् मेरे हैं। ऐसे भगवान्‌को मेरा कह दिया तो बड़ा असर पड़ता है प्रभुपर। अनेक जन्मोंसे बिछुड़ा हुआ और चौरासी लाख योनियाँ भुगतता हुआ, दुःख पाता हुआ जीव अगर कह दे – 'हे नाथ। मैं आपका हूँ। हे प्रभु। आप मेरे हो' तो प्रभुको बड़ा संतोष होगा। बड़े ही राजी होंगे भगवान्। मानो भगवान्‌की खोयी हुई चीज भगवान्‌को मिल गयी।

साधन-सुधा-सिन्धु २८८··

जो साधनके बलपर चलते हैं, वे मजदूर होते हैं। माँ अपने बालकके कामका माप-तौल नहीं करती कि इसने इतना काम किया है तो इसको इतना भोजन दूँगी, इतना लाड़-प्यार करूँगी । कामका माप-तौल नौकरका होता है कि उसने कितना काम किया है और उस कामके अनुसार उसको वेतन मिलता है। लोगोंको तो धन, सम्पत्ति, वैभव आदिकी जरूरत रहती है, पर भगवान्‌को किसी चीजकी जरूरत है ही नहीं। अतः जो अपने बलका आश्रय रखकर भजन करते हैं, साधन करते हैं, मनन-विचार करते हैं, वे सब मजदूरी करते हैं। इसलिये मजदूरीका बल न रखकर भगवान में अपनेपनका बल रखना चाहिये।

साधन-सुधा-सिन्धु ४२८··

स्त्री पतिव्रता होती है तो स्वयंसे होती है, करणसे नहीं । अन्तःकरण शुद्ध होनेपर पतिव्रता नहीं होती। क्या अन्तःकरण शुद्ध होनेपर विवाह होता है ? यह तो स्वयंकी स्वीकृति है । स्वीकृतिका अन्तःकरणकी शुद्धि - अशुद्धिसे कोई सम्बन्ध नहीं है। स्वीकृति स्वयंकी होती है, करणकी नहीं । स्वयं भगवान्‌को अपना स्वीकार कर ले तो अन्तःकरण क्या करेगा ? अन्तःकरण शुद्ध होनेपर क्या भगवान्‌को स्वीकार कर लेंगे ?

स्वातिकी बूँदें १९२··

भगवान् मेरे हैं—इससे सब बातें पीछे छूट जाती हैं। कानून कायदा न लगाकर 'भगवान् मेरे हैं' – इस एक वृत्तिको विशेषतासे बढ़ाओ। भगवान् में अपनापन विशेष तेज होना चाहिये। दूसरी बातोंकी तरफ ध्यान ही मत दो। अपनी कमियोंकी तरफ मत देखो, प्रत्युत भगवान्‌के कृपालु स्वभावकी तरफ देखो। अपनी कमियोंकी तरफ देखोगे तो कभी उद्धार होगा नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५८··

साधक अपनेको भगवान्‌का समझकर संसारका काम करे तो संसारका काम भी ठीक होगा और भगवान्का भी। परन्तु अपनेको संसारका समझकर संसारका काम करे तो संसारका काम भी ठीक नहीं होगा और भगवान्‌का काम (भजन) तो होगा ही नहीं।

अमृत-बिन्दु ४७६··

प्रभु अपने हैं, पर अपने लिये नहीं हैं, प्रत्युत हम प्रभुके लिये हैं। तात्पर्य है कि हमें प्रभुसे कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत अपने-आपको उन्हें देना है और विपरीत-से विपरीत परिस्थिति आनेपर भी उसको प्रभुका भेजा प्रसाद समझकर प्रसन्न रहना है।

अमृत-बिन्दु ४७७··

हमारे मनके विरुद्ध घटना होनेपर भी भगवान् अपने दीखने चाहिये।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८४··

जैसे विवाहिता स्त्रीको पीहरकी याद आ जाय तो वह पीहरकी (कुँआरी) नहीं हो जाती, ऐसे ही हम भगवान्‌के हो गये तो अब भले ही संसारकी याद आ जाय, याद आनेसे हम संसारके थोड़े ही हो जायँगे ।

स्वातिकी बूँदें १२९··

भगवान्‌को अपना मान ले तो भजनके बिना रहा जाता ही नहीं। जिसने भगवान्‌को अपना मान लिया, उससे भजन नहीं छूटता। अगर भजन छूटता है तो पाखण्ड है ।। भगवान् ‌को अपना माना नहीं है। भगवान्‌को अपना माननेपर तो भजन जोरसे होना चाहिये।

मामेकं शरणं व्रज २२-२३··

भगवान्में मेरा-पना इतना विचित्र है कि उसमें मैं पना भी खत्म हो जाता है और केवल भगवान् रह जाते हैं।

मैं नहीं, मेरा नहीं १३७··

अगर आप अपना कल्याण चाहते हो, मुक्ति चाहते हो, उद्धार चाहते हो, कृतकृत्य होना चाहते हो, ज्ञातज्ञातव्य होना चाहते हो, प्राप्तप्राप्तव्य होना चाहते हो तो केवल स्वीकार कर लो कि मैं भगवान्‌का ही हूँ और भगवान् ही मेरे अपने हैं। केवल स्वीकार कर लो, सब ठीक हो जायगा । 'मैं भगवान्‌का हूँ' तो अहंता गयी, और 'भगवान् मेरे हैं' तो ममता गयी। आप कितने ही पापी क्यों न हों, भगवान्‌के होते ही महान् पवित्र हो जाओगे ।

परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ७३··

समझमें आये या न आये, ऐसा मान लें कि हम भगवान्‌के हैं। बातें तो दूसरी बहुत हैं, पर 'मैं भगवान्‌का हूँ' – यह सार बात है। इसलिये इस बातको मैं बार-बार कहता हूँ । आप कह सकते हो कि स्वामीजी एक ही बात बार-बार कहते हैं कि हम भगवान्के हैं। पर बार-बार कहनेपर भी आप नहीं मानते, फिर एक बार कहनेसे कैसे मान लोगे? इसलिये आप उकताओ मत । भगवान्‌के सिवाय कोई भी चीज आपके साथ रहनेवाली नहीं है । संसारमें आप खूब मौजसे रहो, पर 'भगवान् मेरे हैं'- यह बात मत भूलो। फिर सब ठीक हो जायगा । त्याग, वैराग्य आदि सब अपने-आप होंगे।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ११४··

मैं बार-बार कहूँगा और आप बार-बार सुनोगे कि अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, उनमें तिल - जितनी चीज भी अपनी नहीं है। पर भगवान् पूरे के पूरे अपने हैं।

अनन्तकी ओर १५१··

मैंने पुस्तकें भी पढ़ी हैं, सन्तोंका संग भी किया है, जहाँ कहीं अच्छी बातें सुननेको मिलीं, वहाँ गया भी हूँ। बहुत बातें देख करके पढ़ करके, सुन करके, समझ करके, विचार करके मैंने निर्णय किया है कि भगवान्‌के समान अपना कोई नहीं है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४७··

मैंने जितनी पढ़ाई की है, पुस्तकें देखी हैं, विचार किया है, सबसे बढ़िया बात यह है कि हम भगवान्के हैं। आप यह बात सदाके लिये मान लो कि मैं बिना मालिकका नहीं हूँ; मैं भगवान्‌का हूँ।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३८··

हमें तो वर्षोंके बाद यह सार बात जँची है कि भगवान्‌को अपना मानो भगवान् अपने हैं, और कोई अपना नहीं है। यह हमारे मनकी बात है। इसके सिवाय और हम ज्यादा जानते नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०१··

उद्धारके लिये मुझे सबसे बढ़िया यह बात मालूम दी कि 'हम भगवान्‌के हैं। हम भगवान्के हैं - ऐसा मान लो तो इसको मैं सबसे बढ़िया भिक्षा मानता हूँ। आप उम्रभर मुझे भिक्षा दो तो उसमें इतना फायदा नहीं है, जितना इस एक बातको माननेमें है कि 'मैं भगवान्‌का हूँ'।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५६··

खास अपनी बात अपने घरकी बात, अपनी व्यक्तिगत बात, अपनी खुदकी बात अपनी गहरी बात, अपनी इज्जतकी बात, अपने लाभकी बात यह है कि हमारा सम्बन्ध भगवान् के साथ है, हम भगवान्‌के हैं। इसके समान बढ़िया बात कोई है ही नहीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ८५··

हम भगवान्‌के हैं, भगवान् हमारे हैं- इससे बढ़कर कोई लाभ नहीं है, इससे बढ़कर कोई हित नहीं है, इससे बढ़कर कोई स्थिति नहीं है, इससे बढ़कर कोई विद्या नहीं है, इससे बढ़कर कोई तत्त्व नहीं है, इससे बढ़कर कोई बढ़िया बात नहीं है । केवल इसकी स्वीकृति करनी है; क्योंकि अस्वीकृति आपने की है। अगर अस्वीकृति नहीं करते तो स्वीकृति भी करनी नहीं पड़ती।

मामेकं शरणं व्रज ९१··

हम भगवान्‌के हैं, भगवान् हमारे हैं' - यह बात आप दाँत भींचकर आँखें मीचकर, छाती कड़ी करके मान लो ।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३०··