Seeker of Truth

ईश्वरका धाम (परमधाम)

परमधाम' शब्द परमात्माका धाम और परमात्मा- दोनोंका ही वाचक है। यह परमधाम प्रकाशस्वरूप है। जैसे सूर्य अपने स्थान - विशेषपर भी स्थित है और प्रकाशरूपसे सब जगह भी स्थित है अर्थात् सूर्य और उसका प्रकाश परस्पर अभिन्न हैं, ऐसे ही परमधाम और सर्वव्यापी परमात्मा भी परस्पर अभिन्न हैं।

साधक संजीवनी १५ । ६··

भक्तोंकी भिन्न-भिन्न मान्यताओंके कारण ब्रह्मलोक, साकेत धाम, गोलोक धाम, देवीद्वीप, शिवलोक आदि सब एक ही परमधामके भिन्न-भिन्न नाम हैं। यह परमधाम चेतन, ज्ञानस्वरूप, प्रकाशस्वरूप और परमात्मस्वरूप है।

साधक संजीवनी १५ । ६··

यह अविनाशी परमपद आत्मरूपसे सबमें समानरूपसे अनुस्यूत ( व्याप्त) है। अतः स्वरूपसे हम उस परमपदमें स्थित हैं ही; परन्तु जडता (शरीर आदि) से तादात्म्य, ममता और कामनाके कारण हमें उसकी प्राप्ति अथवा उसमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव नहीं हो रहा है।

साधक संजीवनी १५ । ६··

भगवद्धाम प्रकृतिसे परे और अविनाशी है। वहाँ गये हुए प्राणियोंको गुणोंके परवश होकर लौटना नहीं पड़ता, जन्म लेना नहीं पड़ता। हाँ, भगवान् जैसे स्वेच्छासे अवतार लेते हैं, ऐसे ही वे भगवान्‌की इच्छासे लोगोंके उद्धारके लिये कारक पुरुषोंके रूपमें इस भूमण्डलपर आ सकते हैं।

साधक संजीवनी ८। २१··

स्वतःसिद्ध परमपदकी प्राप्ति अपने कर्मोंसे, अपने पुरुषार्थसे अथवा अपने साधनसे नहीं होती । यह तो केवल भगवत्कृपासे ही होती है। शाश्वत अव्ययपद सर्वोत्कृष्ट है । उसी परमपदको भक्तिमार्गमें परमधाम, सत्यलोक, वैकुण्ठलोक, गोलोक, साकेतलोक आदि कहते हैं और ज्ञानमार्गमें विदेह- कैवल्य, मुक्ति, स्वरूपस्थिति आदि कहते हैं। वह परमपद तत्त्वसे एक होते हुए भी मार्गों और उपासनाओंका भेद होनेसे उपासकोंकी दृष्टिसे भिन्न-भिन्न कहा जाता है (गीता ८ २१; १४ । २७) ।

साधक संजीवनी १८ | ५६··

जो भगवान्‌का धाम है, वही हमारा धाम है। हम उस धामके हैं, यहाँके नहीं हैं। यहाँ तो हम आये हैं। आया हुआ आदमी कबतक रहेगा ? मुसाफिर कितने दिन ठहरेगा ? जबतक हम अपने असली धाममें नहीं जायँगे, तबतक हमारी मुसाफिरी चलती ही रहेगी, मिटेगी नहीं।

सत्यकी खोज ६९··

आपको धारणा ऐसी रखनी चाहिये कि हमें अपने घर जाना है। आपका यहाँ मन न लगे, अपने घर जानेके लिये रोने लग जाओ कि हम यहाँ नहीं रहेंगे तो भगवान् अपने-आप ले जायँगे । अपनी सन्तानपर सबका स्नेह होता है। आप अपनी रुचिसे यहाँ बैठे हैं तो भगवान् क्या करें? हमारा यहाँ मन नहीं लगना चाहिये । यहाँ कितना ही सुख-आराम हो, पर यह अपना घर नहीं है। दूसरेके घरमें कबतक बैठे रहेंगे ?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५३··

जैसे घरसे दूर जानेपर एक उतावली लगती है कि जल्दी घर चलो, ऐसे भगवान्‌के पास जानेकी चटपटी क्यों नहीं लगती ? जैसे कोई प्रिय स्वजन आता हो तो उसके आनेकी प्रतीक्षा करते हैं कि अब आयेंगे...... अब आयेंगे, ऐसे भगवान्‌के आनेकी प्रतीक्षा क्यों नहीं होती? अपने असली घरपर जल्दी पहुँचें, भगवान् जल्दी मिलें, ऐसी मनमें चटपटी लगनी चाहिये।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६··

हम मृत्युलोकमें हैं - ऐसा नहीं मानना चाहिये। हम भगवान्‌के हैं और भगवान्‌के लोकमें ही रहते हैं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ११३··

जब अपना सच्चा घर मौजूद है, तो फिर उसके रहते हम दुःख क्यों पायें ? उस घरका दरवाजा सबके लिये हर समय खुला है। अभी आप पराये लोकमें बैठे हो। जब पराये लोकमें भी आपका काम चलता है, तो फिर अपने लोकमें, अपने घरमें कितना आनन्द होगा । सदाके लिये निश्चिन्त, निर्भय हो जाओगे ।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४७··

जो भगवद्भक्त हैं, जो केवल भगवान्‌के ही परायण हैं, जिनके मनमें भगवद्दर्शनकी ही लालसा है, ऐसे भक्त दिनमें या रातमें, शुक्लपक्षमें या कृष्णपक्षमें, उत्तरायणमें या दक्षिणायनमें, जब कभी शरीर छोड़ते हैं, तो उनको लेनेके लिये भगवान्‌के पार्षद आते हैं। पार्षदोंके साथ वे सीधे भगवद्धाममें पहुँच जाते हैं।

साधक संजीवनी ८ । २५ वि०··

भगवान्‌का चिन्मय लोक एक देश-विशेषमें होते हुए भी सब जगह व्यापकरूपसे परिपूर्ण है। जहाँ भगवान् हैं, वहीं उनका लोक भी है; क्योंकि भगवान् और उनका लोक तत्त्वसे एक ही हैं। भगवान् सर्वत्र विराजमान हैं; अतः उनका लोक भी सर्वत्र विराजमान (सर्वव्यापी) है। जब भक्तकी अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है, तब परिच्छिन्नताका अत्यन्त अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात् उसे यहाँ जीते-जी ही उस लोककी दिव्य लीलाओंका अनुभव होने लगता है। परन्तु जिस भक्तकी ऐसी धारणा रहती है कि वह दिव्य लोक एक देश - विशेषमें ही है, तो उसे उस लोककी प्राप्ति शरीर छोड़नेपर ही होती है। उसे लेनेके लिये भगवान्‌के पार्षद आते हैं और कहीं-कहीं स्वयं भगवान् भी आते हैं।

साधक संजीवनी १८ । ५६··

सभी जीव परमात्माके अंश हैं। अतः सभी जीवोंका घर एक ही है। मात्र जीव एक ही परमात्माके घरके हैं। सभी जीव परस्पर बहन-भाई हैं। भले ही पशु हो, पक्षी हो, साँप हो, बिच्छू हो, सब बहन-भाई हैं। सभी एक घरके हैं। इसलिये सभी अपने घर चलो। हम भगवान्‌के हैं, भगवान् हमारे हैं- ऐसा मानकर आप यहाँ बैठे-बैठे ही भगवान्‌के घर आ जाओ। भगवान्‌के घरमें आनन्द- ही आनन्द है । सारा दुःख मुसाफिरीमें है।

ईसवर अंस जीव अबिनासी ५९··

भगवान्‌का घर वहाँ है, जहाँ भगवान् हैं। भगवान् सब जगह हैं। ऐसी कोई जगह खाली नहीं है, जिसमें भगवान् न हों। अतः हम भगवान्‌के घरमें ही बैठे हैं। जाना-आना तो चौरासी लाख योनियोंका है। हम तो हरदम भगवान्‌के घर बैठे हैं। जहाँ भगवान् हैं, वहीं हम हैं।

मैं नहीं, मेरा नहीं ६१··