Seeker of Truth

दोषदृष्टि

यह नियम है कि मनुष्यकी दृष्टि जबतक दूसरोंके दोषकी तरफ रहती है, तबतक उसको अपना दोष नहीं दीखता, उलटे एक अभिमान होता है कि इनमें तो यह दोष है, पर हमारेमें यह दोष नहीं है। ऐसी अवस्थामें वह यह सोच ही नहीं सकता कि अगर इनमें कोई दोष है तो हमारेमें भी कोई दूसरा दोष हो सकता है। दूसरा दोष यदि न भी हो, तो भी 'दूसरोंका दोष देखना ' - यह दोष तो है ही।

साधक संजीवनी १ । ३९··

किसीके भी अवगुण नहीं कहने चाहिये। जैसे भगवान्‌का नाम लेनेसे भगवान् के साथ सम्बन्ध हो जाता है, ऐसे ही अवगुण कहनेसे अवगुणोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १११··

अवगुणोंको देखोगे तो देखते-देखते अवगुणोंके घर बन जाओगे, और भगवान्‌को देखते-देखते भगवान्‌के घर बन जाओगे।

स्वातिकी बूँदें २९··

मनुष्यका अन्तःकरण जितना दोषी (मलिन) होता है, उतना ही उसको दूसरोंमें दोष दीखता है । रेडियोकी तरह मलिन अन्तःकरण ही दोषको पकड़ता है।

अमृत-बिन्दु २२०··

दूसरेमें कमी न देखकर अपनेमें ही कमी देखे और उसको दूर करनेकी चेष्टा करे, अपनेको ही उपदेश दे। आप ही अपना गुरु बने, आप ही अपना नेता बने और आप ही अपना शासक बने।

साधक संजीवनी ६५ परि०··

सबका स्वरूप स्वतः निर्दोष है। अतः पुत्र, शिष्य आदिको स्वरूपसे निर्दोष मानकर और उनमें दीखनेवाले दोषको आगन्तुक मानकर ही उनको शिक्षा देनी चाहिये, उनके आगन्तुक दोषको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये।

अमृत-बिन्दु २२५··

दूसरेमें जो बुराई दीखती है, वह उसके स्वरूपमें नहीं है, प्रत्युत आगन्तुक है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ४१··

दूसरेको बुरा समझनेसे हमें क्या फायदा होता है - इसका उत्तर किसीने मेरेको दिया नहीं है। दूसरेको बुरा समझनेसे आपको लेशमात्र भी फायदा नहीं होगा। दूसरेको बुरा समझनेवालेके भीतर बुराई आयेगी ही।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८८··

अगर हम दूसरेमें दोष मानेंगे तो उसमें वे दोष आ जायँगे; क्योंकि उसमें दोष देखनेसे हमारा त्याग, बल आदि भी उस दोषको पैदा करनेमें स्वाभाविक सहायक बन जायँगे, जिससे वह व्यक्ति दोषी हो जायगा और हमारा भी नुकसान होगा।

अमृत-बिन्दु २२६··

साधन करनेसे दोषदृष्टि कम हो जाती है। जो साधन नहीं करता, केवल शास्त्र पढ़ता है, बातें सीखता है, उसको दूसरोंमें दोष दीखने लगता है।

ज्ञानके दीप जले २३१··

दूसरेको निर्दोष बनानेकी नीयतसे उसके दोष देखनेमें बुराई नहीं है। बुराई है - दूसरेके दोष दीखनेपर प्रसन्न होना।

अमृत-बिन्दु २२४··

दूसरेको निर्दोष देखनेकी इच्छा दोषदृष्टि नहीं है। माँ-बाप बच्चेमें दोष देखते हैं, अध्यापक विद्यार्थियों में दोष देखता है, गुरु अपने शिष्योंमें दोष देखता है तो यह दोषदृष्टि नहीं है, प्रत्युत उनको निर्दोष देखनेकी इच्छा है।

सागरके मोती १०५··

जिसका अन्तःकरण अशुद्ध है, वह दूसरेका अच्छा आचरण देखकर भी उसे अच्छा नहीं मानता, पर दूसरेका बुरा आचरण देखकर उसे बुरा मान लेता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८२··

भगवान् और सन्तजन दोष- दृष्टिवाले अश्रद्धालु मनुष्यके सामने गोपनीय बातें प्रकट नहीं करते (गीता १८। ६७)। वास्तवमें देखा जाय तो दोष- दृष्टिवाले मनुष्यके सामने गोपनीय (रहस्ययुक्त) बातें मुखसे निकलती ही नहीं।

साधक संजीवनी १५ । २०··

दोष-दृष्टि होनेमें खास कारण है- अभिमान । मनुष्यमें जिस बातका अभिमान हो, उस बातकी उसमें कमी होती है। उस कमीको वह दूसरोंमें देखने लगता है। अपनेमें अच्छाईका अभिमान होनेसे दूसरोंमें बुराई दीखती है; और दूसरोंमें बुराई देखनेसे ही अपनेमें अच्छाईका अभिमान आता है।

साधक संजीवनी १५ २०··

अगर किसी कारणवश साधककी संत-महापुरुषके प्रति अश्रद्धा, दोष दृष्टि हो जाय तो उनमें साधकको अवगुण -ही-अवगुण दीखेंगे, गुण दीखेंगे ही नहीं। इसका कारण यह है कि महापुरुष गुण-अवगुणोंसे ऊँचे उठे ( गुणातीत) होते हैं; अतः उनमें अश्रद्धा होनेपर अपना ही भाव अपनेको दीखता है।

साधक संजीवनी १३ । २५··