Seeker of Truth

दोष - 'राग-द्वेष'

वास्तवमें राग-द्वेष माने हुए 'अहम् ' ( मैं - पन) में रहते हैं । शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध ही 'अहम्' कहलाता है। जबतक शरीरसे माना हुआ सम्बन्ध रहता है, तबतक उसमें राग-द्वेष रहते हैं।...... राग और द्वेषके ही स्थूल रूप काम और क्रोध हैं।

साधक संजीवनी ३ | ३४··

सांसारिक वस्तु महत्त्वशाली है, अपने काममें आनेवाली है, उपयोगी है - ऐसा जो भाव है, उसका नाम 'राग' है। तात्पर्य है कि अन्तःकरणमें असत् वस्तुका जो रंग चढ़ा हुआ है, वह 'राग' है।

साधक संजीवनी १८।५१-५३··

असत् संसारके किसी अंशमें राग हो जाय तो दूसरे अंशमें द्वेष हो जाता है- यह नियम है।........ संसारके साथ रागसे भी सम्बन्ध जुड़ता है और द्वेषसे भी सम्बन्ध जुड़ता है।

साधक संजीवनी १८।५१ - ५३··

जिसमें राग हो जाता है, उसमें दोष नहीं दीखते और जिसमें द्वेष हो जाता है, उसमें गुण नहीं दीखते। राग-द्वेषसे रहित होनेपर ही वस्तु अपने वास्तविक रूपसे दीखती है।

अमृत-बिन्दु ५७६··

भीतरमें पदार्थोंका राग है, इसलिये पदार्थ सच्चे दीखते हैं । मनके ऊपर पदार्थोंका रंग चढ़ जाता है, रुपये अच्छे लगते हैं, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार अच्छा लगता है, आराम अच्छा लगता है - यह अच्छा लगना 'राग' है। जबतक किसी वस्तु या व्यक्तिमें राग है, तबतक शान्ति नहीं मिलती । कहीं सुख नहीं दीखता । संसार सूखा दीखता है। अगर सुख मिलेगा भी तो दुःखवाला सुख मिलेगा। जो दुःखका कारण है, वह सुख मिलेगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १६४··

जबतक मनमें राग-द्वेष रहेंगे, तबतक भले ही चारों वेद और छः शास्त्र पढ़ लो, पर मुक्ति नहीं होगी।

मेरे तो गिरधर गोपाल २८··

जिसके भीतर दूसरोंको सुख पहुँचानेका, उनका हित करनेका, उनकी सेवा करनेका भाव जाग्रत् हो जाता है, उसका राग स्वाभाविक ही मिट जाता है।

साधक संजीवनी २।५६··

साधकको न तो रागपूर्वक विषयोंका सेवन करना चाहिये और न द्वेषपूर्वक विषयोंका त्याग करना चाहिये; क्योंकि राग और द्वेष इन दोनोंसे ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है।

साधक संजीवनी २। ६४··

राग-द्वेषसे युक्त 'भोगी' मनुष्य अगर विषयोंका चिन्तन भी करे तो उसका पतन हो जाता है ( गीता २ । ६२-६३) । परन्तु राग-द्वेषसे रहित 'योगी' मनुष्य अगर विषयोंका सेवन भी करे तो उसका पतन नहीं होता, प्रत्युत वह परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है।

साधक संजीवनी २। ६४-६५ परि०··

जबतक शरीरके प्रति ममता रहती है, तभीतक राग-द्वेष होते हैं अर्थात् मनुष्य रुचि या अरुचिपूर्वक वस्तुओंका ग्रहण और त्याग करता है । यह रुचि अरुचि ही राग-द्वेषका सूक्ष्म रूप है।

साधक संजीवनी ३ | ३४··

वास्तवमें राग-द्वेष अन्तःकरणके आगन्तुक विकार हैं, धर्म नहीं।...... धर्म स्थायी रहता है और विकार अस्थायी अर्थात् आने-जानेवाले होते हैं। राग-द्वेष अन्तःकरणमें आने-जानेवाले हैं; अतः इनको मिटाया जा सकता है।

साधक संजीवनी ३ | ३४··

जड़-चेतनकी ग्रन्थिरूप अहंता ( मैं - पन) के मिटनेपर राग-द्वेषका सर्वथा अभाव हो जाता है; क्योंकि अहंतापर ही राग-द्वेष टिके हुए हैं। मैं सेवक हूँ; मैं जिज्ञासु हूँ; मैं भक्त हूँ- ये सेवक, जिज्ञासु और भक्त जिस 'मैं' में रहते हैं, उसी 'मैं' में राग-द्वेष भी रहते हैं।

साधक संजीवनी ३ | ३४··

यदि सत्संग, भजन, ध्यान आदिमें 'राग' होगा तो संसारसे द्वेष होगा; परन्तु ‘प्रेम' होनेपर संसारसे द्वेष नहीं होगा, प्रत्युत संसारकी उपेक्षा (विमुखता ) होगी।

साधक संजीवनी ३ | ३४··

जिसका सांसारिक विशेषता प्राप्त करनेका, ऋद्धि-सिद्धि आदि प्राप्त करनेका उद्देश्य न होकर केवल परमात्मप्राप्तिका ही दृढ़ उद्देश्य होता है, उसके राग-द्वेष शिथिल होकर मिट जाते हैं।

साधक संजीवनी ६ । १४··

जितने भी दोष, पाप, दुःख पैदा होते हैं, वे सभी संसारके रागसे ही पैदा होते हैं और जितना सुख, शान्ति मिलती है, वह सब रागरहित होनेसे ही मिलती है।

साधक संजीवनी ६ । ३५··

यद्यपि संसार-बन्धनका मूल कारण अज्ञान है, तथापि अज्ञानकी अपेक्षा भी मनुष्य राग-द्वेषरूप द्वन्द्व संसारमें ज्यादा फँसता है। किसी देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिको अपने सुख - दुःखका कारण माननेसे राग-द्वेष पैदा होते हैं। जिसको अपने सुखका कारण मानते हैं, उसमें 'राग' हो जाता है और जिसको अपने दुःखका कारण मानते हैं, उसमें 'द्वेष' हो जाता है।

साधक संजीवनी ७।२७ परि०··

प्राणिमात्र स्वरूपसे भगवान्‌का ही अंश है। अतः किसी भी प्राणीके प्रति थोड़ा भी द्वेषभाव रहना भगवान्के प्रति ही द्वेष है।

साधक संजीवनी १२/१३··

राग-द्वेषादि विकार न जड़में रहते हैं, न चेतनमें रहते हैं और न ये अन्तःकरणके धर्म हैं, प्रत्युत ये देहाभिमानमें रहते हैं।

साधक संजीवनी १४ । २४-२५ परि०··

रागका यह नियम है कि वह जिसमें आ जाता है, उसमें किसीके प्रति आसक्ति, प्रियता पैदा करा देता है और किसीके प्रति द्वेष पैदा करा देता है।

साधक संजीवनी १८ । २१··

जब सांसारिक वस्तु व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, क्रिया, पदार्थ आदिमें राग ( आसक्ति) हो जाता है, तो वह राग दूसरोंके प्रति द्वेष पैदा करनेवाला हो जाता है। फिर जिसमें राग हो जाता है, उसके दोषोंको और जिसमें द्वेष हो जाता है, उसके गुणोंको मनुष्य नहीं देख सकता। राग और द्वेष – इन दोनोंमें संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ता है।

साधक संजीवनी १८ । ३१··

राग-द्वेष हो जायँ तो घबराओ मत, पर इनके वशीभूत मत होओ अर्थात् इनके वशमें होकर क्रिया मत करो। क्रिया करनेसे ये पुष्ट होते हैं। जैसे किसी पहलवानको खुराक न दी जाय तो वह अपने-आप कमजोर हो जाता है, ऐसे ही राग-द्वेषके वशीभूत होकर क्रिया न करनेसे राग-द्वेषको खुराक नहीं मिलेगी और वे कमजोर पड़ जायँगे।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५१··

प्रवृत्ति - निवृत्ति उतनी खराब नहीं है, जितने राग-द्वेष खराब हैं। रागपूर्वक ग्रहण न करे और द्वेषपूर्वक त्याग न करे - यह साधकके लिये बहुत कामकी चीज है।

स्वातिकी बूँदें ६२··

राग-द्वेषपूर्वक किये गये कामका परिणाम अच्छा नहीं होता।

अमृत-बिन्दु ५७२··

राग-द्वेषपर विजय प्राप्त करनेका उपाय है- अपने स्वार्थका त्याग और दूसरेके हितका ध्येय ।

अनन्तकी ओर ७२··

राग-द्वेषसे रहित होनेका सुगम उपाय है - मिले हुए शरीरादि पदार्थोंको अपना और अपने लिये न मानते हुए दूसरोंकी सेवामें लगाना और बदलेमें दूसरोंसे कुछ भी न चाहना।

साधक संजीवनी ३।३३··

रागके कारण ही दूसरी सत्ता दीखती है। राग जितना अधिक होता है, उतनी ही संसारकी अधिक प्रतीति होती है। अधिक राग होनेसे दीखता है कि संसार ही संसार है, परमात्मा है ही नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५९··

जबतक राग-द्वेषरूप द्वन्द्व रहता है, तबतक दो चीजें दीखती हैं, एक चीज नहीं दीखती । जब राग-द्वेष मिट जाते हैं, तब एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं दीखता।

साधक संजीवनी १० | १० परि०··

परमात्मा सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण हैं। परन्तु परमात्मामें स्थित होते हुए भी संसारमें राग- द्वेषके कारण मनुष्य परमात्मामें स्थित नहीं हैं, प्रत्युत संसारमें स्थित हैं । वे परमात्मामें स्थित तभी होंगे, जब उनके मनमें राग-द्वेष मिट जायँगे।

मेरे तो गिरधर गोपाल २७-२८··

राग-द्वेष मिटाओगे तो देरी लगेगी। अतः राग आये तो परमात्माको देखो, द्वेष आये तो परमात्माको देखो। फिर राग-द्वेष रहेंगे नहीं। परमात्माके सिवाय दूसरी सत्ता मानते हैं, तभी राग-द्वेष होते हैं।

सागरके मोती ५०··