Seeker of Truth

दोष - 'काम-क्रोध'

संसारकी कुछ भी इच्छा 'काम' है। संसारमें कोई भी वस्तु सुन्दर लगती है, अच्छी लगती है। तो यह 'काम' है।

स्वातिकी बूँदें १५२··

जिनके चित्तमें व्याकुलता रहती है, कहीं शान्ति नहीं मिलती, ऐसे आदमियोंमें कामवृत्ति ज्यादा होती है। आदमी जितना दुःखी रहता है, उतनी ही उसमें कामवृत्ति ज्यादा होती है। वह जितना भगवान्‌के भजन-ध्यानमें प्रसन्न रहता है, उतनी कामवृत्ति कम होती है। मनुष्य ज्यों सत्संग करेगा, पारमार्थिक बातोंमें गहरा उतरेगा, त्यों उसकी कामवृत्ति स्वाभाविक कम हो जायगी। जैसे बालकको काँचके लाल-पीले टुकड़े भी बड़े अच्छे लगते हैं, पर बड़े होनेपर जब रुपये अच्छे लगने लगते हैं, तब काँचके टुकड़ोंमें अरुचि हो जाती है। ऐसे ही जब भजन ध्यानमें, भगवन्नाममें, कीर्तनमें रस आने लग जायगा, तब कामवृत्ति नष्ट हो जायगी।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५७-५८··

कनक और कामिनी ( धन और स्त्री ) – इन दोको साधकके लिये बड़ा बाधक बताया गया है। इन दोनोंमें धनके विषयमें ईमानदार आदमी, मुनीम मिल जायँगे । लाखों रुपये पासमें हैं, पर उनका मन नहीं चलता। परन्तु स्त्रीके विषयमें बचे रहनेवाले आदमी मिलने मुश्किल हैं। तात्पर्य है कि कनककी अपेक्षा कामिनीको जीतनेवाले बहुत कम होते हैं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५७··

जिसमें हमारा आकर्षण होता है, वह वास्तवमें भगवान्‌का ही आकर्षण है । परन्तु भोगबुद्धिके कारण वह आकर्षण भगवत्प्रेममें परिणत न होकर काम, आसक्तिमें परिणत हो जाता है, जो संसारमें बाँधनेवाला है।

साधक संजीवनी १० ४० परि०··

काम-वृत्ति छूटनी बड़ी कठिन है, पर विचार (निश्चय) कर ले कि हम इस मार्गपर नहीं जायँगे तो वह सुगमतासे छूट जायगी। विचार करनेमात्रसे फर्क पड़ जायगा।

ज्ञानके दीप जले १०५··

यह मत मानो कि कामवृत्ति आ रही है। वह तो जा रही है, निकल रही है - यह भाव दृढ़ हो जाय तो वह मिट जायगी।

ज्ञानके दीप जले ११०··

मन-बुद्धि हमारे नहीं हैं, इन्द्रियाँ हमारी नहीं हैं, प्राण हमारे नहीं हैं, जीवन हमारा नहीं हैं, स्थूलशरीर हमारा नहीं है, सूक्ष्मशरीर हमारा नहीं है, कारणशरीर हमारा नहीं है - यह बात होते ही कामवृत्ति नष्ट हो जायगी अर्थात् रुपयोंमें और स्त्रीमें आकर्षण मिट जायगा।

मैं नहीं, मेरा नहीं ११४··

जब आपका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका हो जायगा, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष नहीं रहेंगे। सब गुण अपने-आप आ जायँगे। ये दोष तो उनमें रहते हैं, जिनका उद्देश्य संसार है।

अनन्तकी ओर ७९··

क्रोधका कारण है – कामना और अभिमान । क्रोधसे बचना चाहते हो तो कामना और अभिमानका त्याग कर दो।

सागरके मोती १३६··

कहीं भी किसी भी बातको लेकर क्रोध आता है, तो उसके मूलमें कहीं-न-कहीं राग अवश्य होता है । जैसे, नीति- न्यायसे विरुद्ध काम करनेवालेको देखकर क्रोध आता है, तो नीति-न्यायमें राग है। अपमान - तिरस्कार करनेवालेपर क्रोध आता है, तो मान- सत्कारमें राग है। निन्दा करनेवालेपर क्रोध आता है, तो प्रशंसामें राग है। दोषारोपण करनेवालेपर क्रोध आता है, तो निर्दोषताके अभिमानमें राग है; आदि-आदि।

साधक संजीवनी २। ६२··

क्रोध दो कारणोंसे होता है— कामना और अभिमान । यदि क्रोध आ जाय तो हृदयसे 'हे नाथ। हे नाथ।' पुकारो।

सत्संगके फूल २४··

जबतक कोई इच्छा रहेगी, तबतक क्रोध रहेगा। ऐसा मिल जाय और ऐसा हो जाय - यह इच्छा जबतक रहती है, तबतक क्रोध रहता है। गीतामें आया है कि कामनासे क्रोध पैदा होता है- 'कामात्क्रोधोऽभिजायते' ( गीता २ । ६२ ) | कामना मिट जायगी तो क्रोध भी मिट जायगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५६··

बालकपर गुस्सा ‘आना' नहीं चाहिये, अपितु शिक्षा देनेके लिये गुस्सा 'करना' चाहिये। तात्पर्य है कि भीतर गुस्सा न हो, प्रत्युत बाहरसे गुस्सेका नाटक हो । गुस्सेके वशमें नहीं होना चाहिये।

स्वातिकी बूँदें १६४··

बच्चा उद्दण्डता करता है, कहना नहीं मानता, तो माता-पिता उत्तेजनामें आकर उसको ताड़ना करते हैं - यह उनका 'क्षोभ' (हृदयकी हलचल) है, क्रोध नहीं । कारण कि उनमें बच्चेका अनिष्ट करनेकी भावना होती ही नहीं, प्रत्युत बच्चेके हितकी भावना होती है। परंतु यदि उत्तेजनामें आकर दूसरेका अनिष्ट, अहित करके उसे दुःख देनेमें सुखका अनुभव होता है, तो यह 'क्रोध' है।

साधक संजीवनी १६ । ४··

मनुष्य समझता है कि क्रोध करनेसे दूसरा हमारे वशमें रहेगा। परन्तु जो मजबूर, लाचार होकर हमारे वशमें हुआ है, वह कबतक वशमें रहेगा ? मौका पड़ते ही वह घात करेगा। अतः क्रोधका परिणाम बुरा ही होता है।

साधक संजीवनी १६ । १२ परि०··

काम, क्रोध अथवा लोभके वशीभूत होकर जो काम किया जाता है, उसका परिणाम बहुत बुरा होता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८१··

काम, क्रोध आदि दोष कैसे दूर हों ? और भगवान्‌में प्रेम कैसे हो ? – ये दोनों बातें मैं कहता हूँ। जिसके होनेका दुःख हो जाय, वह दूर हो जायगा और जिसके न होनेका दुःख हो, वह होने लग जायगा । यह मेरी देखी हुई बात है।

अनन्तकी ओर १५··

जब राग-द्वेष हो जायँ, क्रोध आ जाय, तो आप चुप हो जाओ । मुँहमें पानी भर लो। पानीको न थूको, न निगलो । बादमें उसको थूक दो। यह स्थूल उपाय है। उनके वशमें मत होओ, यह सूक्ष्म उपाय है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५१··

काम-क्रोधादिका वेग आ जाय तो — 'आगमापायिनोऽनित्याः ' ( गीता २ । १४ ) का जप शुरू कर दो, वह वेग टिकेगा नहीं।

ज्ञानके दीप जले २८··

काम-क्रोधादि दोष विरोध करनेसे जल्दी नहीं छूटते, प्रत्युत उपेक्षा करनेसे छूटते हैं। अत: उनकी परवाह न करके नामजप करते रहो और 'हे नाथ। हे नाथ।' पुकारते रहो। वे आ जायँ तो परवाह नहीं, पर नामजप और पुकार न छूटे। विरोध करनेसे सत्ता दृढ़ होती है। विरोध करना उनको सत्ता देना है।

स्वातिकी बूँदें ६३··

जिस समय काम काम, क्रोध आदिकी खराब वृत्तियाँ आ जायँ, उस समय होश नहीं रहता । अतः उस समय विवेक उतना काम नहीं देता, जितना 'हे नाथ। हे नाथ।' पुकारनेसे लाभ होता है।

ज्ञानके दीप जले १४५··

हे नाथ। मैं आपका हूँ' – इससे काम-क्रोधादि भी सुगमतासे दूर हो जायँगे।

ज्ञानके दीप जले १९५- १९६··

अपने बलसे कामादि दोष दूर न हों, तब भगवान्‌को पुकारो, उनके आगे रोओ। भगवान् निर्बलकी सहायता करते हैं- 'सुने री मैंने निरबल के बल राम'। अपनी शक्ति लगाये बिना भगवान् कैसे दया करेंगे?

सत्संगके फूल १४९··

आपका उद्देश्य काम-क्रोधादिको दूर करनेका होना चाहिये । काम-क्रोधादि दोष सुहाये नहीं। उनसे सुख लेते रहोगे तो वे दूर नहीं होंगे। आपसे दूर न हों, तब प्रार्थना करो और प्रार्थना करके चिन्ता छोड़ दो। फिर जब ये दोष आयें, तब भगवान्से कह दो कि 'यह देखो नाथ, काम आ गया'।

सत्संगके फूल १४९··

काम-क्रोधके वेगसे बचनेके लिये हरदम भगवान्से कहते रहो 'हे नाथ। मुझे बचाओ ।' आप उकताना नहीं। प्रार्थना करना छोड़ो मत। यह विश्वास रखो कि भगवान् बचायेंगे । भगवान् जरूर बचायेंगे । भगवान्से की प्रार्थना निष्फल नहीं जाती। हरदम कहते-कहते कभी चट काम हो जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३५··

जैसे बच्चेको कुत्ते, बिल्ली आदिसे डर लगता है तो वह 'माँ। माँ ।।' पुकारता है, ऐसे ही काम, क्रोध, लोभ आदि आ जाय तो 'हे नाथ। हे नाथ।।' पुकारो।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३१··

मनुष्य एक राजाकी शरणमें चला जाय तो चोर डाकू उससे डरने लगते हैं। आप भगवान्‌की शरणमें चले जाओ तो सब दोष आपसे डरेंगे। आपमें काम, क्रोध आदिको जीतनेकी ताकत आ जायगी। भगवान् के साथ आपको जो सम्बन्ध अच्छा मालूम दे, वह मान लो और निश्चिन्त हो जाओ।

अनन्तकी ओर ८०··

काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, पाखण्ड आदि कोई भी दोष आ जाय तो भीतर-ही-भीतर 'हे नाथ। हे नाथ।' पुकारो। जैसे कोई डाकू आ जाय तो चिल्लाते हैं कि हमें लूट रहे हैं, रक्षा करो । बचाओ । ऐसे ही कोई दोष आ जाय तो पुकारो कि 'हे नाथ। हे मेरे नाथ। हे मेरे प्रभो। हे मेरे स्वामी। बचाओ ।'

अनन्तकी ओर ८२··

पहले तो काम-क्रोधादिको जीतना मुश्किल होता है, और इनको जीत जाय तो अभिमान आ जाता है। इससे बचनेके लिये भगवान्‌के चरणोंकी शरण रखे और हृदयसे ' हे नाथ। हे नाथ । ' पुकारता रहे तथा भगवान्पर विश्वास रखे कि उनकी कृपासे ही रक्षा होगी। अपनी शक्ति न माने।

अनन्तकी ओर १२५··