शरीरको अपनेसे अधिक महत्त्व देना अर्थात् शरीरको अपना स्वरूप मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है। अपने स्वरूप ( चिन्मय सत्तामात्र ) - को शरीरसे अधिक महत्त्व देना मूल गुण है, जिससे सम्पूर्ण सद्गुणोंकी उत्पत्ति होती है।
||श्रीहरि:||
शरीरको अपनेसे अधिक महत्त्व देना अर्थात् शरीरको अपना स्वरूप मानना मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है। अपने स्वरूप ( चिन्मय सत्तामात्र ) - को शरीरसे अधिक महत्त्व देना मूल गुण है, जिससे सम्पूर्ण सद्गुणोंकी उत्पत्ति होती है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ११
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ११··
सभी विकार जड़-विभागमें ही होते हैं, पर जड़से तादात्म्य माननेके कारण उसका परिणाम चेतनपर होता है। जैसे ज्वर शरीरमें आता है, पर शरीरसे तादात्म्य करनेके कारण मनुष्य मान लेता है कि मेरेमें ज्वर आ गया। स्वयं (चेतन) - में ज्वर नहीं आता, यदि आता तो कभी मिटता नहीं।
||श्रीहरि:||
सभी विकार जड़-विभागमें ही होते हैं, पर जड़से तादात्म्य माननेके कारण उसका परिणाम चेतनपर होता है। जैसे ज्वर शरीरमें आता है, पर शरीरसे तादात्म्य करनेके कारण मनुष्य मान लेता है कि मेरेमें ज्वर आ गया। स्वयं (चेतन) - में ज्वर नहीं आता, यदि आता तो कभी मिटता नहीं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ९१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ९१··
दोष उसमें हैं, जिसमें कामना है। कारण कि सम्पूर्ण दोष कामनासे ही पैदा होते हैं ....... अगर साधक सर्वथा निर्दोष होना चाहता है तो उसको संयोगजन्य सुखकी कामनाका सर्वथा त्याग करना होगा।
||श्रीहरि:||
दोष उसमें हैं, जिसमें कामना है। कारण कि सम्पूर्ण दोष कामनासे ही पैदा होते हैं ....... अगर साधक सर्वथा निर्दोष होना चाहता है तो उसको संयोगजन्य सुखकी कामनाका सर्वथा त्याग करना होगा।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १२४ - १२५
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १२४ - १२५··
सुख-दुःख, हर्ष - शोक, राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि आने-जानेवाले, बदलनेवाले हैं, पर सत्ता अर्थात् स्वरूप ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है। साधकसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह बदलनेवाली दशाको देखता है, पर सत्ताको नहीं देखता; दशाको स्वीकार करता है, पर सत्ताको स्वीकार नहीं करता।
||श्रीहरि:||
सुख-दुःख, हर्ष - शोक, राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि आने-जानेवाले, बदलनेवाले हैं, पर सत्ता अर्थात् स्वरूप ज्यों-का-त्यों रहनेवाला है। साधकसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह बदलनेवाली दशाको देखता है, पर सत्ताको नहीं देखता; दशाको स्वीकार करता है, पर सत्ताको स्वीकार नहीं करता।- अमरताकी ओर ४३
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अमरताकी ओर ४३··
दूसरे हमारेमें गुण देखते हैं तो यह उनकी सज्जनता और उदारता है, पर उन गुणोंको अपना मान लेना उनकी सज्जनता और उदारताका दुरुपयोग है।
||श्रीहरि:||
दूसरे हमारेमें गुण देखते हैं तो यह उनकी सज्जनता और उदारता है, पर उन गुणोंको अपना मान लेना उनकी सज्जनता और उदारताका दुरुपयोग है।- अमृत-बिन्दु १२१
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अमृत-बिन्दु १२१··
किसी भी आदमीको सर्वथा खराब नहीं मानना चाहिये । मनुष्य सर्वथा सद्गुणी तो हो सकता है, पर सर्वथा दुर्गुणी नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
किसी भी आदमीको सर्वथा खराब नहीं मानना चाहिये । मनुष्य सर्वथा सद्गुणी तो हो सकता है, पर सर्वथा दुर्गुणी नहीं हो सकता।- सत्संगके फूल १०७
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सत्संगके फूल १०७··
मेरेमें दोष नहीं हैं – इसका अभिमान करना भी भूल है और अपनेमें दोष मानना भी भूल है।
||श्रीहरि:||
मेरेमें दोष नहीं हैं – इसका अभिमान करना भी भूल है और अपनेमें दोष मानना भी भूल है।- सत्संगके फूल १६२
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सत्संगके फूल १६२··
दोषोंकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। गुणोंकी कमीको ही दोष कह देते हैं।
||श्रीहरि:||
दोषोंकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। गुणोंकी कमीको ही दोष कह देते हैं।- साधन-सुधा-सिन्धु १५८
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साधन-सुधा-सिन्धु १५८··
मूल दोष है - शरीर तथा संसारकी सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उससे सम्बन्ध जोड़ना । मूल गुण है - भगवान्की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उनसे सम्बन्ध जोड़ना । यह मूल दोष और मूल गुण ही स्थानभेदसे अनेक रूपोंमें दीखता है।
||श्रीहरि:||
मूल दोष है - शरीर तथा संसारकी सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उससे सम्बन्ध जोड़ना । मूल गुण है - भगवान्की सत्ता और महत्ता स्वीकार करके उनसे सम्बन्ध जोड़ना । यह मूल दोष और मूल गुण ही स्थानभेदसे अनेक रूपोंमें दीखता है।- साधक संजीवनी १६ । ५ परि०
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साधक संजीवनी १६ । ५ परि०··
शरीर आदि जड़ पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे, उनको महत्त्व देनेसे, उनका आश्रय लेनेसे ही सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं - 'देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति'।
||श्रीहरि:||
शरीर आदि जड़ पदार्थोंके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे, उनको महत्त्व देनेसे, उनका आश्रय लेनेसे ही सम्पूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं - 'देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति'।- साधक संजीवनी १३ । ८
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साधक संजीवनी १३ । ८··
राग-द्वेषादि विकार न जड़में रहते हैं, न चेतनमें रहते हैं और न ये अन्तःकरणके धर्म हैं, प्रत्युत ये देहाभिमानमें रहते हैं। देहाभिमान भी वास्तवमें है नहीं, प्रत्युत अविवेक - अविचारपूर्वक माना हुआ है। तात्पर्य है कि वास्तवमें विकार अपनेमें नहीं हैं, पर मनुष्य अविवेकके कारण अपनेमें मान लेता है।
||श्रीहरि:||
राग-द्वेषादि विकार न जड़में रहते हैं, न चेतनमें रहते हैं और न ये अन्तःकरणके धर्म हैं, प्रत्युत ये देहाभिमानमें रहते हैं। देहाभिमान भी वास्तवमें है नहीं, प्रत्युत अविवेक - अविचारपूर्वक माना हुआ है। तात्पर्य है कि वास्तवमें विकार अपनेमें नहीं हैं, पर मनुष्य अविवेकके कारण अपनेमें मान लेता है।- साधक संजीवनी १४ । २५ परि०
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साधक संजीवनी १४ । २५ परि०··
जबतक अपनेमें गुण दीखते हैं, तबतक गुणोंके साथ एकता नहीं हुई है। गुण तभी दीखते हैं, जब वे अपनेसे कुछ दूर होते हैं।
||श्रीहरि:||
जबतक अपनेमें गुण दीखते हैं, तबतक गुणोंके साथ एकता नहीं हुई है। गुण तभी दीखते हैं, जब वे अपनेसे कुछ दूर होते हैं।- साधक संजीवनी १६ । ५ परि०
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साधक संजीवनी १६ । ५ परि०··
पहले जन्मके संस्कारोंसे भी दुर्गुण- दुराचारोंमें रुचि हो सकती है, पर वह रुचि दुर्गुण- दुराचार करनेमें बाध्य नहीं करती। विवेक, सद्विचार, सत्संग, शास्त्र आदिके द्वारा उस रुचिको मिटाया जा सकता है।
||श्रीहरि:||
पहले जन्मके संस्कारोंसे भी दुर्गुण- दुराचारोंमें रुचि हो सकती है, पर वह रुचि दुर्गुण- दुराचार करनेमें बाध्य नहीं करती। विवेक, सद्विचार, सत्संग, शास्त्र आदिके द्वारा उस रुचिको मिटाया जा सकता है।- साधक संजीवनी १८ । ४७
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साधक संजीवनी १८ । ४७··
आपके भीतर यह बात बैठी हुई है कि अच्छी बातोंसे अच्छे आचरणोंसे जल्दी कल्याण होगा, पर अच्छी बातें तब ठहरेंगी, जब बुरी बातें छोड़ दोगे। खेती करनेवाले पहले खेत साफ करते हैं, तब धान बोते हैं। जिनको आप छोड़ सकते हो, उन अवगुणोंको छोड़नेसे शेष अवगुण साफ दीखने लगते हैं; और जिन अवगुणोंको छोड़नेमें कठिनता दीखती है, उनको छोड़ना सुगम हो जाता है।
||श्रीहरि:||
आपके भीतर यह बात बैठी हुई है कि अच्छी बातोंसे अच्छे आचरणोंसे जल्दी कल्याण होगा, पर अच्छी बातें तब ठहरेंगी, जब बुरी बातें छोड़ दोगे। खेती करनेवाले पहले खेत साफ करते हैं, तब धान बोते हैं। जिनको आप छोड़ सकते हो, उन अवगुणोंको छोड़नेसे शेष अवगुण साफ दीखने लगते हैं; और जिन अवगुणोंको छोड़नेमें कठिनता दीखती है, उनको छोड़ना सुगम हो जाता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९-१०
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९-१०··
जितने भी दुर्गुण- दुराचार हैं, वे सब मनुष्यके बनाये हुए हैं, भगवान्के बनाये हुए नहीं । भगवान् 'सत्' हैं और दुर्गुण - दुराचार 'असत्' हैं। सत्से असत्की उत्पत्ति कैसे हो सकती है।
||श्रीहरि:||
जितने भी दुर्गुण- दुराचार हैं, वे सब मनुष्यके बनाये हुए हैं, भगवान्के बनाये हुए नहीं । भगवान् 'सत्' हैं और दुर्गुण - दुराचार 'असत्' हैं। सत्से असत्की उत्पत्ति कैसे हो सकती है।- अमृत-बिन्दु ८९
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अमृत-बिन्दु ८९··
एक मार्मिक बात है कि जो सत्संग, साधन-भजन करते हैं, उनके तो अवगुण छूटना सम्भव है, पर जो केवल सद्गुण- सदाचारमें ही लगे हैं, उनके सद्गुण- सदाचार ठहरेंगे नहीं । कारण कि सब सद्गुणोंके मूल भगवान्का आश्रय लिये बिना अच्छे गुण टिकेंगे नहीं।
||श्रीहरि:||
एक मार्मिक बात है कि जो सत्संग, साधन-भजन करते हैं, उनके तो अवगुण छूटना सम्भव है, पर जो केवल सद्गुण- सदाचारमें ही लगे हैं, उनके सद्गुण- सदाचार ठहरेंगे नहीं । कारण कि सब सद्गुणोंके मूल भगवान्का आश्रय लिये बिना अच्छे गुण टिकेंगे नहीं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०··
मुझे लाभ हो जाय ' - यह भाव आसुरी सम्पत्तिकी जड़ है और 'दूसरेको लाभ हो जाय' - यह दैवी सम्पत्तिकी जड़ है।
||श्रीहरि:||
मुझे लाभ हो जाय ' - यह भाव आसुरी सम्पत्तिकी जड़ है और 'दूसरेको लाभ हो जाय' - यह दैवी सम्पत्तिकी जड़ है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०··
ठगनेमें दोष है, ठगे जानेमें दोष नहीं है।
||श्रीहरि:||
ठगनेमें दोष है, ठगे जानेमें दोष नहीं है।- अमृत-बिन्दु २१०
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अमृत-बिन्दु २१०··
मैं शरीर हूँ' - ऐसा मानोगे तो सब दोष आ जायँगे, पर 'मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं'- ऐसा मानोगे तो कोई दोष नजदीक नहीं आयेगा।
||श्रीहरि:||
मैं शरीर हूँ' - ऐसा मानोगे तो सब दोष आ जायँगे, पर 'मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं'- ऐसा मानोगे तो कोई दोष नजदीक नहीं आयेगा।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२५··
साधक प्रायः कहा करते हैं कि सत्संग चर्चा सुनते समय तो इन दोषोंके त्यागकी बात अच्छी और सुगम लगती है; परन्तु व्यवहारमें आनेपर ऐसा होता नहीं। इनको छोड़ना तो चाहते हैं, पर ये छूटते नहीं। इन दोषोंके न छूटनेमें खास कारण है- सांसारिक सुख लेनेकी इच्छा । साधकसे भूल यह होती है कि वह सांसारिक सुख भी लेना चाहता है और साथमें दोषोंसे भी बचना चाहता है। जैसे लोभी व्यक्ति विषयुक्त लड्डुओंकी मिठासको भी लेना चाहे और साथ ही विषसे भी बचना चाहे।
||श्रीहरि:||
साधक प्रायः कहा करते हैं कि सत्संग चर्चा सुनते समय तो इन दोषोंके त्यागकी बात अच्छी और सुगम लगती है; परन्तु व्यवहारमें आनेपर ऐसा होता नहीं। इनको छोड़ना तो चाहते हैं, पर ये छूटते नहीं। इन दोषोंके न छूटनेमें खास कारण है- सांसारिक सुख लेनेकी इच्छा । साधकसे भूल यह होती है कि वह सांसारिक सुख भी लेना चाहता है और साथमें दोषोंसे भी बचना चाहता है। जैसे लोभी व्यक्ति विषयुक्त लड्डुओंकी मिठासको भी लेना चाहे और साथ ही विषसे भी बचना चाहे।- साधक संजीवनी १५ । ३
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साधक संजीवनी १५ । ३··
आपको कसौटी लगानी हो तो उल्टी मत लगाओ, सुल्टी लगाओ कि हम भजन - स्मरण करनेवाले हैं, हमारेमें काम-क्रोध कैसे आ गये ? आपको काम-क्रोधादि दोषोंको हटाना है या भजनको हटाना है? यदि दोषोंको हटाना है तो फिर दोषोंको क्यों आदर देते हो ? भगवान्के भजनको आदर दो। भजनको आदर दो तो दोष टिकेंगे नहीं, टिक सकते नहीं।
||श्रीहरि:||
आपको कसौटी लगानी हो तो उल्टी मत लगाओ, सुल्टी लगाओ कि हम भजन - स्मरण करनेवाले हैं, हमारेमें काम-क्रोध कैसे आ गये ? आपको काम-क्रोधादि दोषोंको हटाना है या भजनको हटाना है? यदि दोषोंको हटाना है तो फिर दोषोंको क्यों आदर देते हो ? भगवान्के भजनको आदर दो। भजनको आदर दो तो दोष टिकेंगे नहीं, टिक सकते नहीं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६५ - १६६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६५ - १६६··
जबतक हृदयमें नाशवान्का आदर रहेगा, तबतक पारमार्थिक बातें समझमें नहीं आयेंगी और राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, पाखण्ड आदि अनेक अवगुण पैदा हो जायँगे। नाशवान् वस्तुका आदर करनेपर सब की सब आसुरी सम्पत्ति आ जायगी।
||श्रीहरि:||
जबतक हृदयमें नाशवान्का आदर रहेगा, तबतक पारमार्थिक बातें समझमें नहीं आयेंगी और राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, द्वेष, पाखण्ड आदि अनेक अवगुण पैदा हो जायँगे। नाशवान् वस्तुका आदर करनेपर सब की सब आसुरी सम्पत्ति आ जायगी।- अनन्तकी ओर १८८- १८९
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अनन्तकी ओर १८८- १८९··
अपनी निर्बलताका दुःख हो और भगवान्की कृपापर विश्वास हो तो जिस दुर्गुणको हटाना चाहते हैं, वह हट जायगा और जिस सद्गुणको लाना चाहते हैं, वह आ जायगा।
||श्रीहरि:||
अपनी निर्बलताका दुःख हो और भगवान्की कृपापर विश्वास हो तो जिस दुर्गुणको हटाना चाहते हैं, वह हट जायगा और जिस सद्गुणको लाना चाहते हैं, वह आ जायगा।- अमृत-बिन्दु ६७४
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अमृत-बिन्दु ६७४··
आप दोषको अपनेमें मानकर हटाते हैं तो वास्तवमें उसको दृढ़ करते हैं। क्योंकि अपनेमें मानते हैं, तभी तो हटाते हैं। ज्यों हटाते हैं, त्यों वह दृढ़ होता है। अगर यह मान लें कि दोष अपनेमें है ही नहीं तो उसकी जड़ ही कट गयी। दोष अपनेमें नहीं हैं, आते हैं। कुत्ता घरमें आ जाय तो वह घरका मालिक हो गया क्या ? वह आ गया तो उसको निकाल दो।
||श्रीहरि:||
आप दोषको अपनेमें मानकर हटाते हैं तो वास्तवमें उसको दृढ़ करते हैं। क्योंकि अपनेमें मानते हैं, तभी तो हटाते हैं। ज्यों हटाते हैं, त्यों वह दृढ़ होता है। अगर यह मान लें कि दोष अपनेमें है ही नहीं तो उसकी जड़ ही कट गयी। दोष अपनेमें नहीं हैं, आते हैं। कुत्ता घरमें आ जाय तो वह घरका मालिक हो गया क्या ? वह आ गया तो उसको निकाल दो।- परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ६९.७०
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परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ६९.७०··
दुर्गुण - दुराचार दूर नहीं हो रहे हैं, क्या करूँ ।' - ऐसी चिन्ता होनेमें तो साधकका अभिमान ही कारण है और 'ये दूर होने चाहिये और जल्दी होने चाहिये' – इसमें भगवान्के विश्वासकी, भरोसेकी, आश्रयकी कमी है। दुर्गुण-दुराचार अच्छे नहीं लगते, सुहाते नहीं, इसमें दोष नहीं है। दोष है चिन्ता करनेमें। इसलिये साधकको कभी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
दुर्गुण - दुराचार दूर नहीं हो रहे हैं, क्या करूँ ।' - ऐसी चिन्ता होनेमें तो साधकका अभिमान ही कारण है और 'ये दूर होने चाहिये और जल्दी होने चाहिये' – इसमें भगवान्के विश्वासकी, भरोसेकी, आश्रयकी कमी है। दुर्गुण-दुराचार अच्छे नहीं लगते, सुहाते नहीं, इसमें दोष नहीं है। दोष है चिन्ता करनेमें। इसलिये साधकको कभी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।- साधक संजीवनी ११ । ३४
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साधक संजीवनी ११ । ३४··
जब आपका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका हो जायगा, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष नहीं रहेंगे। सब गुण अपने-आप आ जायँगे। ये दोष तो उनमें रहते हैं, जिनका उद्देश्य संसार है।
||श्रीहरि:||
जब आपका उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका हो जायगा, तब काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोष नहीं रहेंगे। सब गुण अपने-आप आ जायँगे। ये दोष तो उनमें रहते हैं, जिनका उद्देश्य संसार है।- अनन्तकी ओर ७९
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अनन्तकी ओर ७९··
सबमें परमात्माको देखते रहो, फिर सब विकार सूखी मिट्टीकी तरह झड़ जायँगे।
||श्रीहरि:||
सबमें परमात्माको देखते रहो, फिर सब विकार सूखी मिट्टीकी तरह झड़ जायँगे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६७··
केवल यह मान लें कि परमात्मा सब जगह हैं। यह मानना जितना जोरदार होगा, उतने ही काम-क्रोधादि दोष कम हो जायँगे और फिर नष्ट हो जायँगे। अन्तमें यह मानना नहीं रहेगा, परमात्मा दीखने लग जायँगे।
||श्रीहरि:||
केवल यह मान लें कि परमात्मा सब जगह हैं। यह मानना जितना जोरदार होगा, उतने ही काम-क्रोधादि दोष कम हो जायँगे और फिर नष्ट हो जायँगे। अन्तमें यह मानना नहीं रहेगा, परमात्मा दीखने लग जायँगे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८२