Seeker of Truth

ध्यान और समाधि

परमात्मा है' – इसका ध्यान मैं बहुत बढ़िया और बहुत सुगम मानता हूँ।

अनन्तकी ओर ९८-९९··

अगर उस परमात्माकी तरफ दृष्टि, लक्ष्य हो जाय कि वह सब जगह ज्यों का त्यों परिपूर्ण है, तो स्वतः ध्यान हो जायगा, ध्यान करना नहीं पड़ेगा।

साधक संजीवनी ६ । २५··

अगर आप ध्यान करना चाहें तो एकान्तमें बैठ जायँ और ऐसा ध्यान करें कि 'एक परमात्मा है; यह संसार नहीं है'। उस 'है' में स्थित हो जायँ। इससे शान्ति मिलेगी। दुःख मिट जायगा।

अनन्तकी ओर १०३··

जो परमात्मामें 'मन' लगाता है, वही चलितमना होनेपर योगभ्रष्ट होता है । परन्तु जो 'स्वयं' लगता है, वह कभी योगभ्रष्ट होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं । ध्यानयोगी योगभ्रष्ट होता है, कर्मयोगी और ज्ञानयोगी योगभ्रष्ट नहीं होते।

स्वातिकी बूँदें १२१··

ध्यान तो स्वाभाविक होता है। आपके मनमें जो वस्तु होगी, उसका ध्यान करना नहीं पड़ेगा, प्रत्युत स्वतः उसकी याद आयेगी। भगवान्‌का ध्यान तब होगा, जब भगवान् ‌में अपनापन होगा, भगवान् प्यारे लगेंगे। दूसरी वस्तुओंमें अपनापन होगा तो भगवान्‌का ध्यान करना अपने-आपको धोखा देना है । किसी वस्तुको अपनी नहीं माने, तब भगवान्‌में मन लगेगा ।........जो अपने-आप होता है, वह असली होता है और जो करते हैं, वह नकली होता है। ध्यान होता है, किया नहीं जाता।

ईसवर अंस जीव अबिनासी १०७ - १०८··

सबमें आत्मदर्शन अथवा सबमें भगवद्दर्शन करना ही ध्यानयोगका अन्तिम फल है। ज्ञानके संस्कारवाले ध्यानयोगी सबमें आत्माको और भक्तिके संस्कारवाले ध्यानयोगी सबमें भगवान्‌को देखते हैं।

साधक संजीवनी ६ । ३४ परि०··

सगुणके ध्यानकी अपेक्षा अपनापन करना श्रेष्ठ है - गोपियोंकी तरह । तात्पर्य है कि भगवान्का ध्यान करनेकी अपेक्षा भगवान्‌को अपना मानना श्रेष्ठ है। अपनापन होनेसे ध्यान अपने-आप होगा । अपने-आप होनेवाला साधन श्रेष्ठ होता है।

स्वातिकी बूँदें १२२··

मैं भगवान्का हूँ और भगवान्‌का काम करता हूँ- यह ध्यानसे भी ऊँची चीज है । कारण कि यह करणनिरपेक्ष है। ध्यानमें मन लगाते हैं, इसलिये वह करणसापेक्ष है। करणसापेक्षवाला साधक योगभ्रष्ट हो सकता है, पर करणनिरपेक्षवाला साधक योगभ्रष्ट नहीं हो सकता। हमारा मन भगवान्में लगा तो हमारे और भगवान्‌ के बीचमें मन आ गया। हमारा भगवान् के साथ सीधा सम्बन्ध हो तो यह करणनिरपेक्ष है, पर बीचमें मन-बुद्धि आ जायँगे तो यह करणसापेक्ष हो जायगा।

अनन्तकी ओर ७६··

जबतक समाधि और व्युत्थान- दोनों होते हैं, तबतक साथमें कारणशरीर ( अज्ञान) भी है।

स्वातिकी बूँदें १०९··

समाधि कारणशरीरमें होती है, जिसमें व्युत्थान होता है। जबतक समाधि और व्युत्थान दोनों होते हैं, तबतक वह साधक है, सिद्ध नहीं है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति होनेपर व्युत्थान नहीं होता। वह सहजावस्था होती है, जिसमें कारणशरीरसे भी सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ७८··

जबतक समाधि और व्युत्थान- ये दो अवस्थाएँ हैं, तबतक प्रकृतिके साथ सम्बन्ध है। प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद होनेपर तो सहजावस्था होती है, जिससे व्युत्थान होता ही नहीं।

साधक संजीवनी ६ । ३६ मा०··

स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सुक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता— तीनों ही अपने काम नहीं आते। सभी समाधियाँ कारणशरीरमें होती हैं, अपनेमें नहीं होतीं । अतः वे भी अपने कामकी नहीं हैं । छ: तरहकी समाधियाँ हैं, जो मेरी देखी हुई हैं [आभ्यन्तरदृश्यानुविद्ध, आभ्यन्तरशब्दानुविद्ध, बाह्यदृश्यानुविद्ध, बाह्य शब्दानुविद्ध, अद्वैतभावना और अद्वैत अवस्थान- ये छ: तरहकी समाधियाँ हैं। (बन गये० ६५)] । समाधि और व्युत्थान होना पूर्ण अवस्था नहीं है। पूर्ण अवस्थामें व्युत्थान नहीं होता। वह सहजावस्था है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८८··

समाधि, एकाग्रताके साथ भी अपना सम्बन्ध नहीं है । अपना सम्बन्ध होता तो व्युत्थान नहीं होता।

स्वातिकी बूँदें १८३··

समाधि भी परमात्माकी प्राप्ति करानेवाली नहीं है। यह सिद्धियाँ प्राप्त करानेवाली चीज है।

मैं नहीं, मेरा नहीं ५४··

प्रवृत्ति (करना) और निवृत्ति (न करना) – दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं। निर्विकल्प समाधितक सब प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प समाधिसे भी व्युत्थान होता है । क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है- 'प्रकर्षेण करणं ( भावे ल्युट् ) इति प्रकृतिः, और क्रिया हुए बिना व्युत्थानका होना सम्भव ही नहीं। इसलिये चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिकी तरह सोना, बैठना, खड़ा होना, मौन होना, मूच्छित होना और समाधिस्थ होना भी क्रिया है । वास्तविक तत्त्व (चेतन स्वरूप ) - में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों ही नहीं हैं।

साधक संजीवनी ३ । १८··

जडता (स्थूल, सूक्ष्म और कारण - शरीर) का आश्रय लेकर जो परमात्मतत्त्वका अनुभव करना चाहते हैं, वे पुरुष समाधि लगाकर भी परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं कर पाते; क्योंकि समाधि भी कारण - शरीरके आश्रित रहती है।

साधक संजीवनी १५ ११ मा०··

प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है, इसलिये उससे सम्बन्ध रखते हुए कोई भी प्राणी किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता ( गीता ३ । ५; १८ । ११) । अतः जबतक प्रकृतिका सम्बन्ध है, तबतक समाधि भी कर्म ही है, जिसमें समाधि और व्युत्थान- ये दो अवस्थाएँ होती हैं। परन्तु प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर दो अवस्थाएँ नहीं होतीं, प्रत्युत 'सहज समाधि' अथवा 'सहजावस्था' होती है, जिससे कभी व्युत्थान नहीं होता । कारण कि अवस्थाभेद प्रकृतिमें है, स्वरूपमें नहीं।

साधक संजीवनी ३ । १८ टि०··