आस्तिकजन जिसे 'धर्म' कहते हैं, उसीका नाम 'कर्तव्य' है। स्वधर्मका पालन करना अथवा अपने कर्तव्यका पालन करना एक ही बात है। कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको सुगमतापूर्वक कर सकते हैं, जो अवश्य करनेयोग्य है और जिसको करनेपर प्राप्तव्यकी प्राप्ति अवश्य होती है। धर्मका पालन करना सुगम होता है; क्योंकि वह कर्तव्य होता है।
||श्रीहरि:||
आस्तिकजन जिसे 'धर्म' कहते हैं, उसीका नाम 'कर्तव्य' है। स्वधर्मका पालन करना अथवा अपने कर्तव्यका पालन करना एक ही बात है। कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको सुगमतापूर्वक कर सकते हैं, जो अवश्य करनेयोग्य है और जिसको करनेपर प्राप्तव्यकी प्राप्ति अवश्य होती है। धर्मका पालन करना सुगम होता है; क्योंकि वह कर्तव्य होता है।- साधक संजीवनी ३ । ३५
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साधक संजीवनी ३ । ३५··
धर्मका मूल है - स्वार्थका त्याग और दूसरेका हित।
||श्रीहरि:||
धर्मका मूल है - स्वार्थका त्याग और दूसरेका हित।- अमृत-बिन्दु ९८४
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अमृत-बिन्दु ९८४··
धर्म' नाम दो बातोंका है- १. दान करना, प्याऊ लगाना, अन्नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और २. वर्ण आश्रमके अनुसार शास्त्रविहित अपने कर्तव्य कर्मका तत्परता से पालन करना।
||श्रीहरि:||
धर्म' नाम दो बातोंका है- १. दान करना, प्याऊ लगाना, अन्नक्षेत्र खोलना आदि परोपकारके कार्य करना और २. वर्ण आश्रमके अनुसार शास्त्रविहित अपने कर्तव्य कर्मका तत्परता से पालन करना।- साधक संजीवनी २।४०
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साधक संजीवनी २।४०··
धर्म सामान्य होता है और सम्प्रदाय एकदेशीय होता है। सम्प्रदाय किसी मनुष्य (आचार्य) का बनाया हुआ होता है, पर धर्म किसी मनुष्यका बनाया हुआ नहीं होता।
||श्रीहरि:||
धर्म सामान्य होता है और सम्प्रदाय एकदेशीय होता है। सम्प्रदाय किसी मनुष्य (आचार्य) का बनाया हुआ होता है, पर धर्म किसी मनुष्यका बनाया हुआ नहीं होता।- रहस्यमयी वार्ता ११२
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रहस्यमयी वार्ता ११२··
धर्मसे कल्याण तभी होता है, जब उसका पालन निष्कामभावसे किया जाय। तात्पर्य है कि कल्याण धर्मसे नहीं होता, प्रत्युत निष्कामभावसे होता है।
||श्रीहरि:||
धर्मसे कल्याण तभी होता है, जब उसका पालन निष्कामभावसे किया जाय। तात्पर्य है कि कल्याण धर्मसे नहीं होता, प्रत्युत निष्कामभावसे होता है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला २७०
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प्रश्नोत्तरमणिमाला २७०··
धर्मके अनुसार खुद चलें - इसके समान धर्मका प्रचार कोई नहीं है।
||श्रीहरि:||
धर्मके अनुसार खुद चलें - इसके समान धर्मका प्रचार कोई नहीं है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ११८
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ११८··
यह नियम है कि केवल अपने धर्मका ठीक-ठीक पालन करनेसे मनुष्यको वैराग्य हो जाता है- ‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३ | १६ | १ ) |
||श्रीहरि:||
यह नियम है कि केवल अपने धर्मका ठीक-ठीक पालन करनेसे मनुष्यको वैराग्य हो जाता है- ‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३ | १६ | १ ) |- साधक संजीवनी ३ | ३५
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साधक संजीवनी ३ | ३५··
जो धर्मका पालन करता है, उसके कल्याणका भार धर्मपर और धर्मके उपदेष्टा भगवान्, वेदों, शास्त्रों, ऋषियों, मुनियों आदिपर होता है तथा उन्हींकी शक्तिसे उसका कल्याण होता है।
||श्रीहरि:||
जो धर्मका पालन करता है, उसके कल्याणका भार धर्मपर और धर्मके उपदेष्टा भगवान्, वेदों, शास्त्रों, ऋषियों, मुनियों आदिपर होता है तथा उन्हींकी शक्तिसे उसका कल्याण होता है।- साधक संजीवनी ३।३५
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साधक संजीवनी ३।३५··
विवाह तो हरेक पुरुषका हो सकता है, राक्षसका भी और असुरका भी। वे भी पति बन सकते हैं। परन्तु वास्तवमें कल्याण पतिकी सेवासे नहीं होता, प्रत्युत पतिकी सेवा करना – पातिव्रत- धर्मका पालन करना ऋषि, शास्त्र, भगवान्की आज्ञा है, इसलिये इनकी आज्ञाके पालनसे ही कल्याण होता है।
||श्रीहरि:||
विवाह तो हरेक पुरुषका हो सकता है, राक्षसका भी और असुरका भी। वे भी पति बन सकते हैं। परन्तु वास्तवमें कल्याण पतिकी सेवासे नहीं होता, प्रत्युत पतिकी सेवा करना – पातिव्रत- धर्मका पालन करना ऋषि, शास्त्र, भगवान्की आज्ञा है, इसलिये इनकी आज्ञाके पालनसे ही कल्याण होता है।- साधक संजीवनी १७ । ४
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साधक संजीवनी १७ । ४··
कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग एवं दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता है।
||श्रीहरि:||
कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग एवं दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता है।- साधक संजीवनी ३ | ३५ टि०
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साधक संजीवनी ३ | ३५ टि०··
केवल धार्मिक क्रियाओंसे जो धार्मिक बनता है, उसके भीतर भोग और ऐश्वर्यकी कामना होनेसे उसको भोग और ऐश्वर्य तो मिल सकते हैं, पर शाश्वती शान्ति नहीं मिल सकती।
||श्रीहरि:||
केवल धार्मिक क्रियाओंसे जो धार्मिक बनता है, उसके भीतर भोग और ऐश्वर्यकी कामना होनेसे उसको भोग और ऐश्वर्य तो मिल सकते हैं, पर शाश्वती शान्ति नहीं मिल सकती।- साधक संजीवनी ९ । ३१
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साधक संजीवनी ९ । ३१··
धर्मका अनुष्ठान धनके लिये किया जाय और धनका खर्चा धर्मके लिये किया जाय, तो धर्मसे धन और धनसे धर्म —- दोनों परस्पर बढ़ते रहते हैं। परन्तु धर्मका अनुष्ठान और धनका खर्चा केवल कामनापूर्ति के लिये ही किया जाय तो धर्म (पुण्य) और धन - दोनों ही कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
धर्मका अनुष्ठान धनके लिये किया जाय और धनका खर्चा धर्मके लिये किया जाय, तो धर्मसे धन और धनसे धर्म —- दोनों परस्पर बढ़ते रहते हैं। परन्तु धर्मका अनुष्ठान और धनका खर्चा केवल कामनापूर्ति के लिये ही किया जाय तो धर्म (पुण्य) और धन - दोनों ही कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाते हैं।- साधक संजीवनी १८ । ३४ टि०
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साधक संजीवनी १८ । ३४ टि०··
जो सुखके लिये धर्मका पालन करते हैं, वे धर्मके तत्त्वको नहीं जानते।
||श्रीहरि:||
जो सुखके लिये धर्मका पालन करते हैं, वे धर्मके तत्त्वको नहीं जानते।- ज्ञानके दीप जले ५१
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ज्ञानके दीप जले ५१··
धर्म - पालनमें कष्ट सहना पड़ता है। सुख-आराम चाहें तो धर्मका पालन कैसे होगा ? भूख सहन नहीं कर सकें तो एकादशीव्रत कैसे होगा ?
||श्रीहरि:||
धर्म - पालनमें कष्ट सहना पड़ता है। सुख-आराम चाहें तो धर्मका पालन कैसे होगा ? भूख सहन नहीं कर सकें तो एकादशीव्रत कैसे होगा ?- स्वातिकी बूँदें १३६
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स्वातिकी बूँदें १३६··
अगर धर्मका पालन करनेमें सुगमता होती और रुपये ज्यादा मिलते तो कई धर्मात्मा हो जाते। पर धर्मके पालनमें कुछ कठिनता सहनी पड़ती है। कठिनता सहे बिना धर्मका अनुष्ठान नहीं होता । धर्मका पालन करनेसे निर्वाह हो जाता है - इसमें सन्देह नहीं है।
||श्रीहरि:||
अगर धर्मका पालन करनेमें सुगमता होती और रुपये ज्यादा मिलते तो कई धर्मात्मा हो जाते। पर धर्मके पालनमें कुछ कठिनता सहनी पड़ती है। कठिनता सहे बिना धर्मका अनुष्ठान नहीं होता । धर्मका पालन करनेसे निर्वाह हो जाता है - इसमें सन्देह नहीं है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०९··
स्वधर्म - पालनमें यदि सदा सुख-आराम, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि ही मिलते तो वर्तमानमें धर्मात्माओंकी टोलियाँ देखनेमें आतीं। परन्तु स्वधर्मका पालन सुख अथवा दुःखको देखकर नहीं किया जाता, प्रत्युत भगवान् अथवा शास्त्रकी आज्ञाको देखकर निष्कामभावसे किया जाता है।
||श्रीहरि:||
स्वधर्म - पालनमें यदि सदा सुख-आराम, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि ही मिलते तो वर्तमानमें धर्मात्माओंकी टोलियाँ देखनेमें आतीं। परन्तु स्वधर्मका पालन सुख अथवा दुःखको देखकर नहीं किया जाता, प्रत्युत भगवान् अथवा शास्त्रकी आज्ञाको देखकर निष्कामभावसे किया जाता है।- साधक संजीवनी ३ । ३५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । ३५··
जो धर्मका आदर करता है, उसका आदर स्वतः होगा, स्वाभाविक होगा। वह जहाँ जायगा, वहीं उसका आदर होगा।
||श्रीहरि:||
जो धर्मका आदर करता है, उसका आदर स्वतः होगा, स्वाभाविक होगा। वह जहाँ जायगा, वहीं उसका आदर होगा।- अनन्तकी ओर १५२
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अनन्तकी ओर १५२··
सच्चे धर्मात्मा मनुष्यको किसीकी भी गरज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज (आवश्यकता) होती है।
||श्रीहरि:||
सच्चे धर्मात्मा मनुष्यको किसीकी भी गरज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज (आवश्यकता) होती है।- अमृत-बिन्दु ९७८
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अमृत-बिन्दु ९७८··
वास्तवमें जाति-धर्म ही धर्मकी जड़ है। कलियुगका सर्वप्रथम लक्षण बताया है- 'बरन धर्म नहिं आश्रम चारी । श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥ ' ( मानस, उत्तर० ९८ । १) । शास्त्रोंकी बातें जल्दी समझमें नहीं आतीं। जो जाति व्यवस्था नहीं मानते, उनमें शास्त्रोंको समझनेकी अक्ल नहीं है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें जाति-धर्म ही धर्मकी जड़ है। कलियुगका सर्वप्रथम लक्षण बताया है- 'बरन धर्म नहिं आश्रम चारी । श्रुति बिरोध रत सब नर नारी ॥ ' ( मानस, उत्तर० ९८ । १) । शास्त्रोंकी बातें जल्दी समझमें नहीं आतीं। जो जाति व्यवस्था नहीं मानते, उनमें शास्त्रोंको समझनेकी अक्ल नहीं है।- सागरके मोती ८६
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सागरके मोती ८६··
जाति जन्मसे मानी जाती है, कर्मसे नहीं। यदि कर्मसे जाति मानें तो क्या कोई मेहतर बनना चाहेगा? सभी मनुष्य ब्राह्मण बनना चाहेंगे। जो ऊँचा बनना चाहता है, वह वास्तवमें नीचा है। जो ऊँचा बनना चाहते हैं, वे केवल अपना अहंकार बढ़ाना चाहते हैं।
||श्रीहरि:||
जाति जन्मसे मानी जाती है, कर्मसे नहीं। यदि कर्मसे जाति मानें तो क्या कोई मेहतर बनना चाहेगा? सभी मनुष्य ब्राह्मण बनना चाहेंगे। जो ऊँचा बनना चाहता है, वह वास्तवमें नीचा है। जो ऊँचा बनना चाहते हैं, वे केवल अपना अहंकार बढ़ाना चाहते हैं।- सागरके मोती ११७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ११७··
प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म – ये तीनों होते हैं। दूसरेके अनिष्टका भाव, कूटनीति आदि 'धर्ममें कुधर्म' है । यज्ञमें पशुबलि देना आदि 'धर्ममें अधर्म' है। जो अपने लिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका धर्म धर्ममें परधर्म' है। कुधर्म, अधर्म और परधर्म - इन तीनोंसे कल्याण नहीं होता। कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग एवं दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता हो।
||श्रीहरि:||
प्रत्येक धर्ममें कुधर्म, अधर्म और परधर्म – ये तीनों होते हैं। दूसरेके अनिष्टका भाव, कूटनीति आदि 'धर्ममें कुधर्म' है । यज्ञमें पशुबलि देना आदि 'धर्ममें अधर्म' है। जो अपने लिये निषिद्ध है, ऐसा दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका धर्म धर्ममें परधर्म' है। कुधर्म, अधर्म और परधर्म - इन तीनोंसे कल्याण नहीं होता। कल्याण उस धर्मसे होता है, जिसमें अपने स्वार्थ तथा अभिमानका त्याग एवं दूसरेका वर्तमानमें और भविष्यमें हित होता हो।- रहस्यमयी वार्ता ११२