Seeker of Truth

दान

दान-पुण्य करनेके लिये रुपये कमानेकी आवश्यकता नहीं है। जैसे, कोई व्यक्ति टैक्स देनेके लिये नहीं कमाता । दान-पुण्य भी टैक्स है। पैसा है तो दान पुण्यमें लगाओ। पैसा है, पर दान- पुण्य नहीं करते तो दण्ड होगा।

ज्ञानके दीप जले १३३··

ईमानदारीसे कमाये रुपयोंके दानसे ही शुद्धि आती है। अन्यायसे कमाये पूरे के पूरे रुपयोंका भी दान कर दो तो भी पाप नष्ट नहीं होंगे।

सागरके मोती ७९··

अन्न, जल, वस्त्र और औषध - इनको देनेमें पात्र-अपात्र आदिका विचार नहीं करना चाहिये। जिसको अन्न, जल आदिकी आवश्यकता है, वही पात्र है। परन्तु कन्यादान, भूमिदान, गोदान आदि विशेष दान करना हो तो उसमें देश, काल, पात्र आदिका विशेष विचार करना चाहिये।

साधन-सुधा-सिन्धु २१८··

अन्न, जल, वस्त्र और औषध - इनको देनेमें यदि हम पात्र - कुपात्रका अधिक विचार करेंगे तो खुद कुपात्र बन जायँगे और दान करना कठिन हो जायगा । अतः हमारी दृष्टिमें अगर कोई भूखा, प्यासा आदि दीखता हो तो उसको अन्न, जल आदि दे देना चाहिये । यदि वह अपात्र भी हुआ तो हमें पाप नहीं लगेगा।

साधन-सुधा-सिन्धु २१८··

कुपात्रको अन्न-जल इतना नहीं देना चाहिये कि जिससे वह पुनः हिंसा आदि पापोंमें प्रवृत्त हो जाय; जैसे कोई हिंसक मनुष्य अन्न जलके बिना मर रहा है, तो उसको उतना ही अन्न- जल दे कि जिससे उसके प्राण रह जायँ, वह जी जाय।

साधक संजीवनी १७ । २२ वि०··

भगवान्का भक्त भी वस्तु देनेमें पात्र नहीं देखता, वह तो दिये जाता है; क्योंकि वह सबमें अपने प्यारे प्रभुको ही देखता है कि इस रूपमें तो हमारे प्रभु ही आये हैं। अतः वह दान नहीं करता, कर्तव्य पालन नहीं करता, प्रत्युत पूजा करता है - 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य (गीता १८ । ४६)।

साधक संजीवनी १७ । २२ वि०··

जो वस्तु अपनी नहीं है और आपके पास आयी है, उसे संसारमें लगा दो - यह ईमानदारी है। सेवाका, दानका फल है - बेईमानीसे बचना । दान देना बड़ी बात नहीं है, यह तो टैक्स है। बड़ी बात है - भगवान्‌में लगना।

ज्ञानके दीप जले १४५··

प्रेम और आदरपूर्वक दिया गया दान ही दूसरोंके काम आता है।

सागरके मोती १०६··

भगवान्‌के यहाँ रुपयोंकी संख्या नहीं देखी जाती, प्रत्युत शक्ति देखी जाती है। जिसके पास सौ रुपये हैं, वह एक रुपया दान कर देता है। ऐसे ही करोड़पतिने एक लाख रुपया दान किया तो वास्तवमें उसने एक रुपया ही दिया, पर देखनेमें वह बड़ा दानी दीखता है।

सागरके मोती १४२··

ऐसा मत समझो कि हमारे पास पैसे कम हैं, इसलिये कम पुण्य कर सकेंगे। ज्यादा पैसोंवाला ज्यादा पुण्य नहीं कर सकता। भगवान्‌के यहाँ पैसोंकी गिनती नहीं होती। भगवान् शक्ति देखते हैं कि आप कितना दान कर सकते हैं ?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१४ - २१५··

दूसरेको निर्वाहके लिये दें, संचयके लिये नहीं अर्थात् उतना ही दें, जिससे उसका निर्वाह हो जाय । यदि लेनेवालेकी आदत बिगड़ती है तो यह दोष वास्तवमें देनेवालेका है अर्थात् देनेवाला कामना, ममता, स्वार्थ आदिको लेकर देता है। यदि देनेवाला निःस्वार्थ भावसे, बदलेकी आशा न रखकर दे तो जिसको देगा, उसका स्वभाव भी देनेका बन जायगा, वह भी सेवक बन जायगा।

साधन-सुधा-सिन्धु २१८··

गुप्त दान तो वह होता है कि दान लेनेवालेको पता न चले कि कहाँसे आया ? घरवालोंसे छिपाकर देना चोरी है, जिसका दण्ड होगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०६··

किसीको अन्न, वस्त्र आदि दो तो अपना मानकर नहीं, प्रत्युत उसीका मानकर दो। अपनी मानकर वस्तु देनेसे 'दान' होता है और उसीकी मानकर वस्तु देनेसे 'त्याग' होता है। त्यागसे शान्ति मिलती है। दानसे सहस्रगुना पुण्य होगा तो वह सहस्रगुना भी छोड़ना पड़ेगा, पर त्याग साथमें चलेगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६९··

कल्याण दानसे नहीं होता, त्यागसे होता है।

स्वातिकी बूँदें १३··

आपका उदारभाव कल्याण करनेवाला है, रुपया कल्याण करनेवाला नहीं है। भावसे कल्याण होता है, वस्तुसे नहीं। अगर वस्तुसे कल्याण होता तो बेचारे गरीबोंका, साधुओंका कल्याण कैसे होगा?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१५··

कहीं कोई चीज पड़ी मिल जाय तो वह भी दान-पुण्य कर दो, किसी अच्छे काममें लगा दो । दान-पुण्य करके यह कहो कि जिसकी चीज है, उसीको पुण्य हो जाय, हमारेको नहीं।

अनन्तकी ओर ४६··

मृत्युके बाद नेत्रदान करना सर्वथा अनुचित है। जैसे अपनी सम्पत्ति देनेका अधिकार बालिग (वयस्क) - को होता है, नाबालिग ( अवयस्क) को नहीं, ऐसे शरीरके किसी अंगका दान करनेका अधिकार जीवन्मुक्त महापुरुषको ही है। जिसने अपना कल्याण कर लिया है, अपना मानव-जीवन सफल कर लिया है, वह बालिग है, शेष सब नाबालिग हैं। जीवन्मुक्त महापुरुष भी शरीरके रहते हुए ही नेत्रदान कर सकता है, शरीर छूटनेके बाद नहीं । दधीचि ऋषिने जीवितावस्थामें ही इन्द्रको वज्रनिर्माणके लिये अपना शरीर दिया था। राजा अलर्कने भी जीवितावस्थामें ही एक अन्धे ब्राह्मणको नेत्रदान दिया था।

सत्संगके फूल १८९··

दान कई तरहके होते हैं; जैसे भूमिदान, गोदान, स्वर्णदान, अन्नदान, वस्त्रदान आदि। इन सबमें अन्नदान प्रधान है। परन्तु इससे भी अभयदान प्रधान (श्रेष्ठ) है।

साधक संजीवनी १६ । १··

साधक ऐसा माने कि अपने पास वस्तु, सामर्थ्य, योग्यता आदि जो कुछ भी है, वह सब भगवान्ने दूसरोंकी सेवा करनेके लिये मुझे निमित्त बनाकर दी है। अतः भगवत्प्रीत्यर्थ आवश्यकतानुसार जिस किसीको जो कुछ दिया जाय, वह सब उसीका समझकर उसे देना 'दान' है।

साधक संजीवनी १६ । १··

शास्त्रमें आया है कि कलियुगमें दान ही एकमात्र धर्म है; अतः जिस किसी प्रकारसे भी दान दिया जाय, वह कल्याण ही करता है। इसका तात्पर्य है कि कलियुगमें यज्ञ, दान, तप, व्रत आदि शुभकर्म विधिपूर्वक करने कठिन हैं; अतः किसी तरहसे देनेकी, त्याग करनेकी आदत पड़ जाय । इसलिये जिस किसी प्रकारसे भी दान देते रहना चाहिये।

साधक संजीवनी १७ । २२ परि०··