Seeker of Truth

चुप-साधन - 'करना' और 'न करना'

ज्ञानकी दृष्टिसे 'कुछ न करना' ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ है।

सन्त समागम ५··

करने' से प्रकृतिमें स्थिति होती है और 'न करने' से परमात्मतत्त्वमें स्थिति होती है।

सन्त समागम ५··

कुछ करेंगे, तभी तत्त्व मिलेगा - यह भाव देहाभिमानको पुष्ट करनेवाला है। करनेसे जो मिलेगा, वह अनित्य होगा।

अमृत-बिन्दु ४६६··

करनेसे संसार पैदा होता है और न करनेसे परमात्माकी प्राप्ति होती है। कुछ भी मत करो तो आप जीवन्मुक्त हो जाओगे। करनेसे बन्धन होगा, न करनेसे सब कुछ हो जायगा । परन्तु कुछ न करना आपके हाथकी बात नहीं है; क्योंकि करनेका स्वभाव पड़ा हुआ है। इसलिये पहले यह स्वीकार करना होगा कि 'मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये। इससे करनेका अभ्यास मिट जायगा। करनेकी शक्ति केवल दूसरोंके हितके लिये है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४६ - १४७··

अपने लिये कुछ नहीं करना है और भगवान् से सम्बन्ध जोड़नेके लिये भी कुछ नहीं करना है।

सागरके मोती १००··

भीतरसे परमात्माका लक्ष्य रखते हुए कुछ न करना 'विश्राम' है, पर अपने सुखके लक्ष्यसे कुछ न करना 'आराम' है। विश्राम परमात्माके लिये होना चाहिये, अपने लिये नहीं । परमात्माके लिये विश्राम ( कुछ न करना) साधन है।

रहस्यमयी वार्ता २७३··

समस्त क्रियाएँ जड़में और जड़के लिये ही होती हैं। चेतनमें और चेतनके लिये कभी कोई क्रिया नहीं होती। अतः 'करना' अपने लिये है ही नहीं, कभी हुआ नहीं और कभी हो सकता भी नहीं। हाँ, संसारसे मिले हुए इन शरीर आदि जड़ पदार्थोंको चेतन जितने अंशमें 'मैं', 'मेरा' और 'मेरे लिये' मान लेता है, उतने अंशमें उसका स्वभाव अपने लिये' करनेका हो जाता है।

साधक संजीवनी ३ ।९··

जो भगवान्में प्रेम करे और कुछ भी चिन्तन न करे, वह संसारमें सबसे श्रेष्ठ है । संसारमें सम्पूर्ण पदार्थोंकी प्राप्ति तो कर्म करनेसे होती है, पर भगवान्‌की प्राप्ति उनको अपना माननेसे और अपने लिये कुछ न करनेसे होती है। 'करना' सब प्रकृतिमें है । कुछ न करते ( चुप होते ) ही भगवान्में स्थिति होती है और बड़ी भारी शक्तिके साथ सम्बन्ध होता है। कारण कि जो सब जगह परिपूर्ण होता है, उसकी प्राप्ति क्रियासे नहीं होती। क्रियासे तो वह दूर होता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ८··

प्रापणीय वस्तु (परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है, जबकि कर्म और कर्म - फल अनित्य अर्थात् उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला है। अनित्य ( कर्म और फल ) का सम्बन्ध नित्य (स्वयं) के साथ हो ही कैसे सकता है । कर्मका सम्बन्ध 'पर' (शरीर और संसार ) - से है, 'स्व' से नहीं कर्म सदैव 'पर' के द्वारा और 'पर' के लिये ही होता है। इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं।

साधक संजीवनी ३ । २२··

स्वयं (चेतन स्वरूप ) में करना और न करना- दोनों ही नहीं हैं; क्योंकि वह इन दोनोंसे परे है । वह अक्रिय और सबका प्रकाशक है।.......करना और न करना वहाँ होता है, जहाँ 'अहम्' (मैं) रहता है।

साधक संजीवनी ३ । २७··

एक मार्मिक बात है कि कर्म - सामग्रीके बिना कोई भी कर्म नहीं किया जा सकता; जैसे- कितना ही बड़ा लेखक क्यों न हो, स्याही, कलम और कागजके बिना वह कुछ भी नहीं लिख सकता । अतः जब कर्म- सामग्रीके बिना कुछ किया नहीं जा सकता, तब यह विधान मानना ही पड़ेगा कि अपने लिये कुछ करना नहीं है।

साधक संजीवनी ४ । १६··

दूसरे सुखके बिना आप जी सकते हो, पर नींदके बिना आप जी नहीं सकते, पागल हो जाओगे । इससे सिद्ध होता है कि आपका वास्तविक जीवन बिना उद्योगका है। उद्योग संसारमें है । अनुद्योग परमात्माकी प्राप्तिमें है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९४··

शरीरसे तादात्म्य होनेके कारण प्रत्येक क्रियामें स्वयंकी मुख्यता रहती है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ आदि । क्रिया तो होती है शरीरमें, पर मान लेते हैं अपनी स्वयंमें कोई क्रिया नहीं है, वह करने और न करने- दोनोंसे रहित है (गीता ३ । १८ ), इसलिये शरीरके द्वारा क्रिया होनेपर भी सत्तामात्र अपने स्वरूपपर दृष्टि रहनी चाहिए कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ।

साधक संजीवनी ५।८-९ परि०··

करनेसे कुछ मिलता है, पर न करनेसे सब कुछ मिलता है। कुछ भी न करनेको गोस्वामीजीने परमविश्राम कहा है- ' पायो परम बिश्रामु' (मानस, उत्तर० १३० छं० ) । जो देखना था, देख लिया; सुनना था, सुन लिया; कहना था, कह दिया; चिन्तन करना था, चिन्तन कर लिया; अब कुछ करना है ही नहीं। यह सार बात है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ९८··

अगर साधकका 'करना' 'होने' में बदल जाय तो बहुत लाभ होगा। मैं कर नहीं रहा हूँ, मेरे द्वारा हो रहा है। यह बहुत ऊँची बात है।

मामेकं शरणं व्रज १७··