प्रत्येक साधकके लिये खास बाधा है - सुख - लोलुपता । सुखासक्तिका त्याग किये बिना प्रत्येक साधन कठिन पड़ेगा।
||श्रीहरि:||
प्रत्येक साधकके लिये खास बाधा है - सुख - लोलुपता । सुखासक्तिका त्याग किये बिना प्रत्येक साधन कठिन पड़ेगा।- सत्संगके फूल १४४
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सत्संगके फूल १४४··
कल्याण चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं, तो सुख - लोलुपताका त्याग करना पड़ेगा, सुखकी आशाका त्याग करना पड़ेगा, सुखके भोगका त्याग करना पड़ेगा। बिना छोड़े शान्ति मिलेगी नहीं, बिलकुल पक्की, ठोस बात है।
||श्रीहरि:||
कल्याण चाहते हैं, मुक्ति चाहते हैं, तो सुख - लोलुपताका त्याग करना पड़ेगा, सुखकी आशाका त्याग करना पड़ेगा, सुखके भोगका त्याग करना पड़ेगा। बिना छोड़े शान्ति मिलेगी नहीं, बिलकुल पक्की, ठोस बात है।- साधन-सुधा-सिन्धु ६८६
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साधन-सुधा-सिन्धु ६८६··
केवल सुखभोगकी इच्छाके कारण ही लोग कल्याणसे वंचित हो रहे हैं।
||श्रीहरि:||
केवल सुखभोगकी इच्छाके कारण ही लोग कल्याणसे वंचित हो रहे हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२२··
पारमार्थिक मार्गमें यदि कोई बाधा लगती है तो वह सुखभोगसे ही लगती है। मार्गमें भी सुख भोगोगे तो सिद्धि कैसे होगी ? जहाँ आप सुख भोगोगे, वहीं अटकाव होगा।
||श्रीहरि:||
पारमार्थिक मार्गमें यदि कोई बाधा लगती है तो वह सुखभोगसे ही लगती है। मार्गमें भी सुख भोगोगे तो सिद्धि कैसे होगी ? जहाँ आप सुख भोगोगे, वहीं अटकाव होगा।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ २९
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ २९··
आजतक सुखका भोगी एक भी आदमी साधक, योगी, ज्ञानी, भक्त, प्रेमी, सन्त महात्मा नहीं हुआ। संसारमें भी सुखका भोगी कोई श्रेष्ठ पुरुष नहीं बना। सुखभोग चाहनेवालेकी उन्नति कभी नहीं हुई। सुखभोग चाहनेवाला सन्त महात्मा, योगी, विद्वान्, नेता, श्रेष्ठ पुरुष नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
आजतक सुखका भोगी एक भी आदमी साधक, योगी, ज्ञानी, भक्त, प्रेमी, सन्त महात्मा नहीं हुआ। संसारमें भी सुखका भोगी कोई श्रेष्ठ पुरुष नहीं बना। सुखभोग चाहनेवालेकी उन्नति कभी नहीं हुई। सुखभोग चाहनेवाला सन्त महात्मा, योगी, विद्वान्, नेता, श्रेष्ठ पुरुष नहीं हो सकता।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२२··
गृहस्थाश्रम भोग भोगनेके लिये नहीं है, प्रत्युत भोगोंकी परीक्षा करके उनसे निवृत्त होनेके लिये है। भोग भोगना पशुता है, मनुष्यता नहीं है । वृत्ति स्वतः - स्वाभाविक परमात्माकी तरफ लगनी चाहिये – यह सिद्धान्त है । परन्तु वृत्ति भोगोंकी तरफ जाती है तो संयम करनेके लिये, भोगको सीमित करनेके लिये गृहस्थाश्रममें जाना चाहिये।
||श्रीहरि:||
गृहस्थाश्रम भोग भोगनेके लिये नहीं है, प्रत्युत भोगोंकी परीक्षा करके उनसे निवृत्त होनेके लिये है। भोग भोगना पशुता है, मनुष्यता नहीं है । वृत्ति स्वतः - स्वाभाविक परमात्माकी तरफ लगनी चाहिये – यह सिद्धान्त है । परन्तु वृत्ति भोगोंकी तरफ जाती है तो संयम करनेके लिये, भोगको सीमित करनेके लिये गृहस्थाश्रममें जाना चाहिये।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३··
विवाह करना मनुष्यका उद्देश्य नहीं है। विवाह करना है संयमके लिये । विचारपूर्वक भोगोंका त्याग न कर सकें तो करके देखनेके लिये विवाह है। मनुष्यशरीरकी महिमा संयमसे है। शारीरिक उन्नति भी संयमसे है। सुखभोगके लिये स्त्री है ही नहीं।
||श्रीहरि:||
विवाह करना मनुष्यका उद्देश्य नहीं है। विवाह करना है संयमके लिये । विचारपूर्वक भोगोंका त्याग न कर सकें तो करके देखनेके लिये विवाह है। मनुष्यशरीरकी महिमा संयमसे है। शारीरिक उन्नति भी संयमसे है। सुखभोगके लिये स्त्री है ही नहीं।- स्वातिकी बूँदें १३६
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स्वातिकी बूँदें १३६··
संसारकी कोई भी वस्तु सुखबुद्धिसे न लें। भोजन करें तो औषधरूपसे करें। किसीसे बात भी करें तो उसमें सुख न लें। सुख लेनेसे परमात्मप्राप्तिकी लगन नहीं होती, संसारमें खर्च हो जाती है।
||श्रीहरि:||
संसारकी कोई भी वस्तु सुखबुद्धिसे न लें। भोजन करें तो औषधरूपसे करें। किसीसे बात भी करें तो उसमें सुख न लें। सुख लेनेसे परमात्मप्राप्तिकी लगन नहीं होती, संसारमें खर्च हो जाती है।- सत्संगके फूल १२८
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सत्संगके फूल १२८··
शरीर - निर्वाहमात्र के लिये पदार्थोंको स्वीकार करनेसे मनुष्यको पाप नहीं लगता। शरीर निर्वाहमें भी शास्त्रोंमें केवल अपने लिये भोग भोगनेका निषेध है। अपने माता, पिता, गुरु, बालक, स्त्री, वृद्ध आदिको शरीर - निर्वाहके पदार्थ पहले देकर फिर स्वयं लेने चाहिये।
||श्रीहरि:||
शरीर - निर्वाहमात्र के लिये पदार्थोंको स्वीकार करनेसे मनुष्यको पाप नहीं लगता। शरीर निर्वाहमें भी शास्त्रोंमें केवल अपने लिये भोग भोगनेका निषेध है। अपने माता, पिता, गुरु, बालक, स्त्री, वृद्ध आदिको शरीर - निर्वाहके पदार्थ पहले देकर फिर स्वयं लेने चाहिये।- साधक संजीवनी ३। ३७
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साधक संजीवनी ३। ३७··
भगवान्की ओरसे हमारे निर्वाहका प्रबन्ध तो है, पर भोगका प्रबन्ध नहीं है। इसलिये निर्वाहकी चिन्ता और भोगकी इच्छा नहीं करनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
भगवान्की ओरसे हमारे निर्वाहका प्रबन्ध तो है, पर भोगका प्रबन्ध नहीं है। इसलिये निर्वाहकी चिन्ता और भोगकी इच्छा नहीं करनी चाहिये।- अमृत-बिन्दु १६०
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अमृत-बिन्दु १६०··
सुख - लोलुपताकी डोरी बँधी रहेगी तो रातभर नाव खेते रहो, भजन- ध्यान करते रहो, पर वहीं - के वहीं रहोगे।
||श्रीहरि:||
सुख - लोलुपताकी डोरी बँधी रहेगी तो रातभर नाव खेते रहो, भजन- ध्यान करते रहो, पर वहीं - के वहीं रहोगे।- सत्संगके फूल १४६
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सत्संगके फूल १४६··
भोग भोगनेसे श्वास अधिक खर्च होते हैं। आज आयु कम होनेका कारण है कि भोग बढ़ गये।
||श्रीहरि:||
भोग भोगनेसे श्वास अधिक खर्च होते हैं। आज आयु कम होनेका कारण है कि भोग बढ़ गये।- सत्संगके फूल १७१
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सत्संगके फूल १७१··
भोगी व्यक्ति दूसरेको पारमार्थिक शिक्षा नहीं दे सकता।
||श्रीहरि:||
भोगी व्यक्ति दूसरेको पारमार्थिक शिक्षा नहीं दे सकता।- सागरके मोती २६
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सागरके मोती २६··
जो किसी वस्तु व्यक्तिसे सुख चाहता है, उसको चाहे भोगी कह दो, चाहे पापी कह दो।
||श्रीहरि:||
जो किसी वस्तु व्यक्तिसे सुख चाहता है, उसको चाहे भोगी कह दो, चाहे पापी कह दो।- सागरके मोती ३६
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सागरके मोती ३६··
अपने सुखकी बुद्धि पशुबुद्धिसे भी नीची राक्षस- बुद्धि है।
||श्रीहरि:||
अपने सुखकी बुद्धि पशुबुद्धिसे भी नीची राक्षस- बुद्धि है।- सागरके मोती ११९
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सागरके मोती ११९··
भोगेच्छा अधिक होगी तो पहले जो राक्षस सुने गये हैं, उनसे भी तेज राक्षस हो जायगा । पहले के राक्षस ब्रह्माजी, शिवजी आदिपर, मन्त्र जप, तपस्या आदिपर श्रद्धा रखते थे, पर आजकल उतनी भी श्रद्धा नहीं रखते।
||श्रीहरि:||
भोगेच्छा अधिक होगी तो पहले जो राक्षस सुने गये हैं, उनसे भी तेज राक्षस हो जायगा । पहले के राक्षस ब्रह्माजी, शिवजी आदिपर, मन्त्र जप, तपस्या आदिपर श्रद्धा रखते थे, पर आजकल उतनी भी श्रद्धा नहीं रखते।- सागरके मोती ८६
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सागरके मोती ८६··
जबतक मनुष्य संसारसे सुख लेता रहता है, तबतक वह संसारमें ही है, चाहे वह साधु, गृहस्थ आदि कोई क्यों न हो।
||श्रीहरि:||
जबतक मनुष्य संसारसे सुख लेता रहता है, तबतक वह संसारमें ही है, चाहे वह साधु, गृहस्थ आदि कोई क्यों न हो।- सागरके मोती ११३
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सागरके मोती ११३··
कोई भी भोग बिना हिंसाके होता ही नहीं।
||श्रीहरि:||
कोई भी भोग बिना हिंसाके होता ही नहीं।- साधक संजीवनी १८ । २७
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साधक संजीवनी १८ । २७··
जो अपनी कामना पूर्तिके लिये आसक्तिपूर्वक भोग भोगता है, वह स्वयं तो अपनी हिंसा ( पतन ) करता ही है, साथ ही जिनके पास भोग सामग्रीका अभाव है, उनकी भी हिंसा करता है अर्थात् दुःख देता है ......स्वयं सुख भोगनेवाला व्यक्ति हिंसासे कभी बच नहीं सकता।
||श्रीहरि:||
जो अपनी कामना पूर्तिके लिये आसक्तिपूर्वक भोग भोगता है, वह स्वयं तो अपनी हिंसा ( पतन ) करता ही है, साथ ही जिनके पास भोग सामग्रीका अभाव है, उनकी भी हिंसा करता है अर्थात् दुःख देता है ......स्वयं सुख भोगनेवाला व्यक्ति हिंसासे कभी बच नहीं सकता।- साधक संजीवनी ३ । ११
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साधक संजीवनी ३ । ११··
सांसारिक सुख भोगनेवाले व्यक्तिको देखकर दूसरोंके मनमें दुःख होता है। अपने पास भी वैसा सुख न होनेके कारण दूसरेके हृदयमें जलन होती है, दुःख होता है। अतः दूसरे के दुःखका कारण बननेवाला सुखका भोगी व्यक्ति हिंसा करनेवाला हुआ।
||श्रीहरि:||
सांसारिक सुख भोगनेवाले व्यक्तिको देखकर दूसरोंके मनमें दुःख होता है। अपने पास भी वैसा सुख न होनेके कारण दूसरेके हृदयमें जलन होती है, दुःख होता है। अतः दूसरे के दुःखका कारण बननेवाला सुखका भोगी व्यक्ति हिंसा करनेवाला हुआ।- साधन-सुधा-सिन्धु ५८६
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साधन-सुधा-सिन्धु ५८६··
सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी बाहरसे भोग भोगना और मनसे उनके चिन्तनका रस (सुख) लेना - दोनोंमें कोई फर्क नहीं है। बाहरसे रागपूर्वक भोग भोगनेसे जैसा संस्कार पड़ता है, वैसा ही संस्कार मनसे भोग भोगनेसे अर्थात् मनसे भोगोंके चिन्तनमें रस लेनेसे पड़ता है। भोगकी याद आनेपर उसकी यादसे रस लेते हैं तो कई वर्ष बीतनेपर भी वह भोग ज्यों-का-त्यों (ताजा) बना रहता है। अतः भोगके चिन्तनसे भी एक नया भोग बनता है । इतना ही नहीं, मनसे भोगोंके चिन्तनका सुख लेनेसे विशेष हानि होती है। लोक- लिहाजसे, व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे मनुष्य बाहरसे तो भोगोंका त्याग कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती। अतः मनसे भोग भोगनेका विशेष अवसर मिलता है।
||श्रीहरि:||
सांसारिक भोगोंको बाहरसे भी भोगा जा सकता है और मनसे भी बाहरसे भोग भोगना और मनसे उनके चिन्तनका रस (सुख) लेना - दोनोंमें कोई फर्क नहीं है। बाहरसे रागपूर्वक भोग भोगनेसे जैसा संस्कार पड़ता है, वैसा ही संस्कार मनसे भोग भोगनेसे अर्थात् मनसे भोगोंके चिन्तनमें रस लेनेसे पड़ता है। भोगकी याद आनेपर उसकी यादसे रस लेते हैं तो कई वर्ष बीतनेपर भी वह भोग ज्यों-का-त्यों (ताजा) बना रहता है। अतः भोगके चिन्तनसे भी एक नया भोग बनता है । इतना ही नहीं, मनसे भोगोंके चिन्तनका सुख लेनेसे विशेष हानि होती है। लोक- लिहाजसे, व्यवहारमें गड़बड़ी आनेके भयसे मनुष्य बाहरसे तो भोगोंका त्याग कर सकता है, पर मनसे भोग भोगनेमें बाहरसे कोई बाधा नहीं आती। अतः मनसे भोग भोगनेका विशेष अवसर मिलता है।- साधन-सुधा-सिन्धु ७८४
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साधन-सुधा-सिन्धु ७८४··
जबतक भोगेच्छा रहती है, तभीतक जीनेकी इच्छा तथा मरनेका भय रहता है।
||श्रीहरि:||
जबतक भोगेच्छा रहती है, तभीतक जीनेकी इच्छा तथा मरनेका भय रहता है।- साधक संजीवनी ३ । १२
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साधक संजीवनी ३ । १२··
संसारके सब सुख दोषजनित हैं । दोषोंको स्वीकार करनेसे ही सुख दीखता है। कामके कारण ही मनुष्य स्त्रीके बिना नहीं रह सकता। लोभके कारण ही मनुष्य धनके बिना नहीं रह सकता । मोहके कारण ही मनुष्य परिवारके बिना नहीं रह सकता । दोषके कारण ही उसको त्यागका महत्त्व नहीं दीखता।
||श्रीहरि:||
संसारके सब सुख दोषजनित हैं । दोषोंको स्वीकार करनेसे ही सुख दीखता है। कामके कारण ही मनुष्य स्त्रीके बिना नहीं रह सकता। लोभके कारण ही मनुष्य धनके बिना नहीं रह सकता । मोहके कारण ही मनुष्य परिवारके बिना नहीं रह सकता । दोषके कारण ही उसको त्यागका महत्त्व नहीं दीखता।- साधक संजीवनी ७ । ५ परि०, टि०
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साधक संजीवनी ७ । ५ परि०, टि०··
जबतक अन्तःकरणमें किंचिन्मात्र भी भोगोंकी सत्ता और महत्ता रहती है, भोगोंमें रसबुद्धि रहती है, तबतक परमात्माका अलौकिक रस प्रकट नहीं होता। परमात्माके अलौकिक रसकी तो बात ही क्या, परमात्माकी प्राप्ति करनी है - यह निश्चय भी नहीं होता ( गीता २ । ४४ ) |
||श्रीहरि:||
जबतक अन्तःकरणमें किंचिन्मात्र भी भोगोंकी सत्ता और महत्ता रहती है, भोगोंमें रसबुद्धि रहती है, तबतक परमात्माका अलौकिक रस प्रकट नहीं होता। परमात्माके अलौकिक रसकी तो बात ही क्या, परमात्माकी प्राप्ति करनी है - यह निश्चय भी नहीं होता ( गीता २ । ४४ ) |- साधक संजीवनी २। ५९ परि०
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साधक संजीवनी २। ५९ परि०··
नाशवान् रसका भोग करनेसे परिणाममें जड़ता, अभाव, शोक, रोग, भय, उद्वेग आदि अनेक विकार पैदा होते हैं। इन विकारोंसे भोगी मनुष्य बच नहीं सकता; क्योंकि यह भोगोंका अवश्यम्भावी परिणाम है।
||श्रीहरि:||
नाशवान् रसका भोग करनेसे परिणाममें जड़ता, अभाव, शोक, रोग, भय, उद्वेग आदि अनेक विकार पैदा होते हैं। इन विकारोंसे भोगी मनुष्य बच नहीं सकता; क्योंकि यह भोगोंका अवश्यम्भावी परिणाम है।- साधक संजीवनी २।५९ परि०
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साधक संजीवनी २।५९ परि०··
‘सांसारिक सुखोंको भोगो' – ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत् - शास्त्रमें नहीं है। समाज भी स्वच्छन्द भोग भोगनेकी आज्ञा नहीं देता। इसके विपरीत दूसरोंको सुख पहुँचानेकी आज्ञा या विधान शास्त्र और समाज दोनों ही देते हैं।
||श्रीहरि:||
‘सांसारिक सुखोंको भोगो' – ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत् - शास्त्रमें नहीं है। समाज भी स्वच्छन्द भोग भोगनेकी आज्ञा नहीं देता। इसके विपरीत दूसरोंको सुख पहुँचानेकी आज्ञा या विधान शास्त्र और समाज दोनों ही देते हैं।- साधक संजीवनी ३ । १०
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साधक संजीवनी ३ । १०··
जो प्रतिक्षण मर रहा है- नष्ट हो रहा है, उस संसारसे सुख लेनेकी इच्छा कैसे हो सकती है ? पर 'संसार प्रतिक्षण मर रहा है' इस जानकारीका तिरस्कार करनेसे ही सांसारिक सुखभोगकी इच्छा होती है।
||श्रीहरि:||
जो प्रतिक्षण मर रहा है- नष्ट हो रहा है, उस संसारसे सुख लेनेकी इच्छा कैसे हो सकती है ? पर 'संसार प्रतिक्षण मर रहा है' इस जानकारीका तिरस्कार करनेसे ही सांसारिक सुखभोगकी इच्छा होती है।- साधक संजीवनी ३।३७
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साधक संजीवनी ३।३७··
पदार्थको नित्य और स्थिर माने बिना सुखभोग हो ही नहीं सकता। साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, साधक भी भोगोंको नित्य और स्थिर माननेपर ही उनमें फँसता है।
||श्रीहरि:||
पदार्थको नित्य और स्थिर माने बिना सुखभोग हो ही नहीं सकता। साधारण मनुष्योंकी तो बात ही क्या है, साधक भी भोगोंको नित्य और स्थिर माननेपर ही उनमें फँसता है।- साधक संजीवनी ३ । ३९
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साधक संजीवनी ३ । ३९··
कामनाके कारण ही भोगोंमें सुख प्रतीत होता है। कामना न हो तो भोगपदार्थ सुख नहीं दे सकते।
||श्रीहरि:||
कामनाके कारण ही भोगोंमें सुख प्रतीत होता है। कामना न हो तो भोगपदार्थ सुख नहीं दे सकते।- साधक संजीवनी ३।३९
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साधक संजीवनी ३।३९··
किसी भी भोगको भोगें, अन्तमें उस भोगसे अरुचि अवश्य उत्पन्न होती है - यह नियम है। मनुष्य भूल यह करता है कि वह उस अरुचिको महत्त्व देकर उसे स्थायी नहीं बनाता। वह अरुचिको ही तृप्ति (फल) मान लेता है । परन्तु वास्तवमें अरुचिमें थकावट अर्थात् भोगनेकी शक्तिका अभाव ही होता है।
||श्रीहरि:||
किसी भी भोगको भोगें, अन्तमें उस भोगसे अरुचि अवश्य उत्पन्न होती है - यह नियम है। मनुष्य भूल यह करता है कि वह उस अरुचिको महत्त्व देकर उसे स्थायी नहीं बनाता। वह अरुचिको ही तृप्ति (फल) मान लेता है । परन्तु वास्तवमें अरुचिमें थकावट अर्थात् भोगनेकी शक्तिका अभाव ही होता है।- साधक संजीवनी ४। १ वि०
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साधक संजीवनी ४। १ वि०··
जो सांसारिक भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं, ऐसे मनुष्योंके द्वारा 'श्रवण' होता है शास्त्रोंका, 'मनन' होता है विषयोंका, 'निदिध्यासन' होता है रुपयोंका और 'साक्षात्कार' होता है दुःखोंका।
||श्रीहरि:||
जो सांसारिक भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं, ऐसे मनुष्योंके द्वारा 'श्रवण' होता है शास्त्रोंका, 'मनन' होता है विषयोंका, 'निदिध्यासन' होता है रुपयोंका और 'साक्षात्कार' होता है दुःखोंका।- साधक संजीवनी ४ । ३३ टि०
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साधक संजीवनी ४ । ३३ टि०··
सुख-सुविधा और मान बड़ाई मिलनेपर प्रसन्न होना भोग है।
||श्रीहरि:||
सुख-सुविधा और मान बड़ाई मिलनेपर प्रसन्न होना भोग है।- साधक संजीवनी ५। २२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। २२··
अपनी बुद्धिमें जिस सिद्धान्तका आदर है, दूसरे व्यक्तिसे उसी सिद्धान्तकी प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होती है, सुख होता है, वह भी एक प्रकारका भोग ही है।
||श्रीहरि:||
अपनी बुद्धिमें जिस सिद्धान्तका आदर है, दूसरे व्यक्तिसे उसी सिद्धान्तकी प्रशंसा सुनकर जो प्रसन्नता होती है, सुख होता है, वह भी एक प्रकारका भोग ही है।- साधक संजीवनी ५। २२
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साधक संजीवनी ५। २२··
परमात्माके सिवाय जितने भी प्रकृतिजन्य प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियाँ, अवस्थाएँ आदि हैं, उनसे किसी भी प्रकृतिजन्य करणके द्वारा सुखकी अनुभूति करना भोग ही है।
||श्रीहरि:||
परमात्माके सिवाय जितने भी प्रकृतिजन्य प्राणी, पदार्थ, परिस्थितियाँ, अवस्थाएँ आदि हैं, उनसे किसी भी प्रकृतिजन्य करणके द्वारा सुखकी अनुभूति करना भोग ही है।- साधक संजीवनी ५। २२
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साधक संजीवनी ५। २२··
शास्त्रनिषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं ही, शास्त्रविहित भोग भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक होने से त्याज्य ही हैं। कारण कि जड़ताके सम्बन्धके बिना भोग नहीं होता, जब कि परमात्मप्राप्तिके लिये जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है।
||श्रीहरि:||
शास्त्रनिषिद्ध भोग तो सर्वथा त्याज्य हैं ही, शास्त्रविहित भोग भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक होने से त्याज्य ही हैं। कारण कि जड़ताके सम्बन्धके बिना भोग नहीं होता, जब कि परमात्मप्राप्तिके लिये जड़ता से सम्बन्ध-विच्छेद करना आवश्यक है।- साधक संजीवनी ५। २२
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साधक संजीवनी ५। २२··
सभी भोग दोषजनित होते हैं । अन्तःकरणमें कोई दोष न हो तो कोई भोग नहीं होता।
||श्रीहरि:||
सभी भोग दोषजनित होते हैं । अन्तःकरणमें कोई दोष न हो तो कोई भोग नहीं होता।- साधक संजीवनी ५। २२ परि०
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साधक संजीवनी ५। २२ परि०··
वास्तवमें भोगी मनुष्य अपना जितना नुकसान करता है, उतना शत्रु भी नहीं कर सकता।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें भोगी मनुष्य अपना जितना नुकसान करता है, उतना शत्रु भी नहीं कर सकता।- साधक संजीवनी ६ । ६ परि०
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साधक संजीवनी ६ । ६ परि०··
मांस आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खानेसे पतन तो होता ही है, पर उससे भी ज्यादा पतन होता है – रागपूर्वक विषयभोगोंको भोगने से ।....... मांस आदि खानेसे जो पाप लगता है, वह दण्ड भोगकर नष्ट हो जायगा। वह पाप आगे नये पापोंमें नहीं लगायेगा । परन्तु रागपूर्वक विषयभोगोंका सेवन करनेसे जो संस्कार पड़ते हैं, वे जन्म-जन्मान्तरतक विषयभोगों में और उनकी रुचिके परिणामस्वरूप पापोंमें लगाते रहेंगे।
||श्रीहरि:||
मांस आदि सर्वथा निषिद्ध वस्तु खानेसे पतन तो होता ही है, पर उससे भी ज्यादा पतन होता है – रागपूर्वक विषयभोगोंको भोगने से ।....... मांस आदि खानेसे जो पाप लगता है, वह दण्ड भोगकर नष्ट हो जायगा। वह पाप आगे नये पापोंमें नहीं लगायेगा । परन्तु रागपूर्वक विषयभोगोंका सेवन करनेसे जो संस्कार पड़ते हैं, वे जन्म-जन्मान्तरतक विषयभोगों में और उनकी रुचिके परिणामस्वरूप पापोंमें लगाते रहेंगे।- साधक संजीवनी ६ । ३६
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साधक संजीवनी ६ । ३६··
जिन्होंने भोग नहीं भोगे हैं, जिनके पास भोग सामग्री नहीं है, जो संसारसे विरक्त हैं, उनकी अपेक्षा जिन्होंने बहुत भोग भोगे हैं और भोग रहे हैं, उनमें क्या विलक्षणता, विशेषता आयी ? कुछ नहीं, प्रत्युत भोग भोगनेवाले तो शोक - चिन्तामें डूबे हुए हैं।
||श्रीहरि:||
जिन्होंने भोग नहीं भोगे हैं, जिनके पास भोग सामग्री नहीं है, जो संसारसे विरक्त हैं, उनकी अपेक्षा जिन्होंने बहुत भोग भोगे हैं और भोग रहे हैं, उनमें क्या विलक्षणता, विशेषता आयी ? कुछ नहीं, प्रत्युत भोग भोगनेवाले तो शोक - चिन्तामें डूबे हुए हैं।- साधक संजीवनी १३ । ८
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साधक संजीवनी १३ । ८··
सांसारिक स्त्री, पुत्र, मान, बड़ाई, धन, सम्पत्ति, आयु, नीरोगता आदि कितने ही प्राप्त हो जायँ, यहाँतक कि संसारके समस्त भोग एक ही मनुष्यको मिल जायँ, तो भी उनसे मनुष्यको तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि जीव स्वयं अविनाशी है और सांसारिक भोग नाशवान् हैं। नाशवान्से अविनाशी कैसे तृप्त हो सकता है ?
||श्रीहरि:||
सांसारिक स्त्री, पुत्र, मान, बड़ाई, धन, सम्पत्ति, आयु, नीरोगता आदि कितने ही प्राप्त हो जायँ, यहाँतक कि संसारके समस्त भोग एक ही मनुष्यको मिल जायँ, तो भी उनसे मनुष्यको तृप्ति नहीं हो सकती; क्योंकि जीव स्वयं अविनाशी है और सांसारिक भोग नाशवान् हैं। नाशवान्से अविनाशी कैसे तृप्त हो सकता है ?- साधक संजीवनी १५ । ३ वि०
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साधक संजीवनी १५ । ३ वि०··
भोग- पदार्थोंमें सुख है ही नहीं, हुआ ही नहीं होगा नहीं और हो सकता भी नहीं । सुख लेनेकी इच्छासे जो-जो भोग भोगे गये, उन-उन भोगोंसे धैर्य नष्ट हुआ, ध्यान नष्ट हुआ, रोग पैदा हुए, चिन्ता हुई, व्यग्रता हुई, पश्चात्ताप हुआ, बेइज्जती हुई, बल गया, धन गया, शान्ति गयी एवं प्रायः दुःख-शोक- उद्वेग आये - ऐसा यह परिणाम विचारशील व्यक्तिके प्रत्यक्ष देखनेमें आता है।
||श्रीहरि:||
भोग- पदार्थोंमें सुख है ही नहीं, हुआ ही नहीं होगा नहीं और हो सकता भी नहीं । सुख लेनेकी इच्छासे जो-जो भोग भोगे गये, उन-उन भोगोंसे धैर्य नष्ट हुआ, ध्यान नष्ट हुआ, रोग पैदा हुए, चिन्ता हुई, व्यग्रता हुई, पश्चात्ताप हुआ, बेइज्जती हुई, बल गया, धन गया, शान्ति गयी एवं प्रायः दुःख-शोक- उद्वेग आये - ऐसा यह परिणाम विचारशील व्यक्तिके प्रत्यक्ष देखनेमें आता है।- साधक संजीवनी १५ । ९ वि०
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साधक संजीवनी १५ । ९ वि०··
भोगोंके परिणामपर दृष्टि रखनेकी योग्यता भी मनुष्यशरीरमें ही है। परिणामपर दृष्टि न रखकर भोग भोगनेवाले मनुष्यको पशु कहना भी मानो पशुयोनिकी निन्दा ही करना है; क्योंकि पशु तो अपने कर्मफल भोगकर मनुष्ययोनिकी तरफ आ रहा है, पर यह मनुष्य तो निषिद्ध भोग भोगकर पशुयोनिकी तरफ ही जा रहा है।
||श्रीहरि:||
भोगोंके परिणामपर दृष्टि रखनेकी योग्यता भी मनुष्यशरीरमें ही है। परिणामपर दृष्टि न रखकर भोग भोगनेवाले मनुष्यको पशु कहना भी मानो पशुयोनिकी निन्दा ही करना है; क्योंकि पशु तो अपने कर्मफल भोगकर मनुष्ययोनिकी तरफ आ रहा है, पर यह मनुष्य तो निषिद्ध भोग भोगकर पशुयोनिकी तरफ ही जा रहा है।- साधक संजीवनी १५ । ३
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साधक संजीवनी १५ । ३··
साधन ठीक चलनेमें जो सुख होता है, उस सुखमें सुखी होना, राजी होना भी भोग है, जिससे बन्धन होता है - 'सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ' (गीता १४ । ६ ) । सुख होना अथवा सुखका ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उसके साथ संग करना, उससे सुखी होना, प्रसन्न होना ही दोषी है। इससे अर्थात् साधनजन्य सात्त्विक सुख भोगनेसे गुणातीत होनेमें बाधा लगती है।
||श्रीहरि:||
साधन ठीक चलनेमें जो सुख होता है, उस सुखमें सुखी होना, राजी होना भी भोग है, जिससे बन्धन होता है - 'सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ' (गीता १४ । ६ ) । सुख होना अथवा सुखका ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उसके साथ संग करना, उससे सुखी होना, प्रसन्न होना ही दोषी है। इससे अर्थात् साधनजन्य सात्त्विक सुख भोगनेसे गुणातीत होनेमें बाधा लगती है।- साधक संजीवनी ११ । ४७ वि०
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साधक संजीवनी ११ । ४७ वि०··
सुख होना अथवा सुखका ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उसके साथ संग करना, उससे सुखी होना, प्रसन्न होना ही दोषी है। इससे अर्थात् साधनजन्य सात्त्विक सुख भोगनेसे गुणातीत होनेमें बाधा लगती है।
||श्रीहरि:||
सुख होना अथवा सुखका ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत उसके साथ संग करना, उससे सुखी होना, प्रसन्न होना ही दोषी है। इससे अर्थात् साधनजन्य सात्त्विक सुख भोगनेसे गुणातीत होनेमें बाधा लगती है।- साधक संजीवनी ११।४७ वि०
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साधक संजीवनी ११।४७ वि०··
मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता है, उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोगमें इतना सुख नहीं होता, जितना वियोगमें दुःख होता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता है, उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोगमें इतना सुख नहीं होता, जितना वियोगमें दुःख होता है।- साधक संजीवनी १।३८-३९
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साधक संजीवनी १।३८-३९··
संसारका सुख भोगनेके लायक नहीं है । संसारका सुख तो देने ही देनेके लिये है, लेनेके लिये है ही नहीं । जहाँ सुख भोगना शुरू किया कि पतन शुरू हो गया।
||श्रीहरि:||
संसारका सुख भोगनेके लायक नहीं है । संसारका सुख तो देने ही देनेके लिये है, लेनेके लिये है ही नहीं । जहाँ सुख भोगना शुरू किया कि पतन शुरू हो गया।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९५··
न्याययुक्त भोग और संग्रह भी बाँधनेवाले हैं, फिर अन्याययुक्त हों तो महान् बन्धन होता ही है।
||श्रीहरि:||
न्याययुक्त भोग और संग्रह भी बाँधनेवाले हैं, फिर अन्याययुक्त हों तो महान् बन्धन होता ही है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०२··
संसारको सच्चा, स्थायी माने बिना कोई भी भोग नहीं होता। कोई भी भोग भोगोगे तो संसार नाशवान् है—यह बात भूल जाओगे । अतः बुद्धि भ्रष्ट होती है, तभी भोग भोगते है।
||श्रीहरि:||
संसारको सच्चा, स्थायी माने बिना कोई भी भोग नहीं होता। कोई भी भोग भोगोगे तो संसार नाशवान् है—यह बात भूल जाओगे । अतः बुद्धि भ्रष्ट होती है, तभी भोग भोगते है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ २६
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ २६··
भगवान्में जो विश्राम होगा, वह 'परम विश्राम' होगा, और संसारमें जो विश्राम होगा, वह 'भोग' होगा।
||श्रीहरि:||
भगवान्में जो विश्राम होगा, वह 'परम विश्राम' होगा, और संसारमें जो विश्राम होगा, वह 'भोग' होगा।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ २६
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ २६··
अपने लिये तप करना भी भोग है और भगवान्के लिये झाडू लगाना भी योग है। कुछ भी चाहना भोग है, योग नहीं।
||श्रीहरि:||
अपने लिये तप करना भी भोग है और भगवान्के लिये झाडू लगाना भी योग है। कुछ भी चाहना भोग है, योग नहीं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३५
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३५··
जो संसारसे सुख लेना चाहता है, वह अपनी स्थिति एक शरीरमें दृढ़ करता है; क्योंकि सुखका भोग एक शरीरमें होता है।
||श्रीहरि:||
जो संसारसे सुख लेना चाहता है, वह अपनी स्थिति एक शरीरमें दृढ़ करता है; क्योंकि सुखका भोग एक शरीरमें होता है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५०
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५०··
भोग रागपूर्वक ही भोगे जाते हैं। रागके बिना भोग नहीं भोगे जाते। फिर रागके रहते हुए परमात्मामें अनुराग कैसे होगा ?
||श्रीहरि:||
भोग रागपूर्वक ही भोगे जाते हैं। रागके बिना भोग नहीं भोगे जाते। फिर रागके रहते हुए परमात्मामें अनुराग कैसे होगा ?- अनन्तकी ओर २१
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अनन्तकी ओर २१··
वास्तवमें भोग और संग्रह इतने बाधक नहीं हैं, जितनी इनकी इच्छा बाधक है। बाहरसे भोग और संग्रह भी नुकसान करता है, पर भीतरकी जोरदार इच्छा न हो तो वह बाधक नहीं होता।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें भोग और संग्रह इतने बाधक नहीं हैं, जितनी इनकी इच्छा बाधक है। बाहरसे भोग और संग्रह भी नुकसान करता है, पर भीतरकी जोरदार इच्छा न हो तो वह बाधक नहीं होता।- अनन्तकी ओर १३६
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अनन्तकी ओर १३६··
लोगों में भोग और संग्रहकी वृत्ति अधिक होनेसे ही अकाल पड़ता है।
||श्रीहरि:||
लोगों में भोग और संग्रहकी वृत्ति अधिक होनेसे ही अकाल पड़ता है।- अमृत-बिन्दु ७७८
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अमृत-बिन्दु ७७८··
संसारके जो भोग मन लगाकर, तल्लीन होकर भोगे हैं, उनके संस्कार भीतर पड़े हुए हैं। विरोध करनेसे वे नहीं मिटेंगे। उनकी उपेक्षा करो। उनसे उदासीन, तटस्थ रहो । वास्तवमें असत्के संस्कार भी असत् होते हैं। उनको विशेष आदर मत दो। उनकी परवाह मत करो। विरोध करनेसे वे अधिक दृढ़ होते हैं।
||श्रीहरि:||
संसारके जो भोग मन लगाकर, तल्लीन होकर भोगे हैं, उनके संस्कार भीतर पड़े हुए हैं। विरोध करनेसे वे नहीं मिटेंगे। उनकी उपेक्षा करो। उनसे उदासीन, तटस्थ रहो । वास्तवमें असत्के संस्कार भी असत् होते हैं। उनको विशेष आदर मत दो। उनकी परवाह मत करो। विरोध करनेसे वे अधिक दृढ़ होते हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४८
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४८··
जब जीवमें भोग तथा संग्रहकी प्रधानता हो जाती है, तब कोई भी अनर्थ बाकी नहीं रहता।
||श्रीहरि:||
जब जीवमें भोग तथा संग्रहकी प्रधानता हो जाती है, तब कोई भी अनर्थ बाकी नहीं रहता।- स्वातिकी बूँदें १४
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स्वातिकी बूँदें १४··
मेरेको मिल जाय - यह भोग है। दूसरोंको मिल जाय - यह योग है।
||श्रीहरि:||
मेरेको मिल जाय - यह भोग है। दूसरोंको मिल जाय - यह योग है।- स्वातिकी बूँदें ४९
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स्वातिकी बूँदें ४९··
भोगोंसे जो सुख होता है, उससे त्यागका सुख तेज होता है। वास्तवमें भोगोंका सुख भी त्यागसे होता है।
||श्रीहरि:||
भोगोंसे जो सुख होता है, उससे त्यागका सुख तेज होता है। वास्तवमें भोगोंका सुख भी त्यागसे होता है।- स्वातिकी बूँदें ७५
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स्वातिकी बूँदें ७५··
भोग और संग्रह मिलें, चाहे न मिलें, पर उनकी रुचि है तो मनुष्य पतनमें जायगा।
||श्रीहरि:||
भोग और संग्रह मिलें, चाहे न मिलें, पर उनकी रुचि है तो मनुष्य पतनमें जायगा।- स्वातिकी बूँदें १०६
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स्वातिकी बूँदें १०६··
जैसे अन्नकी भूख लगती है, ऐसे सुगन्धकी भूख नहीं लगती; उसके बिना हमारा काम चल सकता है। फिर भी सुगन्ध अच्छी लगती है तो हमारी वृत्ति बहुत नीची है।
||श्रीहरि:||
जैसे अन्नकी भूख लगती है, ऐसे सुगन्धकी भूख नहीं लगती; उसके बिना हमारा काम चल सकता है। फिर भी सुगन्ध अच्छी लगती है तो हमारी वृत्ति बहुत नीची है।- ज्ञानके दीप जले ७३
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ज्ञानके दीप जले ७३··
शास्त्रनिषिद्ध रीतिसे भोगे गये भोगके संस्कार अन्तःकरणमें बहुत गहरे बैठते हैं, जल्दी निकलते नहीं। इसलिये तपस्या करनेवाले बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी समयपर विचलित हो गये।
||श्रीहरि:||
शास्त्रनिषिद्ध रीतिसे भोगे गये भोगके संस्कार अन्तःकरणमें बहुत गहरे बैठते हैं, जल्दी निकलते नहीं। इसलिये तपस्या करनेवाले बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी समयपर विचलित हो गये।- स्वातिकी बूँदें १७६
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स्वातिकी बूँदें १७६··
भगवान् ही सृष्टिके उपादान एवं निमित्त कारण हैं। वे ही सृष्टिरूपसे प्रकट हुए हैं। परन्तु जबतक भोग तथा संग्रहकी इच्छा रहेगी, तबतक संसार जड़ ही दीखेगा, चिन्मय नहीं।
||श्रीहरि:||
भगवान् ही सृष्टिके उपादान एवं निमित्त कारण हैं। वे ही सृष्टिरूपसे प्रकट हुए हैं। परन्तु जबतक भोग तथा संग्रहकी इच्छा रहेगी, तबतक संसार जड़ ही दीखेगा, चिन्मय नहीं।- स्वातिकी बूँदें १८८
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स्वातिकी बूँदें १८८··
जैसे स्त्री वास्तवमें जनन शक्ति है; परन्तु स्त्रीमें आसक्त पुरुष स्त्रीको मातृरूपसे नहीं देख सकता, ऐसे ही संसार वास्तवमें भगवत्स्वरूप है; परन्तु संसारको अपना भोग्य माननेवाला भोगासक्त पुरुष संसारको भगवत्स्वरूप नहीं देख सकता। यह भोगासक्ति ही जगत्को धारण कराती है अर्थात् जगत्को धारण करानेमें हेतु है।
||श्रीहरि:||
जैसे स्त्री वास्तवमें जनन शक्ति है; परन्तु स्त्रीमें आसक्त पुरुष स्त्रीको मातृरूपसे नहीं देख सकता, ऐसे ही संसार वास्तवमें भगवत्स्वरूप है; परन्तु संसारको अपना भोग्य माननेवाला भोगासक्त पुरुष संसारको भगवत्स्वरूप नहीं देख सकता। यह भोगासक्ति ही जगत्को धारण कराती है अर्थात् जगत्को धारण करानेमें हेतु है।- साधक संजीवनी ७।५
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साधक संजीवनी ७।५··
जिसमें हमारा आकर्षण होता है, वह वास्तवमें भगवान्का ही आकर्षण है । परन्तु भोगबुद्धिके कारण वह आकर्षण भगवत्प्रेममें परिणत न होकर काम, आसक्तिमें परिणत हो जाता है, जो संसारमें बाँधनेवाला है।
||श्रीहरि:||
जिसमें हमारा आकर्षण होता है, वह वास्तवमें भगवान्का ही आकर्षण है । परन्तु भोगबुद्धिके कारण वह आकर्षण भगवत्प्रेममें परिणत न होकर काम, आसक्तिमें परिणत हो जाता है, जो संसारमें बाँधनेवाला है।- साधक संजीवनी १० । ४० परि०
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साधक संजीवनी १० । ४० परि०··
हम भूलजनित सुख लेते हैं, इसलिये भूलको भूल जानते हुए भी भूल नहीं मिटती । सभी दुर्गुण- दुराचार सुख - लोलुपताके ऊपर टिके हुए हैं। यह सुखासक्ति ज्ञानकी तीसरी-चौथी भूमिकातक साथ चलती है। अवैध, निषिद्ध रीतिसे सुख भोगनेवालेकी आसक्ति जल्दी नहीं मिटती।
||श्रीहरि:||
हम भूलजनित सुख लेते हैं, इसलिये भूलको भूल जानते हुए भी भूल नहीं मिटती । सभी दुर्गुण- दुराचार सुख - लोलुपताके ऊपर टिके हुए हैं। यह सुखासक्ति ज्ञानकी तीसरी-चौथी भूमिकातक साथ चलती है। अवैध, निषिद्ध रीतिसे सुख भोगनेवालेकी आसक्ति जल्दी नहीं मिटती।- स्वातिकी बूँदें १८२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १८२··
परमात्मतत्त्वसे विमुख हुए बिना कोई सांसारिक भोग भोगा ही नहीं जा सकता और रागपूर्वक सांसारिक भोग भोगनेसे मनुष्य परमात्मासे विमुख हो ही जाता है।
||श्रीहरि:||
परमात्मतत्त्वसे विमुख हुए बिना कोई सांसारिक भोग भोगा ही नहीं जा सकता और रागपूर्वक सांसारिक भोग भोगनेसे मनुष्य परमात्मासे विमुख हो ही जाता है।- अमृत-बिन्दु ४७१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ४७१··
जबतक सांसारिक सुख लेनेकी वृत्ति नहीं मिटेगी, तबतक कितना ही पढ़-लिख लें, कितने ही चतुर और समझदार बन जायँ कितनी ही योग्यताका सम्पादन कर लें, कितने ही व्याख्यानदाता बन जायँ, कितनी ही पुस्तकें लिख लें, पर परमशान्ति नहीं मिलेगी।
||श्रीहरि:||
जबतक सांसारिक सुख लेनेकी वृत्ति नहीं मिटेगी, तबतक कितना ही पढ़-लिख लें, कितने ही चतुर और समझदार बन जायँ कितनी ही योग्यताका सम्पादन कर लें, कितने ही व्याख्यानदाता बन जायँ, कितनी ही पुस्तकें लिख लें, पर परमशान्ति नहीं मिलेगी।- अमृत-बिन्दु ७७६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ७७६··
भगवान्को 'हे नाथ। हे नाथ।' पुकारो तो भगवान् छुड़ा देंगे; परन्तु भीतरसे छोड़ना चाहे तब । कोरा ऊपरसे भगवान्को पुकारे, पर भीतरसे भोगोंको चाहे तो भगवान् छुड़ाते नहीं; क्योंकि किसीकी मनचाही चीजको छुड़ाना भले आदमीका काम नहीं है। वह भोगोंको आफत समझे तो भगवान् छुड़ा दें, पर सुख समझे तो कैसे छुड़ायें ? भले आदमी दूसरेका सुख नहीं छुड़ाते, प्रत्युत दुःख, आफत छुड़ाते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्को 'हे नाथ। हे नाथ।' पुकारो तो भगवान् छुड़ा देंगे; परन्तु भीतरसे छोड़ना चाहे तब । कोरा ऊपरसे भगवान्को पुकारे, पर भीतरसे भोगोंको चाहे तो भगवान् छुड़ाते नहीं; क्योंकि किसीकी मनचाही चीजको छुड़ाना भले आदमीका काम नहीं है। वह भोगोंको आफत समझे तो भगवान् छुड़ा दें, पर सुख समझे तो कैसे छुड़ायें ? भले आदमी दूसरेका सुख नहीं छुड़ाते, प्रत्युत दुःख, आफत छुड़ाते हैं।- अनन्तकी ओर ६४-६५