सुखकी इच्छासे ही दुःखका भय होता है। जीनेकी इच्छासे ही मरनेका भय होता है। यदि इच्छा न रहे तो न दुःख रहेगा, न दुःखका भय रहेगा और न मरनेका भय रहेगा।
||श्रीहरि:||
सुखकी इच्छासे ही दुःखका भय होता है। जीनेकी इच्छासे ही मरनेका भय होता है। यदि इच्छा न रहे तो न दुःख रहेगा, न दुःखका भय रहेगा और न मरनेका भय रहेगा।- अमरताकी ओर ४४
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अमरताकी ओर ४४··
भय तीन कारणोंसे लगता है-अपना आचरण ठीक न होनेसे, अपनी निर्दोषतापर विश्वास न करनेसे और किसी भी वस्तु (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) को अपना माननेसे।
||श्रीहरि:||
भय तीन कारणोंसे लगता है-अपना आचरण ठीक न होनेसे, अपनी निर्दोषतापर विश्वास न करनेसे और किसी भी वस्तु (शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि) को अपना माननेसे।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ४६०
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ४६०··
जिसके भीतर नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिका आश्रय है, आदर है और जिसके भीतर अधर्म है, अन्याय है, दुर्भाव है, उसके भीतर वास्तविक बल नहीं होता। वह भीतरसे खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता । परन्तु जिसके भीतर अपने धर्मका पालन है और भगवान्का आश्रय है, वह कभी भयभीत नहीं होता।
||श्रीहरि:||
जिसके भीतर नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिका आश्रय है, आदर है और जिसके भीतर अधर्म है, अन्याय है, दुर्भाव है, उसके भीतर वास्तविक बल नहीं होता। वह भीतरसे खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता । परन्तु जिसके भीतर अपने धर्मका पालन है और भगवान्का आश्रय है, वह कभी भयभीत नहीं होता।- साधक संजीवनी १ । १०
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साधक संजीवनी १ । १०··
जिनके हृदयमें अधर्म, पाप, अन्याय नहीं है अर्थात् जो धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करते हैं, उनका हृदय मजबूत होता है, उनके हृदयमें भय नहीं होता । ...... परन्तु जो अधर्म, पाप, अन्याय आदि करते हैं, उनके हृदय स्वाभाविक ही कमजोर होते हैं। उनके हृदयमें निर्भयता, निःशंकता नहीं रहती। उनका खुदका किया पाप, अन्याय ही उनके हृदयको निर्बल बना देता है। अधर्म अधर्मीको खा जाता है।
||श्रीहरि:||
जिनके हृदयमें अधर्म, पाप, अन्याय नहीं है अर्थात् जो धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यका पालन करते हैं, उनका हृदय मजबूत होता है, उनके हृदयमें भय नहीं होता । ...... परन्तु जो अधर्म, पाप, अन्याय आदि करते हैं, उनके हृदय स्वाभाविक ही कमजोर होते हैं। उनके हृदयमें निर्भयता, निःशंकता नहीं रहती। उनका खुदका किया पाप, अन्याय ही उनके हृदयको निर्बल बना देता है। अधर्म अधर्मीको खा जाता है।- साधक संजीवनी १ । १९
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साधक संजीवनी १ । १९··
शरीरको 'मैं' और 'मेरा' माननेसे ही रोगका, निन्दाका अपमानका, मरने आदिका भय पैदा होता है । परन्तु जब मनुष्य शरीरके साथ 'मैं' और 'मेरे' पनकी मान्यताको छोड़ देता है, तब उसमें किसी भी प्रकारका भय नहीं रहता।
||श्रीहरि:||
शरीरको 'मैं' और 'मेरा' माननेसे ही रोगका, निन्दाका अपमानका, मरने आदिका भय पैदा होता है । परन्तु जब मनुष्य शरीरके साथ 'मैं' और 'मेरे' पनकी मान्यताको छोड़ देता है, तब उसमें किसी भी प्रकारका भय नहीं रहता।- साधक संजीवनी ६ । १४
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साधक संजीवनी ६ । १४··
जिस-किसीको जहाँ-कहीं जिस किसीसे भी भय होता है, वह शरीरमें अहंता - ममता होनेसे ही होता है। शरीरमें अहंता - ममता होनेसे वह उत्पत्ति - विनाशशील वस्तु (प्राणों) को रखना चाहता है। यही मनुष्यकी मूर्खता है और यही आसुरी सम्पत्तिका मूल है।
||श्रीहरि:||
जिस-किसीको जहाँ-कहीं जिस किसीसे भी भय होता है, वह शरीरमें अहंता - ममता होनेसे ही होता है। शरीरमें अहंता - ममता होनेसे वह उत्पत्ति - विनाशशील वस्तु (प्राणों) को रखना चाहता है। यही मनुष्यकी मूर्खता है और यही आसुरी सम्पत्तिका मूल है।- साधक संजीवनी ११ । ४९
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साधक संजीवनी ११ । ४९··
शरीरके साथ सम्बन्ध माननेके कारण ही उस (जीव ) को मरनेका भय लगने लगता है; क्योंकि शरीर मरनेवाला है। यदि शरीरसे सम्बन्ध न रहे, तो फिर न तो नित्य बने रहनेकी इच्छा होगी और न मरनेका भय ही होगा।
||श्रीहरि:||
शरीरके साथ सम्बन्ध माननेके कारण ही उस (जीव ) को मरनेका भय लगने लगता है; क्योंकि शरीर मरनेवाला है। यदि शरीरसे सम्बन्ध न रहे, तो फिर न तो नित्य बने रहनेकी इच्छा होगी और न मरनेका भय ही होगा।- साधक संजीवनी १४ । ५ वि०
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साधक संजीवनी १४ । ५ वि०··
भयसे होनेवाला सुधार वास्तवमें सुधार नहीं है। विचार करनेसे सुधार होता है। भीतरकी दुर्भावना भयसे नहीं मिटती, प्रत्युत विचारसे, सत्संगसे मिटती है।
||श्रीहरि:||
भयसे होनेवाला सुधार वास्तवमें सुधार नहीं है। विचार करनेसे सुधार होता है। भीतरकी दुर्भावना भयसे नहीं मिटती, प्रत्युत विचारसे, सत्संगसे मिटती है।- सागरके मोती १९
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सागरके मोती १९··
मनुष्यशरीर प्राप्त करके यह जीव जबतक करनेयोग्यको नहीं करता, जाननेयोग्यको नहीं जानता और पानेयोग्यको नहीं पाता, तबतक वह सर्वथा अभय नहीं हो सकता; उसके जीवनमें भय रहता ही है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यशरीर प्राप्त करके यह जीव जबतक करनेयोग्यको नहीं करता, जाननेयोग्यको नहीं जानता और पानेयोग्यको नहीं पाता, तबतक वह सर्वथा अभय नहीं हो सकता; उसके जीवनमें भय रहता ही है।- साधक संजीवनी १६ । १
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साधक संजीवनी १६ । १··
आचरणोंकी कमी होनेसे भीतरसे भय पैदा होता है और साँप, बिच्छू, बाघ आदिसे बाहरसे भय पैदा होता है । शरणागत भक्तके ये दोनों ही प्रकारके भय मिट जाते हैं। इतना ही नहीं, पतंजलि महाराजने जिस मृत्युके भयको पाँचवाँ क्लेश माना है और जो बड़े-बड़े विद्वानोंको भी होता है, वह भय भी सर्वथा मिट जाता है।
||श्रीहरि:||
आचरणोंकी कमी होनेसे भीतरसे भय पैदा होता है और साँप, बिच्छू, बाघ आदिसे बाहरसे भय पैदा होता है । शरणागत भक्तके ये दोनों ही प्रकारके भय मिट जाते हैं। इतना ही नहीं, पतंजलि महाराजने जिस मृत्युके भयको पाँचवाँ क्लेश माना है और जो बड़े-बड़े विद्वानोंको भी होता है, वह भय भी सर्वथा मिट जाता है।- साधक संजीवनी १८ । ६
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साधक संजीवनी १८ । ६··
भय द्वितीयसे तो होता है, पर आत्मीयसे भय नहीं होता अर्थात् भय दूसरेसे होता है, अपनेसे नहीं । प्रकृति और प्रकृतिका कार्य शरीर-संसार द्वितीय है, इसलिये इनसे सम्बन्ध रखनेपर ही भय होता है; क्योंकि इनके साथ सदा सम्बन्ध रह ही नहीं सकता। भगवान् द्वितीय नहीं हैं। वे तो आत्मीय हैं; क्योंकि जीव उनका सनातन अंश है, उनका स्वरूप है । अतः भगवान्के शरण होनेपर उनसे भय कैसे हो सकता है ?
||श्रीहरि:||
भय द्वितीयसे तो होता है, पर आत्मीयसे भय नहीं होता अर्थात् भय दूसरेसे होता है, अपनेसे नहीं । प्रकृति और प्रकृतिका कार्य शरीर-संसार द्वितीय है, इसलिये इनसे सम्बन्ध रखनेपर ही भय होता है; क्योंकि इनके साथ सदा सम्बन्ध रह ही नहीं सकता। भगवान् द्वितीय नहीं हैं। वे तो आत्मीय हैं; क्योंकि जीव उनका सनातन अंश है, उनका स्वरूप है । अतः भगवान्के शरण होनेपर उनसे भय कैसे हो सकता है ?- साधक संजीवनी १८ । ६
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साधक संजीवनी १८ । ६··
एक दिन मरना तो पड़ेगा ही, मरनेसे बच सकते नहीं, फिर मरनेसे डर कैसा? मरना तो अवश्यम्भावी है; खाते-खाते मर जायँ अथवा बिना खाये मर जायँ, क्या हर्ज है ? जीना चाहते हैं, इसलिये मरनेसे डर लगता है। जी तो सकते नहीं, फिर जीनेकी इच्छा क्यों करें? और मरनेकी भी इच्छा क्यों करें ? जो मरनेसे डरता है, वही मरता है। जो मरनेसे नहीं डरता, वह मरता ही नहीं।
||श्रीहरि:||
एक दिन मरना तो पड़ेगा ही, मरनेसे बच सकते नहीं, फिर मरनेसे डर कैसा? मरना तो अवश्यम्भावी है; खाते-खाते मर जायँ अथवा बिना खाये मर जायँ, क्या हर्ज है ? जीना चाहते हैं, इसलिये मरनेसे डर लगता है। जी तो सकते नहीं, फिर जीनेकी इच्छा क्यों करें? और मरनेकी भी इच्छा क्यों करें ? जो मरनेसे डरता है, वही मरता है। जो मरनेसे नहीं डरता, वह मरता ही नहीं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११६
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११६··
अगर मरनेसे डर लगता है तो हमने मनुष्यजन्ममें करनेयोग्य काम नहीं किया है। यदि मनुष्यजन्ममें करनेयोग्य काम कर लें तो मृत्युसे डर नहीं लगेगा।
||श्रीहरि:||
अगर मरनेसे डर लगता है तो हमने मनुष्यजन्ममें करनेयोग्य काम नहीं किया है। यदि मनुष्यजन्ममें करनेयोग्य काम कर लें तो मृत्युसे डर नहीं लगेगा।- स्वातिकी बूँदें १३९
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स्वातिकी बूँदें १३९··
हम चेतन - विभागमें हैं, शरीर जड़-विभागमें है। शरीर मरता है, हम नहीं मरते। फिर हम क्यों डरें और क्यों मरें ? डरनेपर आपकी स्थिति शरीरमें होती है। डरे नहीं तो आपकी स्थिति स्वरूपमें होती है। भीतरसे डर निकाल दो तो परमपदकी प्राप्ति हो जाय। मरनेका डर मिट जाय तो मरना ही मिट जायगा।
||श्रीहरि:||
हम चेतन - विभागमें हैं, शरीर जड़-विभागमें है। शरीर मरता है, हम नहीं मरते। फिर हम क्यों डरें और क्यों मरें ? डरनेपर आपकी स्थिति शरीरमें होती है। डरे नहीं तो आपकी स्थिति स्वरूपमें होती है। भीतरसे डर निकाल दो तो परमपदकी प्राप्ति हो जाय। मरनेका डर मिट जाय तो मरना ही मिट जायगा।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११६
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११६··
यदि मनुष्य संसारके, भगवान्के, गुरुजनोंके विरुद्ध काम न करे तो वह सदा निर्भय रहता है। कर्मयोगीको भय नहीं लगता। जिसके हृदयमें सबके हितका भाव है, उसको भय नहीं होता।
||श्रीहरि:||
यदि मनुष्य संसारके, भगवान्के, गुरुजनोंके विरुद्ध काम न करे तो वह सदा निर्भय रहता है। कर्मयोगीको भय नहीं लगता। जिसके हृदयमें सबके हितका भाव है, उसको भय नहीं होता।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९४··
यदि हमने कोई अपराध नहीं किया है, हमारा कृत्य ठीक है तो फिर भय नहीं होना चाहिये । अगर भय होता है तो कुछ-न-कुछ, कहीं न कहीं हमारी गलती है अथवा अपनी निर्दोषतापर हमारा दृढ़ विश्वास नहीं है।
||श्रीहरि:||
यदि हमने कोई अपराध नहीं किया है, हमारा कृत्य ठीक है तो फिर भय नहीं होना चाहिये । अगर भय होता है तो कुछ-न-कुछ, कहीं न कहीं हमारी गलती है अथवा अपनी निर्दोषतापर हमारा दृढ़ विश्वास नहीं है।- अमृत-बिन्दु ९३८
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अमृत-बिन्दु ९३८··
जिसको भगवान्, शास्त्र, गुरुजन और जगत्से भय लगता है, वह वास्तवमें निर्भय हो जाता है।
||श्रीहरि:||
जिसको भगवान्, शास्त्र, गुरुजन और जगत्से भय लगता है, वह वास्तवमें निर्भय हो जाता है।- अमृत-बिन्दु ९६९