Seeker of Truth

भक्तिमार्ग

भगवान्की भक्ति सबसे श्रेष्ठ है, और सबके लिये है। कर्मयोग ज्ञानयोग तो साधन हैं, पर भक्तियोग साध्य है। प्रत्येक वर्णका अलग-अलग धर्म है, पर भगवान्की भक्ति सबका धर्म है। जीव भगवान्का अंश है; अतः भक्ति स्वयंका धर्म है। तात्पर्य है कि जीव सबसे पहले ईश्वरका अंश है, ब्राह्मण आदि बादमें हुए हैं। अतः भगवान्‌में लग जाना जीवमात्रका धर्म है।

परम प्रभु अपने ही महुँ पायो १२८··

भगवान् मीठे लगें, अच्छे लगें - यहाँसे भक्ति शुरू होती है। जबतक संसार अच्छा लगता है, तबतक भक्ति शुरू नहीं होती। जैसे लोभी आदमीको रुपये प्यारे लगते हैं, कामीको स्त्री प्यारी लगती है, ऐसे भगवान् प्यारे लगें, तब भक्ति शुरू होती है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०२··

भक्ति जाग्रत् करनेका सरल उपाय है- भगवान्‌को अपना मानना।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३३··

शरीरमें मैं-मेरापन रहते हुए भक्ति शुरू हो सकती है, ज्ञान शुरू नहीं हो सकता।

सत्संगके फूल ७९··

आजकल भक्तिके अधिकारी अधिक हैं। ज्ञानकी बातें करनेवाले तो बहुत हैं, पर अधिकारी कम हैं।

सत्संगके फूल ८४··

मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई' - इस प्रकार भगवान् के साथ अनन्य सम्बन्ध होनेपर ही असली भक्ति होती है। दूसरा मेरा है - यही भक्तिमें बाधक है; क्योंकि यह अनन्यता नहीं होने देता।

सत्संगके फूल १५३··

योगके बिना कर्म और ज्ञान- दोनों निरर्थक हैं, पर भक्ति निरर्थक नहीं है। कारण कि भक्तिमें भगवान् के साथ सम्बन्ध रहता है; अतः भगवान् स्वयं भक्तको योग प्रदान करते हैं - ' ददामि बुद्धियोगं तम्' (गीता १० | १० ) |

साधक संजीवनी २ । ४९ परि०··

भक्ति इतनी विलक्षण है कि निराकार भगवान्‌को भी साकाररूपसे प्रकट कर देती है, भगवान्‌को भी खींच लेती है।

साधक संजीवनी ४।६··

ज्ञानमार्गमें तो सूक्ष्म अहम्की गन्ध रहनेसे दार्शनिक मतभेद रह सकता है, पर भक्तिमार्गमें भगवान्से आत्मीयता होनेपर सूक्ष्म अहम्की गन्ध तथा उससे होनेवाला दार्शनिक मतभेद नहीं रहता।

साधक संजीवनी ६ । ३१ परि०··

केवल ज्ञानसे मुक्ति तो हो जाती है, पर प्रेमका अनन्त आनन्द तभी मिलता है, जब उसके [ज्ञानके] साथ विज्ञान भी हो । 'ज्ञान' धनकी तरह है और 'विज्ञान' आकर्षण है। जैसे धनके आकर्षणमें जो सुख है, वह धनमें नहीं है, ऐसे ही 'विज्ञान' ( भक्ति) - में जो आनन्द है, वह 'ज्ञान' में नहीं है। 'ज्ञान' में तो अखण्डरस है, पर 'विज्ञान' में प्रतिक्षण वर्धमान रस है।

साधक संजीवनी ७ । २ परि०··

ज्ञानमार्गमें विवेककी और भक्तिमार्गमें विश्वास तथा प्रेमकी मुख्यता है। ज्ञानमार्गमें सत्-असत्, जड़-चेतन, नित्य-अनित्य आदिका विवेक मुख्य होनेसे इसमें 'द्वैत' है, पर भक्तिमार्गमें एक भगवान्‌का ही विश्वास मुख्य होनेसे इसमें 'अद्वैत' है। तात्पर्य है कि दो सत्ता न होनेसे वास्तविक अद्वैत भक्तिमें ही है।

साधक संजीवनी ९ । १९ परि०··

जैसे दया, क्षमा, उदारता आदि सामान्य धर्मोके मात्र मनुष्य अधिकारी हैं, ऐसे ही भगवद्भक्तिके नीची -से-नीची योनिसे लेकर ऊँची-से-ऊँची योनितकके सब प्राणी अधिकारी हैं। इसका कारण यह है कि मात्र जीव भगवान्‌के अंश होनेसे भगवान्‌की तरफ चलनेमें, भगवान्‌की भक्ति करनेमें, भगवान्‌के सम्मुख होनेमें अनधिकारी नहीं है।

साधक संजीवनी ९ । ३२··

भगवान्‌की तरफ चलनेमें भावकी प्रधानता होती है, जन्मकी नहीं। जिसके अन्तःकरणमें जन्मकी प्रधानता होती है, उसमें भावकी प्रधानता नहीं होती और उसमें भगवान्‌की भक्ति भी पैदा नहीं होती । कारण कि जन्मकी प्रधानता माननेवालेके 'अहम्' में शरीरका सम्बन्ध मुख्य रहता है, जो भगवान्में लगने नहीं देता अर्थात् शरीर भगवान्‌का भक्त नहीं होता और भक्त शरीर नहीं होता, प्रत्युत स्वयं भक्त होता है।

साधक संजीवनी ९ । ३२ मा०··

कैसा ही जन्म हो, कैसी ही जाति हो और पूर्वजन्मके कितने ही पाप हों, पर भगवान् और उनकी भक्तिके मनुष्यमात्र अधिकारी हैं।

साधक संजीवनी ९ । ३३ परि०··

जातिका विचार विधि-विधानमें, रोटी-बेटीके व्यवहारमें होता है। भक्तिमें जातिका विचार नहीं होता।

सागरके मोती १४७··

जहाँ भक्तिरूपी माँ होगी, वहाँ उसके वैराग्य और ज्ञानरूपी बेटे रहेंगे ही। इसलिये भक्तिके आनेपर समता - संसारसे वैराग्य और अपने स्वरूपका बोध- ये दोनों स्वतः आ जाते हैं।

साधक संजीवनी १० । ११ वि०··

जैसे पतिव्रता स्त्री अपने मनमें यदि पतिके सिवाय दूसरे किसी पुरुषकी विशेषता रखती है, तो उसका पातिव्रत्य भंग हो जाता है, ऐसे ही भगवान् के सिवाय दूसरी किसी वस्तुकी विशेषताको लेकर मन खिंचता है, तो व्यभिचार - दोष आ जाता है अर्थात् भगवान्‌के अनन्यभावका व्रत भंग हो जाता है।

साधक संजीवनी १० । ४१··

परमात्मासे अपने वास्तविक सम्बन्धको भूलकर शरीरादि विजातीय पदार्थोंको 'मैं', 'मेरा' और 'मेरे लिये' मानना ही व्यभिचार - दोष है । यह व्यभिचार - दोष ही अनन्य भक्तियोगमें खास बाधक है।

साधक संजीवनी १५ अव०··

ज्ञानमार्ग और कर्ममार्गमें साधन और साध्य दो होते हैं, पर भक्तिमार्गमें साधन भी भगवान् हैं और साध्य भी भगवान् हैं। इसलिये भक्तिमार्गका रास्ता बहुत जल्दी कटता है । इस बातको हरेक आदमी जानता नहीं। हरेक जगह यह बात मिलती नहीं। इसलिये मैं भगवान्‌को अपना माननेपर जोर देता हूँ। भगवान् हमारे पिता हैं। हम सब उनके लाड़ले बेटा-बेटी हैं। यह मान लो तो बहुत काम हो गया।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १७३··

भक्तियोग सबके लिये बड़ा सुगम पड़ता है; क्योंकि काम-क्रोधादिके रहते हुए भी भक्तियोग शुरू हो सकता है। भक्तियोगमें भगवान्‌का सहारा रहता है, इसलिये भक्त आरम्भसे ही निर्भय- निश्चिन्त रहता है। भगवान् भक्तपर विशेष कृपा करते हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३··

भक्तिमार्गमें भगवान् में प्रेम है और दोषोंकी उपेक्षा है।

मैं नहीं, मेरा नहीं १७३··

भगवान्‌के हृदयमें भक्तिका जितना आदर है, उतना सद्गुणोंका आदर नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०··

भक्तिसे कर्मयोग, ज्ञानयोग सब समझमें आ जाते हैं, यह भक्तिकी विशेषता है। कारण कि भक्तको भगवान् कर्मयोग और ज्ञानयोग – दोनों दे देते हैं (गीता १० | १० - ११ ) । भक्तियोगसे सिद्ध हुआ महापुरुष ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग - तीनों योगोंकी ठीक बात बता सकता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३··

भक्तिमार्गपर चलनेवालोंको संसारकी पंचायती नहीं करनी चाहिये कि वह कैसा है। संसार अच्छा हो या बुरा हो, हमें उससे क्या मतलब? हमें तो भगवान् से मतलब है।

अनन्तकी ओर १११··

भक्तिमार्गमें देहाध्यास मिटानेकी जरूरत नहीं है। आप शरीरसहित ही भगवान्‌के शरण हो जाओ कि मैं भगवान्‌का हूँ, भगवान् मेरे हैं।

स्वातिकी बूँदें ५४··

भक्तिमें ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है। ज्ञान विवेकमार्ग है और भक्ति विश्वासमार्ग है। विश्वास अनजान व्यक्ति करता है। देहाभ्यास मिटनेपर ज्ञान होगा, भक्ति नहीं। तत्त्वज्ञान होनेपर भी भक्ति हो जाय - यह नियम नहीं है।

स्वातिकी बूँदें ५४··

ज्ञानमार्गमें तो अज्ञान बाधक है, पर भक्तिमार्गमें एक भगवान्‌के सिवाय अन्यकी सत्ता और महत्ता बाधक है। कारण कि वास्तवमें अज्ञानकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं, अधूरे तथा विपरीत ज्ञानको ही ज्ञान कह देते हैं। इसी तरह भगवान्‌के सिवाय अन्यकी सत्ता है ही नहीं, भगवान्‌के ऐश्वर्यको ही संसार कह देते हैं। अज्ञान मिटता है विवेकका आदर करनेसे और अन्यकी सत्ता मिटती है भोगबुद्धिका त्याग करनेसे।

साधन-सुधा-सिन्धु ४३६··

तेजीका वैराग्य न हो तो ज्ञानयोग कठिन है, पर भक्तियोग बहुत सुगम है। एक ही बात है। कि भगवन्नामका जप करो और प्रार्थना करो कि 'हे नाथ। मैं आपको भूलूँ नहीं'। भगवान्‌की जितनी याद आयेगी, उतनी भक्ति होगी, भगवान्‌में प्रेम होगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०८··

भगवान्‌के सिवाय कोई मेरा नहीं है - यह असली भक्ति है।

अमृत-बिन्दु ४८३··

आठों पहर भगवान्‌में लगे रहो - यह 'अष्टयाम सेवा' है। इस तरह सारी उम्र बीत जाय।

ज्ञानके दीप जले १३३··

भगवान् मनुष्यको अपना दास ( पराधीन) नहीं बनाते, प्रत्युत अपने समान बनाते हैं, अपने समान आदर देते हैं। इसलिये भगवान् भक्ति देनेमें संकोच करते हैं; क्योंकि भक्तिमें मनुष्य भगवान्का दास बन जाता है।....... पर कोई भक्ति ही चाहे तो वे भक्ति देकर बड़े प्रसन्न होते हैं। कारण कि भक्तिसे भगवान् और भक्त - दोनोंको ही आनन्द मिलता है, इसलिये भगवान् भक्ति चाहनेवालेको भक्ति देकर स्वयं उसके दास बन जाते हैं- ' अहं भक्तपराधीनः ' ( श्रीमद्भा० ९ ४ ६३ ) ........ पराधीन होनेसे जीवको तो स्वतन्त्र होनेमें आनन्द आता है, पर परम स्वतन्त्र होनेसे भगवान्‌को पराधीन होनेमें ही आनन्द आता है । कारण कि जीवको स्वतन्त्रता दुर्लभ है और भगवान्‌को पराधीनता।

साधन-सुधा-सिन्धु ४१२ - ४१३··

ज्ञान' में तो दो होकर एक होते हैं, पर 'भक्ति' में प्रेमके विलक्षण आनन्दका आदान-प्रदान करनेके लिये, प्रेमका विस्तार करनेके लिये एक होकर दो हो जाते हैं; जैसे- भगवान् श्रीकृष्ण और श्रीजी एक होकर भी दो हैं।

साधक संजीवनी ६ । ३१ टि०··

दास्यरति सख्यरतिमें बदल जाती है।

सागरके मोती १०··

तत्त्वज्ञान होनेके बाद दास्य, सख्य आदि भाव होते हैं। ये भाव चिन्मयके साथ होते हैं, जड़के साथ नहीं। जड़में दास्य, सख्य आदि भाव होनेसे कल्याण नहीं होता।

सत्संगके फूल १४२··

सबसे श्रेष्ठ भाव 'माधुर्यभाव' है। धुर्यभावमें स्त्री-पुरुष नहीं हैं, प्रत्युत भक्त और भगवान् हैं। इसमें परकीया भावको श्रेष्ठ बतानेमें चार कारण हैं - १. अपने जीवन निर्वाहके लिये, अपने बालकोंके पालन-पोषण के लिये प्रेमास्पदसे कुछ नहीं चाहती, २. केवल प्रेमास्पदको सुख देती है, ३. अपने प्रेमको छिपाकर रखती है और ४ वियोगमें प्रेमास्पदको विशेष याद करती है।

स्वातिकी बूँदें ५७··

लोग प्रायः माधुर्यभावमें स्त्री-पुरुषका भाव ही समझते हैं; परन्तु यह भाव स्त्री - पुरुषके सम्बन्धमें ही होता है - यह नियम नहीं है। माधुर्य नाम मधुरता अर्थात् मिठासका है, और वह मिठास आती है भगवान्के साथ अभिन्नता होनेसे । वह अभिन्नता जितनी अधिक होगी, मधुरता भी उतनी ही अधिक होगी। अतः दास्य, सख्य और वात्सल्यभावमेंसे किसी भी भावमें पूर्णता होनेपर उसमें मधुरता कम नहीं रहेगी। भक्तिके सभी भावों में माधुर्यभाव रहता है।

साधक संजीवनी १८ । ५७··

गोपीभाव प्राप्त करनेके लिये त्यागकी जरूरत है। पति पुत्रोंके साथ भी गोपियोंका राग नहीं था । कुटुम्बका मोह छूटे बिना गोपीभाव प्राप्त नहीं होता ...... भोग और संग्रह में आसक्ति होनेसे धार्मिक प्रवृत्ति भी नहीं होती, फिर गोपीभाव तो धार्मिक प्रवृत्तिसे भी बहुत ऊँचा है। उद्धवजी जैसे ज्ञानी भक्त भी गोपियोंकी चरण-रज चाहते हैं।

ज्ञानके दीप जले १३३··

गोपीभाव भगवान्की कृपासे ही प्राप्त होता है, साधनसे प्राप्त नहीं होता। भगवान् गोपीभाव दें या न दें, उनकी मरजी । मनुष्यका तो यह कर्तव्य है कि सब संसारसे विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो जाय। सर्वथा भगवान्‌के चरणोंके शरण हो जाय, अपना कुछ भी भाव न रखे। फिर भगवान्‌की मरजी कि वे गोपीभाव दें, गोपभाव दें, नन्दभाव दें या यशोदाभाव दें। भगवान्की मरजीमें अपनी मरजी मिला दें। सख्य, दास्य, वात्सल्य आदि किस भावकी प्राप्ति होगी, कैसे होगी - यह भगवान् जानें, भगवान्का काम जाने। अपनी मरजी सर्वथा भगवान्पर छोड़ दें कि हे नाथ, मैं तो आपका हूँ, बस आपकी जैसी मरजी हो, वैसे रखो; जहाँ मरजी हो, वहाँ रखो।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४८··