कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, हठयोगी, लययोगी, राजयोगी आदि जितने भी योगी हो सकते हैं, उन सब योगियोंमें भगवान्का भक्त सर्वश्रेष्ठ है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, हठयोगी, लययोगी, राजयोगी आदि जितने भी योगी हो सकते हैं, उन सब योगियोंमें भगवान्का भक्त सर्वश्रेष्ठ है।- साधक संजीवनी ६ । ४७ परि०
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साधक संजीवनी ६ । ४७ परि०··
भक्तको कर्मयोगका प्रापणीय तत्त्व 'निष्कामभाव' और ज्ञानयोगका प्रापणीय तत्त्व 'स्वरूपबोध'- दोनों ही सुगमतासे प्राप्त हो जाते हैं। कर्मयोग प्राप्त होनेपर भक्तके द्वारा संसारका उपकार होता है और ज्ञानयोग प्राप्त होनेपर भक्तका देहाभिमान दूर हो जाता है।
||श्रीहरि:||
भक्तको कर्मयोगका प्रापणीय तत्त्व 'निष्कामभाव' और ज्ञानयोगका प्रापणीय तत्त्व 'स्वरूपबोध'- दोनों ही सुगमतासे प्राप्त हो जाते हैं। कर्मयोग प्राप्त होनेपर भक्तके द्वारा संसारका उपकार होता है और ज्ञानयोग प्राप्त होनेपर भक्तका देहाभिमान दूर हो जाता है।- साधक संजीवनी १०।११ परि०
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साधक संजीवनी १०।११ परि०··
भगवान् ज्ञानीको मुक्त करके उऋण हो जाते हैं, पर भक्तके सदा ऋणी रहते हैं। ज्ञानी भगवान्को कुछ दे नहीं सकता। पर भक्त भगवान्को प्रेम देता है । भगवान् प्रेमके भूखे हैं, ज्ञानके नहीं।
||श्रीहरि:||
भगवान् ज्ञानीको मुक्त करके उऋण हो जाते हैं, पर भक्तके सदा ऋणी रहते हैं। ज्ञानी भगवान्को कुछ दे नहीं सकता। पर भक्त भगवान्को प्रेम देता है । भगवान् प्रेमके भूखे हैं, ज्ञानके नहीं।- सागरके मोती ५६
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सागरके मोती ५६··
अपनी निर्बलताका अनुभव और भगवान्के महान् प्रभावपर विश्वास होते ही मनुष्य भक्त हो जाता है।
||श्रीहरि:||
अपनी निर्बलताका अनुभव और भगवान्के महान् प्रभावपर विश्वास होते ही मनुष्य भक्त हो जाता है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला १७२
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प्रश्नोत्तरमणिमाला १७२··
भगवन्निष्ठ भक्त भगवान्को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं। उनका तो एक ही काम है - हरदम भगवान्में लगे रहना ।....... वे भक्त न ज्ञान चाहते हैं, न वैराग्य । जब वे पारमार्थिक ज्ञान, वैराग्य आदि भी नहीं चाहते, तो फिर सांसारिक भोग तथा अष्टसिद्धि और नवनिधि चाह ही कैसे सकते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवन्निष्ठ भक्त भगवान्को छोड़कर न तो समता चाहते हैं, न तत्त्वज्ञान चाहते हैं तथा न और ही कुछ चाहते हैं। उनका तो एक ही काम है - हरदम भगवान्में लगे रहना ।....... वे भक्त न ज्ञान चाहते हैं, न वैराग्य । जब वे पारमार्थिक ज्ञान, वैराग्य आदि भी नहीं चाहते, तो फिर सांसारिक भोग तथा अष्टसिद्धि और नवनिधि चाह ही कैसे सकते हैं।- साधक संजीवनी १०।१०
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साधक संजीवनी १०।१०··
ज्ञानी तो भक्तिसे रहित हो सकता है, पर भक्त ज्ञानसे रहित नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
ज्ञानी तो भक्तिसे रहित हो सकता है, पर भक्त ज्ञानसे रहित नहीं हो सकता।- साधक संजीवनी १० ११ परि०
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साधक संजीवनी १० ११ परि०··
भक्तका पतन नहीं होता; क्योंकि वह भगवन्निष्ठ होता है अर्थात् उसके साधन और साध्य भगवान् ही होते हैं; उसका अपना बल नहीं होता, प्रत्युत भगवान्का ही बल होता है ...... भगवान् अपने आश्रित भक्तकी पूरी सँभाल करते हैं और स्वयं उसके योगक्षेमका वहन करते हैं (गीता ९ । २२) । परन्तु ज्ञानीके योगक्षेमका वहन कौन करे ? इसलिये ज्ञानका साधक तो योगभ्रष्ट हो सकता है, पर भक्त योगभ्रष्ट नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
भक्तका पतन नहीं होता; क्योंकि वह भगवन्निष्ठ होता है अर्थात् उसके साधन और साध्य भगवान् ही होते हैं; उसका अपना बल नहीं होता, प्रत्युत भगवान्का ही बल होता है ...... भगवान् अपने आश्रित भक्तकी पूरी सँभाल करते हैं और स्वयं उसके योगक्षेमका वहन करते हैं (गीता ९ । २२) । परन्तु ज्ञानीके योगक्षेमका वहन कौन करे ? इसलिये ज्ञानका साधक तो योगभ्रष्ट हो सकता है, पर भक्त योगभ्रष्ट नहीं हो सकता।- साधक संजीवनी ९ । ३१ परि०
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साधक संजीवनी ९ । ३१ परि०··
भक्तिके बिना भीतरका सूक्ष्म मल ( अहम् ) मिटता नहीं। वह मल मुक्तिमें तो बाधक नहीं होता, पर दार्शनिकों और उनके दर्शनोंमें मतभेद पैदा करता है। जब वह सूक्ष्म मल मिट जाता है, तब मतभेद नहीं रहता। इसलिये भक्त ही वास्तविक ज्ञानी है।
||श्रीहरि:||
भक्तिके बिना भीतरका सूक्ष्म मल ( अहम् ) मिटता नहीं। वह मल मुक्तिमें तो बाधक नहीं होता, पर दार्शनिकों और उनके दर्शनोंमें मतभेद पैदा करता है। जब वह सूक्ष्म मल मिट जाता है, तब मतभेद नहीं रहता। इसलिये भक्त ही वास्तविक ज्ञानी है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ९९
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ९९··
भक्तका भगवान्में दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि कोई भी भाव हो, भक्तकी अपनी अलग सत्ता नहीं होती; क्योंकि प्रेममें भक्त और भगवान् एक होकर दो होते हैं और दो होकर भी एक ही रहते हैं।
||श्रीहरि:||
भक्तका भगवान्में दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि कोई भी भाव हो, भक्तकी अपनी अलग सत्ता नहीं होती; क्योंकि प्रेममें भक्त और भगवान् एक होकर दो होते हैं और दो होकर भी एक ही रहते हैं।- मेरे तो गिरधर गोपाल १०८
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मेरे तो गिरधर गोपाल १०८··
जो शरीरकी अनुकूलता - प्रतिकूलतामें राजी नाराज होता है, वह हाड़-मांसका भक्त है, भगवान्का नहीं।
||श्रीहरि:||
जो शरीरकी अनुकूलता - प्रतिकूलतामें राजी नाराज होता है, वह हाड़-मांसका भक्त है, भगवान्का नहीं।- सत्संगके फूल २६
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सत्संगके फूल २६··
जैसे विवाह होनेपर स्त्रीका गोत्र बदल जाता है, पतिका गोत्र ही उसका गोत्र हो जाता है, ऐसे ही शरणागत भक्तका 'अच्युतगोत्र' हो जाता है। गोस्वामीजी महाराज कहते हैं— 'साह ही को गोतु गोतु होत है गुलाम को' (कवितावली, उत्तर० १०७)।
||श्रीहरि:||
जैसे विवाह होनेपर स्त्रीका गोत्र बदल जाता है, पतिका गोत्र ही उसका गोत्र हो जाता है, ऐसे ही शरणागत भक्तका 'अच्युतगोत्र' हो जाता है। गोस्वामीजी महाराज कहते हैं— 'साह ही को गोतु गोतु होत है गुलाम को' (कवितावली, उत्तर० १०७)।- साधन-सुधा-सिन्धु ४५६
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साधन-सुधा-सिन्धु ४५६··
युक्ततम भक्त कभी योगभ्रष्ट हो ही नहीं सकता। कारण कि उसका मन भगवान्को नहीं छोड़ता, तो भगवान् भी उसको नहीं छोड़ सकते। अन्तसमयमें वह पीड़ा, बेहोशी आदिके कारण भगवान्को याद न कर सके, तो भगवान् उसको याद करते हैं; अतः वह योगभ्रष्ट हो ही कैसे सकता है ?
||श्रीहरि:||
युक्ततम भक्त कभी योगभ्रष्ट हो ही नहीं सकता। कारण कि उसका मन भगवान्को नहीं छोड़ता, तो भगवान् भी उसको नहीं छोड़ सकते। अन्तसमयमें वह पीड़ा, बेहोशी आदिके कारण भगवान्को याद न कर सके, तो भगवान् उसको याद करते हैं; अतः वह योगभ्रष्ट हो ही कैसे सकता है ?- साधक संजीवनी ६ | ४७
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साधक संजीवनी ६ | ४७··
मुक्त होनेपर नाशवान् रसकी कामना तो मिट जाती है, पर अनन्तरसकी भूख नहीं मिटती । वह भूख भगवान् की कृपासे ही जाग्रत् होती है। तात्पर्य है कि जो भगवान्पर श्रद्धा - विश्वास रखते हुए साधन करते हैं, जिनके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, उनको भगवान् ज्ञानमें सन्तुष्ट नहीं होने देते, उसमें टिकने नहीं देते और उनकी मुक्तिके रसको फीका कर देते हैं।
||श्रीहरि:||
मुक्त होनेपर नाशवान् रसकी कामना तो मिट जाती है, पर अनन्तरसकी भूख नहीं मिटती । वह भूख भगवान् की कृपासे ही जाग्रत् होती है। तात्पर्य है कि जो भगवान्पर श्रद्धा - विश्वास रखते हुए साधन करते हैं, जिनके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, उनको भगवान् ज्ञानमें सन्तुष्ट नहीं होने देते, उसमें टिकने नहीं देते और उनकी मुक्तिके रसको फीका कर देते हैं।- साधक संजीवनी ७।३ परि०
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साधक संजीवनी ७।३ परि०··
एक मार्मिक बात है कि भगवान्को न मानना कामनासे भी अधिक दोषी है। जो भगवान्को छोड़कर अन्य देवताओंकी उपासना करते हैं, उनमें यदि कामना रह जाय तो वे जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं—'गतागतं कामकामा लभन्ते' ( गीता ९ । २१) । परन्तु जो केवल भगवान्का ही भजन करते हैं, उनमें यदि कामना रह भी जाय तो भगवान्की कृपा और भजनके प्रभावसे वे भगवान्को ही प्राप्त होते हैं। कारण कि मनुष्यका किसी भी तरहसे भगवान् के साथ सम्बन्ध जुड़ जाय तो वह भगवान्को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह मूलमें भगवान्का ही अंश है।
||श्रीहरि:||
एक मार्मिक बात है कि भगवान्को न मानना कामनासे भी अधिक दोषी है। जो भगवान्को छोड़कर अन्य देवताओंकी उपासना करते हैं, उनमें यदि कामना रह जाय तो वे जन्म-मरणको प्राप्त होते हैं—'गतागतं कामकामा लभन्ते' ( गीता ९ । २१) । परन्तु जो केवल भगवान्का ही भजन करते हैं, उनमें यदि कामना रह भी जाय तो भगवान्की कृपा और भजनके प्रभावसे वे भगवान्को ही प्राप्त होते हैं। कारण कि मनुष्यका किसी भी तरहसे भगवान् के साथ सम्बन्ध जुड़ जाय तो वह भगवान्को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह मूलमें भगवान्का ही अंश है।- साधक संजीवनी ७।१८ परि०
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साधक संजीवनी ७।१८ परि०··
तत्त्वज्ञानीको तो ब्रह्मका ज्ञान होता है, पर भक्तको समग्रका ज्ञान होता है (गीता ७।२९-३० )।
||श्रीहरि:||
तत्त्वज्ञानीको तो ब्रह्मका ज्ञान होता है, पर भक्तको समग्रका ज्ञान होता है (गीता ७।२९-३० )।- साधक संजीवनी ७।१६ परि०
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साधक संजीवनी ७।१६ परि०··
यद्यपि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी भी जन्म-मरणसे मुक्त हो जाते हैं, पर भक्त जरा-मरणसे मुक्त होनेके साथ-साथ भगवान् के समग्ररूपको भी जान लेते हैं। कारण कि कर्मयोगी और ज्ञानयोगीकी तो आरम्भसे ही अपने साधनकी निष्ठा होती है (गीता ३ । ३), पर भक्त आरम्भसे ही भगवन्निष्ठ अर्थात् भगवत्परायण होता है । भगवन्निष्ठ होनेसे भगवान् कृपा करके उसको अपने समग्ररूपका ज्ञान करा देते हैं।
||श्रीहरि:||
यद्यपि कर्मयोगी और ज्ञानयोगी भी जन्म-मरणसे मुक्त हो जाते हैं, पर भक्त जरा-मरणसे मुक्त होनेके साथ-साथ भगवान् के समग्ररूपको भी जान लेते हैं। कारण कि कर्मयोगी और ज्ञानयोगीकी तो आरम्भसे ही अपने साधनकी निष्ठा होती है (गीता ३ । ३), पर भक्त आरम्भसे ही भगवन्निष्ठ अर्थात् भगवत्परायण होता है । भगवन्निष्ठ होनेसे भगवान् कृपा करके उसको अपने समग्ररूपका ज्ञान करा देते हैं।- साधक संजीवनी ७ ३० परि०
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साधक संजीवनी ७ ३० परि०··
ज्ञानयोगी तो स्वाधीन होता है और भक्त प्रेमी होता है। भक्तियोगमें भक्त भगवान्के पराधीन नहीं होता; क्योंकि भगवान् परकीय नहीं हैं, प्रत्युत स्वकीय (अपने ) हैं। स्वकीयकी अधीनतामें विशेष स्वाधीनता होती है।...... भगवान्के शरण होनेसे वह स्वाधीनतापूर्वक स्वाधीन अर्थात् परम स्वाधीन हो जाता है। भगवान्की अधीनता परम स्वाधीनता है, जिसमें भगवान् भी भक्तके अधीन हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
ज्ञानयोगी तो स्वाधीन होता है और भक्त प्रेमी होता है। भक्तियोगमें भक्त भगवान्के पराधीन नहीं होता; क्योंकि भगवान् परकीय नहीं हैं, प्रत्युत स्वकीय (अपने ) हैं। स्वकीयकी अधीनतामें विशेष स्वाधीनता होती है।...... भगवान्के शरण होनेसे वह स्वाधीनतापूर्वक स्वाधीन अर्थात् परम स्वाधीन हो जाता है। भगवान्की अधीनता परम स्वाधीनता है, जिसमें भगवान् भी भक्तके अधीन हो जाते हैं।- साधक संजीवनी ८। १९ परि०
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साधक संजीवनी ८। १९ परि०··
भगवान्के भक्त अनुकूल और प्रतिकूल - दोनों परिस्थितियोंमें परम प्रसन्न रहते हैं । भगवान्पर निर्भर रहनेके कारण उनका यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जो भी परिस्थिति आती है, वह भगवान्की ही भेजी हुई है। अतः 'अनुकूल परिस्थिति ठीक है और प्रतिकूल परिस्थिति बेठीक है' – उनका यह भाव मिट जाता है। उनका भाव रहता है कि 'भगवान्ने जो किया है, वही ठीक है और भगवान्ने जो नहीं किया है, वही ठीक है, उसीमें हमारा कल्याण है।'
||श्रीहरि:||
भगवान्के भक्त अनुकूल और प्रतिकूल - दोनों परिस्थितियोंमें परम प्रसन्न रहते हैं । भगवान्पर निर्भर रहनेके कारण उनका यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जो भी परिस्थिति आती है, वह भगवान्की ही भेजी हुई है। अतः 'अनुकूल परिस्थिति ठीक है और प्रतिकूल परिस्थिति बेठीक है' – उनका यह भाव मिट जाता है। उनका भाव रहता है कि 'भगवान्ने जो किया है, वही ठीक है और भगवान्ने जो नहीं किया है, वही ठीक है, उसीमें हमारा कल्याण है।'- साधक संजीवनी ९ । २२
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साधक संजीवनी ९ । २२··
अनन्यभक्त वे हैं, जिनकी दृष्टिमें एक भगवान्के सिवाय अन्यकी सत्ता ही नहीं है।....... यद्यपि भगवान् सभी साधकोंका योगक्षेम वहन करते हैं, तथापि अनन्यभक्तोंका योगक्षेम विशेषरूपसे वहन करते हैं; जैसे-प्यारे बच्चेका पालन माँ स्वयं करती है, नौकरोंसे नहीं करवाती।...... जैसे भक्तको भगवान् की सेवामें आनन्द आता है, ऐसे ही भगवान्को भी भक्तकी सेवामें आनन्द आता है।
||श्रीहरि:||
अनन्यभक्त वे हैं, जिनकी दृष्टिमें एक भगवान्के सिवाय अन्यकी सत्ता ही नहीं है।....... यद्यपि भगवान् सभी साधकोंका योगक्षेम वहन करते हैं, तथापि अनन्यभक्तोंका योगक्षेम विशेषरूपसे वहन करते हैं; जैसे-प्यारे बच्चेका पालन माँ स्वयं करती है, नौकरोंसे नहीं करवाती।...... जैसे भक्तको भगवान् की सेवामें आनन्द आता है, ऐसे ही भगवान्को भी भक्तकी सेवामें आनन्द आता है।- साधक संजीवनी ९।२२ परि०
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साधक संजीवनी ९।२२ परि०··
देवताओंका उपासक तो मजदूर (नौकर ) की तरह है और भगवान्की उपासना करनेवाला घरके सदस्यकी तरह है। मजदूर काम करता है तो उसको मजदूरीके अनुसार सीमित पैसे मिलते हैं, पर घरका सदस्य काम करता है तो सब कुछ उसीका होता है।
||श्रीहरि:||
देवताओंका उपासक तो मजदूर (नौकर ) की तरह है और भगवान्की उपासना करनेवाला घरके सदस्यकी तरह है। मजदूर काम करता है तो उसको मजदूरीके अनुसार सीमित पैसे मिलते हैं, पर घरका सदस्य काम करता है तो सब कुछ उसीका होता है।- साधक संजीवनी ९ । २२ परि०
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साधक संजीवनी ९ । २२ परि०··
शरीर भगवान्का भक्त नहीं होता और भक्त शरीर नहीं होता, प्रत्युत स्वयं भक्त होता है ।....... शरीरको लेकर जो व्यवहार है, वह लौकिक मर्यादाके लिये बहुत आवश्यक है और उस मर्यादाके अनुसार चलना ही चाहिये । परन्तु भगवान्की तरफ चलनेमें स्वयंकी मुख्यता है, शरीरकी नहीं।
||श्रीहरि:||
शरीर भगवान्का भक्त नहीं होता और भक्त शरीर नहीं होता, प्रत्युत स्वयं भक्त होता है ।....... शरीरको लेकर जो व्यवहार है, वह लौकिक मर्यादाके लिये बहुत आवश्यक है और उस मर्यादाके अनुसार चलना ही चाहिये । परन्तु भगवान्की तरफ चलनेमें स्वयंकी मुख्यता है, शरीरकी नहीं।- साधक संजीवनी ९ । ३२ मा०
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साधक संजीवनी ९ । ३२ मा०··
जैसे माँकी गोदमें जानेके लिये किसी भी बच्चेके लिये मनाही नहीं है; क्योंकि वे बच्चे माँके ही हैं। ऐसे ही भगवान्का अंश होनेसे प्राणिमात्रके लिये भगवान्की तरफ चलनेमें ( भगवान्की ओरसे) कोई मनाही नहीं है।
||श्रीहरि:||
जैसे माँकी गोदमें जानेके लिये किसी भी बच्चेके लिये मनाही नहीं है; क्योंकि वे बच्चे माँके ही हैं। ऐसे ही भगवान्का अंश होनेसे प्राणिमात्रके लिये भगवान्की तरफ चलनेमें ( भगवान्की ओरसे) कोई मनाही नहीं है।- साधक संजीवनी ९ । ३२ वि०
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साधक संजीवनी ९ । ३२ वि०··
किसी-किसी भक्तको तो इसकी भी अपेक्षा नहीं होती कि भगवान् दर्शन दें । भगवान् दर्शन दें तो आनन्द, न दें तो आनन्द । वह तो सदा भगवान्की प्रसन्नता और कृपाको देखकर मस्त रहता है।
||श्रीहरि:||
किसी-किसी भक्तको तो इसकी भी अपेक्षा नहीं होती कि भगवान् दर्शन दें । भगवान् दर्शन दें तो आनन्द, न दें तो आनन्द । वह तो सदा भगवान्की प्रसन्नता और कृपाको देखकर मस्त रहता है।- साधक संजीवनी १२।१६
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साधक संजीवनी १२।१६··
किसी वस्तुकी इच्छाको लेकर भगवान्की भक्ति करनेवाला मनुष्य वस्तुतः उस इच्छित वस्तुका ही भक्त होता है; क्योंकि ( वस्तुकी ओर लक्ष्य रहनेसे) वह वस्तुके लिये ही भगवान्की भक्ति करता है, न कि भगवान्के लिये।
||श्रीहरि:||
किसी वस्तुकी इच्छाको लेकर भगवान्की भक्ति करनेवाला मनुष्य वस्तुतः उस इच्छित वस्तुका ही भक्त होता है; क्योंकि ( वस्तुकी ओर लक्ष्य रहनेसे) वह वस्तुके लिये ही भगवान्की भक्ति करता है, न कि भगवान्के लिये।- साधक संजीवनी १२ । १६
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साधक संजीवनी १२ । १६··
भगवान्की उपासना करनेवालेको ज्ञानकी भूमिकाओंकी सिद्धिके लिये दूसरा कोई साधन प्रयत्न नहीं करना पड़ता, प्रत्युत उसके लिये ज्ञानकी भूमिकाएँ अपने-आप सिद्ध हो जाती हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्की उपासना करनेवालेको ज्ञानकी भूमिकाओंकी सिद्धिके लिये दूसरा कोई साधन प्रयत्न नहीं करना पड़ता, प्रत्युत उसके लिये ज्ञानकी भूमिकाएँ अपने-आप सिद्ध हो जाती हैं।- साधक संजीवनी १४ । २६
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साधक संजीवनी १४ । २६··
भगवान्के हृदयमें भक्तका जितना आदर है, उतना आदर करनेवाला संसारमें दूसरा कोई नहीं है।
||श्रीहरि:||
भगवान्के हृदयमें भक्तका जितना आदर है, उतना आदर करनेवाला संसारमें दूसरा कोई नहीं है।- साधक संजीवनी १८ । ५७
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साधक संजीवनी १८ । ५७··
जो प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा ही विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो जाता है, वह शास्त्रीय विधि - निषेध और वर्ण आश्रमोंकी मर्यादाका दास नहीं रहता। वह विधि - निषेधसे भी ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसपर विधि-निषेध लागू नहीं होते; क्योंकि विधि - निषेधकी मुख्यता प्रकृतिके राज्यमें ही रहती है । प्रभुके राज्यमें तो शरणागतिकी ही मुख्यता रहती है।
||श्रीहरि:||
जो प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा ही विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो जाता है, वह शास्त्रीय विधि - निषेध और वर्ण आश्रमोंकी मर्यादाका दास नहीं रहता। वह विधि - निषेधसे भी ऊँचा उठ जाता है अर्थात् उसपर विधि-निषेध लागू नहीं होते; क्योंकि विधि - निषेधकी मुख्यता प्रकृतिके राज्यमें ही रहती है । प्रभुके राज्यमें तो शरणागतिकी ही मुख्यता रहती है।- साधक संजीवनी १८/५८
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साधक संजीवनी १८/५८··
जिस भक्तको अपनेमें कुछ भी विशेषता नहीं दीखती, अपनेमें किसी बातका अभिमान नहीं होता, उस भक्तमें भगवान्की विलक्षणता उतर आती है।
||श्रीहरि:||
जिस भक्तको अपनेमें कुछ भी विशेषता नहीं दीखती, अपनेमें किसी बातका अभिमान नहीं होता, उस भक्तमें भगवान्की विलक्षणता उतर आती है।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
जैसे भगवान्को हनुमानजी बहुत प्यारे हैं, ऐसे ही कलियुगमें भजन करनेवाला भगवान्को बहुत प्यारा है।
||श्रीहरि:||
जैसे भगवान्को हनुमानजी बहुत प्यारे हैं, ऐसे ही कलियुगमें भजन करनेवाला भगवान्को बहुत प्यारा है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५८··
अगर भगवान्में मन लगाना पड़ता है और संसारमें मन स्वाभाविक जाता है तो आप भले ही साधु हो गये, पर भगवान् के भक्त नहीं हुए।
||श्रीहरि:||
अगर भगवान्में मन लगाना पड़ता है और संसारमें मन स्वाभाविक जाता है तो आप भले ही साधु हो गये, पर भगवान् के भक्त नहीं हुए।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०३
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०३··
जो भगवान्की मरजीमें राजी होगा, वह भक्त बन जायगा, सन्त बन जायगा । यह पक्का विचार कर लें कि भगवान् जो करते हैं, सब ठीक करते हैं। समझमें आये चाहे न आये, पर जो होता है, वह भगवान्के मंगलमय विधानसे होता है।
||श्रीहरि:||
जो भगवान्की मरजीमें राजी होगा, वह भक्त बन जायगा, सन्त बन जायगा । यह पक्का विचार कर लें कि भगवान् जो करते हैं, सब ठीक करते हैं। समझमें आये चाहे न आये, पर जो होता है, वह भगवान्के मंगलमय विधानसे होता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०५
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०५··
ज्ञानी तो आरम्भमें ही बड़ा हो जाता है- 'अहं ब्रह्मास्मि पर भक्त बूढ़ा हो जाय तो भी बालक ही रहता है। जैसे ज्यादा मैले कपड़ोंको धोनेमें धोबीको आनन्द आता है और बछड़ेको चाटकर साफ करनेमें गायको आनन्द आता है, ऐसे ही भक्तोंका मैल (पाप) दूर करनेमें भगवान्को आनन्द आता है।
||श्रीहरि:||
ज्ञानी तो आरम्भमें ही बड़ा हो जाता है- 'अहं ब्रह्मास्मि पर भक्त बूढ़ा हो जाय तो भी बालक ही रहता है। जैसे ज्यादा मैले कपड़ोंको धोनेमें धोबीको आनन्द आता है और बछड़ेको चाटकर साफ करनेमें गायको आनन्द आता है, ऐसे ही भक्तोंका मैल (पाप) दूर करनेमें भगवान्को आनन्द आता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३५··
संसारको अपना माननेवाला एक भी व्यक्ति भक्त नहीं हुआ।
||श्रीहरि:||
संसारको अपना माननेवाला एक भी व्यक्ति भक्त नहीं हुआ।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२३··
भक्तोंका अनजानपना भगवान्को जितना प्यारा है, उतनी पण्डिताई प्यारी नहीं है- 'जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥' (मानस, बाल० ८ । ५) । भगवान् और उनके प्यारे भक्त भावग्राही होते हैं। वे वस्तुओंसे राजी नहीं होते, भावसे राजी होते हैं।
||श्रीहरि:||
भक्तोंका अनजानपना भगवान्को जितना प्यारा है, उतनी पण्डिताई प्यारी नहीं है- 'जौं बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥' (मानस, बाल० ८ । ५) । भगवान् और उनके प्यारे भक्त भावग्राही होते हैं। वे वस्तुओंसे राजी नहीं होते, भावसे राजी होते हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७६··
प्रेमी भक्त वे होते हैं, जो संसारकी किसी वस्तुमें लुब्ध नहीं होते। संसारमें भी ऐसी ताकत नहीं है कि भक्तको अपनी तरफ खींच ले । जो संसारमें खिंच जाते हैं, वे भक्त नहीं होते, सन्त नहीं होते।
||श्रीहरि:||
प्रेमी भक्त वे होते हैं, जो संसारकी किसी वस्तुमें लुब्ध नहीं होते। संसारमें भी ऐसी ताकत नहीं है कि भक्तको अपनी तरफ खींच ले । जो संसारमें खिंच जाते हैं, वे भक्त नहीं होते, सन्त नहीं होते।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ २७
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ २७··
जैसे मैलसे भरा बालक माँको सुहाता नहीं और वह उसको स्नान कराके शुद्ध कर देती है, भले ही वह कितना रोये । ऐसे ही भगवान्को भक्तके पाप सुहाते नहीं । पापोंको दूर करनेके लिये वे कष्ट भेजते हैं। भगवान् वही करते हैं, जिसमें भक्तका हित हो।
||श्रीहरि:||
जैसे मैलसे भरा बालक माँको सुहाता नहीं और वह उसको स्नान कराके शुद्ध कर देती है, भले ही वह कितना रोये । ऐसे ही भगवान्को भक्तके पाप सुहाते नहीं । पापोंको दूर करनेके लिये वे कष्ट भेजते हैं। भगवान् वही करते हैं, जिसमें भक्तका हित हो।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३७··
साधारण आदमी तो दुःख आनेपर घबरा जाता है, पर भक्तकी बुद्धि दुःखमें विकसित होती है। ऐसे समय में कोई उनसे पारमार्थिक, तात्त्विक बातें पूछे तो वे बहुत विलक्षण बातें बताते हैं, जबकि दूसरा आदमी घबराहटमें बातें भूल जाता है।
||श्रीहरि:||
साधारण आदमी तो दुःख आनेपर घबरा जाता है, पर भक्तकी बुद्धि दुःखमें विकसित होती है। ऐसे समय में कोई उनसे पारमार्थिक, तात्त्विक बातें पूछे तो वे बहुत विलक्षण बातें बताते हैं, जबकि दूसरा आदमी घबराहटमें बातें भूल जाता है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३७
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३७··
भगवान्का हो जानेपर भक्त 'अच्युतगोत्र' हो जाता है, उसकी जाति नहीं रहती। अगर जातिका अभिमान है तो भगवान्का नहीं हुआ।
||श्रीहरि:||
भगवान्का हो जानेपर भक्त 'अच्युतगोत्र' हो जाता है, उसकी जाति नहीं रहती। अगर जातिका अभिमान है तो भगवान्का नहीं हुआ।- स्वातिकी बूँदें ११०
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स्वातिकी बूँदें ११०··
भगवान्के भक्त सम्पूर्ण प्राणियोंके भक्त होते हैं । जैसे, पतिव्रता स्त्री पतिके नाते सम्पूर्ण कुटुम्बको अपना मानती है, वायसराय सरकारका भी सेवक होता है, जनताका भी सेवक होता है। हमारा प्रभुके नाते सबके साथ सम्बन्ध हो, स्वतन्त्र सम्बन्ध किसीके साथ न हो।
||श्रीहरि:||
भगवान्के भक्त सम्पूर्ण प्राणियोंके भक्त होते हैं । जैसे, पतिव्रता स्त्री पतिके नाते सम्पूर्ण कुटुम्बको अपना मानती है, वायसराय सरकारका भी सेवक होता है, जनताका भी सेवक होता है। हमारा प्रभुके नाते सबके साथ सम्बन्ध हो, स्वतन्त्र सम्बन्ध किसीके साथ न हो।- स्वातिकी बूँदें १४२
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स्वातिकी बूँदें १४२··
जिसमें मान- आदरकी इच्छा है, वह शरीरका भक्त है। जिसमें बड़ाईकी इच्छा है, वह नामका भक्त है। वह भगवान्का भक्त कैसे हुआ ?
||श्रीहरि:||
जिसमें मान- आदरकी इच्छा है, वह शरीरका भक्त है। जिसमें बड़ाईकी इच्छा है, वह नामका भक्त है। वह भगवान्का भक्त कैसे हुआ ?- स्वातिकी बूँदें १५९
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स्वातिकी बूँदें १५९··
सम्पूर्ण प्राणियोंके परम सुहृद् होनेसे भगवान्का कोई वैरी नहीं है; परन्तु जो मनुष्य भक्तोंका अपराध करता है, वह भगवान्का वैरी होता है।
||श्रीहरि:||
सम्पूर्ण प्राणियोंके परम सुहृद् होनेसे भगवान्का कोई वैरी नहीं है; परन्तु जो मनुष्य भक्तोंका अपराध करता है, वह भगवान्का वैरी होता है।- साधक संजीवनी ४।८
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साधक संजीवनी ४।८··
भक्तोंका अपराध करना 'भागवत - अपराध' कहलाता है। भागवत - अपराध भगवान् भी क्षमा नहीं करते। भक्तोंका अपराध करनेवालोंकी बड़ी दुर्दशा होती है।
||श्रीहरि:||
भक्तोंका अपराध करना 'भागवत - अपराध' कहलाता है। भागवत - अपराध भगवान् भी क्षमा नहीं करते। भक्तोंका अपराध करनेवालोंकी बड़ी दुर्दशा होती है।- ज्ञानके दीप जले ३०
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ज्ञानके दीप जले ३०··
भगवान्की प्रसन्नता लेनी हो तो भक्तोंको याद करो। भगवान्के भक्तोंको याद करनेसे भगवान् राजी होते हैं। जैसे बालकको राजी करनेसे माँ राजी हो जाती है, ऐसे ही भक्तोंको राजी करनेसे भगवान् राजी हो जाते हैं । भगवान्के दरबारमें सबसे प्यारा भक्त ही है। भगवान् भक्तोंको देख- देखकर राजी होते हैं। जब भगवान्की कृपा होती है, तब भक्त मिलते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्की प्रसन्नता लेनी हो तो भक्तोंको याद करो। भगवान्के भक्तोंको याद करनेसे भगवान् राजी होते हैं। जैसे बालकको राजी करनेसे माँ राजी हो जाती है, ऐसे ही भक्तोंको राजी करनेसे भगवान् राजी हो जाते हैं । भगवान्के दरबारमें सबसे प्यारा भक्त ही है। भगवान् भक्तोंको देख- देखकर राजी होते हैं। जब भगवान्की कृपा होती है, तब भक्त मिलते हैं।- अनन्तकी ओर ४२
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अनन्तकी ओर ४२··
भगवान् कहते हैं कि भक्त ऊँचे हैं, भक्तोंकी भक्ति करो, उनकी शरणमें जाओ और भक्त कहते हैं कि भगवान्की शरणमें जाओ, पर भीतरसे दोनों एक हैं। यह ठगाईकी रीति है । भीतरसे दोनों एक हैं, पर बाहरसे दूकानें दो हैं। वह कहता है कि उस दूकानमें जाओ, वह दूकान अच्छी है और यह कहता है कि उस दूकानमें जाओ, वह दूकान अच्छी है। भीतरसे दोनों दूकानें अपनी हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान् कहते हैं कि भक्त ऊँचे हैं, भक्तोंकी भक्ति करो, उनकी शरणमें जाओ और भक्त कहते हैं कि भगवान्की शरणमें जाओ, पर भीतरसे दोनों एक हैं। यह ठगाईकी रीति है । भीतरसे दोनों एक हैं, पर बाहरसे दूकानें दो हैं। वह कहता है कि उस दूकानमें जाओ, वह दूकान अच्छी है और यह कहता है कि उस दूकानमें जाओ, वह दूकान अच्छी है। भीतरसे दोनों दूकानें अपनी हैं।- अनन्तकी ओर ७५
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अनन्तकी ओर ७५··
जैसे लोभी आदमीकी दृष्टि धनपर ही रहती है, ऐसे ही भक्तकी दृष्टि भगवान्पर ही रहनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
जैसे लोभी आदमीकी दृष्टि धनपर ही रहती है, ऐसे ही भक्तकी दृष्टि भगवान्पर ही रहनी चाहिये।- अमृत-बिन्दु ३६०
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अमृत-बिन्दु ३६०··
सभामें (दूसरोंके सामने) रोना अथवा नाचना नहीं चाहिये। भक्तिको दिखाना नहीं चाहिये, प्रत्युत पचाना चाहिये। पचा न सकें तो एकान्तमें चले जाओ, फिर भले ही नाचो।
||श्रीहरि:||
सभामें (दूसरोंके सामने) रोना अथवा नाचना नहीं चाहिये। भक्तिको दिखाना नहीं चाहिये, प्रत्युत पचाना चाहिये। पचा न सकें तो एकान्तमें चले जाओ, फिर भले ही नाचो।- स्वातिकी बूँदें १२
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स्वातिकी बूँदें १२··
भगवान्का भक्त कितनी ही नीची जातिका क्यों न हो, वह भक्तिहीन विद्वान् ब्राह्मणसे भी श्रेष्ठ है।
||श्रीहरि:||
भगवान्का भक्त कितनी ही नीची जातिका क्यों न हो, वह भक्तिहीन विद्वान् ब्राह्मणसे भी श्रेष्ठ है।- अमृत-बिन्दु ३६३
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अमृत-बिन्दु ३६३··
भगवद्भक्तको देवता कहना उसकी निन्दा है; क्योंकि उसका दर्जा देवताओंसे भी बहुत ऊँचा होता है।
||श्रीहरि:||
भगवद्भक्तको देवता कहना उसकी निन्दा है; क्योंकि उसका दर्जा देवताओंसे भी बहुत ऊँचा होता है।- अमृत-बिन्दु ३६८
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अमृत-बिन्दु ३६८··
प्रेमी भक्त भगवान् के प्रभावसे आकृष्ट नहीं होते, प्रत्युत भगवान्के अपनेपनसे आकृष्ट होते हैं।
||श्रीहरि:||
प्रेमी भक्त भगवान् के प्रभावसे आकृष्ट नहीं होते, प्रत्युत भगवान्के अपनेपनसे आकृष्ट होते हैं।- अमृत-बिन्दु ३६९
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अमृत-बिन्दु ३६९··
भगवान्के जो प्रेमी भक्त हैं, वे ही महात्मा हैं, वे ही सन्त हैं, वे ही श्रेष्ठ पुरुष हैं। जिसका भगवान् में प्रेम है, उससे श्रेष्ठ त्रिलोकीमें भी कोई नहीं है।
||श्रीहरि:||
भगवान्के जो प्रेमी भक्त हैं, वे ही महात्मा हैं, वे ही सन्त हैं, वे ही श्रेष्ठ पुरुष हैं। जिसका भगवान् में प्रेम है, उससे श्रेष्ठ त्रिलोकीमें भी कोई नहीं है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ५९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ५९··
भगवान्के भक्त नित्य रहते हैं और श्रद्धा-भक्तिके अनुसार दर्शन भी दे सकते हैं। उनके भगवान्में लीन हो जानेके बाद अगर कोई उनको याद करता है और उनके दर्शन चाहता है, तो उनका रूप धारण करके भगवान् दर्शन देते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्के भक्त नित्य रहते हैं और श्रद्धा-भक्तिके अनुसार दर्शन भी दे सकते हैं। उनके भगवान्में लीन हो जानेके बाद अगर कोई उनको याद करता है और उनके दर्शन चाहता है, तो उनका रूप धारण करके भगवान् दर्शन देते हैं।- साधक संजीवनी १० । ३०