Seeker of Truth

बन्धन

शरीरके साथ सम्बन्ध मानना ही मूल बन्धन है, मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है।

साधक संजीवनी २। ३० परि०··

शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई कितनी ही तपस्या कर ले, समाधि लगा ले, लोक-लोकान्तरों में घूम आये अथवा यज्ञ, दान आदि बड़े- बड़े पुण्यकर्म कर ले, तो भी उसका बन्धन सर्वथा नहीं मिट सकता । शरीरके सम्बन्धका त्याग होते ही बन्धन मिट जाता है और सत्य तत्त्वकी अनुभूति हो जाती है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १८··

यह जो कहते हैं कि भगवान्‌की मायाने हमें फँसा दिया, वास्तवमें देखा जाय तो भगवान्की मायाने हमें नहीं फँसाया है। भगवान्‌की मायाको हमने अपनी मान लिया- इस बेईमानीने हमें फँसाया है । जिन प्राणी- पदार्थोंको हम अपना मान लेते हैं, उनमें ही हम फँसते हैं। जिनको अपना नहीं मानते, उनमें हम नहीं फँसते।

साधन-सुधा-सिन्धु ६८०··

संसारमें असंख्य क्रियाएँ होती रहती हैं; परन्तु जिन क्रियाओंसे मनुष्य अपना सम्बन्ध जोड़ता है, उन्हींसे वह बँधता है । संसारमें कहीं भी कोई क्रिया (घटना) हो, जब मनुष्य उससे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है- उसमें राजी या नाराज होता है, तब वह उस क्रियासे बँध जाता है।

साधक संजीवनी ४ । ३२··

माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धन है। शरीरके साथ सम्बन्ध तोड़ लें तो आज ही मुक्ति है । सम्बन्ध स्वीकार करनेके कारण मरे हुए सम्बन्धी भी याद आते हैं और सम्बन्ध स्वीकार न करनेके कारण जीते हुए भगवान् भी याद नहीं आते।

सागरके मोती ५३··

व्यक्तित्व रहनेसे अर्थात् जड़, नाशवान् शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे ही अपनेमें विशेषता दीखती है। अपनेमें विशेषता देखनेसे व्यक्तित्व पुष्ट होता है। अतः जबतक अपनेमें दूसरेकी अपेक्षा विशेषता दीखती है, तबतक बन्धन है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ४१२··

मनुष्यमें जितना - जितना निष्कामभाव आता है, उतना उतना वह संसारसे ऊँचा उठता है और जितना - जितना सकामभाव आता है, उतना उतना वह संसारमें बँधता है।

मेरे तो गिरधर गोपाल २७··

जिसमें अपनी सुख-सुविधा, आराम आदिकी इच्छा होती है, वह कर्म असत्, अशुभ हो जाता है और बन्धनका कारण बन जाता है।

सन्त समागम २०··

संसारकी सत्ता नहीं बाँधती, इसकी महत्ता स्वार्थबुद्धि, लेनेकी इच्छा ही बाँधनेवाली है।

सत्संगके फूल १३६··

ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये - इस कामनासे ही बन्धन होता है।

साधक संजीवनी ३। १३··

अपने सुखके लिये किया गया कर्म तो बन्धनकारक है ही, अपने व्यक्तिगत हितके लिये किया गया कर्म भी बन्धनकारक है। केवल अपने हितकी तरफ दृष्टि रखनेसे व्यक्तित्व बना रहता है ।

साधक संजीवनी ३ । ९··

बन्धन भावसे होता है, क्रियासे नहीं। मनुष्य कर्मोंसे नहीं बँधता, प्रत्युत कर्मोंमें वह जो आसक्ति और स्वार्थभाव रखता है, उनसे ही वह बँधता है।

साधक संजीवनी ३ । ९··

अपने लिये कुछ-न-कुछ पानेकी इच्छासे ही मनुष्य बँधता है।

साधक संजीवनी ३ । १७··

शास्त्रीय दृष्टिसे तो इस बन्धनका मुख्य कारण 'अज्ञान' है, पर साधककी दृष्टिसे 'राग' ही मुख्य कारण है।

साधक संजीवनी ३ । २८··

संसारमात्र परमात्माका है; परन्तु जीव भूलसे परमात्माकी वस्तुको अपनी मान लेता है और इसीलिये बन्धनमें पड़ जाता है।

साधक संजीवनी ३।३०··

तादात्म्य - अहंता ( अपनेको शरीर मानना ), ममता ( शरीरादि पदार्थोंको अपना मानना) और कामना ( अमुक वस्तु मिल जाय - ऐसा भाव ) - इन तीनोंसे ही जीव संसारमें बँधता है।

साधक संजीवनी ३ | ३७ वि०··

विनाशी पदार्थोंकी कामना ही बन्धनका कारण है – 'गतागतं कामकामा लभन्ते' ( गीता ९ । २१) । अतः मनमें कामना-वासना रखकर परिश्रमपूर्वक बड़े-बड़े यज्ञ करनेपर भी जन्म-मरणका बन्धन बना रहता है।

साधक संजीवनी ४।२९ ३०··

वास्तवमें मूल प्रकृति कभी किसीकी बाधक या साधक ( सहायक ) नहीं होती। जब साधक उससे अपना सम्बन्ध नहीं मानता, तब तो वह सहायक हो जाती है, पर जब वह उससे अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह बाधक हो जाती है; क्योंकि प्रकृतिके साथ सम्बन्ध माननेसे व्यष्टि अहंता (मैं - पन) पैदा होती है। यह अहंता ही बन्धनका कारण होती है।

साधक संजीवनी ७ । ४-५··

जीव संसारसे नहीं, प्रत्युत संसारसे माने हुए सम्बन्धसे ही बँधता है।...... संसारसे माना हुआ सम्बन्ध सुखासक्तिपर ही टिका हुआ है।

साधक संजीवनी ७ । ४-५··

वस्तुका मिलना अथवा न मिलना बन्धनकारक नहीं है, प्रत्युत वस्तुसे माना हुआ सम्बन्ध ही बन्धनकारक है।

अमृत-बिन्दु ३३४··

जीवने संसारकी सत्ता मान ली और सत्ता मानकर उसको महत्ता दे दी। महत्ता देनेसे कामना अर्थात् सुखभोगकी इच्छा पैदा हुई, जिससे जीव जन्म-मरणमें पड़ गया। तात्पर्य यह हुआ कि एक भगवान् के सिवाय दूसरी सत्ता माननेसे ही जीव संसार- बन्धनमें पड़ा है।

साधक संजीवनी ७।४- ५ परि०··

जैसे अशुभ कर्म बन्धनकारक हैं, ऐसे ही शुभ कर्म भी बन्धनकारक हैं । जैसे, बेड़ी लोहेकी हो चाहे सानेकी, पर बन्धन दोनोंसे ही होता है। शुभ कर्म भी जन्मारम्भक होनेसे बन्धनकारक होता है और अशुभ कर्म तो जबर्दस्ती बाँधनेवाला होता ही है।

साधक संजीवनी ९ । २८ टि०··

जिसने प्रकृतिसे अपना सम्बन्ध जोड़ा हुआ है, वह शुभ कर्म करके ब्रह्मलोकतक भी चला जाय तो भी वह बन्धनमें ही रहेगा।

साधक संजीवनी १६ । ५··

यह नियम है कि जहाँसे बन्धन होता है, वहींसे छुटकारा होता है; जैसे- रस्सीकी गाँठ जहाँ लगी है, वहींसे वह खुलती है। मनुष्ययोनिमें ही जीव शुभाशुभ कर्मोंसे बँधता है; अतः मनुष्ययोनिमें ही वह मुक्त हो सकता है।

साधक संजीवनी १५ । २··

आज आपको रुपये और भोग अच्छे लगते हैं, बस, यही बन्धनका कारण है। जबतक ये अच्छे लगते रहेंगे, तबतक छूटोगे नहीं। जब ये अच्छे लगने बन्द हो जायँगे, पट प्राप्ति हो जायगी । हम इसलिये फँसे हैं कि हम रुपये और भोग चाहते हैं, मान-बड़ाई चाहते हैं, सत्कार चाहते हैं। यह चाहना छोड़ दें तो सब ठीक हो जायगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४··

जिसके साथ आपने सम्बन्ध जोड़ा है, वही आपको बाँधेगा। इसके सिवाय और कोई आपको बाँधनेवाला, आपका अनिष्ट करनेवाला है ही नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११५··

वास्तवमें हमारे बन्धनका कारण हम ही हैं, दूसरा कोई कारण नहीं है। बन्धन है, मुक्ति कठिन है - यह खुदकी मान्यता ही बाधा दे रही है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४७··

बन्धनके जितने भी कारण हैं, सब-के-सब नाशवान् हैं। फिर बन्धन नित्य कैसे रहेगा?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४७··

बन्धन मन, बुद्धि आदिमें नहीं है, प्रत्युत स्वयंमें है । काम स्वयंमें रहता है - ' रसवर्जं रसोऽप्यस्य' ( गीता २ । ५९ ) । कामनाके अनुसार पदार्थ मिलता है तो खुशी किसको होती है ? स्वयंको खुशी होती है या मन-बुद्धिको होती है ? खुशी स्वयंको होती है। जहाँ खुशी होती है, वहीं बन्धन है और वहीं मुक्ति है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८७··

मनुष्यके बन्धनका खास कारण है- भोग भोगनेकी रुचि और संग्रह करनेकी रुचि । इनके रहते कल्याण नहीं हो सकता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४०··

जबतक मनुष्य मिलने तथा बिछुड़नेवाली वस्तुओंको अपनी और अपने लिये मानता है, तबतक वह बन्धनमें है, पराधीन है।

अनन्तकी ओर १३८··

जबतक मनुष्यके भीतर स्वार्थ और अभिमान है, सुखभोगकी इच्छा है, तबतक वह शुभ कर्म (पुण्य) करे तो भी बँधेगा, अशुभ कर्म (पाप) करे तो भी बँधेगा। शुभ कर्मसे वह स्वर्गादिमें जायगा, अशुभ कर्मसे नरकादिमें जायगा, कर्मोंसे छुटकारा नहीं होगा।

अनन्तकी ओर १४९··

मेरा कुछ है और मेरेको कुछ चाहिये – इन दो बातोंसे बन्धन है।

अनन्तकी ओर १७१··

संसारकी चीज संसारको दे दे और परमात्माकी चीज परमात्माको दे दे - यह ईमानदारी है। इस ईमानदारीका नाम ही 'मुक्ति' है। जिसकी चीज है, उसको न दे; संसारकी चीज भी ले ले और परमात्माकी चीज भी ले ले - यह बेईमानी है। इस बेईमानीका नाम ही 'बन्धन' है।

साधक संजीवनी १५ । ७ वि०··

भगवान्‌की बनायी हुई सृष्टि कभी बाँधती नहीं, दुःख नहीं देती। जीवकी बनायी हुई सृष्टि ( अहंता- - ममता ) ही बाँधती और दुःख देती है।

अमृत-बिन्दु ३३२··

जीवका बन्धन भगवान्‌की कृपासे ही छूट सकता है। इसके लिये भगवान्से बार-बार प्रार्थना करो कि 'हे नाथ। मैं आपको भूलूँ नहीं'। भगवान्‌को भूलें नहीं तो फिर बन्धन होगा ही नहीं।

अनन्तकी ओर १६५··