बल (सामर्थ्य)
अगर हमारेमें प्राणोंका मोह न रहे, जीनेकी इच्छा और मरनेका भय न रहे तो कोई बलवान् व्यक्ति हमारेपर अत्याचार नहीं कर सकेगा। यह सिद्धान्त है कि भौतिक बल कभी भी आध्यात्मिक बलपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता।
एक मार्मिक बात है कि मनुष्यको जिस वस्तुकी आवश्यकता है, उसको प्राप्त करनेकी सामर्थ्य उसमें विद्यमान है।
जिसके भीतर नाशवान् धन-सम्पत्ति आदिका आश्रय है, आदर है और जिसके भीतर अधर्म है, अन्याय है, दुर्भाव है, उसके भीतर वास्तविक बल नहीं होता। वह भीतरसे खोखला होता है और वह कभी निर्भय नहीं होता । परन्तु जिसके भीतर अपने धर्मका पालन है और भगवान्का आश्रय हैं, वह कभी भयभीत नहीं होता । उसका बल सच्चा होता है।
जिसकी दृष्टि भगवान्पर होती है, उसका हृदय बलवान् होता है; क्योंकि भगवान्का बल सच्चा है । परन्तु जिसकी दृष्टि सांसारिक वैभवपर होती हैं, उसका हृदय कमजोर होता है; क्योंकि संसारका बल कच्चा है।
करनेकी, जाननेकी, समझनेकी, अनेक आविष्कारोंकी, विज्ञानकी, जितनी भी शक्तियाँ हैं, वे सब- की - सब शक्तियाँ निष्क्रिय-तत्त्वमें हैं और उसीसे पैदा होती हैं।
जो स्थिर परमात्मतत्त्व है, उसीसे अपार सामर्थ्य आती है। कारण कि वह निर्विकार परमात्मतत्त्व महान् सामर्थ्यशाली है। उसके समान सामर्थ्य किसीमें हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। मनुष्यमें आंशिकरूपसे वह सामर्थ्य निष्काम होनेसे आती है। कारण कि कामना होनेसे शक्तिका क्षय होता है और निष्काम होनेसे शक्तिका संचय होता है।
प्रकृतिके सम्बन्धसे शक्ति क्षीण होती है और उससे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर महान् शक्ति आ जाती है।
स्वयं' (स्वरूप) - में अनन्त बल है। उसकी सत्ता और बलको पाकर ही बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ सत्तावान् एवं बलवान् होते हैं। परन्तु जड़से सम्बन्ध जोड़नेके कारण वह अपने बलको भूल रहा है और अपनेको बुद्धि, मन और इन्द्रियोंके अधीन मान रहा है।
अपनी सामर्थ्य, समय, समझ और सामग्री पूरी लगा दो । पूरा बल लगानेपर भी काम न बने, तब भगवान् सहायता करेंगे।...... भगवान् निर्बलकी सहायता करते हैं- 'सुने री मैंने निरबल के बल राम'। अपनी शक्ति लगाये बिना भगवान् कैसे दया करेंगे?