मनुष्यमात्रको 'मैं हूँ' - इस रूपमें अपनी एक सत्ताका अनुभव होता है। इस सत्तामें अहम् (‘मैं') मिला हुआ होनेसे ही 'हूँ' के रूपमें अपनी एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है। यदि अहम् न रहे तो 'है' के रूपमें सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी। वह सर्वदेशीय सत्ता ही मनुष्यका वास्तविक स्वरूप है। उस सत्तामें अहम् (जड़ता) नहीं है। जब मनुष्य अहम्को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता ( ' है ' ) - को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यमात्रको 'मैं हूँ' - इस रूपमें अपनी एक सत्ताका अनुभव होता है। इस सत्तामें अहम् (‘मैं') मिला हुआ होनेसे ही 'हूँ' के रूपमें अपनी एकदेशीय सत्ता अनुभवमें आती है। यदि अहम् न रहे तो 'है' के रूपमें सर्वदेशीय सत्ता ही अनुभवमें आयेगी। वह सर्वदेशीय सत्ता ही मनुष्यका वास्तविक स्वरूप है। उस सत्तामें अहम् (जड़ता) नहीं है। जब मनुष्य अहम्को स्वीकार करता है, तब वह बँध जाता है और जब सत्ता ( ' है ' ) - को स्वीकार करता है, तब वह मुक्त हो जाता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३२
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३२··
अहंकार दो प्रकारका है। एक अहंकार प्रकृतिका है, जिसको 'धातुरूप अहंकार' कहते हैं, और एक अहंकार जड़-चेतनकी ग्रन्थि है, जिसको तादात्म्यरूप अहंकार' कहते हैं । मुक्ति होनेपर तादात्म्यरूप अहंकार ही मिटता है, धातुरूप अहंकार नहीं मिटता। इसलिये मुक्त पुरुषके मन- बुद्धि- अहंकार नहीं मिटते । तत्त्वज्ञान होनेपर शरीर नहीं मिटता, प्रत्युत शरीरमें जो मैं पन है, वह मिटता है। वह मैं पन ही बन्धन है। इस मैं-पनमें ही राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकार रहते हैं।
||श्रीहरि:||
अहंकार दो प्रकारका है। एक अहंकार प्रकृतिका है, जिसको 'धातुरूप अहंकार' कहते हैं, और एक अहंकार जड़-चेतनकी ग्रन्थि है, जिसको तादात्म्यरूप अहंकार' कहते हैं । मुक्ति होनेपर तादात्म्यरूप अहंकार ही मिटता है, धातुरूप अहंकार नहीं मिटता। इसलिये मुक्त पुरुषके मन- बुद्धि- अहंकार नहीं मिटते । तत्त्वज्ञान होनेपर शरीर नहीं मिटता, प्रत्युत शरीरमें जो मैं पन है, वह मिटता है। वह मैं पन ही बन्धन है। इस मैं-पनमें ही राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकार रहते हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ २२
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ २२··
मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये- इन दो बातोंकी सिद्धि होते ही 'मैं' सत्तामात्रमें अर्थात् 'है' में विलीन हो जाता है।
||श्रीहरि:||
मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये- इन दो बातोंकी सिद्धि होते ही 'मैं' सत्तामात्रमें अर्थात् 'है' में विलीन हो जाता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १०९
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १०९··
देहान्तरकी प्राप्ति होनेपर अहंता तो बदल जाती है, पर हमारी सत्ता नहीं बदलती।
||श्रीहरि:||
देहान्तरकी प्राप्ति होनेपर अहंता तो बदल जाती है, पर हमारी सत्ता नहीं बदलती।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १४९
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १४९··
संयोगजन्य सुखकी इच्छाके कारण ही अहंता मिटनी कठिन दीखती है। जीते रहें और सुख- सुविधासे रहें - इसपर अहंता टिकी हुई है।
||श्रीहरि:||
संयोगजन्य सुखकी इच्छाके कारण ही अहंता मिटनी कठिन दीखती है। जीते रहें और सुख- सुविधासे रहें - इसपर अहंता टिकी हुई है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला १३
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प्रश्नोत्तरमणिमाला १३··
अहंकाररहित होनेपर कोई कर्म लागू नहीं होता - 'यस्य नाहङ्कृतो भावो०' (गीता १८ । १७) । अहंकारके रहते हुए शुभ कर्म भी बन्धनकारक होता है ।
||श्रीहरि:||
अहंकाररहित होनेपर कोई कर्म लागू नहीं होता - 'यस्य नाहङ्कृतो भावो०' (गीता १८ । १७) । अहंकारके रहते हुए शुभ कर्म भी बन्धनकारक होता है ।- सन्त समागम ८
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सन्त समागम ८··
कर्मयोगमें अहंकार शुद्ध होता है, ज्ञानयोगमें अहंकार मिटता है और भक्तियोगमें अहंकार बदलता है— तीनोंका परिणाम एक ही होगा कि अहंकार नहीं रहेगा।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें अहंकार शुद्ध होता है, ज्ञानयोगमें अहंकार मिटता है और भक्तियोगमें अहंकार बदलता है— तीनोंका परिणाम एक ही होगा कि अहंकार नहीं रहेगा।- सन्त समागम ९
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सन्त समागम ९··
पूरा संसार एक 'अहंता' (मैंपन ) में भरा हुआ है। अहंता बदलनेसे संसार बदल जाता है।
||श्रीहरि:||
पूरा संसार एक 'अहंता' (मैंपन ) में भरा हुआ है। अहंता बदलनेसे संसार बदल जाता है।- सत्संगके फूल १२०
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सत्संगके फूल १२०··
जबतक अहम् है, तबतक साधक साधन-साध्यका भेद रहता है। अहम् न रहनेपर साधक साधन होकर साध्यमें लीन हो जाता है।
||श्रीहरि:||
जबतक अहम् है, तबतक साधक साधन-साध्यका भेद रहता है। अहम् न रहनेपर साधक साधन होकर साध्यमें लीन हो जाता है।- सत्संगके फूल ६७
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सत्संगके फूल ६७··
अगर आप अहम्पर विजय पा लें तो आप जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, प्रेमी, योगी सब हो जायँगे।
||श्रीहरि:||
अगर आप अहम्पर विजय पा लें तो आप जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, प्रेमी, योगी सब हो जायँगे।- सत्संगके फूल १०१
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सत्संगके फूल १०१··
मैं' जड़ है और 'हूँ' चिन्मय सत्ता है। 'मैं' और 'हूँ' – दोनोंका एक हो जाना, घुल-मिल जाना तादात्म्य ( चिज्जड़ग्रन्थि) है।
||श्रीहरि:||
मैं' जड़ है और 'हूँ' चिन्मय सत्ता है। 'मैं' और 'हूँ' – दोनोंका एक हो जाना, घुल-मिल जाना तादात्म्य ( चिज्जड़ग्रन्थि) है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १४५
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १४५··
जीनेकी इच्छा न 'मैं' में है और न 'हूँ' में है, प्रत्युत 'मैं हूँ' – इस तादात्म्यमें है।
||श्रीहरि:||
जीनेकी इच्छा न 'मैं' में है और न 'हूँ' में है, प्रत्युत 'मैं हूँ' – इस तादात्म्यमें है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १४६
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १४६··
संसार 'मैं' से शुरू होता है। 'मैं' से विमुख होते ही तत्त्व प्राप्त हो जाता है।
||श्रीहरि:||
संसार 'मैं' से शुरू होता है। 'मैं' से विमुख होते ही तत्त्व प्राप्त हो जाता है।- सागरके मोती १०४
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सागरके मोती १०४··
हमारी सृष्टि अहम्से ही रची हुई है। अहम् (मैं) मिट जायगा तो हमारे लिये संसार मिट जायगा । जबतक अहंकार है, तबतक संसार है। अहंकारके कारण ही मनुष्य अपनेको एकदेशीय देखता है, अन्यथा वह सर्वव्यापी है- 'नित्यः सर्वगतः ' ( गीता २ । २४) ।
||श्रीहरि:||
हमारी सृष्टि अहम्से ही रची हुई है। अहम् (मैं) मिट जायगा तो हमारे लिये संसार मिट जायगा । जबतक अहंकार है, तबतक संसार है। अहंकारके कारण ही मनुष्य अपनेको एकदेशीय देखता है, अन्यथा वह सर्वव्यापी है- 'नित्यः सर्वगतः ' ( गीता २ । २४) ।- सागरके मोती १३२
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सागरके मोती १३२··
जबतक साधकमें अहम् है, तबतक वह भोगी है। मैं योगी हूँ- यह योगका भोग है, मैं ज्ञानी हूँ – यह ज्ञानका भोग है, मैं प्रेमी हूँ-यह प्रेमका भोग है। जबतक साधकमें भोग रहता है, तबतक उसके पतनकी सम्भावना रहती है।
||श्रीहरि:||
जबतक साधकमें अहम् है, तबतक वह भोगी है। मैं योगी हूँ- यह योगका भोग है, मैं ज्ञानी हूँ – यह ज्ञानका भोग है, मैं प्रेमी हूँ-यह प्रेमका भोग है। जबतक साधकमें भोग रहता है, तबतक उसके पतनकी सम्भावना रहती है।- साधक संजीवनी ७।१९ परि.
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साधक संजीवनी ७।१९ परि.··
मैं' कुछ नहीं है। 'मैं' केवल मान्यता है। 'मैं' का न भास होता है, न बोध होता है, न साक्षात्कार होता है। तत्त्वका, योगका, प्रेमका बोध होता है । संसारकी प्रतीति होती है । परन्तु 'मैं' का न बोध होता है, न प्रतीति होती है।
||श्रीहरि:||
मैं' कुछ नहीं है। 'मैं' केवल मान्यता है। 'मैं' का न भास होता है, न बोध होता है, न साक्षात्कार होता है। तत्त्वका, योगका, प्रेमका बोध होता है । संसारकी प्रतीति होती है । परन्तु 'मैं' का न बोध होता है, न प्रतीति होती है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८८··
अहम् मिटनेपर अपनी सत्ताका अनुभव तो होता है, पर 'मैं जानकार हूँ' - ऐसा नहीं होता; क्योंकि जहाँ 'मैं' होता है, वहाँ 'जानकार' नहीं होता और जहाँ 'जानकार' होता है, वहाँ 'मैं' नहीं होता । जानना व्यक्तिगत नहीं होता । व्यक्तिगत जानना पण्डिताई होती है। अहम् (मँपन ) के साथ जो जानना होता है, उसमें अभिमान होता है; परन्तु अहम्के बिना जो जानना होता है, उसमें अभिमान नहीं होता।
||श्रीहरि:||
अहम् मिटनेपर अपनी सत्ताका अनुभव तो होता है, पर 'मैं जानकार हूँ' - ऐसा नहीं होता; क्योंकि जहाँ 'मैं' होता है, वहाँ 'जानकार' नहीं होता और जहाँ 'जानकार' होता है, वहाँ 'मैं' नहीं होता । जानना व्यक्तिगत नहीं होता । व्यक्तिगत जानना पण्डिताई होती है। अहम् (मँपन ) के साथ जो जानना होता है, उसमें अभिमान होता है; परन्तु अहम्के बिना जो जानना होता है, उसमें अभिमान नहीं होता।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३२··
बड़ी सीधी-सरल बात है- 'मैं हूँ'। दोष 'मैं' में आता है, 'हूँ' में नहीं आता। आप 'मैं' नहीं हो, प्रत्युत 'हूँ' हो । 'मैं' मिट जायगा। दो स्वरूप हैं- अहंकार सहित और अहंकार रहित । अहंकार- रहित स्वरूप मेरा है- 'निर्ममो निरहङ्कारः ' । अहंकार - सहित स्वरूप मेरा नहीं है। जिसमें दोष आता है, वह मैं नहीं हूँ। उसके आते ही देख लो कि यह अहंकारमें आया है, मेरेमें नहीं आया है। कितनी सुगम बात है । 'आज' और 'अभी' अनुभव हो जाय।
||श्रीहरि:||
बड़ी सीधी-सरल बात है- 'मैं हूँ'। दोष 'मैं' में आता है, 'हूँ' में नहीं आता। आप 'मैं' नहीं हो, प्रत्युत 'हूँ' हो । 'मैं' मिट जायगा। दो स्वरूप हैं- अहंकार सहित और अहंकार रहित । अहंकार- रहित स्वरूप मेरा है- 'निर्ममो निरहङ्कारः ' । अहंकार - सहित स्वरूप मेरा नहीं है। जिसमें दोष आता है, वह मैं नहीं हूँ। उसके आते ही देख लो कि यह अहंकारमें आया है, मेरेमें नहीं आया है। कितनी सुगम बात है । 'आज' और 'अभी' अनुभव हो जाय।- अनन्तकी ओर १८८
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अनन्तकी ओर १८८··
अहंकाररहित होनेपर जीवन भगवान् रामकी तरह आदर्श हो जायगा ।
||श्रीहरि:||
अहंकाररहित होनेपर जीवन भगवान् रामकी तरह आदर्श हो जायगा ।- स्वातिकी बूँदें १२४
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स्वातिकी बूँदें १२४··
अहम् है कि नहीं है, यह चिन्तन मत करो। कुछ भी चिन्तन करोगे तो अहम् आयेगा ही । अहम् है कि नहीं - यह परीक्षा बिना अहम्के कौन करेगा ?
||श्रीहरि:||
अहम् है कि नहीं है, यह चिन्तन मत करो। कुछ भी चिन्तन करोगे तो अहम् आयेगा ही । अहम् है कि नहीं - यह परीक्षा बिना अहम्के कौन करेगा ?- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२३··
जगत्, जीव और परमात्मा - ये तीनों एक ही हैं, पर अहंताके कारण ये तीन दीखते हैं।
||श्रीहरि:||
जगत्, जीव और परमात्मा - ये तीनों एक ही हैं, पर अहंताके कारण ये तीन दीखते हैं।- अमृत-बिन्दु २५
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अमृत-बिन्दु २५··
जब चेतन जड़से 'तादात्म्य' कर लेता है, तब परिच्छिन्नता अर्थात् अहंता उत्पन्न होती है । अहंतासे 'ममता' उत्पन्न होती है, जिससे विकार पैदा होते हैं। ममतासे 'कामना' उत्पन्न होती है, जिससे अशान्ति पैदा होती है।
||श्रीहरि:||
जब चेतन जड़से 'तादात्म्य' कर लेता है, तब परिच्छिन्नता अर्थात् अहंता उत्पन्न होती है । अहंतासे 'ममता' उत्पन्न होती है, जिससे विकार पैदा होते हैं। ममतासे 'कामना' उत्पन्न होती है, जिससे अशान्ति पैदा होती है।- अमृत-बिन्दु ९०४
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अमृत-बिन्दु ९०४··
प्रेमकी जागृतिके बिना अहम्का सर्वथा नाश नहीं होता।
||श्रीहरि:||
प्रेमकी जागृतिके बिना अहम्का सर्वथा नाश नहीं होता।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ५१··
‘अहं ब्रह्मास्मि' में 'अहम्' बड़ी घातक चीज है। 'अहम्' से ही भेद पैदा होता है। जहाँ अहम्है , वहाँ ब्रह्म नहीं है। जहाँ ब्रह्म है, वहाँ अहम् नहीं है।
||श्रीहरि:||
‘अहं ब्रह्मास्मि' में 'अहम्' बड़ी घातक चीज है। 'अहम्' से ही भेद पैदा होता है। जहाँ अहम्है , वहाँ ब्रह्म नहीं है। जहाँ ब्रह्म है, वहाँ अहम् नहीं है।- ज्ञानके दीप जले २२३
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ज्ञानके दीप जले २२३··
‘मैं ब्रह्म हूँ’–यह अनुभव नहीं है, प्रत्युत अहंग्रह उपासना है । तत्त्वज्ञानीको भी 'मैं ब्रह्म हूँ'- यह अनुभव नहीं होता। किसीको भी ऐसा अनुभव नहीं होता।
||श्रीहरि:||
‘मैं ब्रह्म हूँ’–यह अनुभव नहीं है, प्रत्युत अहंग्रह उपासना है । तत्त्वज्ञानीको भी 'मैं ब्रह्म हूँ'- यह अनुभव नहीं होता। किसीको भी ऐसा अनुभव नहीं होता।- स्वातिकी बूँदें १८
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स्वातिकी बूँदें १८··
‘मैं ब्रह्म हूँ’– यह सीखी हुई बात है। ब्रह्माकी उम्र बीत जाय तो भी 'मैं ब्रह्म हूँ' - यह अनुभव नहीं होगा। जब कभी अनुभव होगा, यही होगा कि मैं नहीं हूँ, ब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ' – यह उपासना है। ज्ञानके आठ अंतरंग साधनोंके बिना यह उपासना सिद्ध नहीं होती।
||श्रीहरि:||
‘मैं ब्रह्म हूँ’– यह सीखी हुई बात है। ब्रह्माकी उम्र बीत जाय तो भी 'मैं ब्रह्म हूँ' - यह अनुभव नहीं होगा। जब कभी अनुभव होगा, यही होगा कि मैं नहीं हूँ, ब्रह्म है। 'मैं ब्रह्म हूँ' – यह उपासना है। ज्ञानके आठ अंतरंग साधनोंके बिना यह उपासना सिद्ध नहीं होती।- ज्ञानके दीप जले १००
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ज्ञानके दीप जले १००··
मैं बन्धनमें हूँ' – इसमें जो 'मैं' हैं, वही 'मैं मुक्त हूँ' अथवा 'मैं ब्रह्म हूँ' – इसमें भी है । इस 'मैं' (अहम् ) का मिटना ही वास्तवमें मुक्ति है।
||श्रीहरि:||
मैं बन्धनमें हूँ' – इसमें जो 'मैं' हैं, वही 'मैं मुक्त हूँ' अथवा 'मैं ब्रह्म हूँ' – इसमें भी है । इस 'मैं' (अहम् ) का मिटना ही वास्तवमें मुक्ति है।- अमृत-बिन्दु २४