Seeker of Truth

अभिमान

जहाँ अपूर्णता (कमी) होती है, वहीं अभिमान पैदा होता है। परन्तु जहाँ पूर्णता है, वहाँ अभिमानका प्रश्न ही पैदा नहीं होता।

साधक संजीवनी ५। ३ मा०··

मैं सेवा करता हूँ अथवा मैं त्याग करता हूँ- ऐसा अभिमान करना भूल है। जब संसारमें मेरी कोई वस्तु है ही नहीं तो त्याग क्या हुआ ? और जिसकी वस्तु थी, वह उसको दे दी तो सेवा क्या हुई ?

मानवमात्रके कल्याणके लिये ३९··

अपनेमें विशेषता चाहे भजन- ध्यानसे दीखे, चाहे कीर्तनसे दीखे, चाहे जपसे दीखे, चाहे चतुराईसे दीखे, चाहे उपकार (परहित) करनेसे दीखे, किसी भी तरहसे दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता दीखती है तो यह अभिमान है।

मेरे तो गिरधर गोपाल ४९··

मैं हूँ — इस प्रकार जो अपना होनापन ( अहंभाव ) है, वह उतना दोषी नहीं है, जितना अभिमान दोषी है।

मेरे तो गिरधर गोपाल ४९··

यदि भीतरसे बुरा भाव दूर न हुआ हो और बाहरसे भलाई करें तो इससे अभिमान पैदा होगा, जो आसुरी सम्पत्तिका मूल है। भलाई करनेका अभिमान तभी पैदा होता है, जब भीतर कुछ- न कुछ बुराई हो।

साधक संजीवनी ५। ३ मा०··

दैवी सम्पत्तिका अभिमान दैवी नहीं है, प्रत्युत आसुरी है।

स्वातिकी बूँदें १७७··

बुराईको तो हम बुराईरूपसे जानते ही हैं, पर भलाईको बुराईरूपसे नहीं जानते। इसलिये भलाई अभिमानका त्याग करना बहुत कठिन है; जैसे-लोहेकी हथकड़ीका तो त्याग कर सकते हैं, पर सोनेकी हथकड़ीका त्याग नहीं कर सकते; क्योंकि वह गहनारूपसे दीखती है।

साधक संजीवनी ५।३ मा०··

गुणोंका अभिमान होनेसे दुर्गुण अपने आप आ जाते हैं। अपनेमें किसी गुणके आनेपर अभिमानरूप दुर्गुण उत्पन्न हो जाय तो उस गुणको गुण कैसे माना जा सकता है ?... अभिमानसे दुर्गुणों की वृद्धि होती है; क्योंकि सभी दुर्गुण-दुराचार अभिमानके ही आश्रित रहते हैं।

साधक संजीवनी १२।१५··

अपने में श्रेष्ठताकी भावनासे ही अभिमान पैदा होता है। अभिमान तभी होता है, जब मनुष्य दूसरोंकी तरफ देखकर यह सोचता है कि वे मेरी अपेक्षा तुच्छ हैं।....... अभिमानरूप दोषको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह दूसरोंकी कमीकी तरफ कभी न देखे, प्रत्युत अपनी कमियोंको देखकर उनको दूर करे।

साधक संजीवनी १३।८··

जितने भी दुर्गुण-दुराचार हैं, सब-के-सब अभिमानकी छायामें रहते हैं और अभिमानसे ही पुष्ट होते हैं।

साधक संजीवनी १६।५ मा०··

दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता देखनेसे 'अभिमान' होता है और अपने कर्तव्यको देखनेसे 'स्वाभिमान' होता है कि मैं साधन- विरुद्ध काम कैसे कर सकता हूँ। 'अभिमान' होनेपर तो मनुष्य साधन- विरुद्ध काम कर बैठेगा, पर 'स्वाभिमान' होनेपर उसको साधन विरुद्ध काम करनेमें लज्जा होगी।

साधक संजीवनी १७ । ३ परि०··

कर्म' में वर्णकी मुख्यता है और 'भाव' में दैवी अथवा आसुरी सम्पत्तिकी मुख्यता है । ....... अगर ब्राह्मणमें भी अभिमान हो तो वह आसुरी सम्पत्तिवाला हो जायगा अर्थात् उसका पतन हो जायगा ।

साधक संजीवनी १८ ।४५ परि०··

जैसे बीमारी छूटनेसे नीरोगता स्वतः आती है, ऐसे ही अवगुण छूटनेसे गुण स्वतः आते हैं। गुणोंको लानेसे उनका अभिमान आयेगा, पर अवगुणोंको छोड़नेसे सद्गुण स्वाभाविक आयेंगे, पर उनका अभिमान नहीं आयेगा । अभिमानकी छायामें सभी अवगुण रहते हैं। दैवी सम्पत्तिके अभिमानसे आसुरी सम्पत्ति पैदा होती है और आसुरी सम्पत्तिके त्यागसे दैवी सम्पत्ति पुष्ट होती है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९४··

मैं कुछ हूँ' – इसमें सब तरहकी आफत है। तरह-तरहके अवगुण आ जायँगे ।

अनन्तकी ओर १२५··

आप अपनी अच्छाईका जितना अभिमान करोगे, उतनी ही बुराई पैदा होगी। इसलिये अच्छे बनो, पर अच्छाईका अभिमान मत करो।

अमृत-बिन्दु १०··

अभिमानी आदमीसे सेवा तो कम होती है, पर उसको पता लगता है कि मैंने ज्यादा सेवा की। परन्तु निरभिमानी आदमीको पता तो कम लगता है, पर सेवा ज्यादा होती है।

अमृत-बिन्दु १६··

हम भगवान्‌के हैं, भगवान् हमारे हैं'–ऐसा माननेसे अभिमान बहुत जल्दी दूर होता है। भगवान्‌का होते ही स्वतः - स्वाभाविक नम्रता आ जाती है। जहाँ भगवान्‌की विशेषता दीखती है, वहाँ अपनी विशेषता नहीं दीखती । जहाँ अपनी विशेषता दीखती है, वहाँ भगवान्‌की विशेषता नहीं दीखती । मनुष्य भगवान् के सम्बन्धसे बड़ा होता है। हमारेमें जिस विशेषताको देखकर लोग हमारा आदर करते हैं, वह विशेषता भगवान्‌की है, हमारी नहीं है।

अनन्तकी ओर १३२··

यदि भगवान्‌का आश्रय न लिया जाय तो अभिमान पिण्ड नहीं छोड़ेगा।

सत्संगके फूल ५७··