Seeker of Truth

'है' (चिन्मय सत्तामात्र)

जो संसारकी उत्पत्तिके पहले भी रहता है, संसारकी ( उत्पन्न होकर होनेवाली) स्थितिमें भी रहता है और संसारके नष्ट होनेके बाद भी रहता है, वह तत्त्व 'है' नामसे कहा जाता है।

साधक संजीवनी ४।३९ वि०··

एक 'है' (सत्तामात्र) - के सिवाय और कुछ नहीं है - ऐसा जाननेसे मुक्ति हो जाती है और वह 'है' अपना है-ऐसा माननेसे भक्ति हो जाती है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ११२··

एकमें ही अनेकता है अर्थात् 'है' में ही अनेकता है। 'है' के सिवाय किसीकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। 'है' में सब एक हैं। 'है' में अनेकताका निषेध नहीं है, प्रत्युत अन्य सत्ताका निषेध है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला २९८··

साधक 'है' (परमात्मतत्त्व ) - को स्वीकार करे अथवा न करे, पर अन्तमें प्राप्ति 'है' की ही होती है। जैसे, कोई कितना ही कूदे - फाँदे या नाचे, पर अन्तमें वह जमीनपर ही टिकेगा।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ४८··

है ' - रूपसे सब जगह परमात्मा ही है। अगर परमात्मा न हो तो संसार दीखे ही नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३८··

उस तत्त्वको 'है' कहते हैं। वास्तवमें वह 'नहीं' की अपेक्षासे 'है' नहीं है, प्रत्युत निरपेक्ष है। अगर हम 'नहीं' की सत्ता मानें तो फिर उसको 'नहीं' कहना बनता ही नहीं; क्योंकि 'नहीं' और सत्तामें परस्परविरोध है अर्थात् जो 'नहीं' है, उसकी सत्ता कैसे और जिसकी सत्ता है, वह 'नहीं' कैसे ? वास्तवमें 'नहीं' की सत्ता ही नहीं है । परन्तु जब भूलसे 'नहीं' की सत्ता मान लेते हैं, तब उस भूलको मिटानेके लिये 'यह नहीं है, तत्त्व है' ऐसा कहते हैं। जब 'नहीं' की सत्ता ही नहीं है, तब तत्त्वको 'है' कहना भी बनता नहीं। तात्पर्य है कि 'नहीं' की अपेक्षासे ही तत्त्वको 'है' कहते हैं। वास्तवमें तत्त्व न 'नहीं' है और न 'है' है।

साधन-सुधा-सिन्धु ६०··

जो निरन्तर जा रहा है, उस 'नहीं' को देखनेसे 'है' में हमारी स्थिति स्वतः सिद्ध होती है, करनी नहीं पड़ती।

सत्संग-मुक्ताहार ११··

सत् तो अनुभवरूप ही है। अनुभव तो असत्का ही होता है, सत्का नहीं। आप 'नहीं' के द्वारा 'है' को देखना चाहते हैं - यह गलती है।

सत्संगके फूल ७··

परमात्मा 'है'। परन्तु देखनेमें 'नहीं' आता है; क्योंकि जिससे देखते हैं, वह 'नहीं' की जातिका है। 'नहीं' को 'है' माननेसे 'है' छिप जाता है।

सत्संगके फूल ४८··

संसार 'है' नहीं है, प्रत्युत 'है' में संसार है। इस 'है' में स्थित हो जायँ। 'है' में स्थिति ही मुक्ति है।

सागरके मोती ८८··

नहीं' को 'है' माननेसे जो वास्तवमें 'है', वह लुप्त हो गया। केवल स्वीकार करनेसे उस परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । परन्तु 'नहीं' को नहीं माने बिना 'है' को मान सकोगे नहीं।

सागरके मोती ११२··

मैं' प्रकृतिका अंश है और 'हूँ' प्रकृतिसे अतीत परमात्माका अंश है। यह 'हूँ' सत्ताका वाचक है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १४५··

‘मैं' (अहम्)-के सम्बन्धसे ही 'हूँ' है। अगर 'मैं' ( अहम् ) का सम्बन्ध न रहे तो 'हूँ' नहीं रहेगा, प्रत्युत 'है' ही रहेगा। वह 'है' अर्थात् चिन्मय सत्तामात्र ही हमारा स्वरूप है, शरीर हमारा स्वरूप नहीं है।

साधक संजीवनी २।१२ परि०··

हूँ' में ‘हूँ’-पना नहीं है, 'है' - पना है – इतनी बात मान लो । 'हूँ' भी वास्तवमें 'है' ही है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११९··

आप अकेले 'मैं हूँ' ऐसा मानते हो तो यह 'हूँ' पना एकदेशीय है, और 'तू है', 'यह है', 'वह है' – ये 'है'- पना व्यापक है। तो यह 'है' ही 'मैं' के कारण 'हूँ' बना। अगर 'मैं' न हो तो केवल 'है' ही रहेगा। यह 'मैं' तब होता है, जब कुछ चाहना होती है। मनुष्य कुछ करना चाहता है, कुछ जानना चाहता है, कुछ पाना चाहता है । तो कुछ-न-कुछ चाहना है, तभी 'मैं हूँ' है। अगर कुछ भी चाहना न रहे, तो 'है' ही रहेगा।

साधन-सुधा-सिन्धु २३··

होनापन' मेरा स्वरूप है - इस बातको जोरसे पकड़ लो। इस होनेपनके साथ शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कुछ भी मिलाओ मत। इस होनेपनमें चुप हो जाओ; केवल है..... ..... ..... । इस 'है' में स्थित हो जाओ। इसको पहले बुद्धिसे समझोगे; क्योंकि समझने के लिये बुद्धिसे सूक्ष्म यन्त्र कोई है नहीं। फिर बुद्धि नहीं रहेगी, केवल होनापन रहेगा। 'होनेपन' का अर्थ है - होनेपनका भाव होनेपन ('है') में स्थिति ही जाग्रत् सुषुप्ति है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४५ - १४६··

अहम्‌को मिटानेके लिये चाहे 'हूँ' की जगह 'है' को स्वीकार कर लें, चाहे 'हूँ' को 'है' के अर्पित कर दें अर्थात् 'है' रूपसे सर्वव्यापी परमात्मतत्त्वकी शरण हो जायँ ऐसा करनेसे अहम् नहीं रहेगा अर्थात् मैं-तू-यह वह नहीं रहेगा, प्रत्युत केवल 'है' रह जायगा । जैसे, चाकूको खरबूजेपर गिरायें अथवा खरबूजेको चाकूपर गिरायें, कटेगा खरबूजा ही, ऐसे ही 'है' को 'हूँ' में मिलायें अथवा 'हूँ' को 'है' में मिलायें, नाश 'हूँ' की परिच्छिन्नताका ही होगा और 'है' रह जायगा।

साधन-सुधा-सिन्धु ५२··

जैसे हम कहते हैं कि 'यह पदार्थ है' तो इसमें पदार्थ तो परिवर्तनशील संसार है और 'है' अपरिवर्तनशील परमात्मतत्त्व है । संसारमें देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो अनेक हैं, पर उन सबमें 'है' (सत्ता) - रूपसे विद्यमान परमात्मतत्त्व एक ही है। साधककी दृष्टि निरन्तर उस ‘है' (परमात्मतत्त्व) - पर ही रहनी चाहिये।

साधन-सुधा-सिन्धु ८१··

मैं हूँ' – यह जड़-चेतनकी ग्रन्थि है। इसमें 'मैं' जड (प्रकृति) का अंश है और 'हूँ' चेतन (परमात्मा)- का अंश है। 'मैं' पनकी प्रकृतिके साथ एकता है और 'हूँ' की परमात्मा ('है' ) के साथ एकता है। 'मैं' - पनके कारण ही 'है' 'हूँ' - रूपसे दीखता है। अगर 'मैं पन' न रहे तो 'हूँ' 'है' में समा जायगा। सभी 'हूँ' 'है' में समा जाते हैं, पर 'है' 'हूँ' में नहीं समा सकता। वास्तवमें 'हूँ' 'है' में समाया हुआ ही है। उस 'है' में 'मैं' - पन नहीं है। तात्पर्य है कि 'मैं' - पन ( अहम् ) - से ही सत्तामें 'हूँ' और 'है' का भेद होता है। इसलिये सत्ताभेदको मिटानेके लिये 'मैं' - पनका नाश करना आवश्यक है। यह 'मैं' - पन भूलसे माना हुआ है। यह भूल अपनेमें अर्थात् व्यक्तित्वमें है, सत्ता (तत्त्व) में नहीं । इस एक भूलमें ही अनेक भूलें हैं । इस भूलको मिटानेके लिये 'हूँ' को 'है' में मिलाना बहुत आवश्यक है। 'हूँ' को 'है' में मिलानेसे 'मैं' नहीं रहेगा, प्रत्युत 'है' ( तत्त्व) रह जायगा।

साधन-सुधा-सिन्धु ११४··

है' (सत्तामात्र) - में हमारी स्थिति स्वतः है, करनी नहीं है। भूल यह होती है कि हम 'संसार है' – इस प्रकार 'नहीं' में 'है' का आरोप कर लेते हैं। 'नहीं' में 'है' का आरोप करनेसे ही 'नहीं' (संसार) - की सत्ता दीखती है और 'है' की तरफ दृष्टि नहीं जाती। वास्तवमें 'है में संसार'- इस प्रकार 'नहीं' में 'है' का अनुभव करना चाहिये। 'नहीं' में 'है' का अनुभव करनेसे 'नहीं' नहीं रहेगा और 'है' रह जायगा।

साधन-सुधा-सिन्धु १४५··

मैं हूँ' – यह अहंसहित सत्ता है और 'है' - यह अहंरहित सत्ता है। साधकको चाहिये कि वह 'मैं हूँ' को न देखकर 'है' में ही रहे। 'मैं' (अहम् ) तो 'तू', 'यह' और 'वह' हो जाता है, पर 'है' सदा 'है' ही रहता है। तात्पर्य है कि 'मैं' तो बदलता है, पर 'है' नित्य ज्यों- का-त्यों रहता है। परंतु जबतक 'मैं' रहता है, तबतक 'है' का अनुभव नहीं होता, प्रत्युत 'हूँ' का ही अनुभव होता है। 'हूँ' में 'मैं' (असत्) - का अंश भी है और 'है' (सत्) - का अंश भी है। परंतु 'मैं' की मुख्यता रहनेके कारण 'है' गौण हो जाता है।

साधन-सुधा-सिन्धु १५३··

अपने-आपमें स्थित तत्त्व ( ' है ' ) - का अनुभव अपने आप ( ' है ' ) - से ही हो सकता है, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि ('नहीं' ) - से बिलकुल नहीं। अपने-आपमें स्थित तत्त्वका अनुभव करने के लिये किसी दूसरेकी सहायता लेनेकी जरूरत भी नहीं है।

साधक संजीवनी १५ । ११ मा०··

जो 'है' में स्थित है, वह 'है' और 'नहीं' – दोनोंको जानता है, पर जो 'नहीं' में स्थित है, वह 'नहीं' को भी यथार्थरूपसे अर्थात् 'नहीं' रूपसे नहीं जान सकता, फिर वह 'है' को कैसे जानेगा? नहीं जान सकता। उसमें जाननेकी सामर्थ्य ही नहीं है। 'है' को जाननेवालेका तो 'नहीं' को माननेवालेके साथ विरोध नहीं होता, पर 'नहीं' को माननेवालेका 'है' को जाननेवालेके साथ विरोध होता है।

साधक संजीवनी २।६९ परि··

जो 'है', वह तो है ही और जो 'नहीं' है, वह है ही नहीं। 'नहीं' को 'नहीं' - रूपसे मानते हुए 'है' को 'है'- रूपसे मान लेना श्रद्धा है, जिससे नित्यसिद्ध ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है।

साधक संजीवनी ४ | ३९ वि०··

परमात्मतत्त्व 'है' रूप और संसार 'नहीं' रूप है। एक मार्मिक बात है कि 'है' को देखनेसे शुद्ध 'है' नहीं दीखता, पर 'नहीं' को 'नहीं' रूप देखनेपर शुद्ध 'है' दीखता है। कारण कि 'है' को देखनेमें मन-बुद्धि लगायेंगे, वृत्ति लगायेंगे तो 'है' के साथ वृत्ति रूप 'नहीं' भी मिला रहेगा। परन्तु 'नहीं' को 'नहीं' रूप देखनेपर वृत्ति भी 'नहीं' में चली जायगी और शुद्ध 'है' शेष रह जायगा।

साधक संजीवनी ६ । २३ परि०··

जब सबमें एक अविभक्त सत्ता ( ' है ' ) ही परिपूर्ण है तो फिर उसमें मैं, तू, यह और वह- ये चार विभाग कैसे हो सकते हैं? अहंता और ममता कैसे हो सकती है ? राग-द्वेष कैसे हो सकते हैं? जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसको मिटानेका अभ्यास भी कैसे हो सकता है ?

साधक संजीवनी ९ / ४-५ परि०··

भोगोंमें 'हूँ' खिंचता है, 'है' नहीं खिंचता। 'हूँ' ही कर्ता भोक्ता बनता है, 'है' कर्ता - भोक्ता नहीं बनता। अतः साधक 'हूँ' को न मानकर 'है' को ही माने अर्थात् अनुभव करे।

साधक संजीवनी १३ । २१ परि०··

जिस प्रकार समुद्र और लहरें दोनों एक-दूसरेसे अलग नहीं किये जा सकते, उसी प्रकार 'है' और 'हूँ' दोनों एक-दूसरेसे अलग नहीं किये जा सकते। परन्तु जैसे जल - तत्त्वमें समुद्र और लहरें - ये दोनों ही नहीं हैं ( वास्तवमें एक ही जल तत्त्व है), ऐसे ही परमात्मतत्त्व ('है')- में 'हूँ' और 'है'- ये दोनों ही नहीं हैं।

साधक संजीवनी १५ । ११ मा०··

नहीं' के द्वारा 'नहीं' को ही देखा जा सकता है, 'है' को नहीं।........'नहीं' की स्वतन्त्र सत्ता न होनेपर भी 'है' की सत्तासे ही उसकी सत्ता दीखती है। 'है' ही 'नहीं' का प्रकाशक और आधार है।

साधक संजीवनी १५ । ११ मा०··

दो विभाग हैं - ' है ' अर्थात् चेतन विभाग और 'नहीं' अर्थात् जड़- विभाग क्रिया और पदार्थ 'नहीं'- विभागमें हैं; क्योंकि ये उत्पन्न और नष्ट होनेवाले हैं। परमात्मा और उसका अंश जीवात्मा 'है'- विभागमें हैं। प्रकृतिके कार्यमात्रसे 'है' अलग है। 'नहीं' में 'है' नहीं है; परन्तु 'है' इतना विलक्षण है कि वह 'नहीं' में भी है । 'नहीं' एकदेशीय होता है, पर 'है' एकदेशीय नहीं होता। साधकको 'है' का ही आदर करना है, उसीमें स्थिति करनी है। हमारी एकता 'है' के साथ है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९३··

वह परमात्मा हमारेमें है, हम उस परमात्मामें हैं। वह कैसा है, यह न देखकर केवल एक ' है....है.... है ' - ऐसे भीतरसे आप स्वीकार कर लो और रात-दिन उसमें मस्त रहो । परमात्मा सब जगह परिपूर्ण हैं और मेरा व्यक्तिगत कुछ भी नहीं है। यह बात आपको माननी पड़ेगी, चाहे मेरे कहने से मानो, चाहे गीता, भागवत, सन्त महात्मा आदिके कहनेसे मानो।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५२ - १५३··

प्रत्येक क्रिया 'है' से अर्थात् अक्रियतासे पैदा होती है। वह 'है' स्वतः - स्वाभाविक है। वह कृत्रिम, बनावटी नहीं है । उसमें अहंकार नहीं है। सभी संकल्प 'है' से पैदा होते हैं। प्रत्येक कार्यका आरम्भ 'है' से होता है और कार्य समाप्त होनेपर 'है' ही रहता है। अत 'है' सबके मूलमें है। 'है' अखण्ड रहता है। क्रियाके समय भी 'है' रहता है। परन्तु हमारा ध्यान क्रियाकी तरफ रहता है, 'है' की तरफ नहीं। वह 'है' साक्षात् परमात्माका स्वरूप है। इस बातको हृदयमें जमा लो।

अनन्तकी ओर ९४-९५··

प्रत्येक क्रिया 'है' - पनेसे ही आरम्भ होती है और 'है' - पनेमें ही लीन होती है - ऐसा समझकर आप 'है' में स्थित हो जाओ। फिर ' है ' - पना नित्य रहेगा, क्रिया नित्य नहीं रहेगी। क्रियामें थकावट होती है, पर 'है' में थकावट होती ही नहीं।

अनन्तकी ओर ९६··

परमात्मा कैसे हैं, कहाँ रहते हैं, क्या करते हैं, किधर देखते हैं, क्या खाते हैं, क्या पीते हैं- इन बातोंको जाननेकी जरूरत नहीं है। परमात्मा 'है' – इसके सिवाय कुछ नहीं जानना है।

अनन्तकी ओर ९६··

है' और कीर्तन एक ही है, दो चीज नहीं है। 'है' का नाम ही राम और कृष्ण आदि है।

अनन्तकी ओर ९९··

परमात्माको सगुण, निर्गुण साकार, निराकार आदि किसी भी रूपसे मानो, 'है' रूपसे उसकी सत्ता माननी ही पड़ेगी।

अनन्तकी ओर ९९··

‘यह दुष्ट है' और 'यह सज्जन है' – इन दोनोंमें (दुष्ट और सज्जनमें ) फर्क है, पर ‘है' में क्या फर्क है ?

स्वातिकी बूँदें ३४··

ऐसा कोई प्राणी नहीं है, जिसकी स्थिति, 'है' में न हो। कोई प्राणी 'नहीं' में स्थित कैसे रह सकता है ?

स्वातिकी बूँदें १०४··

मनुष्य, पशु, वृक्ष, मकान आदि तो अलग-अलग हुए, पर इन सबमें 'है' एक ही रहा। इसी तरह 'मैं मनुष्य हूँ, मैं पशु हूँ, मैं देवता हूँ' आदिमें शरीर तो अलग-अलग हुए, पर 'हूँ' अथवा 'है' एक ही रहा।

साधक संजीवनी २।१७ परि०··

हम देखते हैं कि 'वस्तु है, मनुष्य है, पशु है, वृक्ष है, आदि' तो यह परमात्मप्राप्तिका मार्ग नहीं है। 'है वस्तु, है मनुष्य, है पशु' – इस प्रकार 'है' को पहले देखना चाहिये। 'वस्तु है'- इसमें वस्तुकी सत्ता मुख्य है। वस्तुकी सत्ता मुख्य न होकर 'है वस्तु' – इस प्रकार परमात्मा की सत्ता मुख्य होनी चाहिये । वस्तुपर दृष्टि न होकर 'है' पर दृष्टि होनी चाहिये।

ईसवर अंस जीव अबिनासी ३३··

पहले एक 'है' है। उस 'है' के अन्तर्गत सब कुछ है। वह 'है' सबका आधार है। उस 'है' के अन्तर्गत ही संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है। हम उस 'है' के हैं और वह 'है' हमारा है। वह 'है' ही 'मैं' के कारण 'हूँ' हुआ है। हरदम उस 'है' की तरफ ख्याल रखो।

अनन्तकी ओर ९९··

है' को स्वीकार करना है और 'नहीं' को अस्वीकार करना है- यही वेदान्त है, वेदोंका खास निष्कर्ष है।

साधक संजीवनी २।१६ परि०··