यदि आप सुख चाहते हो तो दूसरोंको सुख दो
जो कुछ संसारमें है, भगवान्का ही स्वरूप है। यही बात भगवान्ने गीतामें बताई - वासुदेवः सर्वमिति (गीता ७/१९) अर्थात् - सब कुछ वासुदेव ही है।
स्वयं एक परमात्मा ही अनेक रूपमें प्रकट हो रहे हैं। कोई भी हमें मिले, दिखे, तो समझना चाहिये कि परमात्मा ही मिल गये। इस प्रकार हमें सर्वत्र भगवद्बुद्धि करनी चाहिये।
कल प्रातःकाल यह प्रकरण चल रहा था कि वर्तमानमें जो सांसारिक सुख है, उसे त्यागनेसे असली सुख मिल सकता है। जो मनुष्य अपने सुखके लिये दूसरोंके दुःखकी परवाह नहीं करता है, उसे असली सुख तो मिल ही नहीं सकता, सांसारिक सुख भी नहीं मिलता है। उदाहरण- वर्तमान युद्धका है। सभी सुखी होना चाहते हैं, जर्मनी चाहता है कि हम सुखी हों, दुनिया चाहे दुखी हो। जापान भी यही चाहता है। इसी उद्देश्यसे एक-दूसरेके सुखको छीन रहे हैं। नतीजा क्या होता है- सभी दुखी होते हैं। (नोट- यह प्रवचन वर्ष १९४२ का है, जिस समय द्वितीय विश्वयुद्ध चल रहा था।)
आप मेरा अनिष्ट करना चाहोगे तो मेरे दिलमें भी होगा कि मैं आपका अनिष्ट करूँ। आपके द्वारा मेरा अनिष्ट होगा, मेरे द्वारा आपका। चाहते थे- दोनों सुख; मिलता है- दोनोंको दुःख। यह मार्ग सुखका नहीं है। मैं ५० आदमियोंको दुःख देना चाहूँगा तो वे भी मेरा अनिष्ट करना चाहेंगे। परस्परमें सबका ही अनिष्ट होगा। यह सुखका मार्ग नहीं है। अपने सुखके लिये हम दूसरेको दुःख देना चाहेंगे, इस वृत्तिको लेकर हम कोशिश करेंगे तो दोनोंका ही पतन होगा, दोनों ही गिरेंगे।
बुद्धिमान् मनुष्यको यह समझना चाहिये कि हमें चाहे तकलीफ ही हो, पर इन्हें सुख हो। हमारे पास रुपया है, शरीर है या सम्पत्ति है, उस चीजके द्वारा हम सुख भोग रहे हैं तो उसका त्याग करें और दूसरोंको सुख पहुँचावें।
- मनसे दूसरोंका हित चिन्तन करें तो उसका क्या होगा ?
- हम दूसरोंको सुख पहुँचावेंगे- तो उनके मनमें भी यही भाव होगा, सब हमें सुख पहुँचानेकी चेष्टा करेंगे। यह तो लौकिक सुखकी बात है। इस सुखको भी हम त्याग दें।
यदि हमारा यह उद्देश्य न हो कि हम इसलिये सेवा करें कि बदलेमें ये हमारी सेवा करेंगे- तो हमें स्वर्ग मिलेगा। हम उसकी भी इच्छा न रखें।
- तो किसके लिये सेवा करें ?
- ईश्वरको खुश करनेके लिये। इस प्रकार करनेसे हमारा अन्तःकरण शुद्ध होगा, हमें ईश्वरकी प्राप्ति होगी।
और हम यह भी उद्देश्य न रखें। हमें इस बातकी भी इच्छा नहीं है, यह भी तो पारमार्थिक स्वार्थ हुआ न ! इसकी भी इच्छा न रखकर कर्तव्य-बुद्धिसे करते रहें कि यह काम अच्छा है, हम मनुष्य हैं, मनुष्यको यह करना चाहिये, इसको करना हमारा फर्ज है।
- न परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, न मुक्ति, तो क्या होगा ?
- हम उस कोटि (स्थिति)-को पहुँच जायेंगे कि उस हमारी क्रियासे हमारे उद्धारकी तो बात ही क्या, हमारा उद्धार तो हो चुका ! वास्तवमें तो ऐसा भाव, जिनका उद्धार हो चुकता है, उनकी ही ऐसी चेष्टा होती है। उनके दर्शन, भाषणसे लोगोंका उद्धार होता रहता है। ऐसे पुरुषके द्वारा लोगोंका कल्याण होता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
(गीता ३/२१)
अर्थात् - श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
(गीता ३/२२)
अर्थात् - हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।
इसी प्रकार उन महापुरुषोंके कर्म आदर्श होते हैं और उनसे दुनियाका कल्याण होता ही रहता है। यदि ऐसा पुरुष परमात्माकी दयासे मैं बन जाऊँ, और समझ लो कि मेरे जीते हुये दस आदमियोंका ही कल्याण नहीं हुआ; समझ लो, मैं मर गया; तो मैं जो कुछ प्रमाण कर जाऊँ कि- 'ईश्वरकी प्राप्तिका यह उपाय है' - वह मेरी बात जब तक सृष्टिमें कायम रहेगी, तब तक जगत्का कल्याण उसके पालनसे होता रहेगा।
आज युधिष्ठिर नहीं हैं, पर उनकी शिक्षा, आदर्शसे लोगोंको लाभ होता है। जिस देशमें वे रहते थे, उस देशकी प्रजा सुखी, धार्मिक, सत्यवादी होती थी। धन्य है युधिष्ठिरको ! उनकी कथाको याद करके आज कितना जोश आता है ! धन्य थे वे। उन्होंने जो आदेश दिया, हम आज पढ़ते हैं, कितना भाव हृदयमें पैदा होता है ! भीमको उपदेश देते हैं- 'हे भीम ! हमारे भाई दुर्योधनको छुड़ाना चाहिये। यह समय कटु वचन सुनानेका नहीं है। ये तुम्हारी शरण हैं। यह वह मौका नहीं है। गन्धर्व लोग दुर्योधनादिको बाँधकर ले जा रहे हैं, तुम्हें छुड़ाना चाहिये।'
कितना ऊँचे दर्जेका उपदेश है ! युधिष्ठिर आज नहीं हैं, पर उनके इस उपदेशका पालन करनेसे उद्धार हो सकता है। वे तो उद्धार-स्वरूप ही थे। उनका वाणीका कथन, शरीरकी क्रिया लोगोंका उद्धार करने वाली है। जब तक युधिष्ठिरका संसारमें नाम है, उनके गुणोंकी ख्याति है, तब तक लोग उनसे लाभ उठाते रहेंगे। आज तुलसीदासजीका शरीर नहीं है, किन्तु उनका उपदेश तुलसीकृत रामचरितमानस तो है। कितना लाभ होता है ! लाखों लोगोंको लाभ होता है ! यह क्या है ? तुलसीदासजीका ही तो उपदेश है। जब तक वे जीवित रहे, तब तक शायद बहुत लोगोंका उद्धार नहीं हुआ होगा, पर आज लाखों आदमियोंका उपकार हो रहा है। अच्छे पुरुष जब संसारमें नहीं रहते हैं, उसके बाद उनका उपदेश जब तक कायम रहता है, लोगोंका उद्धार होता रहता है।
जब तक यह शरीर मृत्युके मुखमें नहीं जावे, तब तक इससे जो काम लेना हो, ले लेना चाहिये। जो संसारमें अपने स्वार्थके लिये दूसरोंका अनिष्ट करने वाले हैं, वे उन पुरुषोंसे अच्छे हैं, जो कृतघ्नी हैं। कृतघ्नी उसे कहते हैं, जो उपकार करनेवालेका भी अनिष्ट करे । उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो आसुरी स्वभाव वाले हैं। उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो सकामभावसे यज्ञ, दान, तप आदि कर्म करते हैं। उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो आत्माकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्ग त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
(गीता ५/११)
अर्थात् - कर्मयोगी ममत्वबुद्धिरहित केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीरद्वारा भी आसक्तिको त्यागकर अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं।
उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो भगवत्प्रीत्यर्थ कर्म करते हैं, भगवान्की प्राप्तिके लिये, भगवान्के दर्शनोंके लिये जो कर्म करते हैं। उनसे भी वह श्रेष्ठ है, जो भगवान्की कठपुतली बन जाता है, भगवान् उससे काम लेते हैं। जैसे भगवान् नचाते हैं, वैसे ही नाचता है। उससे वह श्रेष्ठ है। वह तो उद्धाररूप हो गया, भगवान्ने उसे यन्त्र बना लिया। भगवान् उसे हथियार बनाकर दुनियाका कल्याण करते हैं।
हमारा तन, मन, धन- सब भगवान्के अर्पण हो जाय, भगवान् उसे काममें लावें। जगत् ही भगवान्का स्वरूप है। इसलिये कोई मिले तो मानो नारायणसे मिल रहे हैं। पशु मिले तो समझे कि भगवान् मिले हैं। हमारा भाव यदि भगवान्का है तो वास्तवमें भगवान् ही है। साधक अवस्थामें तो भावसे भगवान्, सिद्धावस्थामें प्रत्यक्ष भगवान्- इस प्रकार क्रिया होने लगे तो उसके आनन्दकी सीमा नहीं रहती है। लोभी आदमीको जितना धन मिलता है, उतनी ही ज्यादा प्रसन्नता होती है, इसी प्रकार संसारका भगवान्के रूपमें दर्शन कर-करके साधककी प्रसन्नता बढ़ती रहती है।
हम लोगोंको उच्चकोटिका ध्येय रखना चाहिये। सबसे ऊँची बात है- लौकिक सुखका त्याग। सबको सुख पहुँचानेका नतीजा यह हुआ कि हम इतने अनन्त आनन्दमें स्थित हो गये, जिसकी कोई सीमा नहीं। उस सुखको वाणी बता नहीं सकती।
ऐसी स्थिति त्यागसे होती है। यह जो संसार है, यह एक प्रकारकी खेती है। हम सुखकी खेती करेंगे तो सुख पैदा होगा। खेतमें एक मुट्ठी गेहूँ बोनेसे हजारों मुट्ठी हो जाते हैं, उस गेहूँको खेतकी धूलमें मिलाते हैं, इसी प्रकार हमें सुखकी खेती करनी चाहिये। हम सुखको मिट्टीमें मिला देंगे तो उसका फल सुख ही लगेगा (उपजेगा)। जैसा बीज होगा, उसीके अनुसार फल लगेगा।
- सुखको मिट्टीमें मिलाना क्या है ?
- सुखका साधन शरीर है, इस शरीरको लोगोंकी सेवाके वास्ते अर्पण कर दें।
- इसका क्या परिणाम होगा ?
- वह अनन्त होकर निकलेगा। फिर उसे भी मिट्टी में मिला देंगे, तो वह बढ़ता ही जायेगा। यदि आप सुख चाहते हो तो उसका तरीका यही है। सुख चाहते हो तो सुख दूसरोंको दो। यदि दुःख चाहते हो तो दूसरोंको दुःख दो।
जो संसारमें सबको अभय देकर विचरता है, उसे संसारमें कोई भी दुःख देने वाला नहीं रहता है। उसके नजदीकमें रहने वाला दूसरा प्राणी भी किसीको कष्ट नहीं पहुँचा सकता है। एक सत्यवादी पुरुष है, उसके सामने असत्य बोलनेमें दूसरेको हिचकिचाहट पैदा होती है।
जो मनुष्य किसीकी हिंसा नहीं करता है, उसके लिये बताया गया है कि उसके आसपासमें एक-दूसरेके वैरी भी परस्परमें वैरको त्याग कर बैठते हैं। दूर जाकर चाहे सिर ही फोड़ें, उसके नजदीकमें रहनेकी यह बात है। जो सबको सुख पहुँचाता है, उसका अलौकिक प्रभाव पड़ता है। गीता क्या कहती है-
सन्नियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः ॥
(गीता १२/४)
अर्थात् - जो पुरुष इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकारसे वशमें करके मन-बुद्धिसे परे, सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल, निराकार, अविनाशी सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको निरन्तर एकीभावसे ध्यान करते हुए भजते हैं, वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समान भाव वाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।
तुलसीदासजी कहते हैं-
परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
(रा.च.मा. अरण्य. ३१/९)
अर्थ- जिनके मनमें दूसरेका हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिये जगत्में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है।
जिसकी आत्मामें परहित वास करता है, उसके लिये कोई भी असम्भव बात नहीं है। वह दूसरोंका कल्याण कर सकता है।
तुलसीदासजीने सिद्धान्त बना दिया-
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड ४१/१)
अर्थ- हे भाई ! दूसरोंकी भलाईके समान कोई धर्म नहीं है और दूसरोंको दुःख पहुँचानेके समान कोई नीचता नहीं है।
दूसरेकी आत्माको सुख पहुँचानेके समान दूसरा धर्म नहीं है।' थोड़े शब्दोंमें कितना भाव है !
भाई हनुमानप्रसाद कई बार ही कहता है कि- 'एकान्तमें जाकर भजन-ध्यान करें। प्रत्यक्षमें एकान्तमें आनन्द मिलता है। लोगोंके भीतर रहकर सेवा करनेसे खटपट रहती है, चंचलता रहती है, जितना भी परोपकारका काम है- पुस्तकोंका निकालना, सेवा करना आदि।' देखनेमें तो प्रत्यक्षमें भजन-ध्यानमें ही आनन्द मिलता है, फिर भी भाईजी एकान्तमें न जाकर सेवाका काम करते ही हैं। मैं भी आग्रह करता हूँ। यदि सेवाका काम खराब हो तो मैं क्यों आग्रह करूँ ? मैं दूसरोंकी सेवा करूँ तो यह कभी हो सकता है कि मेरे घाटा पड़ जावे ? यह बड़ा अच्छा मार्ग है। हर एक प्रकारसे दूसरोंको सुख पहुँचावे।
जैसे कोई स्त्री अपने स्वयंके बाल-बच्चोंका प्रेमसे पालन करती है, उससे ज्यादा प्रेमसे जेठानी, देवरानीके बाल-बच्चोंका पालन करे, वह स्त्री संसारमें देवी है, उसे लोग आदर्शसे देखते हैं। बाकी स्त्रियाँ तो पशुके समान ही अपने बच्चोंका पालन करती हैं।
सारी दुनिया अपने लिये धन इकट्ठा करती है, किन्तु लोग तो उसकी तरफ देखते हैं, जो दूसरोंको सुख पहुँचानेमें धन खर्च करते हैं। प्रत्यक्ष आप करके देख लीजिये। शास्त्रोंकी बात है ही। फिर भी इसमें आपकी प्रवृत्ति नहीं होती है तो मूर्खता है।
जो मनुष्य सुख चाहता है तो उसे सुख मिले, ऐसा काम करना चाहिये। नरक नहीं चाहते है, पर काम करते हैं- नरक जानेका। यदि वास्तवमें आप सुख चाहो तो यही बात है कि- आप अपने सुखको तिलांजलि देकर लोगोंको सुख पहुँचाओ। संसारके लिये यह सुख अर्पण कर दो। आपके पास जो कुछ सामग्री है, सबको दुनियाके हितके लिये अर्पण कर दो। आप इसके लिये उतारू हो जाओ, आपकी कायापलट हो सकती है। आगे जाकर आप इसका रहस्य समझेंगे। जो थोड़ा इसको समझेगा, वही इस काममें लगेगा, तभी आपकी श्रद्धा समझी जायेगी। नहीं तो, जो जैसा समझता है, करता ही है। नतीजा हो रहा है कि सब दुखी हो रहे हैं। बेचारे भोले हैं, समझते हैं- सुख मिलेगा, पर पाते हैं- दुःख। शास्त्र और महात्मा आदेश ही दे सकते हैं, और क्या करें ? परमात्मा भी प्रेरणा ही कर सकते हैं!
यह बात समझकर हमें इस मार्गको तय करना है (यानी इसी मार्ग पर चलना है)। यही अपना कर्तव्य है। परमात्माकी प्राप्तिका मार्ग तय करना है। जितनी जल्दी करेंगे, उतनी ही जल्दी हम परमात्माको प्राप्त होंगे। आखिरमें क्या होगा- वासुदेवः सर्वमिति (गीता ७/१९) (अर्थात्- सब कुछ वासुदेव ही है)।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…