Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

वैराग्यकी बातें

प्रवचन सं. ९

वैराग्यकी बातें तो उन वैराग्यवान् पुरुषोंके मुखसे ही शोभा देती हैं, जिन्हें वास्तवमें बाहर-भीतरसे वैराग्य हो गया है। मैं तो एक साधारण गृहस्थ हूँ, क्या कह सकता हूँ ? स्थान भी वैराग्यके उपयुक्त नहीं है। उत्तराखण्डकी भूमि हो, गंगाका किनारा हो, वन हो, वहाँ पर वैराग्यमें स्थित होकर वैराग्यकी बातें कही जायँ तो सम्भव है कि वेश्याके भी वैराग्य हो जाय, आराम-ऐशमें फँसे हुएके चित्तमें भी वैराग्य हो जाय।

करीब १४ वर्षकी अवस्थामें श्रीमंगलनाथजी महाराजके दर्शनसे मेरा वैराग्यका चित्त हो गया था। उनके दर्शनसे मेरे मनमें भी ऐसी भावना आने लगी कि क्या कभी मुझे भी ऐसी उपरामता और वैराग्य हो सकता है और फिर ऐसा होने लगा। वे वैराग्यके आदर्श पुरुष थे। उनके दर्शनोंका महान् फल हुआ। छोटी अवस्थामें ही मुझे वैराग्यका अनुभव होने लगा। घर वाले सोचने लगे कि यह कहीं संन्यासी न हो जाय। तब सब घर वाले मुझे ऐश-आराममें फँसानेकी चेष्टा करते थे। महान् पुरुषोंका वैराग्य देख-देखकर दूसरा ही चित्त हो जाता है। मेरे ऐसा भाव होता था कि कहीं एकान्तमें जाकर भजन-ध्यानमें ही समय बितावें। वैराग्य बड़ी अच्छी चीज है-

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलमसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥

ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्नाता न निवर्तन्ति भूयः ।

तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥

(गीता १५/ ३-४)

अर्थात् - दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रद्वारा काटकर, उसके पश्चात् उस परमपदरूप परमेश्वरको भलीभाँति खोजना चाहिये, जिसमें गये हुए पुरुष फिर लौटकर संसारमें नहीं आते और जिस परमेश्वरसे इस पुरातन संसारवृक्षकी प्रवृत्ति विस्तारको प्राप्त हुई है, उसी आदिपुरुष नारायणके मैं शरण हूँ- इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उस परमेश्वरका मनन और निदिध्यासन करना चाहिये।

व्याख्या ( श्रीसेठजी द्वारा)- यह संसार वृक्ष है, जिसकी जड़ें दृढ़ हैं, उसे दृढ़ वैराग्यरूप शस्त्रसे काट डाले। वैराग्य भी कैसा ? दृढ़ वैराग्य।

काटना क्या है ?- संसारका चिन्तन न करना ही इसे काटना है। इससे चित्तकी वृत्तियोंको हटा लेना, उपराम हो जाना ही इसे काट डालना है। दृढ़ वैराग्यरूपी शस्त्रके द्वारा काटकर उस परमपदकी खोज करनी चाहिये, जहाँ जाकर मनुष्य वापस नहीं आता है। उसका उपाय है- उस परमात्माकी शरण होना, जिस परमात्मासे यह संसार उत्पन्न हुआ है। जो सारे संसारके पदार्थोंमें वैराग्य कर लेता है, उसकी परमात्मामें स्थिति होती है, उसे ही परमात्माकी प्राप्ति होती है।

वह स्थिति किसे प्राप्त होती है ? - वह स्थिति है- 

निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।

द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥

(गीता १५/५)

व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा) - जिनके मान और मोह नहीं है, जिन्होंने आसक्तिको जीत लिया है, वैराग्यके नशेमें चूर हैं, नित्य भगवान्‌में चित्त है, कामनाएँ नष्ट हो गई हैं, द्वन्द्वरहित हैं, वे उस परमपदको प्राप्त होते हैं।

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥

(गीता १५/६)

अर्थात् - जिस परमपदको प्राप्त होकर मनुष्य लौटकर संसारमें नहीं आते, उस स्वयंप्रकाश परमपदको न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही; वही मेरा परमधाम है।

उस परमपदको प्राप्त करनेका सबसे पहला उपाय वैराग्य है, उस वैराग्यरूपी शस्त्रसे (इस संसाररूप वृक्षको) छेद डालो। फिर भगवान्‌की शरण हो जाओ।

ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥

(गीता ५/२२)

अर्थात् - जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुख-रूप भासते हैं तो भी दुःखके ही हेतु हैं और आदि-अन्त वाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन ! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।

विषयभोग किसे कहते हैं- पाँचों इन्द्रियोंके भोगोंको संस्पर्शजा कहते हैं। भोगा: कैसे हैं- संस्पर्शजा - इन्द्रिय और पदार्थोंके सम्बन्धसे उत्पन्न होने वाले भोग हैं, ये दुःखके ही कारण हैं, इनका परिणाम दुःख ही होता है। ये आदि-अन्त वाले हैं- एक क्षणमें हैं, दूसरे क्षणमें नहीं हैं, अनित्य हैं- इनमें ज्ञानी पण्डित नहीं रमते, आधुनिक सांसारिक ज्ञान वाले तो रम सकते हैं, पण्डित (भगवत्-विषयक ज्ञानवान्) नहीं रमते। जो रमते हैं, वे पण्डित नहीं हैं- इसकी ऐसी महिमा गाई है।

वैराग्यवान्का दर्शन कर लें और जान जायँ तो वैराग्यकी लहरें उठने लग जायँ। वैराग्यवान्के पासमें वैराग्यकी, आनन्दकी लहरें उठने लगती हैं। वैराग्यमें जितना आनन्द है, उतना भोगोंमें नहीं है। उस दिन बताया था- दधीचि ऋषि बड़े ही वीतराग पुरुष थे। संसारसे एकदम वैराग्य करके परमात्माके ध्यानमें मस्त थे। उनके पास इन्द्र आये, प्रणाम करके बैठ गये। जब नेत्र खोले तो पूछा इन्द्रसे- 'आप क्यों आये ?'

इन्द्रने कहा- 'परमात्माके ज्ञानकी इच्छासे।'

ऋषिने कहा- 'तुम उसके अधिकारी नहीं हो। तुम जिस आनन्दका भोग करते हो, वह आनन्द तो एक कुत्ते और शूकरको भी मिलता है। उसके आनन्दमें और तुम्हारे आनन्दमें अन्तर नहीं है !'

वे किस आनन्दमें मग्न थे, उन्हें इन्द्रके भोग भी कुत्ते, शूकरके समान मालूम होते थे ! किस आनन्दमें ऐसा प्रतीत होता है ? – वैराग्यमें। वैराग्यमें कितना आनन्द है ! संसारके सारे भोगोंकी यही दशा है। जब वैराग्य जाग्रत् होता है, उस समयका आनन्द बड़ा ही महत्त्वका है। चित्तमें वैराग्य होकर संसारका त्याग है, वही उपरामता है। वैराग्यसे भी बढ़कर आनन्द उपरामतामें है। उससे भी बढ़कर आनन्द परमात्माके ध्यानमें है। उपरामतासे ही ध्यान होता है। ध्यानसे भी बढ़कर आनन्द है- परमात्माकी प्राप्तिमें। भगवान्‌की प्राप्तिमें कितना आनन्द है, उसे बताया ही नहीं जा सकता ! जनकजीके हृदयमें वैराग्य है, पर उपरामता नहीं है। वेदव्यासजीमें उपरामता नहीं है, शुकदेवजीमें है- उपरामता। शुकदेवजी पर बालक मिट्टी, पत्थर फेंकते हैं, उन्हें उपरामताकी दशामें पता ही नहीं है। फिर शुकदेवजी ऋषियोंकी सभामें गये, वहाँ उन पर पुष्पवर्षा हुई- उनके लिये सब समान है; धूल बरसे तो वही, पुष्प बरसे तो वही। वहाँ आदर हुआ, बड़े-बड़े ऋषि-मुनियोंने उन्हें प्रणाम किया। उन ऋषि-मुनियोंसे पूछा गया तो उन्होंने कहा- 'यह हमसे आयुमें तो छोटा है, पर हम इसके गुणोंको प्रणाम करते हैं।'

एक समय शुकदेवजी उपरामताकी अवस्थामें जा रहे थे, उस रास्तेमें स्त्रियाँ सरोवरमें स्नान कर रही थी। शुकदेवजी आये तो वे वैसे ही स्नान करती रही, किन्तु जब व्यासजी आये, तब सबने वस्त्र पहन लिये; तो व्यासजीने उन स्त्रियोंसे पूछा कि- 'मुझ वृद्धकी तो शर्म की गई और जवानकी शर्म नहीं की गई, क्या बात है ? शुकदेव मेरा लड़का है, उसकी तुम लोगोंने बिल्कुल लज्जा नहीं की ?'

उन्होंने कहा- 'आप दोनों ही वैराग्यवान् हैं, परन्तु आपके पुत्रको तो इस बातका पता ही नहीं कि यहाँ क्या हो रहा है, कौन हैं, क्या कर रहे हैं ? आपको ज्ञान तो है कि ये स्त्री हैं, यह पुरुष है, उन्हें तो पता ही नहीं है। उनकी तो सर्वत्र एकमात्र ब्रह्मदृष्टि है।'

इसी प्रकार वैराग्ययुक्त उपरामता धारण करनी चाहिये। वैराग्यवान् पुरुष जिस मार्गसे निकलता है, वहाँ वैराग्यकी बाढ़ आ जाती है। वैराग्यवान् पुरुष हो, वैराग्यकी बातें हों तो कौन पुरुष है, जिसे वैराग्यका भाव नहीं होता है ? - वैराग्यका स्रोत बहने लगता है, मानो वहाँ वैराग्यकी वर्षा हो रही है, आसक्तिरूपी ज्वर शान्त हो जाता है, काम-क्रोध तो वहाँ रह ही नहीं सकते।

- वैराग्य और उपरामतामें क्या अन्तर है ?

- जब पदार्थोंको देखते हैं, परन्तु उनसे चित्तवृत्ति आकृष्ट नहीं होती तो वैराग्य है। जब पदार्थोंमें चित्तवृत्ति जाती ही नहीं, हमारे कानोंकी सुननेमें और नेत्रोंकी देखनेमें उपरामता हो जाती है, देखनेको मन ही नहीं जाता, स्त्री सामने होते हुये भी नहीं दिखती, उस अवस्थाका नाम उपरामता है।

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

(गीता २/५८)

अर्थात् - कछुवा सब ओरसे अपने अंगोंको जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिये)।

यह अवस्था परम उपरामताकी दिखायी है।

वैराग्यकी अवस्था-

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।

आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥

(गीता २/६४)

अर्थात् - परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वशमें की हुई, राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ अन्तःकरणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है।

वह ऐसे आनन्दको प्राप्त होता है और मनकी स्वच्छताको प्राप्त होता है। इससे भी ज्यादा वैराग्य-

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।

निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥

(गीता २/७१)

अर्थात् - जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्तिको प्राप्त है।

उपरामताको प्राप्त होने पर तो पदार्थोंकी तरफ वृत्तियाँ जाती ही नहीं हैं। यहाँसे लेकर ब्रह्माजीके लोक तकके पदार्थ और भोग काक-विष्ठाके समान प्रतीत होते हैं। शुकदेवजी, जड़भरतजी, वामदेवजी, ऋषभदेवजी, जनक आदिकी अद्भुत अवस्था थी, वह उनमें हर वक्त रहा करती थी !

एक बार ऋषभदेवजी वनमें विचरण कर रहे थे, वनमें आग लगी हुई थी, वे वनमें विचरनेकी तरह ही आगमें विचरते हैं, उनका शरीर दग्ध हो गया और उन्हें पता ही नहीं लगा !

एक बार डाकुओंके एक राजाने देवीको प्रसन्न करने हेतु मनुष्य-बलि देनेके लिये अपने सेवकोंको किसी मनुष्यको लानेके लिये भेजा। उस समय जड़भरतजी जंगलमें विचरण कर रहे थे। सेवक जड़भरतजीको हृष्ट-पुष्ट देखकर ले गये। राजाने समझा कि- 'बहुत अच्छी बलि है।' उन्हें जैसे कहते हैं- नमस्कारादि करनेको, तो वैसे ही करते हैं। वे उपरामतामें मस्त हैं ! तलवार झोंकी जा रही है, उन्हें पता ही नहीं है ! वे ध्यानमें मस्त हैं। उनका मस्तक नीचे किया गया, उन्हें मारनेके लिये तलवार तैयार की गई कि उसी समय देवी प्रकट हो गई और उन डाकुओंको तथा उनके राजाको मार गिराया। फिर वे जड़भरतजीसे बोली- 'बेटा ! जो चाहो, वह वर माँग लो'; तो जड़ भरतजीने मरे हुओंको जिलानेका वर माँगा। उन (जड़भरतजी) को पता ही नहीं था कि मैं मारा जाने वाला हूँ ! वैराग्यमें किसी भी दोषके आने की गुंजाइश नहीं है।

रागसे कामना होती है, कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध होता है, तभी - प्रणश्यति (गीता २/६३) होता है (यानी अपनी स्थितिसे गिर जाता है)। जब राग ही नहीं है तो वहाँ कोई भी दोष नहीं आता है।

हमें भी प्रभुसे प्रार्थना करनी चाहिये कि- 'हे नाथ ! सारे संसारसे प्रेम हटकर, वृत्तियाँ हटकर एक आपमें ही प्रेम हो, संसारका चिन्तन न होकर आपके ध्यानमें मस्त रहें।' यही सबसे बढ़िया बात है।

प्रभुका ध्यान और संसारसे उपरामता- ऐसा ही होना चाहिये। 'सांसारिक विषयोंसे हमारी वृत्ति हटकर आपका ही अनन्य चिन्तन हो' – यही भिक्षा प्रभुसे माँगनी चाहिये।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…