सन्ध्योपासनाकी विशेष महिमा
सन्ध्या नेम (नियम) से करनी चाहिये। प्रातःकाल और सायंकाल- दोनों समय सन्ध्या करनी चाहिये। अपना नियम बना लेना चाहिये कि सन्ध्या किये बिना भोजन नहीं करना है।
टेम (टाइम)- प्रात:काल सूर्योदयसे पूर्व तारागण दिखते हुए करना उत्तम सन्ध्या है। मध्यम- वह जिस समय तारागण तो नहीं दिखते, पर सूर्य भी उदय नहीं होते। कनिष्ठ (सबसे निम्न श्रेणीकी सन्ध्या) - सूर्य उदय होनेके बाद करना।
इसी तरह शामकी सन्ध्या सूर्यास्तसे पूर्व करें, वह उत्तम है। इस बातका हम नियम ले लें कि सुबह सूर्योदयसे पूर्व और सायंकाल सूर्यास्तसे पूर्व सन्ध्या करेंगे। अगर समय पर नहीं होती है तो एक समय उपवास करेंगे। इस प्रकार समयका नियम ले लेनेसे प्रतिदिन सन्ध्या करनेका नियम अपने-आप ही पालन हो जाता है। शास्त्रने विधान किया है कि किसी विशेष कारणसे किसी दिन समयका लोप हो जाय यानी कि समय पर सन्ध्या न हो सके तो भी कर्मका लोप कभी नहीं होना चाहिये यानी चाहे विलम्बसे ही करें, परन्तु सन्ध्या अवश्य करनी चाहिये। उत्तम पक्ष तो यही है कि समय पर सन्ध्या करें। इससे भी उत्तम है कि- प्रेमसे करें; बड़ी भारी श्रद्धाके साथ प्रेममें मान होकर करें। यह समझें कि एक इसीसे अपना कल्याण है। इसका बड़ा भारी महत्त्व है।
यह बतलाया जाता है कि जो आदमी नियमसे सन्ध्या करता है, उसको भगवत्प्राप्ति हो भी सकती है, निश्चय नहीं, पर हो भी सकती है; और जो सन्ध्या समयसे करता है, उसके लिये प्रायः भगवत्प्राप्ति होनेकी सम्भावना है; और जो प्रेमसे करता है, उसे निश्चय ही भगवत्प्राप्ति होती है; और जो अनन्य प्रेमसे करता है, उसे तो एक ही दिनमें हो जाती है। दुनियामें प्रेमसे बढ़कर दूसरी चीज नहीं है। प्रेम ही सबसे बड़ी चीज है। जैसे रुपयोंसे सब चीजें मिलती हैं- ऐसा मानने वालोंके लिये रुपया ही बड़ी चीज है, इसी तरह प्रेमसे सब होता है, इसलिये प्रेम ही सबसे बड़ी चीज है।
- नियम और समयका इतना अन्तर क्यों है ?
- प्रथम तो यह समझें कि सन्ध्योपासना क्या है ?
सन्ध्या - प्रात:काल- सूर्योदयकी सन्धि; सायँकाल- सूर्यास्तकी सन्धि; इनमें जो भक्ति की जाती है, उसका नाम सन्ध्योपासना है। इसमें सूर्य भगवान् प्रत्यक्ष दिखते हैं, उनके अत्यन्त नजदीक होकर उपासना की जाती है। बृहस्पति आदि देवताओंमें वायु, अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा आदि प्रत्यक्ष देवता हैं। इनमेंसे सर्वश्रेष्ठ सूर्य है। सूर्यसे बढ़कर प्रत्यक्ष देवता और कोई नहीं है, इसलिये सूर्यको प्रतिनिधि बनाकर ही ईश्वरकी उपासना की जाती है। जैसे कहीं सभा होती है तो उसमें जो श्रेष्ठ पुरुष समझा जाता है, उसीको प्रतिनिधि बनाया जाता है, इसी तरह सूर्यको प्रतिनिधि बनाकर ईश्वरकी उपासना की जाती है। जैसे मन्दिरमें हम पाषाणकी मूर्तिको ईश्वरका प्रतिनिधि बनाते हैं, इसी तरह सूर्यको ईश्वरका प्रतिनिधि माना है। 'परमेश्वर ही स्वयं सूर्यके रूपमें प्रकट हुए हैं'- ऐसी श्रुति आती है। सूर्य साक्षात् परमात्माका स्वरूप है। कम-से-कम यह तो मान ही लेना चाहिये कि संसारमें सबसे बढ़कर सूर्य है। जैसे कोई महान् पुरुष देशके कल्याणके लिये अपने ग्राममें आता है तो बहुत-से भाई लोग उनके सत्कारके लिये स्टेशन जाते हैं, इसी प्रकार सूर्य भगवान् पृथ्वीलोकमें पधारते हैं तो हमें उनके आगमनसे पूर्व ही उनका सत्कार सन्ध्योपासना द्वारा करना चाहिये।
एक महात्मा है, वह व्याख्यान देता है। लोगोंके श्रद्धा-प्रेमके फलस्वरूप ही उसके संग और उसके व्याख्यानसे लाभ होता है। महात्मामें श्रद्धा-प्रेम होनेसे सत्संगका नया प्रारब्ध बन सकता है। संयोग होनेमें प्रारब्ध हेतु है, पर सत्संग मिले- इसमें श्रद्धा-प्रेम ही हेतु है। यह दार्शनिक बात है।
भगवान्का दर्शन दो प्रकारसे है- एक- वास्तवमें साक्षात्कार; एक- उसकी दृष्टिमें ही हुआ, पर वास्तवमें नहीं हुआ। कोई मनुष्य भगवान्से मिले, पर उस समय ज्ञान न रहा। भगवान्ने गलेमें माला पहनाई तो फिर माला होनी चाहिये। माला नहीं मिले तो वास्तवमें दर्शन नहीं हुए। जैसे ध्रुव था, उसे भगवान् वास्तवमें मिले, तब सब बातें सिद्ध हो गई। प्रह्लादको मिले तो यथार्थमें मिले। भगवान्की सारी क्रिया सत् रहती हैं। साक्षात् होने पर-
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्झटे परावरे ॥
(मुण्डकोपनिषद् मुण्डक २ खण्ड २ मंत्र ८)
अर्थात् - उस परावर (कारण-कार्यरूप) ब्रह्मका साक्षात्कार कर लेने पर इस जीवकी हृदयग्रन्थि टूट जाती है, सारे संशय नष्ट हो जाते हैं और इसके कर्म क्षीण हो जाते हैं।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…