संसारमें जितनी इज्जत बढ़ायेंगे, उतनी ही परमात्माके यहाँ इज्जत घटेगी
महात्मा बनना चाहिये, परन्तु अपने आपको महात्मा कहलाना नहीं चाहिये। १०० महात्मा कहलाने वालोंमें शायद १० ही सच्चे मिलें। अपनेको महात्मा मानने वाले तो हजारों मिलेंगे, परन्तु उन महात्मा बाबाजीकी झोलीमें जेवड़ा ही मिलेगा। (नोट- यह एक राजस्थानी कहावत है, जिसका अर्थ होता है कि वह महात्मा कहा जाने वाला वास्तवमें महात्मा नहीं है। वे भी अज्ञानसे ग्रस्त हैं अर्थात् भटके हुए हैं।)
कहीं सेवाका काम पड़ जाय तो वहाँ रुपया-पैसाका सम्बन्ध यानी रुपये इकट्ठा करना आदि नीचे दर्जेकी बात मालूम देती है। अच्छा साधक गृहस्थ भी ऐसे काममें बढ़-चढ़कर भाग न ले। चाहे साधक हों या सिद्ध- संन्यासीके लिये तो रुपयोंका सम्बन्ध बिल्कुल ही न हो।
भगवत्-विषयक काममें तो रुपयोंका सम्बन्ध ही न हो।
यहाँ जितनी इज्जत बढ़ायेंगे (यानी अपनी प्रसिद्धि करायेंगे), उतनी ही परमात्माके यहाँ घटेगी। यहाँ जितनी घटेगी, वहाँ उतनी ही बढ़ेगी। वास्तवमें ईश्वरके घर इज्जत होना ही वास्तविक इज्जत है।
ये बातें सुनकर भी आप लोग भी इज्जत तो चाहते ही हो। आप लोग विचार करो तो वास्तवमें हमारी बात ऊट-पटाँग यानी गलत नहीं है। मनुष्य वास्तवमें अपना हित चाहे तो आत्माके कल्याण होनेमें बहुत समयकी आवश्यकता नहीं है।
रुपयों के लिये कई लोग मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा- सब कुछ छोड़ देते हैं।
१. संसारका त्याग और भगवान्में प्रेम- दो ही खास बात हैं।
२. भगवान्के नामका जप और संसारसे वृत्ति हटाना।
उपरोक्त बातें हठपूर्वक भी कर सकते हैं।
साधकमें- १. उपरामता हो, २. वैराग्य हो।
साधन-भजन- १. विवेकके द्वारा हो, २. हठसे भी, चाहे जबरदस्ती हो।
साधककी साधनाका स्वरूप इस प्रकार होना चाहिये- १. भगवान्का अटल ध्यान होना चाहिये २. भगवत्-स्मरण निरन्तर होना चाहिये ३. नामजप (श्वासके द्वारा अथवा वाणीसे) होना चाहिये ४. नामजप करना चाहिये, चाहे हठसे भी हो।
नाम जपके प्रकार- १. श्वासके द्वारा २. जिह्वासे ३. उच्चारण करके।
जो साधन प्रयत्न-साध्य है, वह भी नहीं करते तो फिर भगवान् कहते हैं- यथेच्छसि तथा कुरु (गीता १८/६३) (अर्थात्- जैसे चाहता है, वैसे ही कर)।
हरदम वैराग्यके नशेमें चूर रहे, त्रिलोकीके ऐश्वर्यको भी कुछ नहीं समझे।
भगवत्-प्राप्तिके लिये हरदम जोश रखना चाहिये। यह सहजमें ही हो सकता है। उसके पास काम, क्रोध, लोभ आदि आ ही नहीं सकते। इसमें प्रत्यक्षमें लाभ है। जब लाभका ही काम करेंगे तो नुकसानके नजदीक भी नहीं जायेंगे यानी ये काम, क्रोध, लोभ आदि, जो कि साधनामें नुकसान करने वाले हैं, उनसे दूर रहेंगे।
प्रश्न- इन्द्रियाँ मनुष्यको जबर्दस्ती ढकेल देती हैं, क्या करें ? गीताजीमें आया है-
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥
(गीता २/६०)
अर्थात्- हे अर्जुन ! आसक्तिका नाश न होनेके कारण ये प्रमथन-स्वभाव वाली इन्द्रियाँ यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुषके मनको भी बलात् हर लेती हैं।
उत्तर - प्रयत्न ढीला है। वह यत्नशील ही तो है, इसलिये जबर्दस्ती ढकेल देती हैं। प्रयत्न दृढ़ नहीं है।
यह कभी समझना ही नहीं चाहिये कि यह काम कठिन है। साधकको 'असम्भव' शब्द तो कोषमें ही नहीं रखना चाहिये। तेजीसे, जोशके साथ साधन करे। इन्द्रियोंकी, मनकी कुछ भी नहीं चलने दे। दो ही बातों पर जोर रखे- वैराग्य और भगवान्का ध्यान। वैराग्यसे विचरण करे। यह काम कठिन नहीं है। वैराग्य और उपरामता- दोनों ही साधनामें बड़ी अच्छी हैं। नहीं तो हठसे ही वैराग्यका अभ्यास करे। ऐसा करनेसे प्रसन्नता और शान्ति छायाकी तरह पीछे लगी ही रहती है।
इन्द्रियोंके विषय तो त्यागने योग्य ही हैं, इसलिये समझदार और विवेकशील इनमें नहीं रमते हैं-
ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥
(गीता ५/२२)
अर्थात् - जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होने वाले सब भोग हैं, यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुख-रूप भासते हैं तो भी दुःखके ही हेतु हैं और आदि-अन्त वाले अर्थात् अनित्य हैं। इसलिये हे अर्जुन ! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।
इसलिये बेपरवाह होकर विचरण करे। इसमें प्रत्यक्ष आनन्द है। प्रमाणकी जरूरत नहीं है। यह अवस्था जल्दी ही हो सकती है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…