सभी साधनोंमें श्रद्धाकी प्रधानता
गीताके मूल श्लोकोंका पाठ करने वाला पाठ न करने वालेकी अपेक्षा ठीक है। और उससे वह मनुष्य श्रेष्ठ है जो गीताका अर्थसहित पाठ करता है। ७०० श्लोकोंका पाठ करने वालेकी अपेक्षा वह श्रेष्ठ है, जो गीताके एक श्लोकको लक्ष्य बनाकर उसके अनुसार अनुष्ठान करता है। भाव और विचारसहित सारी गीताका पाठ करने वालेसे एक श्लोकके अनुसार अपना जीवन बनाने वाला श्रेष्ठ है।
गीतामें सत्यका पालन करने, अहिंसाके लिये और वाणीके तपके लिये कहा है, पर यदि उसे काममें नहीं लावें तो काम थोड़े ही हो सकता है। जान तो गये, पर काममें लाये बिना कुछ फल नहीं होता, जैसे किसी दवाका गुण जान तो लिया, पर खाये बिना बीमारी दूर नहीं हो सकती है। असली बात यह है।
श्रद्धा कैसे हो- इसका उपाय असलमें हम जानते नहीं। जानते, तो करा देते, जैसे जल पिलाना होता तो कूएँसे निकालकर पिला देते। इसका मतलब यह है कि जिस उपायको हम जानते हैं, वह तो सफल होता नहीं है, दूसरी कार्यवाही हम ठीक नहीं समझते हैं।
श्रद्धा करने लायक हमको कोई मिला नहीं। श्रद्धाकी बात जैसी सुनते हैं, वैसी किसीकी भी शास्त्र, महात्मा, ईश्वरमें किसीमें नहीं है। हमें मालूम होता है कि श्रद्धा करनेकी देरी है, काम होनेमें विलम्ब नहीं है, क्योंकि शास्त्र मिथ्या नहीं हैं। भगवान् गीता अध्याय ३ श्लोक ३१ में अर्जुनको कहते हैं-
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥
(गीता ३/३१)
अर्थात् - जो कोई मनुष्य दोषदृष्टिसे रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मतका सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मोंसे छूट जाते हैं।
भगवान् गीता अध्याय ३ श्लोक ३० में अर्जुनसे कहते हैं-
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्यस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
(गीता ३/३०)
अर्थात्- हे अर्जुन ! तू मुझ अन्तर्यामी परमात्मामें लगे हुए चित्तद्वारा सम्पूर्ण कर्मोंको मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और संतापरहित होकर युद्ध कर।
व्याख्या (श्रीसेठजी द्वारा)- 'अध्यात्मचेतसा' – 'सारे कर्म मुझमें अर्पण करके आशा, ममतासे रहित होकर युद्ध कर।' हमें श्रद्धासहित इस मंत्रका पालन करना है। भगवान् कहते हैं कि- 'मुझमें कोई अवगुण न देखे, नहीं तो श्रद्धा ठहरेगी नहीं। तेरे लिये गीता कही है, पर दूसरे भी जो इसका पालन करेंगे तो उनका भी कल्याण हो जायेगा।'
इससे सिद्ध हुआ कि हम अनुष्ठान करते ही नहीं हैं। विधिकी जरूरत नहीं है, इसमें श्रद्धाकी आवश्यकता है। हम किसीको मिट्टी उठानेके लिये कहें- 'उठाओ', तो इसमें श्रद्धाकी ही जरूरत है, विधिकी नहीं। उसमें इतनी ही बात माननेकी जरूरत है कि इसमें हमको फायदा है; और किसी बातकी जरूरत नहीं है। कोई करना नहीं चाहे तो उसमें श्रद्धाको कमी ही है।
चाहना होती है जाननेसे, और जानते ही श्रद्धा हो जाती है, जैसे रंगके कारखानेसे रुपये कमानेके मार्गको जानकर भी यदि कोई रंगका कारखाना खोलकर रुपये नहीं कमाता है तो वह महामूर्ख है।
भगवान् अर्जुनसे कहते हैं- परया श्रद्धया (गीता १२/२) (अर्थात्- अतिशय श्रेष्ठ श्रद्धा) होते ही तुरन्त काम होता है। सभी मार्गोंमें पहले श्रद्धा रखी गई है। भक्ति, ज्ञान- सबमें श्रद्धाकी जरूरत है। आयुर्वेदमें भी श्रद्धा से ही काम होता है। वैद्यसे पूछकर दवा की, यदि उसमें शंका करते हैं तो उससे पूर्ण लाभ नहीं होता है, जैसे- 'अमुक दवा पुनर्नवाके साथ लेनेसे फायदा होगा' इस बातमें श्रद्धाकी भी जरूरत है। अगर इस विधिसे दवा लेनेसे अच्छा नहीं हो तो आपकी प्रकृतिकी कमजोरी है। यदि काम नहीं हो तो दवाका गुण थोड़े ही कम हो गया, दवा तो ऋषियोंके द्वारा आजमाई हुई है।
सब जगह श्रद्धाकी जरूरत है। गीतामें भगवान् कहते हैं-
ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः ।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः ॥
(गीता ३/३१)
अर्थात् - जो कोई मनुष्य दोषदृष्टिसे रहित और श्रद्धायुक्त होकर मेरे इस मतका सदा अनुसरण करते हैं, वे भी सम्पूर्ण कर्मोंसे छूट जाते हैं।
श्रद्धा प्रधान है। ज्ञानमें भी श्रद्धा है-
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः ।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति ॥
(गीता ४/३९)
अर्थात् - हे अर्जुन ! जितेन्द्रिय, साधनपरायण और श्रद्धावान् मनुष्य ज्ञानको प्राप्त होता है तथा ज्ञानको प्राप्त होकर वह बिना विलम्बके- तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।
श्रद्धा बिना न तो ज्ञान होता है और न भक्ति। श्रद्धा बिना कुछ नहीं होता है-
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥
(गीता १७/२८)
अर्थात्- हे अर्जुन ! बिना श्रद्धाके किया हुआ हवन, दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ शुभ कर्म है- वह समस्त 'असत्'- इस प्रकार कहा जाता है; इसलिये वह न तो इस लोकमें लाभदायक है और न मरनेके बाद ही।
श्रद्धाके बिना किया हुआ कर्म फल नहीं देता है, ज्ञान भी नहीं होता है। सभी कामोंमें श्रद्धाकी प्रधानता है, अतः श्रद्धाकी जरूरत है, इसलिये श्रद्धा करनी चाहिये।
वर्तमानमें एक रुपयामें एक पैसा भर भी अपनी श्रद्धा नहीं है। हमने शास्त्रोंमें महात्माओंकी बातें पढ़ी हैं, वृद्धोंसे उनकी कथाएँ सुनी हैं, किसी रकमसे उनके दर्शन भी किये हैं। महात्माके दर्शनसे परमात्मा मिलते हैं- यह बात युक्तिसंगत है। शास्त्र कहते हैं कि- महात्माके दर्शनसे भगवान्की प्राप्ति होती है-
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग ।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा ६१)
अर्थ- सत्संगके बिना हरिकी कथा सुननेको नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोहके गये बिना श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता।
इसमें सत्संगके बिना परमात्माकी प्राप्ति नहीं कही, महात्माके संगसे उद्धार बताया। कहीं-कहीं तो महात्माकी और भी विशेष बात कही है-
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
(रा.च.मा. सुन्दरकाण्ड दोहा ४)
अर्थ- हे तात ! स्वर्ग और मोक्षके सब सुखोंको तराजूके एक पलड़ेमें रखा जाय, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुखके बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण)-मात्रके सत्संगसे होता है।
मुक्तिसे बढकर सत्संग बताया है। ऐसे पुरुषोंके संगसे कल्याण हो जाये तो उसमें कहना ही क्या है। संग उसका नाम है, जो श्रद्धा-प्रेमसे किया जाय और उसकी बातका पालन किया जाय। श्रद्धाकी मात्रा अधिक हो तो सेवा, आज्ञापालनके बिना ही उनके इशारे मात्रसे कल्याण हो सकता है, श्रद्धा विशेष होनी चाहिये। जिसकी श्रद्धा होगी, वह उनके संकेत पर प्राण देनेको तैयार रहेगा। श्रद्धा नहीं होगी तो आज्ञा भी नहीं मानेगा; और कम श्रद्धा होगी तो मार खाने पर भी नहीं करेगा। श्रद्धाकी यह पहचान है कि उनके इशारे-मात्र पर प्राण न्यौछावर कर देवे। महात्मामें श्रद्धा होनेपर उनकी आज्ञाका पालन होगा। विशेष श्रद्धा होनेपर उनके इशारेके अनुसार ही काम होगा। और इससे भी विशेष श्रद्धा होनेपर श्रद्धालु द्वारा उनके मनकी बात जानकर ही काम किया जायेगा। महात्माओं द्वारा ऐसे ही कल्याण होता है; इसमें भी विशेष - उनके दर्शनसे और उसमें भी विशेष - उनके स्मरणसे ही कल्याण हो जाता है।
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम् ॥
(गीता ७/१८)
अर्थात्- (यद्यपि) ये सभी उदार हैं, परन्तु ज्ञानी तो साक्षात् मेरा स्वरूप ही है - ऐसा मेरा मत है; क्योंकि वह मद्गत मनबुद्धि वाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम गतिस्वरूप मुझमें ही अच्छी प्रकार स्थित है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…