Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

प्रश्नोत्तर एवं नवधा भक्तिका विषय

प्रवचन सं. १४
दिनांक १३-८-१९३९गोरखपुर

प्रश्न- निम्नलिखित चौपाईसे पता चलता है कि हम लोगोंपर रामजीकी कृपा नहीं है, तब हमारा क्या दोष है ?

राम कृपा बिनु सुनु खगराई । जानि न जाइ राम प्रभुताई ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड ८९/६)

(अर्थ- हे पक्षिराज ! सुनिये, श्रीरामजीकी कृपा बिना श्रीरामजीकी प्रभुता नहीं जानी जाती।)

उत्तर- रामजीकी कृपा सब पर है। कृपा हम मानते नहीं है, इसलिये लाभ नहीं उठा सकते हैं। पारस तो हमारे घरमें पड़ा है, उसका गुण न जाननेसे लाभ नहीं उठाते हैं। हम जिस दिन मान लें कि रामजीकी कृपा हम पर है, उसी दिन हमको लाभ हो जायेगा। सत्संगके द्वारा हमारे अन्त:करणके शुद्ध होने पर या किसी भी तरह हम रामजीकी कृपाको जान लेंगे, उसी समय लाभ होगा। हमारे घरमें पड़े हुए पारसको महात्माने लोहेको सोना बनाकर समझा दिया तो हम धनी हो गये ! भगवान्‌की अपार कृपा है- यह बात सुनने पर विश्वास नहीं होता, इसका कारण यह है कि अन्तःकरण शुद्ध नहीं है। निष्काम सेवा, सत्संग, स्वार्थ छोड़कर कर्म करनेसे, भगवान्‌की शरण होनेसे और भगवान्‌के भजनसे अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है, तब वह कृपा फलीभूत हो जाती है। कृपा तो है ही, जब तक हम मानते नहीं, तब तक वह फलित नहीं होती है।

प्रश्न- भक्तिके ऊपर कुछ कहिये। भक्तिके भेद बतलाइये।

उत्तर - भागवतमें भक्तिके नौ भेद बतलाये गये हैं। गीतामें कहीं पर चार, कहीं छः बतलाये गये हैं। रामायणमें शबरीके प्रति भगवान्‌ने नौ भेद बतलाये हैं। सिद्धान्त सबका एक ही है, प्रणालीमें भेद है। कहनेकी शैली अलग-अलग है, फल एक है। विस्तारसे किसी समय इसका व्याख्यान किया जा सकता है।

प्रश्न- जीवन्मुक्त महापुरुष लोगोंपर व्यवहार कालमें कैसे कृपा करे, कैसे कोप करे, कैसे शासन करे ? उनके इस व्यवहारका हेतु क्या है ? जिस पर अनुग्रह या शासन करते हैं, उसको क्या समझते हैं ? अपना ही स्वरूप समझकर करते हैं तो कैसे ? पर (अर्थात् दूसरा) समझते हैं तो कैसे समझते हैं ? उनकी दृष्टि कैसी है ? शरीरके साथ उनका क्या सम्बन्ध है ?

उत्तर- सच्ची बात तो यह है कि महात्माओंकी क्रिया वास्तवमें जानी नहीं जाती है। महात्मा किस उद्देश्यसे कोई क्रिया करते हैं, इसको महात्मा ही जानते हैं और यह महात्मा होने पर ही जानी जाती है। वास्तवमें ईश्वरकी क्रिया और महात्माओंकी क्रिया वे स्वयं ही जानते हैं, फिर भी आपने पूछा है तो कुछ उत्तर दिया जाता है।

महात्माओंका किसी भी क्रियामें निज का कोई हेतु रहता ही नहीं है। शरीरका हेतु केवल-मात्र प्रारब्ध रहता है। अवश्य-भोक्तव्य (प्रारब्धका) भोग उनके शरीरके द्वारा भोगा जाता है, यद्यपि उसमें कोई भोक्ता नहीं रहता है। देखनेमें तो वह कभी हँसता है, कभी बीमार है, कभी इलाज कराता है, उसको सर्दी-गर्मीका ज्ञान भी रहता है, दुर्गन्ध-सुगन्ध, खट्टी-मीठी-खारी, निन्दा-स्तुति- सबका ज्ञान तो होता ही है, इन्द्रियोंका काम तो होता ही है, परन्तु उनके अन्त:करणमें हर्ष-शोक, राग-द्वेष- ये विकार नहीं रहते हैं।

उनका किसी पर अनुग्रह आदि किस हेतुसे होते हैं ? -जिस पर होते हैं, उसके प्रारब्धसे होते हैं। गीता (३/१८)-में भगवान् कहते हैं-

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥

(गीता ३/१८)

अर्थात् - उस महापुरुषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।

ऐसे महात्माका अपना तो कुछ प्रयोजन रहता नहीं है। उनके लिये न कोई ग्रहण करने योग्य है, न कोई त्याग करने योग्य। तस्य कार्यं न विद्यते (गीता ३/१७) (अर्थात्- उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है), पर यह नहीं कहा जा सकता है कि उनके द्वारा कोई क्रिया नहीं होनी चाहिये। क्रिया नहीं करते हैं तो यह भी नहीं कि क्रिया होनी चाहिये।

- होती है तो किस हेतु से ?

- भगवान् अपने स्वयंके लिये कहते हैं कि-

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥

(गीता ३/२२)

अर्थात् - हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।

भगवान्‌को भी कोई कर्तव्य नहीं है, पर उनके द्वारा भी कर्म होते हैं।

- महात्माओंसे क्रिया क्यों होती है ?

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥

(गीता ३/३३)

अर्थात् - सभी प्राणी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसीका हठ क्या करेगा ?

उपरोक्त श्लोकमें भगवान् हेतु दिखलाते हैं- स्वभाव या प्रकृति। ज्ञानवानोंकी भी प्रकृति भिन्न-भिन्न होती है।

हेतु - एक तो- प्रारब्ध- सबके प्रारब्धका भोग एक-सा नहीं होता, पूर्व-जन्मके अनुसार सबका अलग-अलग प्रारब्ध है। दूसरी बात - कोई महात्मा भक्तिमार्गसे, कोई ज्ञानमार्गसे, कोई योगमार्गसे महात्मा बनता है। जिस साधनसे वह महात्मा बनता है, उस मार्गको वह अधिक जानता है, वैसा ही उसका स्वभाव बन जाता है।

प्रारब्धका भोग भी तीन प्रकारसे है- स्वेच्छासे, परेच्छासे, अनिच्छासे। उदाहरण- एक भाईको रुपये मिलने वाले हैं, तीनों प्रकारसे मिल सकते हैं। ऐसे ही दुःख भी तीनों प्रकारसे होता है-

अनिच्छासे - जैसे बिजली गिर गई।

परेच्छासे - जैसे डाकू घरमें आये, धन लूटनेके लिये कष्ट दिया।

स्वेच्छासे - जैसे हमारा पेट दुखता है, हमने सेक किया, परिणाम उल्टा हुआ, दर्द बढ़ गया- यह स्वेच्छासे भोग हुआ।

इसी प्रकार सुखका भोग भी तीनों प्रकारसे होता है, जैसे धनका प्राप्त होना-

परेच्छासे - जैसे किसीने गोद लेकर अपना उत्तराधिकारी बना लिया।

स्वेच्छासे - जैसे मनमें आ गई कि अमुक चीज खरीद लो और उसमें मुनाफा हो गया।

अनिच्छासे - जैसे हमारा गहना, मकान आदि चीजें हैं, उनकी कीमत बढ़ गयी। ५ रुपयेकी चीजके ५० रुपये हो गये। इसकी किसीने भी इच्छा नहीं की।

सभी प्रकारसे प्रारब्धका भोग होता है।

ज्ञानीके लिये भी इसी प्रकारसे अनिच्छा, परेच्छाके भोग तो अपने-आप हो जाते हैं, स्वेच्छासे होने वाले भोगके लिये चेष्टा होती है, क्रिया करनी पड़ती है। ज्ञानीके द्वारा दूसरोंके श्रद्धा, प्रेम और प्रारब्धसे भी क्रिया हो जाती है। पाँच आदमी आ गये, व्याख्यान हो गया, अच्छी बातें हुई। इसमें हेतु- उनकी श्रद्धा, प्रेम और प्रारब्ध ही है।

ज्ञानी महात्मामें राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि होते ही नहीं। यदि ये देखनेमें आते हैं तो वह नाटककी तरह ही है। नाटकमें नटके द्वारा क्रोध, दण्ड, अनुग्रह- सभी कुछ होता है। वास्तवमें वह समझता है कि कुछ नहीं है, राजा, सेवक- सब आरोपित हैं, सब थीयेटरकी तरह है, जैसे उसमें अभिनय हो रहा है, ऐसे ही ज्ञानी महात्मामें भी नाटककी दृष्टिकी कल्पना करनी पड़ती है। वास्तवमें वहाँ कोई दृष्टि है ही नहीं, पर समझानेके लिये यह कल्पना करनी पड़ती है।

बाजीगर (जादूके खेल दिखाने वाला) लोगोंको बाजी (जादूके खेल) दिखलाता है- वह खेल-खेलमें चतुराईसे रुपये मँगाकर दिखला देता है, पर यदि वह वास्तवमें रुपये मँगा सकता तो फिर खेलके अन्तमें लोगोंसे रुपये क्यों माँगता ? यह तो खेलमात्र ही है।

ज्ञानीमें कोई अभिमानी नहीं है, यानी करने का अभिमान नहीं है, वहाँ समझने वाला नहीं है, पर समझानेके लिये कहा जाता है कि उसकी दृष्टिमें संसार स्वप्नवत्, नाटकवत् है। स्वप्नवत्में फर्क यह है कि स्वप्न बीत गया, पर ज्ञानी वर्तमानमें भी स्वप्न ही समझता है। नाटकका उदाहरण ठीक समझमें आता है, क्योंकि नाटक हो रहा है।

एक दृष्टान्त - किसीको स्वप्न आ रहा है, स्वप्नमें उसकी लड़कीका विवाह है, साथमें वर बैठा है, देवताओंकी पूजा हो रही है, इतनेमें ही वह जग गया। फिर वापस सो गया कि अभी तो रात ही है। फिर स्वप्नमें स्वप्नके विवाहका काम जल्दी पूरा करता है, वर-वधूको विदा कर देता है। इसी प्रकार संसारसे जगा हुआ होने पर भी ज्ञानी महात्मा संसारको स्वप्नवत् समझकर ही उस संसारका काम पूरा करता है। काम, क्रोध- सबका समयानुसार व्यवहार करते हुए भी वास्तवमें उसमें ये नहीं होते हैं। महात्माओंके कोप, अनुग्रह आदि सभी क्रियाओंमें लोगोंका हित ही है। जैसे माँ, गुरु, सच्चे राजा आदिके द्वारा पिटाई करनेमें, शिक्षा देनेमें, दण्ड देनेमें उनकी दया ही भरी रहती है, ऐसे ही महात्माकी सारी क्रिया हम लोगोंके हितके लिये ही होती है।

महात्माकी दृष्टिमें कोई भेद-बुद्धि नहीं होती है। उसकी दृष्टिमें यह बात नहीं होती है कि वह स्वयं ज्ञानी है और हम लोग अज्ञानी हैं। वहाँ तो भेद-दृष्टि ही नहीं है। हम लोगोंकी दृष्टिमें वे ज्ञानी हैं। महात्माकी तो सबमें सम-बुद्धि होती है।

जैसे स्वप्नमें हम जंगलमें टहल रहे हैं। वहाँ हमारा निजी देह भी है और बाघ, भालू आदि भी हैं। उनको देखकर हमारा वह स्वप्नका देह भागता है, इतनेमें ही आँख खुल गयी। जागनेके बाद हम देखते हैं कि वह सब हमारा ही संकल्प था। जो कुछ था, सो सब मैं ही बना था, अथवा कुछ भी नहीं था। स्वप्नकालमें ही भेद-बुद्धि थी, जागने पर यह भेद-बुद्धि नहीं रहती कि मैं और अन्य पदार्थ कोई अलग-अलग वस्तुके थे। या तो कुछ भी नहीं था या सब कुछ मैं ही था। जागने पर भेद-बुद्धि नहीं रहती। इसी प्रकार ज्ञानी महात्मा जागे हुए हैं, उनकी दृष्टिमें या तो कुछ नहीं है या वे स्वयं ही सब कुछ हैं; वहाँ भेद-बुद्धि नहीं है।

प्रश्न- महात्माके द्वारा व्यवहारमें भेद कैसे होता है ? वे किसी पर कोप कैसे करते है ?

उत्तर- जैसे हमारी अँगुलीमें जहर चढ़ गया। अगर उसको कटवा दिया जाय तो बाकी शरीरमें जहर नहीं चढ़ेगा। तब हम बाकी शरीरके हितके लिये अपनी उस अँगुलीको कटवा देते हैं। ऐसे ही यदि कोई राजा ज्ञानी-महात्मा होता है तो अपने ही स्वरूप- चोर, डाकू आदिको दण्ड देता है। जहाँ अनुग्रह (कृपा) की आवश्यकता होती है, वहाँ अनुग्रह करता है; कोपके स्थान पर कोप करता है। लोगोंको उस राजामें यह कोप और अनुग्रहकी क्रिया दिखती है, वास्तवमें तो ज्ञानीकी दृष्टिमें सृष्टि ही नहीं है। यह सब केवल समझानेके लिये है।

जो महात्मा जिस मार्गसे परमात्माको प्राप्त होते हैं, वह उसी मार्गका लोगोंको उपदेश करते हैं। ज्ञान, भक्ति, योग- सब अलग-अलग होते हुए भी एक ही स्थान पर पहुँचा देते हैं, मार्ग बतलाने वाला और मार्ग ठीक होने चाहिए। देखनेमें भिन्न-भिन्न प्रतीत होने पर भी सभी एक ही स्थान पर पहुँचा देते हैं।

यहाँसे अमेरिका जाना है तो पूर्व-ही-पूर्व चलने वाला भी अमेरिका पहुँच जाता है और पश्चिम-ही-पश्चिम चलने वाला भी पहुँच जाता है। जो संशयात्मा एक ही स्थान पर कभी उत्तर, कभी दक्षिण, कभी पूर्व, कभी पश्चिम- इस प्रकारसे डाँवाडोल, (अनिश्चयात्मक) चलता है, वह कभी भी नहीं पहुँच सकता। ठीक रास्ते पर चलने वाला पहुँच जाता है।

अब भक्तिके प्रश्नका उत्तर देते हैं-

भक्तिका अर्थ- 'भज सेवायाम्' से सेवा अर्थ होता है (रूढ़ि अर्थ)। सेवा करना भी भजन है।

पारिभाषिक अर्थ- जैसे योगका अर्थ पतंजलिने माना है-

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः ।

(पातञ्जल योगदर्शन समाधिपाद सूत्र २)

अर्थात् - चित्तकी वृत्तियोंका निरोध (सर्वथा रुक जाना) योग है।

धातुसे तो योगका अर्थ जुड़ना होता है। ऐसे ही भक्तिका पारिभाषिक अर्थ एक महर्षिने माना है-

सा परानुरक्तिरीश्वरे।

(शाण्डिल्य भक्तिसूत्र प्रथम अध्याय, प्रथम आह्निक सूत्र २)

अर्थात् - वह भक्ति ईश्वरके प्रति परम अनुरागरूपा है।

एक कहते हैं- जिसकी विस्मृतिमें मरण हो जाय उसका नाम भक्ति है-

नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ।

(नारद भक्तिसूत्र १९)

अर्थात् - देवर्षि नारदके मतमें अपने सब कर्मोंको भगवान्‌के अर्पण करना और भगवान्‌का थोड़ा-सा भी विस्मरण होनेमें परम व्याकुल होना ही भक्ति है।

गीतामें भगवान्‌ने भक्तिका अर्थ दूसरी प्रकारसे किया है। भगवान् कहते हैं-

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप ॥

(गीता ११/५४)

अर्थात् - परन्तु हे परन्तप अर्जुन ! अनन्य भक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुजरूप वाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।

भक्ति क्या है ? भगवान् कहते हैं-

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥

(गीता ११/५५)

अर्थात् - हे अर्जुन ! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको करने वाला है, मेरे परायण है, मेरा भक्त है, आसक्तिरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियोंमें वैरभावसे रहित है, वह अनन्यभक्तियुक्त पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।

गीतामें अध्याय १२ के श्लोक १३ से १९ तक भक्तोंके जो लक्षण बतलाये हैं, वे लक्षण जिनमें हों, वे भक्त हैं और उन लक्षणोंका समुदाय भक्ति है।

और भगवान् कहते हैं-

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।

ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥

(गीता १०/१०)

अर्थात् - उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।

प्रेमपूर्वक भजन करना भक्ति है। कैसे-

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥

(गीता १०/९)

अर्थात् - निरन्तर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करने वाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं।

'जिसका चित्त मेरेमें वास करता है, जिसका जीवन वास्तवमें मेरे लिये ही है, सारी इन्द्रियोंके द्वारा जो मेरी भक्ति (उपासना) करता है, खाता, पीता, सोता, चलता- सब परमात्माके लिये ही करता है और एक-दूसरेको परमात्माका तत्त्व समझाता है, मेरी कथा करता है, नाम जप करता है, कथन करता है, इन सब बातोंसे सन्तुष्ट होता है, सारी इन्द्रियोंके द्वारा मेरेमें रमण करता है- रमन्ति च; ऐसे पुरुषको मैं बुद्धियोग देता हूँ।'

'मेरेको प्रत्यक्ष मानकर मुझमें रमण करता है, मेरी भक्ति और मेरेमें प्रेम करता है, उसको मैं बुद्धियोग देता हूँ' - यह गीतोक्त भक्ति है। 

भागवतमें प्रह्लाद अपने पिताको नवधा भक्ति बतलाते हैं-

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।

अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

(श्रीमद्भागवत ७/५/२३)

अर्थात् - प्रह्लादजीने कहा- 'पिताजी ! विष्णुभगवान्‌की भक्तिके नौ भेद हैं- भगवान्‌के गुण-लीला-नाम आदिका श्रवण, उन्हींका कीर्तन, उनके रूप-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।

१. श्रवण - भगवान्‌के गुण, प्रभाव, प्रेम, तत्त्व, रहस्य, लीला, धाम, नाम, चरित्र आदि का श्रवण करना।

२. कीर्तन - इन सबका कीर्तन करना।

३. स्मरण - इन सबका स्मरण करना।

४. पादसेवन - (अर्थात् भगवान्‌के चरणोंकी सेवा) जैसे हनुमान्जी, भरतजी, लक्ष्मीजी आदिकी भक्ति।

५. अर्चन - मन्दिरमें, मनमें, चित्रपटमें अथवा सारे विश्वको भगवान्‌का स्वरूप मानकर सब प्रकारसे पूजा करना।

६. वन्दन - मन्दिरमें भगवान्‌के श्रीविग्रहको और सारे जगत्को भगवान्‌का स्वरूप मानकर प्रणाम करना। रामायणमें भी आया है-

सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥

(रा.च.मा. बालकाण्ड ८/२)

अर्थ - इस सारे जगत्को श्रीसीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।

भगवान्‌का स्वरूप बड़ा विलक्षण है-

सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् ।

सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥

(गीता १३/१३)

अर्थात् - वह सब ओर हाथ-पैर वाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुख वाला तथा सब ओर कान वाला है, क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है।

भगवान्‌के सब जगह चरण हैं, सब जगह कान हैं, सब जगह नेत्र हैं। हमारी तरह दो कान, दो नेत्र, दो चरण नहीं हैं, उनके तो सब जगह ही हैं।

- तब हम मन्दिरमें क्यों जायँ ?

- क्योंकि यहाँ तुमको नहीं दिखते हैं, वहाँ प्रत्यक्ष दिखते । वहाँ उनकी प्रेमसे पूजा करो।

- हमको तो यहाँ भी भगवान्‌के चरण दिखते हैं ?

- तो फिर हमारा कोई आग्रह नहीं कि मन्दिरमें ही जाओ। तुमको सब जगह दिखते हैं तो ठीक है।

- असली नाम, असली रूप बतलाओ ?

- भगवान् हँसते हैं। भगवान्‌के सभी नाम, रूप असली हैं। ॐ, राम, कृष्ण, अल्लाह, खुदा- सभी मेरे ही नाम तो हैं। मेरे अनन्त नाम हैं।

- यह तो ठीक है, पर स्वरूप ? कोई सर्वत्र, कोई आसमानमें, कोई साकार, कोई निराकार, कोई वैकुण्ठमें, कोई साकेतमें, कोई गोलोकमें, कोई हृदयमें- कौन-सा ठीक है ?

- सभी ठीक हैं, तभी तो भगवान् हैं। किसी भी स्वरूपको पकड़कर चलो, वहाँ पहुँच जाओगे, उसको प्राप्त कर लोगे। वास्तवमें तो वह प्राप्त होने पर ही पता लगेगा। उसको प्राप्त करने वाले भी समझा नहीं सकते। स्वर्गसे कोई आकर हमें अमृतका स्वाद नहीं समझा सकता। पृथ्वीके गर्भ (नीचे)-के किसी लोकमें, जहाँ सूर्य कभी नहीं उगता, वहाँ जाकर हम यहाँके सूर्यको नहीं समझा सकते। वहाँके किसी आदमीको हम यहाँ लाकर ही सूर्यको समझा सकते हैं, लेकिन वह समझ जाने वाला भी वहाँ जाकर नहीं समझा सकता है। वास्तविक वस्तु देखने पर ही समझी जा सकती है। जब हम इतनी मोटी चीजको भी नहीं समझा सकते, तब भगवान्‌को कैसे समझावें ? भगवान् हमारी उपासना पद्धतिको स्वीकार करते हैं, वे कृपा करके प्राप्त होते हैं, तभी वास्तवमें समझमें आता है।

७. दास्य - दास्यभावमें मालिक-नौकरका उदाहरण समझानेके लिये दिया जाता है। वास्तवमें तो भगवान्‌के साथका स्वामी-सेवक भाव बहुत ही विलक्षण है। कंगालको पारस मिलने पर जो मुग्धता होती है, सेवकको भगवान्‌की सेवा मिल जानेपर उससे भी विशेष मुग्धता होती है।

८. सख्य - जैसे अर्जुन, उद्धव, सुग्रीव, गोप-ग्वाल आदि का मित्रताका भाव है।

९. आत्मनिवेदन - अपने-आपको भगवान्‌के अर्पण कर देना जैसे- गोपियाँ, राजा बलि आदि। अपने-आपको, अपने अधिकारके सारे पदार्थोको भगवान्‌के अर्पण कर देना। खुद ही भगवान्‌के अर्पण हो गया तो उसकी चीजें तो हो ही गई।

इन नौमें से एकको भी धारण कर लें तो भगवान् मिल जाय। ये सभी प्रकारकी भक्ति आ जायँ, तब तो फिर देरी ही क्या ?

उदाहरण केवल एक-एक भक्तिका-

श्रवण भक्ति - राजा परीक्षित्।

कीर्तन भक्ति - नारद, शुकदेव, गोकर्ण आदि।

स्मरण भक्ति - ध्रुवको ५ १/२ महीनेमें भगवान् मिल गये। उसने भगवान्‌में ही ध्यान लगा दिया।

पादसेवन भक्ति - जगज्जननी सीताजी, रुक्मिणिजी, लक्ष्मीजी, भरतजी आदि।

अर्चन भक्ति - राजा पृथु, बहुत-से ऋषि यही करके तर गये। गजेन्द्रने पुष्प दिया, शबरीने बेरोंसे पूजा की, विदुरकी स्त्रीने शाक का भोजन कराया (भोग लगाया), रन्तिदेवने दुखियोंकी पूजा की और तर गये।

वन्दन भक्ति - अक्रूर, भीष्मपितामह आदि।

दास्य भक्ति - हनुमान्जी, सूरदासजी, तुलसीदासजी- 'प्रभु हमारे स्वामी और हम उनके सेवक' - यह भाव कभी न जाय।

आत्मनिवेदन भक्ति - राजा बलि ।

नवधा भक्तिके प्रमाण शास्त्रोंमें बहुत मिलते हैं-

श्रवण भक्ति - गीतामें-

अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।

तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥

(गीता १३/२५)

अर्थात् - इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्द बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जानने वाले पुरुषोंसे सुनकर ही तद्नुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको निःसन्देह तर जाते हैं।

ऐसे मूढ़ सुननेके परायण पुरुष दूसरे जानने वाले पुरुषोंकी शरण होकर तर जाते हैं।

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग ।

मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा ६१)

अर्थ- सत्संगके बिना हरिकी कथा सुननेको नहीं मिलती, उसके बिना मोह नहीं भागता और मोहके गये बिना श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता।

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥

(रा.च.मा. सुन्दरकाण्ड दोहा ४)

अर्थ- हे तात ! स्वर्ग और मोक्षके सब सुखोंको तराजूके एक पलड़ेमें रखा जाय, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुखके बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण)-मात्रके सत्संगसे होता है।

सत्संगकी खूब महिमा तुलसीदासजीने गाई है।

कीर्तन भक्ति - नाम-स्मरण, जप- ये सब कीर्तनके अन्तर्गत है। आदिपुराणमें कहते हैं-

नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च ।

मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ।।

(आदिपुराण)

अर्थात् - हे नारद ! मैं न तो वैकुण्ठमें रहता हूँ और न योगियोंके हृदयमें ही रहता हूँ। मैं तो वहीं रहता हूँ, जहाँ प्रेमाकुल होकर मेरे भक्त मेरे नामका कीर्तन किया करते हैं।

तुलसीदासजी-

जबहिं नाम हिरदे धस्यो भयो पापको नाश ।

जैसे चिनगी अग्नि की परी पुराने घास ॥

सुमिरि पवनसुत पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ॥

(रा.च.मा. बालकाण्ड २६/६)

अर्थ- हनुमान्जीने पवित्र नामका स्मरण करके श्रीरामजीको अपने वशमें कर रखा है।

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ । भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ ॥

(रा.च.मा. बालकाण्ड २६/७)

अर्थ- नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्रीहरिके नामके प्रभावसे मुक्त हो गये।

गीतामें भी-

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥

(गीता ९/१४)

अर्थात् - वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं।

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।

साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

(गीता ९/३०)

अर्थात् - यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।

यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि ।

(गीता १०/२५)

अर्थात् - भगवान् कहते हैं- 'सब प्रकारके यज्ञोंमें मैं जपयज्ञ हूँ।'

ध्यानसे भी स्मरण भक्ति होती है-

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना ।

अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे ॥

(गीता १३/२४)

अर्थात् - उस परंमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं, अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा और कितने ही कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं।

यं ब्रह्मा वरुणेन्द्ररुद्रमरुतः स्तुन्वन्ति दिव्यैः स्तवै-

र्वेदैः साङ्गपदक्रमोपनिषदैर्गायन्ति यं सामगाः ।

ध्यानावस्थिततद्गतेन मनसा पश्यन्ति यं योगिनो

यस्यान्तं न विदुः सुरासुरगणा देवाय तस्मै नमः ॥

(श्रीमद्भागवत १२/१३/१)

अर्थात् - सूतजी कहते हैं- ब्रह्मा, वरुण, इन्द्र, रुद्र और मरुद्गण दिव्य स्तुतियोंके द्वारा जिनके गुणगानमें संलग्न रहते हैं, साम-संगीतके मर्मज्ञ ऋषि-मुनि अंग, पद, क्रम एवं उपनिषदोंके सहित वेदोंद्वारा जिनका गान करते रहते हैं, योगीलोग ध्यानके द्वारा निश्चल एवं तल्लीन मनसे जिनका भावमय दर्शन प्राप्त करते रहते हैं, किन्तु यह सब करते रहने पर भी देवता, दैत्य, मनुष्य- कोई भी जिनके वास्तविक स्वरूपको पूर्णतया न जान सका, उन स्वयंप्रकाश परमात्माको नमस्कार है।

गीताके ७०० श्लोकोंमें से १०० श्लोक ध्यानके मिल सकते हैं।

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥

(गीता ९/२२)

अर्थात् - जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।

तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥

(गीता ८/१४)

अर्थात् - 'हे अर्जुन ! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।'

- भगवान्‌का केवल चिन्तन करना। इसमें और कोई शर्त नहीं।

पादसेवन भक्ति - भागवतमें, रामायणमें, महाभारतमें- सब जगह पादसेवन भक्ति मिलती है। रामायणमें-

पद पखारि जलु पान करि आपु सहित परिवार ।

पितर पारु करि प्रभुहि पुनि मुदित गयउ लेइ पार ।।

(रा.च.मा. अयोध्याकाण्ड दोहा १०१)

अर्थ- चरणोंको धोकर और सारे परिवारसहित स्वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान् पुण्यके द्वारा) अपने पितरोंको भवसागरसे पारकर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्रीरामचन्द्रको गंगाजीके पार ले गया।

भरतजीने चरण पादुका माँग ली, मस्तक पर धारण करके करुणाभावसे विह्वल होते हुए ले आये और चौदह साल तक उन्हींकी पूजा की।

अपारसंसारसमुद्रमध्ये सम्मज्जतो मे शरणं किमस्ति ।

गुरो कृपालो कृपया वदैतद् विश्वेशपादाम्बुज दीर्घनौका ॥

(श्रीआदिशंकराचार्य विरचित प्रश्नोत्तरी श्लोक - १)

अर्थात्- प्रश्न- हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसाररूपी समुद्रमें मुझ डूबते हुएका आश्रय क्या है ?

उत्तर- विश्वपति परमात्माके चरणकमलरूपी जहाज।

अर्चन भक्ति - भगवान्‌की पूजा करनेसे, उनके श्रीविग्रहके पूजनसे ।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥

(गीता ९/२६)

अर्थात् - जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।

यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानवः ॥

(गीता १८/४६)

अर्थात्- हे अर्जुन ! जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोद्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

वन्दन भक्ति - भगवान्‌को प्रणाम करने मात्रसे-

एकोऽपि कृष्णस्य कृतः प्रणामो दशाश्वमेधावभृथेन तुल्यः ।

दशाश्वमेधी पुनरेति जन्म कृष्णप्रणामी न पुनर्भवाय ॥

(महाभारत शान्तिपर्व अध्याय ४७ (भीष्मस्तवराजः) श्लोक ९२)

(पाण्डवगीता श्लोक १३)

अर्थात् - भगवान् श्रीकृष्णको एक बार भी प्रणाम किया जाय तो वह दस अश्वमेध यज्ञोंके अन्तमें किये गये स्नानके समान फल देने वाला होता है। इसके सिवा प्रणाममें एक विशेषता है- दस अश्वमेध करने वालेका तो पुनः इस संसारमें जन्म होता है, किन्तु श्रीकृष्णको प्रणाम करने वाला मनुष्य फिर भवबन्धनमें नहीं पड़ता।

श्रद्धा, प्रेमकी कमीसे फलमें तारतम्यता (कम, ज्यादा) हो जाती है। विश्वास हुए बिना वस्तु मिलकर भी नहीं मिलनेके समान ही है। दुर्योधनकी सभामें भगवान्‌ने विरारूप धारण किया, पर दुर्योधनने विश्वास नहीं किया तो भगवान्‌से मिलकर भी नहीं मिलनेके समान ही है। ऐसे ही एक महात्मा मिले, हमने नहीं पहचाना तो थोड़ा लाभ हुआ; (हम उनसे ऐसे ही मिले जैसे) किसी मनुष्यसे ही हम मिले। फिर भी महात्माका मिलना अमोघ होता है।

दास्य भक्ति-

सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ।

भजहु राम पद पंकज अस सिद्धान्त बिचारि ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा ११९ क)

अर्थ - हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी ! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे सेव्य (स्वामी) हैं, इस भावके बिना संसाररूपी समुद्रसे तरना नहीं हो सकता। ऐसा सिद्धान्त विचारकर श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका भजन कीजिये।

भगवान् भी कहते हैं-

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥

(गीता ७/१४)

अर्थात् - क्योंकि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष केवल मुझको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।

तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥

(गीता १८/६२)

अर्थात् - (इसलिये) हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परम शान्तिको तथा सनातन परमधामको प्राप्त होगा।

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते ।

एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम् ॥

(गीता ९/१५)

अर्थात् - दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्मका ज्ञानयज्ञके द्वारा अभिन्नभावसे पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकारसे स्थित मुझ विराट्स्वरूप परमेश्वरकी पृथक् भावसे उपासना करते हैं।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः ।

भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ॥

(गीता ४/३)

अर्थात् - तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है; क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखनेयोग्य विषय है।

 अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ॥

(गीता ७/२३)

अर्थात् - परन्तु उन अल्प बुद्धि वालोंका वह फल नाशवान् है तथा वे देवताओंको पूजने वाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त चाहे जैसे ही भजें, अन्तमें वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।

तुलसीदासजी-

समदरसी मोहि कह सब कोऊ । सेवक प्रिय अनन्य गति सोऊ ॥

(रा.च.मा. किष्किन्धाकाण्ड ३/८)

अर्थ - सब कोई मुझे समदर्शी कहते हैं (मेरे लिये न कोई प्रिय है, न अप्रिय), पर मुझको सेवक प्रिय है, क्योंकि वह अनन्यगति होता है (मुझे छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नहीं होता)।

सोड़ सेवक प्रियतम मम सोई । मम अनुसासन मानै जोई ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड ४३/५)

अर्थ - वही मेरा सेवक है और वही प्रियतम है, जो मेरी आज्ञा माने।

सख्य भक्ति - इसके जगह-जगह प्रमाण हैं- उद्धव तर गये। गीतामें भगवान् अर्जुनसे कहते हैं- 'तू मेरा अतिशय प्यारा है, मित्र है, सखा है।' गोपियोंकी जगह-जगह प्रशंसा करते हैं कि- 'वे मुझको बेच सकती थी, मेरी सखियाँ थी।'

आत्मनिवेदन - बहुत-से उदाहरण हैं-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।

तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥

(गीता १८/६२)

अर्थात् - हे भारत ! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परम शान्तिको तथा सनातन परमधामको प्राप्त होगा।

भगवान्‌को सारे कर्म अर्पण कर दे, अपने-आपको अर्पण कर दे, अपना सर्वस्व अर्पण कर दे।

पतंजलि कहते हैं-

ईश्वरप्रणिधानाद्वा ।

(पातञ्जल योगदर्शन समाधिपाद सूत्र २३)

अर्थात् - इसके सिवा ईश्वरप्रणिधानसे भी (निर्बीज समाधि की सिद्धि शीघ्र हो सकती है)।

विष्णुसहस्त्रनाम भी कहता है- जो मेरी शरण आ जाता है, उसका उद्धार हो जाता है-

वासुदेवाश्रयो मर्यो वासुदेव परायणः ।

सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥

(श्रीविष्णुसहस्रनाम श्लोक १३०)

अर्थात् - जो मनुष्य वासुदेवके आश्रित और उनके परायण है, वह समस्त पापोंसे छूटकर विशुद्ध अन्तःकरण वाला हो सनातन परब्रह्मको पाता है।

नवधा भक्तिके नौ अंग हैं। अंगकी तो बात ही क्या, उपांग धारण करनेसे भी कल्याण हो जाता है।

कीर्तन भक्तिका एक उपांग- केवल जप ही करता रहे तो भी उद्धार हो जाय। चाहे कथन ही करता रहे, चाहे स्तुति ही करे, चाहे कीर्तन ही करे- किसी भी एक उपांगको धारण कर ले तो उद्धार हो जाय।

पूजा - पूजा के एक ही उपांगसे भी भगवान्‌की प्राप्ति हो सकती है- भगवान्‌को केवल जल ही अर्पण करे, केवल पुष्प ही अर्पण करे। गजेन्द्र पर केवल पुष्पसे, भीलनी पर केवल बेरसे, रन्तिदेव पर केवल जलसे, द्रौपदी पर केवल पत्रसे राजी हो गये।

भक्तिका एक अंग मुख्यरूपसे आने पर गौणरूपसे सब अंग आ जाते हैं। भरतजीमें मुख्य अंग पादसेवन है, परन्तु उनमें सभी अंग मिलेंगे-

भरतजीमें श्रवण भक्तिका उदाहरण - हनुमान्जीके वचन सुनकर कितने प्रसन्न हुए-

को तुम्ह तात कहाँ ते आये । मोहि परम प्रिय बचन सुनाये ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड २/७)

अर्थ - (भरतजीने पूछा-) हे तात ! तुम कौन हो ? और कहाँसे आये हो ? (जो) तुमने मुझको (ये) परम प्रिय (अत्यन्त आनन्द देने वाले) वचन सुनाये।

कीर्तन भक्तिका उदाहरण- 

राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा १ख)

अर्थ - हनुमान्जीने भरतजीको राम ! राम ! रघुपति ! जपते और कमलके समान नेत्रोंसे (प्रेमाश्रुओंका) जल बहाते कुशके आसन पर बैठे देखा।

स्मरण भक्तिका उदाहरण - भगवान् जब समय पर नहीं आये, मात्र एक दिन बच गया, तब भरतजी कहते हैं-

जन अवगुन प्रभु मान न काऊ । दीन बन्धु अति मृदुल सुभाऊ ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड १/६)

अर्थ - प्रभु सेवकका अवगुण कभी नहीं मानते। वे दीनबन्धु हैं और अत्यन्त ही कोमल स्वभावके हैं।

पादसेवन भक्ति - तो मुख्य है ही।

अर्चन भक्ति - नित्य पूजा करते हैं।

वन्दन भक्तिका उदाहरण - चित्रकूटमें भगवान्‌को साष्टांग प्रणाम करते हैं। चौदह साल बाद भगवान्‌के लंकासे वापस आने पर उनके चरणोंमें लम्बे पसर जाते हैं।

दास्य भक्तिका उदाहरण - भगवान्‌से कहते हैं कि- 'मैं आपका बालक हूँ, सेवक हूँ, आप मेरे स्वामी हैं।'

सख्य भक्तिका उदाहरण - चित्रकूट गये, तब भगवान्‌से बोले- 'पिताजीने जो दिया, उसको हम दोनों आपसमें बदल लें।' इस प्रकार भरतजीने समानताकी बात स्वीकार कर ली।

आत्मनिवेदन भक्तिका उदाहरण - भगवान् वापस आये, तब सारा राज्य अर्पण कर दिया।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...