Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

पूज्य श्रीसेठजीके सिद्धान्तकी एवं साधनाकी अनमोल बातें

प्रवचन सं. ४
दिनांक १७-३-१९४२ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, विक्रम सम्वत् १९९९गोरखपुर

होशियार, जानकार, परिश्रमी और ईमानदार आदमीकी सब जगह आवश्यकता है। जितनी शक्ति हो, उतना काम करनेके लिये हर समय तैयार रहना चाहिये। मजदूर हैं, उनमें बुद्धि नहीं है, पर खटनेके लिये तैयार हैं तो उन्हें मजदूरी मिलती है न ! परिश्रमी आदमी भूखा नहीं रह सकता है (यानी उसके अन्नकी कमी नहीं रह सकती), जो कमकस (अर्थात् - कामसे जी चुराने वाले, कामचोर) आदमी हैं, वे भले ही तकलीफ पावें। जो मुटिया-मजदूरी (अर्थात्- निम्न स्तरकी मजदूरी) तक करनेको तैयार हैं, वे भूखे नहीं रह सकते। जिनके पास रुपया है- वे, और जो परिश्रमी हैं- ये दोनों भूखे नहीं रहते। केवल कमकस आदमी हैं, वे ही भूखे रह सकते हैं।

परिश्रम भी कैसा ? - खूब काम ले। आप घड़ी लेकर मेरे पीछे हो जाओ, मुझे ५ मिनट भी खाली नहीं देखेंगे। कदाचित् मेरी मृत्यु हो तो नींद कम लेनेके कारण भले ही हो। ६ घण्टा नींदका रखकर शरीरसे १८ घंटा काम लेना चाहिये। स्वार्थ या परमार्थका कुछ तो काम करना चाहिये- भजन करे, खूब सेवा करे। वह भी नहीं हो तो रुपया कमानेका काम तो करे।

अपने यहाँ पर सब तरहके नमूने हैं- ध्यानके विषयमें गणपतरायजीका नमूना है। परिश्रम किस तरह करें- वासुदेवको देख लो। परिश्रम वाले आदमियोंकी सब जगह माँग है। भाईजीके पास चिम्मनलालजी गोस्वामी बड़े परिश्रमी हैं। दुलीचन्द था, वह अब बीमार है। गोस्वामीजीको २५० रुपया महीना तनख्वाह देते हैं, वह हमें बहुत कम मालूम देता है।

घीकी दूकानमें रामजीदासजीको देखो। बूढ़े आदमी होकर भी इतना परिश्रम करते हैं ! मैं तो परिश्रम करनेमें मेरा उदाहरण भी दे देता हूँ।

(ऊपर जिनके नाम आये हैं, ये सब श्रीसेठजीके समयके सत्संगी भाई थे अथवा गीताप्रेसमें काम करते थे।)

परिश्रम करने वालेके सब ग्राहक हैं (यानी उसे सब चाहते हैं)। हरामी (अर्थात्- अकर्मण्य) आदमी हैं, उनका भगवान् भी सीरी (अर्थात्- साथी, साथ देने वाला) नहीं है। भगवान्का नाम हरामी-बन्धु नहीं है। अकर्मण्य आदमी है, उसका भगवान् भी सीरी नहीं है। उनके दीनबन्धु, दीनदयालु आदि नाम तो हैं, हरामी दयालु, कमकस-दयालु नहीं हैं। हम लोग अब तक अपनी आत्माका कल्याण नहीं कर सके, इसमें एक ही कमी है कि अपने साधनमें तत्परता नहीं है।

- यह दोष क्यों है ?

- श्रद्धाकी कमी है।

- वह कमी क्यों है ?

- मूर्खताके कारणसे। भगवान्ने यही बात तो गीताजीमें सिद्ध की-

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।

अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥

(गीता ९/३)

अर्थात्- हे परंतप ! इस उपर्युक्त धर्ममें श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्रमें भ्रमण करते रहते हैं।

- 'अस्य धर्मस्य' (ऊपरके श्लोक का सन्धि-विच्छेद)- कौन सा धर्म ? – जिसके निम्नलिखित आठ विशेषण दिये-

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।

प्रत्क्ष्यावगमं धर्म्य सुसुखं कर्तुमव्ययम् ॥

(गीता ९/२)

अर्थात् - यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयोंका राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फल वाला, धर्मयुक्त, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।

किसी भी पुस्तकमें आपको एक श्लोकमें इतनी प्रशंसा नहीं मिलेगी। क्या कहा 'मैं जो तुमको कहूँगा, वह राजविद्या परम गोपनीय, बड़ी पवित्र है और बहुत ही उत्तम है।' एक-एक चरणमें दो-दो बात कही- 'प्रत्यक्ष फल देने वाला, धर्ममय और अविनाशी है और करनेमें बड़ा सुगम है।'

- फिर सब जीव इसमें क्यों नहीं लग जाते ?

- श्रद्धा नहीं है; वे संसारमें जन्मते-मरते हैं। जितनी कार्यकी तत्परता है, उतनी ही सफलता है। मौका आपके हाथमें है। इसको हम लोग धन समझ लें, भगवान्का वचन है, गीता कह रही है।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।

तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः ॥

(गीता ९/२६)

अर्थात् - जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।

भगवान् अपने अतिथि बनकर भोजन करनेको तैयार हैं।

मूर्ख हो, पापी हो- सबके लिये उपाय बताया। भगवान्का सिद्धान्त है कि वे जिसे भी देते हैं उससे कुछ करानेके बाद देते है, मुफ्तमें नहीं देते; हरामी नहीं बनाते। कोई पापी है तो भी भगवान्के हर्ज नहीं है, चाहे मूर्ख हो। जो कमकस है, उसे तो भगवान् भी धक्का देते हैं; किसी महात्माके पास जाओ तो वह भी धक्का देंगे, ईश्वर भी धक्का देंगे, दूकानदारके पास जाओ तो वह भी धक्का देगा।

जो परिश्रमी आदमी हैं, उनकी हमें दरकार (अर्थात्- जरूरत) है। चाहे जो लें, उन्हें हम रखना चाहते हैं। भगवान्की प्राप्तिके लिये कोई रहे तो वह तो हमारे हाथकी चीज नहीं है, परन्तु उसे हो ही जायेगी। यदि वह चाहेगा, तभी साधनमें उसकी तत्परता होगी।

हमें परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो रही है, उसमें एक ही कारण है कि हम अपनी शक्तिके अनुसार साधन नहीं करते हैं। सेवा और भजन- इनमें बुद्धिका क्या काम है ? मूर्ख-से-मूर्ख, पापी-से-पापी भी कर सकता है। खूब उत्साह रखे। दुखी आदमीकी सेवा मिल जावे तो हमें इतना उत्साह होना चाहिये, मानो भगवान् ही मिल गये। भगवान्के मिलने पर जो उत्साह, प्रसन्नता होती है, उससे ज्यादा प्रसन्नता होनी चाहिये। यदि ऐसा हो तो फिर वही नारायणके रूपमें परिणत हो जावे।

हर एक मनुष्यको चाहिये कि सेवाका काम निकाले, सेवाके कामको खोजे। यहाँ पर कोई काम निकालना चाहे तो सैकड़ों कापियाँ प्रवचनोंकी पड़ी हैं, उनसे लेख बनावे; गीताप्रेसकी चीजें हैं, उनकी लिस्ट बनावे- इतना काम पड़ा है। संसारमें उत्साह और प्रेमकी आवश्यकता है। यही कारण है कि हम परमात्माकी प्राप्तिमें अग्रसर नहीं हो रहे हैं। इन सब बातोंको कहनेका अभिप्राय दोनों दृष्टिसे ही है- परमार्थ और स्वार्थ।

(नोट- सेठजी जब प्रवचन करते थे, उन्हें उस समय कुछ सत्संगी भाई कापियोंमें लिख लिया करते थे। उन कापियोंसे प्रकाशित होनेके लिये लेख तैयार किये जाते थे और बादमें पुस्तकके रूपमें भी प्रकाशित किये जाते थे। यहाँ श्रद्धेय श्रीसेठजीका इशारा उन कापियोंकी तरफ है।)

मरनेकी तैयारी है, समय कम है। भगवान् गीताजीमें कहते हैं- 'मुझे याद कर लो'-

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।

यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥

(गीता ८/५)

अर्थात् - जो पुरुष अन्तकालमें भी मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीरको त्यागकर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूपको प्राप्त होता है- इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

मूर्ख हो, पापी हो, चाहे कैसा भी हो, अन्तकालमें भगवान्को याद कर लो तो उससे भगवान की प्राप्ति हो जायेगी।

अपने कोई बातकी कमी नहीं है। संसारमें सदाचार, ईश्वर भक्ति, सद्गुण- जो परमात्माकी प्राप्तिमें बहुत सहायक हैं, हम लोग चेष्टा करें तो सारी पृथ्वीमें प्रचार कर सकते हैं।

कमी किस बात की है ? - प्रचारक नहीं हैं।

रुपयोंकी कमी नहीं है। छापनेके लिये मशीनें बहुत हैं; और भी मँगा सकते हैं। कमी है तो प्रचारकोंकी; परिश्रम करने वाला, जीवन लगाने वाला चाहिये। चारों तरफ लोग दुखी हो रहे हैं, किस बातकी कमी है ? - रुपयोंकी कमी नहीं है, स्वार्थ त्यागकर परिश्रम करने वाले आदमियोंकी कमी है।

ये दो बातें आत्माके कल्याणके लिये बहुत सहायक हैं- सेवा और भगवान्की भक्ति। कलियुग हो, चाहे उसका बाप हो, ये दो हों तो कल्याण हो ही जायेगा। इन दोनोंके लिये तुल जाय (अर्थात् तत्परतासे लग जाय) तो कल्याण हो ही जायेगा। इसके लिये खूब कटिबद्ध होकर रहना चाहिये। प्राण चले जायँ, पर काम सिद्ध हुए बिना छोड़े नहीं। चिड़ियाका उदाहरण सामने रखे - एक चिड़ियाने समुद्रके किनारे अण्डा दे दिया था, समुद्र बहाकर ले गया। उसने समुद्रको सुखानेका निश्चय कर लिया। आखिर चिड़ियाने कइयोंकी मदद लेकर अण्डा समुद्रसे वापस ले ही लिया। एक चिड़ियाको मदद मिल गई तो क्या अपनेको मदद नहीं मिलेगी ? - भगवान् मदद देने वाले हैं, महात्मा देने वाले हैं। विलम्ब हो रहा है- यह अपनी अकर्मण्यता के कारणसे ही।

आज जो बात बताई, इसे सुनकर दो ही कामोंमें अपना समय बितावे- एक तो कोई आवे, उसकी सेवा करे और दूसरे - भजन-ध्यान करे। सबको भगवान् समझे, वाणीसे जप करे, मनसे ध्यान करे- ये तीन चीजें एक साथ ही चलें, फिर परमात्माकी प्राप्तिमें क्या विलम्ब है ?

मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा दूसरोंको दे; सबसे हँसकर बोले। सेवा मिल गई तो मानो भगवान् ही मिल गये। अपना धन तो लोगोंकी सेवामें लगावे।

माता, बहिनोंको खूब परिश्रम करना चाहिये। सेवा और भजन-ध्यान करनेमें तुल जाओ, फिर यदि भगवान् नहीं मिलें तो हमारा कान पकड़ो। फिजूल खर्चको हटाओ, घर-फूँक तमाशा मत करो (कहनेका अभिप्राय है कि फिजूल खर्च नहीं करना चाहिये)। समयको असली काममें लगाना चाहिये। गहना, रुपया तो नाश होने वाले हैं, सेवा असली धन है। इसे चोर नहीं ले जा सकते, डाकू नहीं ले जा सकते, वह चीज तो आपके साथ ही जायेगी। इस समय गवर्नमेन्ट वार लोन (युद्ध ऋण)-के लिये पाँच-पाँच हजार रुपया माँग रही है, परन्तु भजन और सेवाको कोई नहीं ले सकता है।

चोर आये तो कह दो कि- 'ले लो ! हमारे पास तो भजन और सेवा है। तुम भी करो।'

गवर्नमेन्टसे कह दो कि- 'ले लो वार लोन ! हम तो सेवा करते हैं, आप भी करो।'

ऐसा कहने पर कोई नजदीक नहीं आवे। कदाचित् घरमें आग लग जाये तो सब जल सकता है, परन्तु सेवा और भजनको तो वह भी नहीं जला सकती है। ये दोनों चीजें करनेसे बढ़ती हैं और इनको कोई भी ले नहीं सकता है - यह बात स्त्रियोंके समझमें आ जावे तो सब स्त्रियाँ धनी बन जावें। यही असली धन है-

कबिरा सब जग निर्धना, धनवन्ता नहिं कोय ।

धनवन्ता सोइ जानिये, जाके राम नाम धन होय ॥

शरीरसे खूब कसकर (अर्थात्- अधिक-से-अधिक) काम लेना चाहिये। यदि कोई कहे कि कसकर काम लेनेसे मर जायेगा तो ऐसे मरनेमें भी कल्याण है- स्वधर्मे निधनं श्रेयः (गीता ३/३५) (अर्थात्- अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है)।

प्राण देने पर भी भगवान् मिलें तो ले लो, यह सौदा मन्दा है, प्राण तो जाने वाले हैं। चना चबाकर भी अपना काम सिद्ध होता हो तो कर लो। परन्तु लोगोंकी तो विपरीत बुद्धि हो गई है। असली चीज यही है- धर्मका पालन करना। अपने शास्त्रोंमें सब बातोंकी जानकारी है, जिनका धर्मसे ही सम्बन्ध है। हम सनातनी लोगोंका सारा जीवन धर्ममय था, जिसको आज नष्ट-भ्रष्ट कर दिया गया है। शास्त्रके अनुसार अपना जीवन होता तो इस कार्यमें देरी क्यों होती ? आज झूठा लेना, झूठा देना, झूठा खाना (भोजन) - सब झूठा ही झूठा हो रहा है। व्यापार करते हैं, पद-पदमें झूठ बोला जाता है। कमर कसकर तैयार हैं कि रुपया मिले तो चाहे जितना पाप करा लो- झूठा बीजक (बिल) बनानेको तैयार, धौले पर काला लिखनेको तैयार (अर्थात् सफेद कागज पर झूठी बात लिखनेको तैयार), झूठ बोलनेको तैयार। वह जमाना था, हमारा देखा हुआ है, बाहर गाँवके (अर्थात्- दूसरे गाँवके) लोग आते थे, उनमें तीस-तीस, चालीस-चालीस वर्षके रुपये बाकी रहते थे। आजकी तरह उस समय तिमादी नहीं होती थी (अर्थात्- आजकल जैसे तीन साल तक ऋणके कागजकी मियाद होती है, उसके बाद वह कानूनके अनुसार रद्द माना जाता है, ऐसा उस समय नहीं था)। पिताजी (ऋण लेने वालेसे) कहते- '८ वर्षसे तेरे खातेमें बाकी हैं। या तो दे दे, नहीं तो कोयला फेर दे !' (अर्थात्- 'अपने हाथसे इस प्रॉमीजरी नोटको काट दे !')

वह (ऋण लेने वाला) कहता- 'मैं यह कैसे कर दूँ ?'

पिताजी कहते- 'आधा-पड़दा दे दे।’

(ऋण लेने वाला) कहता- 'पूरा देना है। आधा क्यों दूँ ? पूरा दूँगा।'

'बहीके ऊपर झूठा लिखना गौके ऊपर छुरी चलानेके समान है' - यह बात तीस-चालीस वर्ष पहले थी। कोई आदमी यह नहीं कह सकता था कि- 'तुमने झूठा लिख दिया है।' यह बात भी कोई नहीं कह सकता था कि- 'तुम ईमानसे कह दो।' आज ये दोनों ही बातें नहीं हैं।

बिल्कुल सच्ची बात होती तो भी सौगन्ध नहीं खाते थे, आज यह बात ही नहीं है। प्रायः बही झूठी लिखी जाती हैं। धौले पर काला लिखना भी पाप होता है- आज यह बात नहीं है।

आज न भगवान्का भय है, न लोकका भय है। एक राज्यका भय है, उससे बचनेकी चेष्टा करते हैं, ऐसी खराब स्थिति हो रही है। सब झूठा लेना, झूठा देना ! लेन-देन ही नहीं, झूठा जमा-खर्च ! बताओ, यह कोई आत्माके कल्याणका रास्ता है क्या ? ऐसा करने वाले तो आत्माके कल्याणके लायक ही नहीं हैं।

वह तो यह बात है कि- एक वेश्या थी उसने यह सुन रखा था कि अमावास्याके दिन किसी ब्राह्मणको भोजन करा दिया जाय तो भोजन करवानेवालेके लिये विमान आता है। उसने कई ब्राह्मणोंको कहा लेकिन कोई भी ब्राह्मण वेश्याके यहाँ भोजन करनेको तैयार नहीं हुआ। यह देखकर एक भाँडने ब्राह्मणका वेश बना लिया। उससे वेश्याने पूछा- 'आप कौन-से ब्राह्मण हैं ?'

उस भाँडने कहा- 'पाण्डिया।’

उस भाँडने पूछा- 'तू ?'

उस वेश्याने कहा- 'खत्राणी।'

उसे भोजनका निमन्त्रण दे दिया। भोजनमें कई प्रकारकी रसोई बनाई और खीर भी बनाई। उस भाँडने खूब खाई; फिर वह दक्षिणा लेकर विदा होने लगा, तब वेश्या ऊपर आकाश की तरफ देखने लगी। उस भाँडने पूछा- 'खत्राणीजी ! ऊपर क्या देखती हो ?'

वेश्याने कहा- 'विमान देखती हूँ। आप पाण्डिया तो हो न ?'

उस भाँडने कहा- 'तू खत्राणी तो है न ?'

हमको तो यह दिखता है कि हमारा सिद्धान्त हमारे साथ ही जायेगा। हम तो भजन-ध्यानसे भी बढ़कर उस बातको समझते हैं कि कोई आदमी निष्काम कर्मयोग करके दिखावे - फल, आसक्तिको त्यागकर कर्म करे, जिसके लिये भगवान् कहते हैं-

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सद्गोऽस्त्वकर्मणि ॥

(गीता २/४७)

अर्थात् - तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं। इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...