निष्कामभावकी बहुत बारीक महत्त्वपूर्ण बातें
जिससे परस्परमें प्रेम बढ़ाना हो तो उसके साथ स्वार्थ और अहंकारका त्याग करके उसके हितमें रत हो जाना- यह सूत्र है। जैसे हरेक भाई अपने हितके लिये रत है, वैसे ही, जिससे प्रेम बढ़ाना हो, उसके हितमें रत हो जाय; उसमें स्वार्थ न हो।
'मेरा कोई स्वार्थ नहीं है' - ऐसा अहंकारका वचन न कहे, यह प्रेम बढ़ानेका उपाय है। एक भाई स्वार्थ त्यागकर दूसरेके हितमें रत है, किन्तु फिर भी यदि वह कहता है कि- 'मैं निष्कामभावसे करता हूँ' - तो यह कहना भी बाधक है। आप सेवा करके कह दें तो अहंकार आ जानेसे सेवाका महत्त्व खत्म हो जाता है। आप किसीकी सेवा करें अथवा किसी को द्रव्य देवें, फिर किसी को कह दें तो किया हुआ मिट्टीके समान हो जाता है। सेवा, उपकार करें तो किसीसे कहना नहीं चाहिये।
- 'कहनेमें क्या दोष है ?'
- अहंकार-दर्शन (जिसकी सेवा की है, उसे) अच्छा नहीं लगता है, अपनेमें होते हुए भी उसे अच्छा नहीं लगता है। चाहे कोई सेवा करे या नहीं करे, परन्तु दूसरोंका अहंकार नहीं सह सकते। अहंकार सेवाके कार्यको नष्ट कर देता है। जैसे दूध में खटाईसे दूध फट जाता है। उत्तम सेवा दूधके समान है, अहंकारका वचन है, वह उसमें खटाईके समान है। जैसे खटाईसे दूध फट जाता है, वैसे ही अहंकारयुक्त वचनोंसे मन फट जाता है। मन फटने पर प्रेम कैसे रह सकता है ? प्रेममें बाधा आ जाती है। सेवा करके उसे गिनाये नहीं।
बुरी आदत सबमें होती है। अपना नुकसान खुद ही करता है। इसमें स्वार्थ और परमार्थ- दोनोंकी हानि है। उत्तम काम करके कहना मूर्खता है।
अभिमानका वचन किसीको भी सहन नहीं होता है। अभिमानका वचन किसीके भी सामने कह देते हैं तो सब व्यर्थ हो जाता है।
विश्वामित्रने राजा त्रिशंकुको इन्द्रका राज्य दिलवाया। इन्द्रने त्रिशंकुका सत्कार किया और उनसे पूछा कि- 'आपने ऐसे क्या-क्या पुण्य दान किये, जिनके बलसे आपको मेरा पद मिला ?'
त्रिशंकुने कहा कि- 'मैंने यह यज्ञ किया, यह तप किया, यह किया, वह किया।'
- 'और ?'
-'और याद नहीं।'
- 'सोचिये ?'
- 'याद नहीं।'
- 'तो बस ! यहाँसे जाइये।'
जिह्वा पर अग्निका वास होता है। अच्छा काम करके कह दें तो वह भस्म हो जाता है। 'क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति' (गीता ९/२१) (अर्थात्- पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोकमें आते हैं)। राजा त्रिशंकु अपने ही मुखसे अपने पुण्योंका बखान करनेके कारण स्वर्गसे नीचे आ पड़ा और पुकारने लगा- 'विश्वामित्र ! विश्वामित्र !'
तो विश्वामित्रने इशारेसे कहा- 'ठहरो !' वह बीचमें ही रहा। उसके मुँहसे निकली हुई लारसे जो नदी बनी, उसका नाम कर्मनाशा है- उसमें स्नान करनेसे पुण्योंका नाश हो जाता है। यहाँ यह दिखलाना है कि कोई अच्छा काम करके कह दे तो वह नष्ट हो जाता है।
अतः यज्ञ, तप, भजन, ध्यान, सेवा, उपकार आदि करके मुखसे न कहे। पूछने पर भी मौन ही रहकर टाल दे। किसीका भी उपकार करके तो कहना ही नहीं चाहिये। सेवा करके कहनेसे तो न करना अच्छा है। निष्कामभावकी महिमा बढ़ानेके लिये ही 'न करना अच्छा है' - ऐसा कहा गया है। सेवा करनेकी मनाही करनेका उद्देश्य नहीं है। सेवा करनी, पर कहनी नहीं। निष्कामभाव पर जोर देनेके लिये ऐसा कहा गया है। सेवा न करनेसे तो करनी अच्छी है। निष्कामकी प्रशंसा सकामकी अपेक्षासे है। स्त्रियाँ विशेष ध्यान दें- उनको अपनी की हुई सेवाकी बात कहे बिना हजम नहीं होती है (वे कहे बिना रह नहीं सकती हैं)। दूसरोंको कहनेमें अपनी मान-बड़ाई ही तो है।
गिनानेसे, कहनेसे लाभ हो (अर्थात् उससे दूसरोंको भी सेवाकी प्रेरणा मिलती हो) तो ठीक है, पर गिनाना ठीक नहीं है। देने वाला तब कहे, जब लेने वाला खुश हो तो कहनेमें हर्ज नहीं है। अपनी बड़ाईके लिये कहनेसे उस कर्मका क्षय होता है।
निष्कामभावके तो पौधे ही सूख गये (यानी कि निष्कामभावसे कार्य करने वाले लोग बहुत ही कम रह गये हैं), सेवाके हर काममें स्वार्थ प्रवेश हो ही जाता है। यह स्वार्थ चारों तरफसे तैयार रहता है। स्वार्थ प्रवेश हो गया तो हमारे निष्कामभावके कलंक लग गया।
निष्कामभावका व्यवहार अमृतके समान है। निष्कामभावसे किया हुआ आचरण अमृत है।
आपसमें जो प्रेम है और वह यदि निष्कामभावको लेकर है तो वह प्रेम प्रभुके साथ ही है। निष्काम सेवाका फल है- भगवान्में प्रेम। अतः प्रेम चाहे तो सबकी सेवा और उपकार करे। इनमें भी फर्क है। सेवामें तो विनय है, अहंकारका अभाव है; उपकारमें अहंकार है। अतः दूसरेके हितमें, उपकारमें रत होना चाहिये - परन्तु स्वार्थ, अहंकारको त्यागकर। सेवक हो जाय। सेवक होने पर भी यदि गिना दे (अर्थात् - कह दे) तो वह कर्म आठ आना (अर्थात्- आधा) हो जाता है; उसके निष्कामभावमें कलंक लग जाता है, सेवामें भी लग जाता है। यदि निष्कामभावसे किया तो फिर कहा ही क्यों ? कहते ही वह सकाम हो गया। कहनेसे अहंकार आ गया। सेवा तो हुई, परन्तु उसका दर्जा घट गया। किसीकी सेवा की और फिर कह दिया तो सेवापन घट जाता है और यदि कहनेमें यह कहे कि- 'मैंने तो यह काम निष्कामभावसे किया' - ये शब्द और जोड़ दिये तो सेवाका दर्जा और भी घट गया। यह तो कलंक है। वह 'निष्काम' तो अपना स्वयंका भाव है, दूँडी पीटनेका नहीं है।
हमारा यह प्रेम आधा है। अधिक हो तो इस प्रेमको देखनेको भगवान् आयें ! ऐसा कहाँ मिलता है ? ऐसे प्रेमी देखनेमें नहीं आते। प्रेमास्पद कठिन-से-कठिन काममें भी लगा दे तो वह आनन्द मानता है। हम लोगोंमेंसे कोई-कोई सत्संगी तो ऐसे हैं, जिनकी कोई बुराई करे तो वे सफाई भी नहीं देते और बर्दास्त कर लेते हैं, परन्तु बुराई सुनकर जिसके रोमाञ्च हो, प्रसन्नता हो - ऐसा मिलना मुश्किल है। बुराई सुनकर प्रसन्नता वाला भी मिल जाय, पर उसको खतरेकी जगहमें भेज दे और वह प्रसन्नतापूर्वक चला जाय, तब समझे कि यह प्रेमका नमूना है, परन्तु ऐसा मिलना असम्भव-सा है। कोई चला भी जाय तो रोते हुए ही जायगा। खतरा भी ऐसा जो मौतसे बढ़कर हो !
स्वार्थ और अहंकार त्यागकर किसीकी भी सेवा करो तो अवश्य प्रेम होगा, पर ध्यान रहे- ऐसा व्यवहार करके मनमें अहंकार न आने दें। दो बातें मनमें याद ही नहीं रखे- अपने द्वारा किया गया किसीका उपकार और किसी दूसरेके द्वारा किया हुआ हमारा अपकार। इनका संस्कार रहना ही निष्कामतामें कलंक है। मेरे द्वारा किसीका उपकार हो गया- यह भाव ही मनमें नहीं आने दें।
यदि हमें किसीके द्वारा किया हुआ अपकार भी याद है तो वह निष्कामभाव नहीं है।
दो बातें कभी भूलनी नहीं चाहिये- दूसरेके द्वारा किया गया हमारे प्रति उपकार और हमारे द्वारा हो गया किसी दूसरेके प्रति अपकार। इन दोनोंको याद रखनेसे ही इनका परिशोध (भरपाई) होकर कलंक मिट सकता है। दोनोंसे मुक्त होना ही मुक्ति है- एक ऋणसे मुक्ति (अर्थात्- दूसरेके द्वारा हमारे प्रति किये गये उपकारसे मुक्ति) और एक पापसे मुक्ति (अर्थात्- हमारे द्वारा हो गये दूसरेके प्रति अपकारसे मुक्ति)। अन्यथा हम इनके लिये दूसरोंके आभारी बने रहेंगे।
अपनेसे किसी दूसरेका अपकार हो गया, यदि उसका हमारे मनमें पश्चात्ताप होगा तो हम पापसे मुक्त हो जायेंगे। हमारे जन्म लेनेमें दो ही हेतु हैं- पाप और ऋण (कर्ज)। जो व्यक्ति निष्पाप और उऋण (कर्ज मुक्त) है, वह मुक्त ही है- न पाप करे और न किसीका ऋणी ही रहे। अतः पाप बननेमें आ जाय अथवा ऋण हो जाय तो इनको आजीवन याद रखे। और इनको उतारनेका हर सम्भव प्रयास करे।
दो बातें भुलानेसे लाभदायक हैं-
प्रथम - अपने द्वारा किया गया उपकार, चाहे उसे किसीको भी कहो मत, केवल अपने मनमें ही रखो तो भी निष्कामभावमें कमी है।
दूसरा - दूसरेके द्वारा किया गया अपकार। चाहे हमने उसका कुछ भी अनिष्ट नहीं किया तो भी हमारे मनमें तो है कि उसने अनिष्ट किया है, अतः उसे ईश्वर दण्ड देंगे, अथवा उसे सरकार दण्ड देगी। यदि उसे क्षमा नहीं किया तो यह विचार रहता ही है कि मेरे साथ अन्याय हुआ और उसको दण्ड नहीं हुआ।
ऐसा व्यवहार हो, जिसमें स्वार्थ, अहंकार न हो। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी गन्ध भी न हो।
निष्कामभाव अमृतके समान है- ज्ञानमें भी है, भक्तिमें तो है ही। परस्पर प्रेम बढ़ाना चाहिये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…