Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

नामका जप और स्वरूपके ध्यानकी सभी साधनोंमें आवश्यकता है

प्रवचन सं. १
दिनांक ९-५-१९४३टीबड़ी, स्वर्गाश्रम

ज्ञानके सिद्धान्तमें दो बातोंकी बहुत आवश्यकता है- वैराग्य और उपरति। जब तक देहमें अभिमान है, तब तक ज्ञानमार्ग समझमें आना कठिन है। देहाभिमानसे रहित होनेसे ही वह बात समझमें आती है। अभ्यास करते-करते भी देहमें अभिमान आ ही जाता है, जिस प्रकार यह बात समझते हुये भी कि स्वार्थ नहीं आना चाहिये, तब भी काम पड़ने पर स्वार्थ आ ही जाता है। यह साधनकालकी बात है, सिद्धावस्थाकी नहीं है। देहाभिमानका नाश करना बड़ा ही कठिन है। विवेकके द्वारा समझता है कि मान, बड़ाई घातक हैं, किन्तु जब ये आकर प्राप्त होती हैं तो साधक इनमें बह ही जाता है। उनको त्यागना जैसे कठिन है, इसी प्रकार देहाभिमानका त्याग करना कठिन है। स्वार्थबुद्धि, देहाभिमान, मान-बड़ाईकी इच्छा - ये चीजें त्यागनी बड़ी कठिन हैं। देहाभिमानकी जड़ है- अविद्या । सबका मूल कारण है- अविद्या। युक्तियोंसे सिद्ध होता है कि यह अज्ञानके कारणसे है, फिर भी मनुष्य इनको मिटा नहीं रहा है। समझते हैं कि ये सब भाँगके नशेके समान हैं, फिर भी हटानेकी चेष्टा नहीं करते हैं।

अबसे लेकर मरण तक का समय है। कोई भी मनुष्य यह विचारकर समय नहीं बिताता है कि समय परिमित (थोड़ा) है। अज्ञानके कारण समय उसी तरह बीत रहा है। कई बार बताया जाता है कि आप लोग जो साधन-भजन, पूजा-पाठ करते हो, उसमें सुधार करनेसे लाभ हो सकता है, फिर भी सुधार नहीं किया जाता है।

हम सब समझते हैं कि क्रोध करना बुरी चीज है, परन्तु जब मनके प्रतिकूल अवस्था आकर प्राप्त होती है, तब क्रोध आ ही जाता है। विचारके द्वारा समझते हैं कि यह बुरा है, तब भी यह आ ही जाता है।

दोषोंको हटानेकी खूब कोशिश करनी चाहिये; बहुत प्रयत्नकी आवश्यकता है। प्रयत्न तो करते नहीं हैं, पोलमें (अर्थात् बिना कोई प्रयास किये) ही इनको दूर करना चाहते हैं - हरिको मार्ग है शूराँको, नहिं कायरको काम।

खूब कोशिश करनी चाहिये। ईश्वरकी शरण होकर कोशिश करे, फिर कठिन नहीं है। रोज एकान्तमें बैठकर ईश्वरसे प्रार्थना करें, रोवे- 'हे प्रभो ! रक्षा करो !' रक्षा तो कराना चाहता है, किन्तु पोलमें (अर्थात् बिना कोई प्रयास किये ही)।

भगवान् तो दासोंके दोषोंको देखते ही नहीं; आँख मींच रखी है।

ज्ञानमार्ग है; समझमें आ जाय तो यह भी सुगम है-

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति ।

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥

(गीता १४/१९)

अर्थात् - (हे अर्जुन !) जिस समय द्रष्टा तीनों गुणोंके अतिरिक्त अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणोंसे अत्यन्त परे सच्चिदानन्दघन स्वरूप मुझ परमात्माको तत्त्वसे जानता है, उस समय वह मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।

जो यह त्रिगुणमय संसार है, इससे अपने-आपको अलग देखे। सबको अपने संकल्पके आधार देखे (अर्थात् साधक यह अनुभव करे कि सम्पूर्ण सृष्टि मेरे संकल्पके आधारसे स्थित है) ।

रास्ते तो तीनों ही (अर्थात्- ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग) सीधे हैं। तीनोंमें जो-जो कठिनाई हैं, उन्हें हटाना चाहिये। खोज कर करके कठिनता हटावे। कर्मयोगमें कठिनता है- स्वार्थ और आसक्ति। इनका त्याग हो जावे तो कर्मयोगका मार्ग सीधी सड़क है, हरीसन रोड़की तरह (कलकत्तामें हरीसन रोड़ गंगाजी जानेके लिये एक चौड़ी और सीधी सड़क है ) ।

आसक्तिका दोष तो सभी मार्गोंमें है, इसलिये वैराग्यकी सभी मार्गोंमें आवश्यकता है।

बार-बार प्रार्थना करे, रोवे । बालकका काम तो रोना है।

नामका जप और स्वरूपका ध्यान- इनकी सभी मार्गों में आवश्यकता है।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...