Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

कल्याणकारी अनमोल बातें

प्रवचन सं. ७
दिनांक १ जनवरी १९३४ (विक्रम सम्वत् १९९० की डायरीसे)

भगवान्‌से मुक्ति माँगनेवालेसे उनके दर्शन माँगने वाला उत्तम है। उनसे भी भगवान्‌में प्रेम माँगने वाला उत्तम है। यदि यह भी नहीं हो तो हर वक्त उनकी चर्चा ही सुनते रहें।

अभ्यास और वैराग्यसे तेज उपाय बताया जाता है। साथ-साथमें मेरी यह प्रार्थना है कि बतलानेके बाद इसको काममें लाना चाहिये। उपाय बड़ा सहज है। मूर्ख-से-मूर्ख तथा पापी-से-पापी भी उसको कर सकता है। एकान्त में बैठकर उस परमेश्वरके आगे गद्गद वाणीसे रोवे- 'हे नाथ ! मेरा कोई जोर नहीं है। यह पापी मन आपको छोड़कर विषयोंकी तरफ जा रहा है। हे नाथ ! पतिंगे (प्रकाश या अग्नि देखकर उसके नजदीक जाकर उसीमें नष्ट हो जाने वाले जीव) की तरह मेरी दशा हो रही है। हे नाथ ! आपके बिना मुझे बचाने वाला कोई नहीं है। मैं यद्यपि मनसे आपकी शरण नहीं हूँ, तथापि वाणीसे तो हूँ। मेरी दशाकी तरफ निहारो, हे नाथ! आपका संग पाकर भी, हे नाथ ! मैं सनाथ होकर भी अनाथकी तरह मारा जा रहा हूँ।' – इस तरहसे भगवान्‌के सामने रोना चाहिये। इस प्रकार सच्चे दिलसे रोनेसे भगवान् जरूर सुनेंगे- मेरेको यह निश्चित विश्वास है। परमेश्वरके सामने दिल खोलकर रोना चाहिये- 'हे नाथ ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि भविष्यमें मेरे द्वारा कोई पाप नहीं हो।' लाखों काम छोड़कर भी इस कामको करना उचित है। जब आप एकान्तमें बैठते हो, तब यदि आपको आलस्य आता है, तब आपको भगवान्‌का आनन्द कैसे आयेगा ? भगवान्‌का आनन्द प्रारम्भमें कुछ कठिन है, परन्तु परिणाममें महान् सुख देने वाला है। साथमें यह विश्वास रखो कि- भगवान्‌का आनन्द नीच-से-नीच व्यक्तिको भी प्राप्त हो सकता है, आपको निराशा नहीं होनी चाहिये। मेरे पर विश्वास करके इस कामके लिये तत्पर हो जाना चाहिये।

यदि आप ईश्वरके प्यारे बनना चाहते हो तो ईश्वरके अनुकूल बन जाओ, ईश्वरको जो प्रिय हो, वह अपनेमें सजाओ (अर्थात्- धारण करो)।

प्रेमका फल है- परमात्माकी प्राप्ति। भगवान्‌के आनेका लक्षण कौन-सा है ? प्रेमके पूर्वका लक्षण कैसा होता है ? – जैसे मछली जलके बिना तड़फड़ाती है, वैसी तड़फन हो जावे, उदाहरणके लिये- जैसे (रासलीलामें भगवान्‌के अन्तर्धान हो जाने पर) गोपियाँ वनमें ढूँढती फिर रही हैं। उनके विरहमें ऐसा व्याकुल हो जावे, तब भगवान् पहुँचते हैं।

जब साधक सच्चे दुःखसे परमात्माके लिये विलाप करता है, उस समय भगवान् आते हैं, जैसे रुक्मिणिजी व्याकुल हुई थी, क्योंकि भगवान् समय पर नहीं पहुँचे थे। जब वे बहुत व्याकुल हो गई, तब भगवान् पहुँचे। जैसे द्रौपदीका चीर उतारनेके समय भगवान् पहुँचे थे। आवश्यकता समझने पर भी भगवान् पहुँचते हैं, जैसे प्रह्लादके समय पर भगवान् बिना बुलाये आये। जब पाण्डवोंके यहाँ वनमें दुर्वासा आये, उस समय भगवान् पहुँचे, द्रौपदीसे बोले- 'मुझे खानेके लिये कुछ भोजन दे।’ उनके द्वारा शाक का मात्र एक पत्ता खाये जानेसे सम्पूर्ण विश्व तृप्त हो गया। जिनके बुलानेके साथ ही भगवान् आ जाते थे, उन पुरुषोंको धन्य है !

जिनके पुकारनेसे भगवान् आ जावें, वही भक्ति वास्तवमें भक्ति है।

- 'भगवान्‌के मिलनेके बाद कैसे लक्षण होते हैं ?'

- उस पुरुषको अपने-आपका ज्ञान नहीं रहता है, वह पुरुष एकदम अवाक् हो जाता है। उसका यह भाव हो जाता है कि 'मैं तो एक महा-तुच्छ प्राणी हूँ, क्या भगवान् आ गये !' उसको देह-गेहका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है, उसकी नेत्रोंकी पलक नहीं पड़ती हैं, उसके नेत्र प्रेमाश्रुओंके कारण डबडबाये हो जाते हैं, प्रेम ही उसके नेत्रोंसे बहने लग जाता है, मुखारविन्द शान्त हो जाता है, उसके शरीरमें रोमाञ्च होने लगता है, वह मूर्तिकी तरह निश्चल हो जाता है, उसको कुछ भी होश नहीं रहता है।

वास्तवमें सच्चा दिल हो (सत्संगके प्रति सच्चा प्रेम हो) तो सत्संग करते हुए अभी रात निकालनेमें कुछ देरी नहीं लगे।

हम लोग तो नकली प्रेमसे ही रात निकाल देते थे। खड़गपुर में हम लोगोंको रात-की-रात निकल जाती थी। (नोट- श्रद्धेय श्रीसेठजी बाँकुड़ा रहते थे और कलकत्ताके बहुत-से व्यापारी भाई उनका सत्संग करनेके इच्छुक रहते थे। तब यह व्यवस्था की गई थी कि सेठजी बाँकुड़ासे खड़गपुर चले जायँ और सत्संगी भाई कलकत्तासे खड़गपुर आ जायँ, क्योंकि यह स्टेशन दोनोंके बीचमें पड़ता था। वहाँ रातभर सत्संग होता था। सुबह सब अपने-अपने स्थानको चले जाते थे।)

प्रेमीका दर्शन भी पवित्र करने वाला होता है।

कोई अपना मित्र है, वह जो बात कहता है, उसे पहले अपने मनमें सोच लेना चाहिये, सब प्रकारसे (भलीभाँति) विचार कर लेना चाहिये, फिर उसके पालनके लये कटिबद्ध होकर तत्पर हो जाना चाहिये।

एक अच्छे महापुरुषका सहारा लेना चाहिये। वह कह दे कि- 'सब कुछ त्याग दो' तो उसी समय त्याग देना चाहिये। ऐसे एक महापुरुषका आसरा लेना चाहिये- भयसे, शर्मसे, चाहे जैसे भी लो।

आप लोग इतने दिनसे (भगवत्प्राप्तिके मार्गमें) चेष्टा कर रहे हो, फिर भी विशेष फायदा क्यों नहीं होता है ? क्या समयका दोष है ? क्या संगका दोष है ? क्या वैद्य (संत, महात्मा) भी फायदा नहीं बतलाते हैं ? क्या आप स्वयं पथ्य (भगवत्-विषयक भजन, ध्यान) नहीं जानते हो ? क्या घरके लोग कुपथ्य (पाप या फालतू काम) कराते हैं ? क्या रोग समझमें नहीं आता है ? अथवा औषध समझमें नहीं आती है ? इन सब बातों पर ध्यान देकर विचार करना चाहिये।

- अच्छे पुरुषोंकी बात क्यों नहीं मानी जाती ?

- अश्रद्धाके कारण। इसके लिये परमेश्वरसे प्रार्थना करे।

अपने-आपमें गीताका ज्ञान बढ़ाओ और गीताके अनुसार चलना चाहिये।

गीताका पाठ करनेसे जितना फायदा है, उतना कथासे नहीं है।

ईश्वर में कम-से-कम यह श्रद्धा करनी चाहिये कि ईश्वर दयालु, न्यायकारी, परम सुहृद्, बिना हेतु ही दया करने वाला है, अन्तर्यामी है- इतना माननेसे हमसे पाप नहीं होते हैं।

परलोकमें विश्वास करनेसे ही अपना कल्याण है। कल्याणके कामके सिवाय दूसरा काम करना ही नहीं चाहिये।

कोई भी काम हो, उसमें यदि कल्याणका अंश नहीं हो तो उसको तुरन्त दूर फेंक देना चाहिये।

जब तक रात-दिन अपने कल्याणके कामको करनेके लिये तत्पर नहीं हो जाओगे, उसमें किञ्चित् भी भूल नहीं होगी, तब तक आपको महात्मा होनेकी विद्या नहीं आयेगी। महात्मा अपनेको कोई काम करनेके लिये कहेगा, वह अपने करने लायक ही कहेगा।

बहुत प्रभावकी बात- मित्रो ! मेरी एक बातको तो आप लोग मान ही लो। और बातें आप नहीं मानो तो भले ही मत मानो। यह तो आजसे नियम कर लो कि सन्ध्या समयसे करनी है। सन्ध्या समयसे करनेसे कल्याण हो जायेगा- इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।

केवल एक सन्ध्यासे ही कल्याण हो जायेगा, आदरसे सन्ध्या-गायत्री करो तो कल्याण हो ही जायेगा। परमात्माका ध्यान करते हुये गायत्रीका जप किया जाय तो वह ज्यादा मूल्यवान् है।

(सन्ध्योपासना एवं गायत्रीका जप वही व्यक्ति कर सकता है, जिसका जनेऊ संस्कार हो गया हो। जनेऊ संस्कार का आयोजन गीताभवन, स्वर्गाश्रम (ऋषिकेश)-में प्रतिवर्ष होता है, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य भाइयोंका यह संस्कार विधि-विधानसे करवाया जाता है। पाठकोंकी जानकारी हेतु यह सूचना दी गई है।)

श्रद्धा-प्रेमसे गायत्री मंत्रकी एक माला सूर्योदयके समय (प्रात:काल) और एक माला सूर्यास्त (सन्ध्या) के समय की जाय तो दोनों समयमें लगभग ४५ मिनट लग जाते हैं। इस प्रकार मनुष्य २४ घंटेमें एक घंटा प्रेमसे बिता देवे तो उसके कल्याण होनेमें कोई शंका नहीं है।

और बलिवैश्वदेव रोज करना चाहिये। इन कामों (सन्ध्या एवं बलिवैश्वदेव) को प्रतिदिन किया जाय तो निश्चय कल्याण हो जायेगा। मेरे मनमें यह विश्वास है कि इनके करनेसे कल्याण हो ही जायेगा- सदा ही गायत्रीकी एक माला और बलिवैश्वदेव - आजसे लेकर जीवनपर्यन्त कर लिया जाय- (१) ये दोनों काम नियमसे नित्य ही किये जायँ (२) सन्ध्या और गायत्रीका जप सुबह सूर्यके उदय एवं सायंकाल सूर्यास्तसे पहले किया जाय और (३) प्रेमसे किया जाय तो इससे अपना कल्याण जरूर ही हो जाये।

इस विश्वासकी यह पहचान है कि विश्वास होनेसे ये काम आदर और नियमसे जरूर ही होंगे।

अब इसमें यह बात देखनी है, शास्त्र तो प्रमाण है ही- सन्ध्यामें प्रधान- शरीरकी पवित्रता, मार्जन, प्राणायाम, संकल्प, सूर्यको अर्घ्य।

ईशावास्योपनिषद्में यह बात आई है कि- 'हे अग्नि ! तू हमें अर्चिमार्गसे ले चल।’

स्त्रियों और बालकोंको सूर्य भगवान्‌को तीन बार जलसे अर्घ्य देना चाहिये और इस मंत्रका अधिक से अधिक जप करना चाहिये- हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे । हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥

स्त्री, बालक यदि पढ़े हुये हों तो रोजाना गीताके एक अध्यायका अर्थ सहित पाठ करना चाहिये।

मरते समय यदि गंगाजीका किनारा मिल जाय तो बहुत ही उत्तम है; नहीं तो मरणासन्न व्यक्तिको भगवन्नाम सुनाना और उसके मुखमें तुलसी एवं गंगाजल देना चाहिये।

हर समय प्रसन्न रहना और सौम्यता रखनी चाहिये।

हर समय भगवान्‌का ध्यान और उनकी चर्चा करते रहना चाहिये।

शोकका त्याग करना यदि हम लोगोंके वशमें नहीं होता तो शास्त्रोंके उपदेश व्यर्थ हो जाते।

अपने मनमें यह तो कभी आने ही नहीं दे कि इस जन्ममें मेरा कल्याण नहीं होगा।

भले ही कितनी ही भारी चोट आवे (अर्थात् सांसारिक हानि हो जावे अथवा किसी प्रियजनकी मृत्यु हो जावे) तो भी भगवान् पर यह भरोसा रखना चाहिये कि वे ही सब सँभालेंगे।

अब तो दौड़ो, इस भवसागरसे जल्दी पार हो जाओ, जो काम करना चाहिये, वह कर लो। आयु जो बीत गई, सो तो बीत गई, अब तो बहुत चेष्टासे लगना चाहिये ताकि जल्दी ही बेड़ा पार हो जाय।

सब भाइयोंसे प्रार्थना है कि- सन्ध्या-गायत्री समयसे करनेसे ही पूरा लाभ होता है।

जो पुरुष आदरपूर्वक सूर्यकी उपासना करता है, उसके कल्याणमें कोई शंका नहीं है।

बलिवैश्वदेव करना अग्निकी उपासना है।

इस दुनियामें सूर्यके समान कोई भी प्रत्यक्ष देवता नहीं है। अतः सूर्यकी उपासना समयसे और नियमसे करनी चाहिये।

महापुरुष जिस व्यक्तिके लिये कह दें कि- 'यह मेरा है'

- उसका कल्याण हो गया।

मेरा प्रियतम, अत्यन्त प्यारा वही पुरुष है, जो मेरी बातको माने यानी मैं जो सिद्धान्त निश्चित कर दूँ, उसके अनुसार चले। जिन लोगोंने यह बात अपना ली है, सो तो उत्तम है। यदि आप यह समझ लें कि- 'मेरा काम पूर्ण हो गया है' तो मान लो कि पूर्ण हो ही गया है। यदि यह मान लिया जायेगा तो हो ही जायेगा। यदि आप इसे कठिन मानते हैं तो यह कठिन रहेगा।

यदि यह बात समझमें आ जाये कि अगलेकी (भगवान्‌की अथवा किसी महापुरुषकी) यह मर्जी है तो उस कामको बिना सोचे करने लग जाना चाहिये। आगकी खाईमें भी कूदना पड़े तो कूद जाना चाहिये। श्रद्धा ऐसी हो जानी चाहिये कि इस खाईमें मरनेसे मुक्ति है। इसमें प्रवेश करनेसे ही मुक्ति है।

भगवान्‌का ध्यान करनेके समय निम्नलिखित प्रकारके विघ्न आते हैं- (१) मन उचाटी (अर्थात् उकताहट, चलायमान, एक लक्ष्य पर स्थिर नहीं होने देना) पैदा कर देता है (२) बार-बार आसनसे उठानेकी चेष्टा करता है (३) और दूसरी जगह उठाकर ले जाता है। इसमें मनकी बुरी आदत है, पूर्वजन्मके संचित कर्म आकर उठाकर ले जाते हैं, पापकर्म और पापकर्म करनेकी बुरी आदतसे भी ऐसा होता है। अतः इनसे बचनेका प्रयत्न करना चाहिये।

साधक स्वतन्त्र रहकर, सावधान होकर चेष्टा करे तो उपरोक्त विघ्नों पर विजय प्राप्त कर सकता है। इस (मन) को जीतनेके लिये ईश्वरका आसरा लेना चाहिये।

ईश्वरकी प्राप्तिमें चार विघ्न- (१) मांसाहार (२) खर्चीला जीवन (३) विद्याका मद (अभिमान) और (४) श्रद्धाका अभाव।

(१) मांसाहारी व्यक्ति कभी भी सब जीवोंमें भगवान्‌को व्यापक नहीं देख सकता है। मांस-लोलुप व्यक्ति निर्दयी हो जाता है, इससे वह ईश्वरकी दयाका अधिकारी नहीं होता है। मांसाहारीका स्वास्थ्य खराब रहता है, जिससे वह भजन नहीं कर सकता है। मांसाहारीकी चित्त-वृत्तियाँ तामसिक रहती हैं, जिससे वह भगवान्‌में नहीं लग सकता है, अतएव मांसाहारका सर्वथा त्याग करो।

(२) खर्चीला और विलासी जीवन पापका घर है। जो अधिक खर्च करता है और शौक-मौजका सामान जुटानेमें लगा रहता है, उसे दिन-रात धनकी चिन्तामें ही जीवन बिताना पड़ता है। कहीं भूले-भटके सत्संग या अच्छे स्थानमें चला जाता है तो वहाँ भी धनकी ही बात सोचता है, अतएव सीधा-सादा जीवन बिताओ और बहुत ही कम खर्च करो।

(३) विद्याका मद मनुष्यको सरल सन्तोंकी वाणीमें विश्वास नहीं करने देता, वह शास्त्रार्थ और दूसरेकी उक्तियोंके खण्डनमें ही जीवन बितानेको बाध्य करता है, नम्रतासे किसी भी अच्छी शिक्षाको ग्रहण नहीं करने देता, अतएव विद्याका घमण्ड छोड़कर जीवनको उन्नत बनाने वाली शास्त्रोंकी शिक्षा ग्रहण करो।

(४) श्रद्धाका अभाव मनुष्यको ईश्वरविमुख कर देता है, कारण कि परमात्मामें विश्वास करनेके लिये सबसे पहले शास्त्रवचन और आप्त (भगवत्प्राप्त) पुरुषोंके वचनोंमें श्रद्धा करनी पड़ती है, विश्वास किये बिना प्राप्तिका साधन नहीं होता और साधन हुये बिना प्राप्ति नहीं होती। अतएव शास्त्र, सन्त और आत्मा पर विश्वास करो।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…