हृदयके सरल भाव - कोमलता, विनय, दया, मधुर भाव होनेसे भगवान् जल्दी मिलते हैं
सरल भावसे भगवान् बहुत जल्दी मिलते हैं, पर सरल भाव होना बहुत मुश्किल है। मनुष्यमें एक अभिमान रहता है, जो कि उसे सरल नहीं होने देता है। हृदयके जो कोमलता, विनय, दया, मधुर भाव हैं- ये सब जिसके हृदयमें होते हैं, उसको भगवान् बहुत जल्दी मिलते हैं। जैसे प्रेमभाव है। एक-एक भाव वाले तो कई जगह मिले। हम सबसे एक-एक चुनकर ले लें। यह बड़ी लाभदायक चीज है। सबसे एक चीज ले लो। सब चीज भगवान्को मिलाने वाली हैं।
छः चीजोंका प्रेम बड़ा ही दोषी है- कंचन, कामिनी, देहका आराम, मान, बड़ाई और ईर्ष्या। ये दोष हमसे हट जावें तो बहुत जल्दी भगवान् मिल जावें। ये छः प्रधान दोष हैं।
अनुकूलता-प्रतिकूलता, प्रिय-अप्रिय, इष्ट-अनिष्ट- ये सब एक जैसे ही लगें यानी इनमें समता आ जाय। इन दोषोंसे कैसे मुक्त हो सकते हैं- यह भक्तिके सिद्धान्तसे कहा जाता है।
भक्ति वास्तवमें जो शास्त्रोंमें बताई गई है, वैसे तो कोई भक्त ही कह सकता है। भगवान्की भक्ति हृदयमें जाग्रत् हो जावे तो कोई भी दोष टिक नहीं सकते हैं। जहाँ भी नेत्र जावे, वहाँ भगवान्को ही देखे। सारे संसारके अणु-अणुमें भगवान् दिखने लगें तो बाकी सारी बातें अपने-आप हो जावें।
दो चीजें हैं- १. अनुकूल २. प्रतिकूल। दोनोंमें एक बुद्धि हो जावे।
सर्वत्र भगवान्को देखे, जैसे- प्रह्लादजीको खम्भेमें, अग्निमें- सर्वत्र भगवान् दिखते हैं। जब सर्वत्र भगवान् दिखेंगे, तब भगवान्से द्वेष कर ही नहीं सकते, भय हो ही नहीं सकता। भगवान्से भय क्या ? क्रोध भी नहीं हो सकता। भगवान् पर क्रोध कैसे हो, भगवान्का दर्शन करके वह तो आनन्दमें मुग्ध रहता है।
परमात्माके सिवाय कोई भी वस्तु प्रेमके लायक नहीं है। संसारमें जो रमणीय बुद्धि हो रही है, यह ही रस प्रतीत होता है। भगवान्का प्रेम उत्पन्न होने पर बाकी सब रस सूख जाते हैं। जैसे सूर्य उदय होने पर जुगनूकी रोशनी दिखाई नहीं पड़ती है, वैसे ही भगवान्का प्रेम उत्पन्न होने पर संसारका प्रेम नष्ट हो जाता है।
इसके दो उपाय हैं- १. नाम जप और २. सत्संग - इनसे हृदय शुद्ध होता है। जैसे किसीके पास पारस होवे तो क्या वह कौड़ियोंकी परवाह करता है ? वैसे ही भगवान्का नाम है।
एक बहुत बढ़िया बात याद आ गई, बताते हैं।
भगवान्की भक्तिके कई भाव बतलाते हैं। सबसे ऊँचा माधुर्यभाव और सबसे नीचा दास्यभाव बतलाया जाता है। अपने तो सबसे छोटे भाव (दास्यभाव)-की ही इच्छा करनी चाहिये। ऊँचे-ऊँचे भाव बड़े-बड़े महात्माओंके लिये ही सही, अपने तो दास्यभाव ही ठीक है। कोई-कोई समय सखाभाव भी आ जाय। अर्जुनके यही दो भाव थे।
भगवान् भी अर्जुनको कहते हैं- भक्तोऽसि मे सखा चेति (गीता ४/३) (अर्थात्- तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है)। सबसे नीचे होकर रहना, सबके चरणोंमें रहना। दास्यभावमें भी सबसे नीचे दर्जेका काम लेना चाहिये। दास्यभावमें चरणोंका और सखाभावमें मुखारविन्दका ध्यान रहता है। ये दोनों मिले हुए भाव ठीक लगते हैं।
कोई वक्त एक क्षणके लिये भी भगवान् अपनी झाँकी दिखला दें तो फिर अलौकिक ही दशा हो जाय ! मुखारविन्दका दर्शन हो जाय तो फिर हमारी सामर्थ्य नहीं कि उससे अपने नेत्र हटा लें; उससे जरा भी अपने नेत्र नहीं हटा सकते। पलक भी नहीं पड़ सकती।
ऐसे प्रतीत न हों तो भनसे ही भगवान्के दर्शन करें। उनका मुखारविन्द सौन्दर्यका केन्द्र है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…