Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

गीताप्रेस का उद्देश्य, हमारा सिद्धान्त, उद्देश्य एवं व्यवहारकी कीमती बातें

प्रवचन सं. ८
दिनांक २९-११-१९३७गीताप्रेस, गोरखपुर

(गीताप्रेस के अधिकारियों एवं कर्मचारियोंको उद्बोधन)

यह गीताप्रेसका काम भगवान्‌का ही काम है। भगवान्‌की कृपासे ही इस प्रकारका काम प्राप्त होता है। यहाँ पर हम सब जितने आदमी हैं, हमारे लिये एक गीताप्रेसका ही काम है। अपने-अपने भावके अनुसार भिन्न-भिन्न है।

गीताप्रेसमें साढे सात घंटा काम करने वालोंके लिये भी दूसरी जगहकी अपेक्षा यहाँ काम करना बहुत ही सौभाग्यकी बात है, परन्तु यह बात (यानी सेवामें अधिक समय लगानेकी बात और त्याग करनेकी बात) उन लोगोंको किस तरहसे समझावें ?

उन लोगोंकी अपेक्षा आप लोगोंके लिये ज्यादा लाभदायक है। आप लोग अधिक सौभाग्यके पात्र हो। आप लोगोंको जो प्रसन्नता रहती है, हमारे उससे भी ज्यादा रहती है, यह सौभाग्यकी बात है। हमारे तो खूब ही आनन्द है, आनन्दका ठिकाना ही नहीं है ! जिस भावसे हम गीताप्रेसके कामको समझते हैं, उसी भावसे यदि आप लोग भी समझ लो तो आपके और भी आनन्दकी बात है। आप लोगोंके तो बहुत सुगमता है (यानी मैं आपको इस कार्यको करनेके लाभके बारेमें बताता रहता हूँ। हमको तो इस कार्यके लिये कोई समझाने वाला भी नहीं था।

जिस गीताके प्रचारके लिये भगवान् स्वयं कहते हैं कि- 'गीताका प्रचार करने वालेके समान मेरा न तो कोई प्रिय भक्त है और न होगा (गीता १८ / ६८-६९)।' यह भगवान्‌का ही काम है।

बुद्धिका अभिमान, जाननेका अभिमान, मान-बड़ाईकी इच्छा- ये भगवत्प्राप्तिमें रुकावट हैं।

कंचन-कामिनीके त्यागकी तो कोई बात ही नहीं है, क्योंकि गीताप्रेसमें इसका कोई सवाल ही नहीं है। कामिनीकी तो यहाँ कोई बात ही नहीं है। रुपयोंका भगवान्‌के दरबारमें कोई घाटा (अर्थात् कमी) है नहीं, उद्देश्य त्यागका होना चाहिये, इस कामको भगवान्‌का काम समझना चाहिये। प्रसाद पानेसे तो शेषमें (अर्थात् परिणाममें) फायदा होना चाहिये, विशेष फायदा होना चाहिये। भगवत्प्रसादमें कोई आपत्तिकी बात नहीं है, जीविकाके लिये आप लोगोंको जो वेतन मिलता है, वह पवित्र भोजन है। प्रसाद न लेना अभिमान ही तो है। यह समझना चाहिये कि काम भगवान् करते हैं। यह काम करते हुए लक्ष्य, ध्येय परमात्माकी प्राप्तिका रहना चाहिये। गीताप्रेसमें काम करने वालोंके दोषोंका सुधार होना चाहिये और उन्हें अपने दोषोंको घृणाकी दृष्टिसे देखना चाहिये।

हृदयसे दूसरोंको अपनेसे श्रेष्ठ समझना चाहिये, अपना मालिक समझना चाहिये, उनका अपने पर अधिकार समझना चाहिये। गीताप्रेसका काम करके खूब प्रसन्न होना चाहिये, खूब राजी होना चाहिये।

ऐसा कार्य और ऐसा स्थान पाकर भी 'अपना काम' (यानी भगवत्प्राप्ति) नहीं होगा तो अपने सबके लिये शर्मकी बात है- आप लोगोंके लिये ही नहीं, मेरे लिये भी।

हम सभी लोग भगवान्‌के सेवक हैं और योग्यताके अनुसार केवल कामकी जिम्मेवारी अलग-अलग है।

भगवान्‌के सिद्धान्तका प्रचार होना ही गीताप्रेसका उद्देश्य है। बाहरमें तो रुपये-पैसोंको रुपया समझकर ही नीतिके अनुसार व्यवहार करना चाहिये, परन्तु भीतरमें हर समय- 'समलोष्टाश्मकाञ्चनः' (गीता ६/८; १४/२४) (अर्थात्- जिसके लिये मिट्टी, पत्थर और सुवर्ण समान हैं) - इस पाठको याद करते रहना चाहिये ।

हमें आदर देना चाहिये- भगवान्‌की गीताको, भगवान्‌के सिद्धान्तोंको और भगवान्‌की लीलाको । सारी दुनियाके रुपये भगवान्‌के ही हैं। अगर नष्ट हो जायँ या दस गुणा हो जायँ- कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिये। यह तो साधारण बात हुई।

विशेष बात- वृन्दावनमें भगवान्‌के सखाओंका सखाओंके साथ और गोपियोंका गोपियोंके साथ आपसमें कैसा प्रेमका व्यवहार था ! हम लोगोंका (गीताप्रेसके भाइयोंका) भी व्यवहार भगवान् ऐसा ही देखना चाहते हैं। सभी एक-दूसरेको भगवान्‌की दयाका विशेष पात्र समझें, परन्तु अपने विषयमें यह खयाल रखें कि अपने मनमें अभिमान न आवे। रासलीलामें भगवान् सब सखियोंको छोड़कर एक विशेष सखीको लेकर अन्तर्धान हो गये। उस सखीको भी जब अभिमान आया तो उसके पाससे भी भगवान् अन्तर्धान हो गये। जब सबका अभिमान नष्ट हो गया तो भगवान् फिर प्रकट हो गये।

गीताप्रेसको भगवान्‌की लीलास्थली समझकर कोई भी दर्शनार्थी देखने आये तो जैसे उद्धवको देखकर गोपियोंको जो आनन्द हुआ था और उनका सत्कार किया था, वैसे ही अपने को भी एक-दूसरे भाइयोंको देखकर आनन्द होना चाहिये। हम लोगोंकी भी वैसी ही अवस्था हो जाय तो भगवान्‌को प्रकट होनेमें रुकावट नहीं हो।

कोई भी सिद्धान्तकी बात मालूम हो जाय, उसका विशेष आदर करना चाहिये। एक साधारण सिद्धान्त होता है और एक विशेष सिद्धान्त होता है।

साधारण सिद्धान्त - हम लोगोंने दिलमें यह निर्णय कर लिया कि रुपयोंके लिये बिक्री विभाग (कोई व्यापार) नहीं खोलना, कोई भी नया काम नहीं करना जैसे टाइपका अलग काम नहीं करना। सिद्धान्तके प्रचारके लिये रुपयोंकी आवश्यकता नहीं है। सिद्धान्तके सामने रुपया मिट्टीके समान भी नहीं है। रुपयोंके तो त्यागसे ही भगवान् मिलते हैं।

दूसरा भी कोई अपने यहाँ ५०,००० रुपये देकर अपना नाम लगानेकी बात करे तो नहीं लेना है। लच्छीरामजी वाले तीस हजार रुपये मेरे ऋणकी तरह खटक रहे हैं। भाईजीने उन लोगोंको बात (जबान) दे दी थी। मेरे लिये यह कलंकका टीका है। किसी तरह भी यह रुपया वापस दे दिया जाय और भाईजी तथा ज्वालाप्रसादजीको सन्तोष हो जाय तो मुझे बड़ी प्रसन्नता हो।

पाँच लाख रुपया भी कोई नामके लिये दे तो मैं उनको किसी प्रकारकी दर (इज्जत) नहीं देता, उन रुपयोंको पेशाबकी तरह समझता हूँ।

औषधालय आदि लोक-उपकारक कामका भी ऐसी संस्थासे किसी प्रकारका सम्बन्ध जोड़नेका भी मैं पक्षपाती नहीं हूँ। आगे जाकर मुक्तिका काम या सिद्धान्तका काम तो उठ सकते हैं और ये (औषधालय आदि लोक-उपकारक) काम बने रह सकते हैं, क्योंकि आर्त लोग उसे बनाये रखेंगे। गोविन्द भवन, कलकत्ताके औषधालयको रखनेकी बात- बद्रीदासजी, ज्वालाप्रसादजी, मालजी के आग्रहसे रखा गया।

प्रधान उद्देश्य - भगवान्‌के विरोधी भावोंका गीताप्रेसके द्वारा प्रचार न हो और भगवान्‌के खास भावोंका जिस किसी प्रकारसे भी प्रचार करे- तन, मन, धन खटाली करके, जिस किसी प्रकारसे भी हो, प्रचार करे। (खटालीका तात्पर्य है- शरीरसे जी-तोड़ प्रयास करके उस कामको करना।)

न समझनेके कारण लोगोंमें, मेरे बाहरमें रुपयोंके आदरके व्यवहारको देखकर, कभी-कभी लोभकी वृत्ति जाग्रत् हो जाती है। वे लोग गीताप्रेसके लिये लोभ करने लगें तो प्रचारमें रुकावट हो जाय; अपने निजके लाभके लिये यदि वे इस प्रकार अनुचित लोभ करने लग जायँ तो उनकी हानि हो सकती है।

गीताप्रेसकी पुस्तकोंके प्रचारमें यदि रुपया लगे तो वह घाटा नहीं है, असली नफा है। सिद्धान्तके प्रचारके लिये रुपया कोई चीज नहीं है। यह होते हुये भी यह उदारता व्यवहारमें न लावे। इसे व्यवहारमें लानेसे व्यवहार बिगड़ जायेगा, क्योंकि लोग रुपयोंको दर (इज्जत) देने वाले हैं।

हम लोगोंके द्वारा भगवान्‌से विरुद्ध सिद्धान्तोंका प्रचार न हो।

हम लोगोंसे रुपयोंका नुकसान नहीं देखा जाता है- यह रुपयोंका ही दासत्व है।

१. सिद्धान्तकी बातोंकी भूल नहीं होनी चाहिये २. पुस्तकोंमें अशुद्धि नहीं होनी चाहिये ३. पुस्तकोंमें असुन्दरता नहीं होनी चाहिये- ये क्रमशः तीन नम्बर हैं।

गीताप्रेसका काम कोई व्यवसाय थोड़े ही है, हम इससे रुपया कमाने थोड़े ही बैठे हैं- गीताप्रेसकी जड़ यही है। इसी सिद्धान्त पर गीताप्रेसकी स्थापना हुई है। गीता पहले कलकत्तामें बैजनाथजीके प्रेसमें छपनेके लिये गई, उनको गीतामें अशुद्धियोंके सुधारके लिये हमारे द्वारा रुपया अधिक देने पर भी मशीनको रोककर उन अशुद्धियोंका सुधार करना बहुत भारी लगा (अर्थात्- मशीनको बार-बार रोकना पड़ता था, जिससे समय ज्यादा लगता था, इसलिये उनको सहन नहीं होता था)। इसीलिये यह विचार हुआ कि इस कार्यके लिये स्वयंकी प्रेस लगानी पड़ेगी।

इस सिद्धान्तका दुरुपयोग नहीं करना है कि अपने तो मशीन बन्द होती ही है, पीछे सुधार देंगे।

आज ही शुभ मुहूर्त समझकर सखियों का-सा (गोपियोंका-सा) आपसमें प्रेम करो, एक-दूसरेको देखकर उसको मालिक समझो और प्रेमका व्यवहार करो।

अपनेसे कभी दूसरोंके प्रति अभिमानका व्यवहार हो जाय तो एकान्तमें बैठकर रोवे और कहे कि- 'मेरे अपराधके कारण हे प्रभु ! आप मेरेको दर्शन देनेके लिये रुके बैठे हैं।'

हर एक आदमीमें हुकूमत (यानी अपने अधीन काम करने वालों पर शासन करनेकी प्रवृत्ति) न आवे। हमारे व्यवहारसे किसी दूसरेकी आत्मा दुखे, ऐसा व्यवहार नहीं होना चाहिये।

अमानी मानदो मान्यो (श्रीविष्णुसहस्त्रनाम ९३) (अर्थात्- सबके पूजने योग्य एवं माननीय होते हुए भी भगवान् स्वयं मान न चाहने वाले और दूसरोंको मान देने वाले हैं)- इस श्लोकका तात्पर्य समझना चाहिये। हम लोग यदि भगवान्‌के भक्त हैं तो एक-दूसरेको मान दें और स्वयं मान न चाहें। मान चाहना बुरी चीज है। जो दूसरे चाहें, वे लें, स्वयंको तो इससे अलग ही रहना चाहिये। खूब वैराग्यसे, त्यागसे और प्रेमसे रहें। सबसे प्रेम करें। आप लोग भी शुभ मुहूर्तमें यानी अभी आज ही इस भावमें प्रवेश करो। आपमें भावनाकी ही तो कमी है।

जैसे काशी शंकरजीकी है वैसे ही गीताप्रेस भगवान्‌की है- अपने लिये तो यह मान लेनेसे ही अपने लिये यह गीताप्रेस मुक्तिदायिनी है।

गोपियाँ यदि आपसमें लड़ती तो क्या यह सम्भव था कि वहाँ भगवान् प्रकट होते ? वहाँ तो आपसमें प्रेमकी बाढ़ आ रही थी !

पाँच आदमियोंके पास मनमें रहते हुये भी उनके अन्तकालमें (यानी उनकी मृत्युके समय) जाना नहीं हुआ - १. लच्छीरामजी मुरोदिया (कलकत्ता वाले) २. बैजनाथजी चौधरी (सीकर वाले) ३. मोदीरामजी (हाँसी वाले) ४. जगन्नाथजी डोकनिया (भागलपुर वाले) और ५. हरिकिशनदासजी जालान (गोरखपुर वाले)। भगवान् खुद जाते समय अर्जुनसे नहीं मिले। उनकी बात वही जानें। उद्धवको बद्रिकाश्रम भेज दिया, अर्जुनको बुलाया नहीं। बलदेवजी समाधिमें स्थित मालूम हुए। एरका (समुद्रके तट पर होने वाली एक प्रकारकी घास, जिसकी धार बहुत तीक्ष्ण होती है) की धारसे ही अपने वंशको पार किया। रामचन्द्रजीने सभी अयोध्यावासियोंको सरयूजीकी धारसे पार किया। भगवान्‌से चाहे जिस तरहका भी सम्बन्ध हो, पार करने वाला है। भगवान्‌का प्रेम और प्रभाव - दोनों ही चीजें सबसे बढ़कर हैं।

पण्डित लादूरामजीके भगवान्‌के दर्शन करानेके विषयके प्रश्नका उत्तर - दर्शन करानेकी प्रभुकी सामर्थ्य है। महान् पुरुष ही दर्शन करा सकते हैं। ऐसे महान् पुरुषोंके दर्शन हमको हो जायँ तो भगवान् चाहे अपने घर ही बैठे रहें (तात्पर्य है कि फिर भगवान्‌की भी गर्ज नहीं है)। अगर उन महापुरुषोंसे वार्तालाप हो जाय, जिनकी भगवान्‌से मिलानेकी सामर्थ्य हो तो फिर अपनी स्थिति किस माफिक हो जानी चाहिये ! अगर उनका कोई इशारा भी मिल जाय तो हम धन्य हैं ! अगर आज्ञा प्राप्त हो जाय, तब तो बस !, हमारा काम ही हो गया (तात्पर्य है कि उद्धार ही हो गया।)

ऐसे पुरुष संसारमें हैं या नहीं- यह कहा नहीं जा सकता है। भगवान्‌के यहाँ कमी तो है नहीं और नाम किसका बताया जाय ?

जवाबकी बातोंमें इतनी बातें भरी पड़ी हैं कि जितनी निकालें, उतनी ही निकल जायँ। इन बातोंको भले ही साध न बनाकर काममें ले आवें। जितना रहस्य निकालें, उतना निकल सकता है।

उन महापुरुषोंके चिन्तन, दर्शन, भाषण, वार्तालाप, स्पर्श, इशारेसे, आज्ञासे, वरदानसे परम पवित्र ही नहीं, परमात्माको प्राप्त हो जाय। उनके वरदानसे तो गधोंका भी उद्धार हो जाय, मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ! अनाधिकारी जीवोंका भी उद्धार हो जाय।

अच्छे कप्तानके इशारेसे चलने वाली सेना मृत्युसे बच जाती है। लौकिक फौजी कप्तान, जो कि अच्छे हों, चतुर हों- उनकी बात है। उनके इशारेके अनुसार चलनेसे बड़ी भारी सेनाका सामना करने वाले सिपाही भी बच जाते हैं। वह युद्धके समय यह कहे कि- 'पड़ ! (यानी लेट जाओ)', तो पड़ जाय; वह कहे- 'सट ! (यानी पास-पासमें खड़े हो जाओ)', तो सट जाय; वह कहे- 'खट ! (यानी युद्ध करो)', तो खट जाय। अगर कोई सिपाही उसके इशारेकी अवहेलना करके उसको जवाब दे तो उसके गोली लग सकती है। सब सिपाही दौड़ रहे हैं, कप्तानका हुक्म मिलते ही एक मिनटमें सब लेट जाते हैं। अच्छा कमाण्डर सेनाको मृत्युसे बचा लेता है, किन्तु उसकी बातकी अवहेलना करना ही मृत्यु है। कप्तानके हाथमें सबके प्राण हैं। आज्ञापालनका यह उदाहरण सबसे बढ़कर है। महापुरुषोंके यहाँ भी यही बात है।

स्मरण- सेना उस कप्तानकी तरफ ही देखती रहती है कि- 'उसका क्या हुक्म है, क्या आज्ञा है ?' फिर स्मरण तो उसका बना हुआ ही रहता है।

विधान- कप्तानका किया हुआ सब प्रकारका आदेश सेनाको मान्य होता है।

यही शरणागतिका भाव है। वह कप्तान अपनी शक्तिभर उस सेनाको बचाता ही है। सबसे ज्यादा उत्तीर्ण (यानी सर्वाधिक आज्ञापालन करने और जूझनेवाले) - को ईनाम मिलता है। अपनी शक्तिके अनुसार ही ईनाम मिलता है।

भगवत्-विषयमें और कप्तानकी आज्ञा पालनमें इतना ही अन्तर है कि जरा-सी 'हूँ', 'टाँ'-में (अर्थात्- किसी महापुरुषकी आज्ञानुसार नहीं चलनेसे) प्राण नहीं जाते, परन्तु भगवत्प्राप्तिसे वंचित रह जाते हैं। इसीको प्राण जाना भले ही समझें।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…