भगवान्को याद करना एवं भजनकी महिमा
प्रश्न- इस श्लोकका क्या अभिप्राय है-
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ॥
(वाल्मीकि रामायण युद्धकाण्ड सर्ग १८ श्लोक ३३)
(अध्यात्म रामायण युद्धकाण्ड सर्ग ३ श्लोक १२)
(अर्थात् - जो एक बार भी शरणमें आकर 'मैं तुम्हारा हूँ' - ऐसा कहकर मुझसे रक्षाकी प्रार्थना करता है, उसे मैं समस्त प्राणियोंसे अभय कर देता हूँ। यह मेरा सदाके लिये व्रत है।)
उत्तर- इस श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि- 'मैं तुम्हारा हूँ' – इस प्रकार कोई वचनमात्रसे भी कहता है, उसको मैं अपनी शरणमें ले लेता हूँ और उसका कभी त्याग नहीं करता।'
प्रश्न- वचनमात्रसे भी शरण हो सकता है ?
उत्तर- हाँ, हो सकता है, भगवान्ने कहा ही है। इस बात पर श्रद्धा कर ले कि यह ठीक भगवान्के वचन हैं, इस न्यायसे हम भगवान्की शरण हो गये।
- यह मान लें, फिर भी वह कहे कि- 'मैं अभय नहीं हुआ ?'
- परन्तु भगवान् तो कहते हैं कि- 'मैं अभय कर देता हूँ।' फिर उस बात पर निश्चिन्त हो जाय। उनके वचनों पर बड़ा भारी विश्वास रखे। यह मान ले कि भगवान्ने मेरेको शरण ले लिया है। ये भगवान्के वचन हैं और बात भी सच्ची है। एक बार भी वचनमात्रसे हमने याचना कर ली तो उन्होंने शरणमें ले ही लिया- ऐसा समझकर निर्भय हो जाय।
यदि कहो कि- 'अभय तो नहीं हुए ?' - तो समझो कि वे अभय कर देंगे।
यदि कहो कि- 'मैंने तो कह दिया कि मैं आपका हूँ, पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया ?'
- मान लो कि गवर्नमेन्टने यह सूचना निकाल दी कि- 'कोई सिपाहीमें भर्ती होना चाहे तो हो सकता है।' हम भर्ती होना चाहें तो क्या गवर्नमेन्ट यह कह सकती है कि- 'हम भर्ती नहीं करेंगे ?'
कोई व्यक्ति भर्ती हो गया, फिर सरकारने उसको कोई राज्यका काम बताया। फिर क्या उसके अधिकारका ऐसा कोई काम है, जो कि वह उनके राज्यमें नहीं कर सकता ? जब तक वह पुलिसमें सिपाहीके पद पर नहीं था, तब तक उसकी मान्यता दूसरी थी; जब भर्ती हो गया, तब दूसरी हो गई। पहले जब वह भर्ती होनेके लिये जिस रास्तेसे गया था तो वहाँ कुछ लोग रास्तेमें पेशाब आदि कर रहे थे। जब उसने उन लोगोंसे कहा था कि- 'यहाँ पेशाब क्यों करते हो ?' तो उन लोगोंने उसको धमका दिया था। पीछे जब वह भर्ती होकर आया तब उसने लोगोंको धमकाया कि- 'यहाँ पेशाब करते हो ?' अब वे ही लोग उससे डरते हैं।
पहले वह स्वयं चोर, डाकुओंसे डरता था, अब चोर, डाकू उससे डरते हैं।
ऐसे ही भगवान्का भक्त बन जानेसे अपनेमें निर्भयता आ जानी चाहिये। जैसे सिपाही अब अभय हो गया, ऐसे ही अपनेको भी अभय हो जाना चाहिये। हम तो मान लें कि भगवान्ने हमको स्वीकार कर लिया है। जब अपनेको भगवान्की शरण मिल गई तो अब किस चीजका भय है ?
एक आदमीने पूछा कि- 'भगवान्का काम समझकर कैसे काम किया जा सकता है ?'
उसको उत्तर दिया जाता है कि- नौकरकी तरह काम करे।' वर्तमानमें जैसे यह अपनी दूकान है। इसमें निष्काम कर्म क्या है ? – यह समझे कि- यह दूकान भगवान्की है और मैं भगवान्का नौकर हूँ। व्यवहारमें भले ही वाणीसे अपनी दूकान कह दे, परन्तु हृदयसे भगवान्की दूकान समझे। इस प्रकार साधन करनेसे आगे जाकर निष्काम कर्म हो सकता है।
प्रश्न- एक आदमी कहे कि- 'मैं भगवान्के शरण हूँ' और विहित (यानी करने योग्य) कर्म करता नहीं तो क्या वह शरण है ?
उत्तर- वह भगवान्की शरणको समझा ही नहीं। जैसे कि एक आदमी भर्ती तो गवर्नमेन्टकी नौकरीमें हो गया, पर गवर्नमेन्टका काम तो करता नहीं, अपने ही घरका काम करता है, गवर्नमेन्टमें भर्ती हुये सिपाहीको तो सरकारका कानून मानना ही पड़ता है और सरकारका काम करना ही पड़ता है। आज तक हम लोग अपने मनकी शरण हैं, भगवान्की नहीं। भगवान्की शरण होने पर तो उनके हुक्म (आज्ञा) के अनुसार चलना ही चाहिये। हुक्मके माफिक चलना ही शरण है। केवल- 'शरणमें हूँ' यह कह देने मात्रसे कोई शरण नहीं हो जाता। वह शरण होनेके बाद उनके हर विधानमें प्रसन्न होता है। शरण तो वही समझा जाता है, जो उनके आश्रित हो जाय। भगवान् उसके लिये जो कुछ सुख-दुःख भेज देवें, उसमें वह प्रसन्न रहे और उनकी आज्ञाका पालन करे। यदि उनकी आज्ञाका पालन नहीं करते हैं तो वास्तवमें शरणका मतलब ही नहीं समझे। भगवान्ने कहा है-
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।।
(गीता १८/५६)
अर्थात् - मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
(गीता १८/५७)
अर्थात्- (इसलिये हे अर्जुन! तू) सब कर्मोंको मनसे मुझमें अर्पण करके तथा समबुद्धिरूप योगको अवलम्बन करके मेरे परायण और निरन्तर मुझमें चित्त वाला हो।
भाव यह है कि भगवान्का जैसी आज्ञा है, वैसे ही कर्म करे। भगवान्की आज्ञाके माफिक चलते हैं तो उनकी शरण हैं। भगवान्को याद करना, उनकी आज्ञाके माफिक चलना, उनके विधानमें संतोष रखना ही उनकी शरण है।
यदि कोई व्यक्ति मुझसे कहे कि- 'मैं आपकी शरण हूँ।' तो फिर मैंने उससे कहा कि- '५ अतिथि आये हैं, उनको जिमाओ (यानी कि भोजन करवाओ) !' उत्तर मिला- 'यह काम तो मैं नहीं कर सकता।' तो फिर वह मेरी क्या शरण हुआ ? भगवान्ने जो आज्ञा दी है, उनका तो पालन करता नहीं और कहता है कि- 'मैं भगवान्की शरण हूँ', तो वास्तवमें वह शरण नहीं है। उसकी नीयत तो यह होनी चाहिये कि मैं भगवान्की शरण होना चाहता हूँ तो धीरे-धीरे वह शरण हो जाता है। उसमें कोई कमी रह जाती है तो भगवान्के यहाँसे छूट भी मिल जाती है या यह भी हो सकता है कि भगवान् उसकी कमीकी तरफ देखें ही नहीं, उसको शरणमें ले लें।
भजनका रास्ता बड़ा अच्छा है। एक भजनके प्रतापसे ही सब कमी दूर हो सकती है। भजनकी ऐसी सामर्थ्य है कि उसके अन्तःकरणको साफ करके सारी त्रुटियोंको दूर कर सकता है। भजनसे ही ध्यान हो सकता है। भगवान्की मूर्ति सामने रखकर उनके नेत्रोंसे नेत्र मिलाकर उनमें चेतनताकी भावना करे (यानी यह समझे कि इस मूर्तिमें भगवान् प्रत्यक्ष हैं)। भजनमें विश्वास रखना चाहिये कि भजनसे ही सब हो जायेगा। देखो, उसका यह विश्वास हो जाय कि भजन करनेसे मेरेमें सदाचार आवेगा तो उसमें सदाचार आने लग जायेगा। यदि विश्वास हो कि भजन करनेसे ध्यान होगा तो आहिस्ते-आहिस्ते उसका ध्यान होने लग जायेगा। जिस चीजकी वह प्रतीक्षा करेगा, वह समय पाकर प्राप्त हो जायेगी।
जमीनमें गुठली (बीज) बो दी। उस खेती करनेवालेको बतलाया गया कि १० दिन बाद इसमें अंकुर निकलने लग जायेगा, अब वह ६ दिनसे ही देखने लग गया। ८ दिन बाद, १० दिन बाद, बार-बार देखता है। उसके यह विश्वास है। नहीं निकलता है तो वह जल सींचता है। पीछे अंकुर आ गया। फिर उसने पूछा- 'फल कब लगेंगे ?' उसको बताया गया कि- '२ वर्ष बाद फल आयेंगे।' वह उस वृक्षको सींचता है और प्रतीक्षा करता है। २ वर्ष हो गये, फल नहीं लगे। अब २ १ वर्ष हो गये, फिर भी वह वृक्षको बार-बार सींचता ही रहता है। समय पाकर फिर फल-फूल सब आ जाते हैं।
इसी प्रकार भजनको बीज समझ ले, फिर प्रतीक्षा करे। बीज जो है, वह भजन है। उसका फल है, वह भगवान्की प्राप्ति है। फल बीजके अनुसार ही होगा। बीज भगवान्का नाम हुआ; फल हुआ- भगवान्का स्वरूप-दर्शन। बीज लगाकर उसको सींचता रहे। इसमें जलसे सींचना क्या है ? - नित्य-प्रति भजन-ध्यान और सत्संग करता रहे। भजन-ध्यान और सत्संग करनेसे भगवान्में विश्वास बढ़ता है। फिर यह समझ ले कि भगवान्का भजन करनेसे सद्गुण, सदाचार अपने-आप ही आयेंगे। एक भगवान्का ही आश्रय ले लेवे, उनके प्रतापसे सब आप-से-आप ही आ जायेंगे। भगवान्के नामके जपका आश्रय लेना - यही भगवान्के शरणका आरम्भ है। फिर भजनके प्रतापसे सब बातें आप ही हो जायेंगी।
अभी हम लोगोंके व्यवहारमें भी सत्य व्यवहार नहीं होता है, पर भजन करनेसे व्यवहारमें सत्यता आ जावेगी। यदि माँ-बापकी सेवा नहीं बनती तो भजन करते जाओ, उससे सब आप ही आ जायेगा। यह मान लें कि भजन करनेसे दैवी सम्पदाके सब गुण आ जायेंगे। दैवी सम्पदाके गुण कम आये तो खूब भजन करो। कपड़ा साबुनसे साफ होगा; अगर कम साफ हुआ तो फिर साबुन लगाओ और घिसो। साफ साबुनसे ही होगा; नहीं हुआ तो घिसते जाओ। ऐसे ही यदि सद्गुण, सदाचार नहीं आये तो भजन करते जाओ। अन्तःकरणमें जिसके ज्यादा दाग होता है, वह ज्यादा रगड़नेसे जाता है। दाग ज्यादा है; तो जायेगा भजनसे ही। कपड़ा साफ होनेके बाद ही उस पर रंग चढ़ेगा, ऐसे ही अन्त:करण शुद्ध होने पर ही भक्ति-रूपी रंग चढ़ेगा।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…