भगवान्के भजनसे बढ़कर कोई चीज नहीं है
अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥
(गीता ९/२२)
अर्थात् - जो अनन्यप्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।
इस श्लोकके चार चरण हैं- (1) अनन्यभावसे चिन्तन करते हुए उपासना करते हैं (2) मुझको हर समय याद रखते हुए मेरी भक्ति करते हैं (3) मेरे गुण, प्रभाव, रहस्य, तत्त्व, प्रेम, लीला आदिकी भक्ति करते हुए श्रवण, मनन करते हैं (4) उनका भार भगवान् वहन करते हैं। जैसे कुली बोझा ढोते हैं, ऐसे ही भगवान् उन भक्तोंके योगक्षेमको वहन करते हैं।
योगक्षेम - यानी अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा।
लौकिक योगक्षेम - यानी उसके वर्तमान धनादिकी रक्षा और जो आवश्यकता है, उसकी प्राप्ति।
अलौकिक योगक्षेम - यानी उसका पतन न होने देना। जो उत्तम कर्म किये हुए हैं, उनकी रक्षा करना।
और प्राप्ति क्या ? - मैं स्वयं प्राप्त हो जाता हूँ।
फिर भगवान् कहते हैं- ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते । (गीता १०/१०) (अर्थात्- उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।)
भक्त प्रह्लादकी बात- भक्त प्रह्लाद भगवान्का सब प्रकारका चिन्तन करते हैं, भगवान् उसकी लौकिक, पारलौकिक सब रक्षा करते हैं।
लौकिक रक्षा- विषसे बचाना, अग्निसे बचाना और हिरण्यकशिपुको मारकर राज्य देना।
पारलौकिक रक्षा- उसकी भक्तिका नाश नहीं होने देते। हिरण्यकशिपुके द्वारा चाहे जितने कष्ट देने पर भी विचलित नहीं हुआ। अन्तमें भगवान् स्वयं प्राप्त हो जाते हैं।
भक्त ध्रुवकी बात भी देखो - भगवान्ने उनके लौकिक और पारलौकिक- दोनों कार्य किये।
लौकिक कार्य- पाँच वर्षका बालक- उसकी वनमें भगवान्ने रक्षा की और उसको राज्य दिलाया।
पारलौकिक कार्य- वनमें भारी-भारी विपत्तियाँ आने पर भी डटा रहा, अन्तमें भगवान्के दर्शन हो गये। ध्रुव भगवान्की स्तुति गाना चाहते हैं, भगवान्ने उसके कपोलसे अपना शंख छुआ दिया तो उसे बिना पढ़े ही सब शास्त्रोंका ज्ञान हो गया। उसके बाद भगवान्ने उसे अन्य कई वर दिये।
भगवान् दोनों तरहसे रक्षा करते हैं। उत्तम भक्त केवल भगवान्को ही चाहता है।
मेरी ५४ वर्षकी उम्र हो गई, बहुत-सी बातें पढ़ी, सुनी। मुख्य रूपसे यही बात देखने और समझनेमें आई- 'मां भजस्व' (गीता ९/३३) (अर्थात्- निरन्तर मेरा ही भजन कर)। मुझे भगवान्के भजनसे बढ़कर और कोई चीज नहीं मिली।
गीतामें, योगशास्त्रमें आत्माके उद्धारके बहुत-से उपाय बतलाये गये, वे सभी उत्तम हैं। एक-एकको काममें लानेसे उद्धार हो सकता है।
खास कसौटी - राग-द्वेषका नाश होकर समता आना- गीतामें यही बात जगह-जगह आयी है; राग-द्वेषके नाशकी बात भी आयी है। ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग- किसी भी मार्गसे चलें- साधन अवस्थामें भी समता और सिद्ध अवस्थामें भी समता आनी चाहिये। समता ही कसौटी है। जब तक विषमता है, तब तक वह भगवान्को नहीं प्राप्त होता।
सेवाकी बात, निष्काम कर्मयोग, समत्वयोग- फल न चाहना, स्वार्थको त्यागकर कर्म करना। भगवान् गीतामें उसका महत्त्व बताते हैं-
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥
(गीता २/४०)
अर्थात्- इस कर्मयोगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बल्कि इस कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा-सा भी साधन जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे रक्षा कर लेता है।
इस कर्मयोगका थोड़ा भी पालन करने पर महान् भयसे तार देता है (यानी जन्म-मरणसे छुटकारा दिला देता है), थोड़ा भी कर्मयोग निश्चय ही तार देता है !
- क्रियासे थोड़ा या भावसे थोड़ा ?
- भगवान्का आशय है- भावसे तो थोड़ा न हो; क्रिया चाहे मामूली हो। सकामभावसे लाखों वर्ष करे, पर निष्कामभावसे एक मिनट भी करे तो उद्धार हो जाता है !
प्रत्यक्ष प्रमाण है, हम लोग लाखों वर्षोंसे करते आ रहे हैं, सकामभावसे ही तो करते हैं; और निष्कामभावसे एक मिनट क्या, एक क्षण भी निष्कामभाव पूर्ण हो गया तो बस ! काम खत्म (अर्थात् भगवत्प्राप्ति निश्चित ही हो जायेगी) !
निष्कामभावसे छोटी-सी क्रियासे काम खत्म ! हम लोगोंसे छोटी-सी क्रिया भी निष्कामभावसे हो गयी होती तो फिर भगवान्के वचन सामने हैं (अर्थात् अब तक हमारा उद्धार हो गया होता)।
बातें तो बतलाई भी जा सकती हैं, पर निष्कामभाव होना बड़ा कठिन है। इसमें कारण हे ? - मूर्खता। निष्कामभाव इतनी महान चीज है !
- निष्कामभाव है- इसका व्यवहारसे क्या पता लगे ?
- दूसरा न जाने तो क्या जरूरत है ? किसीसे सर्टिफिकेट थोड़े ही लेना है ? तुमको सन्तोष होना चाहिये। तुम्हारी आत्मा कह दे। बाहरकी क्रियाकी बात- क्या कहें, द्वापरयुगमें भी तो यह कर्मयोग बहुत कालसे लोप था- योगो नष्टः परन्तप (गीता ४/२) (अर्थात्- वह योग बहुत कालसे पृथ्वीलोकमें लुप्तप्राय हो गया)। भगवान्को भी उस समय वर्तमानका कोई उदाहरण नहीं मिला था, उन्होंने जनकादि जो पूर्वमें हो गये हैं, उनका उदाहरण ही दिया और अर्जुनसे कहा- पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् (गीता ४/१५) (अर्थात्- पूर्वजोंद्वारा सदासे किये जाने वाले कर्मोंको कर)। जब उस समय भगवान्को भी नहीं मिला तो अब हम क्या बतावें ?
अपने दिलकी बात बताते हैं। उदाहरण- कहीं पर बाढ़ आई और उसमें सेवा कार्यके लिये गये, बदलेमें रुपया नहीं लिया और जो वहाँ खर्चा हुआ, वह भी अपना ही लगाया। इसमें त्याग तो है, परन्तु इतने मात्रसे ही निष्कामभाव नहीं है।
- 'बाढ़वाले कार्यकी प्रशंसा सुनकर सुख हुआ न ?'
- 'उत्तम कर्मका फल सुख ही तो होता है।'
- 'प्रशंसा सुनकर सुख हुआ न ? तुमने अपने मुखसे अपनी बड़ाईकी बात कही ?'
- 'हाँ।'
- 'तो बस ! सुख मिल गया। कहने मात्रसे ही खत्म। अब स्वर्गके लायक भी नहीं रहे।'
त्रिशंकुकी बात - इन्द्रने उसको फुसलाकर उसके पुण्य उसके मुखसे कहलवाये, जिससे उसके पुण्य समाप्त हो गये। वह स्वर्गसे गिर पड़ा। शास्त्रमें कहा है- जो मनुष्य उत्तम कर्म करके अपने मुखसे कह देता है तो बस ! उसके पुण्य समाप्त हो जाते हैं।
हम अपने मुखसे नहीं कहते, किन्तु दूसरे कहते हैं कि- 'ये बड़े अच्छे हैं, अच्छा काम करके अपने मुखसे कहते नहीं हैं।' इस बातको सुनकर सुख मिला तो भी वह कर्म खत्म। 'सुख मिला कि नहीं ?' - यही तो उसका फल है।
जैसे हम जलसे अपने पूर्वजोंका तर्पण करें और उसी जलसे बगीचेकी क्यारी भी सींचना चाहें- ये दोनों काम एक साथ नहीं होते। अगर क्यारीमें पानी जानेका भी उद्देश्य है तो वह जल हमारे पूर्वजोंको नहीं मिलता है।
यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्कल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ॥
(गीता ६/४)
अर्थात् - जिस कालमें न तो इन्द्रियोंके भोगोंमें और न कर्मोंमें ही आसक्त होता है, उस कालमें सर्वसंकल्पोंका त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है।
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ।
(गीता २/५७)
अर्थात् - जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।
राग-द्वेषसे रहित व्यक्ति स्थितप्रज्ञ है।
अन्य उदाहरण- मान लीजिये किसी लेखकने अपना एक लेख कल्याणमें प्रकाशित होनेके लिये भेजा। प्रथम बात तो यह है कि लेख भेजनेमें उनका उद्देश्य क्या है ?
वह अपना नाम चाहते हैं या नहीं ?
नहीं चाहने पर भी, सुनने पर उनको प्रसन्नता होती है या नहीं ?
बहुतोंका तो उद्देश्य ही होता है- धन कमाना।
उनसे अच्छा है- मान बड़ाई चाहना।
उनसे अच्छा है- कीर्ति और नाम चाहना।
उनसे अच्छा है- सुनकर प्रसन्न हो जाते हैं।
उनसे अच्छा है- प्रसन्न तो नहीं होते, पर बुरा नहीं लगता।
होना क्या चाहिये ? -
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मोनी संतुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥
(गीता १२/१९)
अर्थात्- 'जो निन्दा-स्तुतिको समान समझने वाला, मननशील और जिस किसी प्रकारसे भी शरीरका निर्वाह होनेमें सदा ही सन्तुष्ट है और रहनेके स्थानमें ममता और आसक्तिसे रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है।'
( - एकता हो जाती है।)
मान - अपमान - दोनोंकी एकता बीचमें आकर होती है। स्प्रिंग दोनों तरफसे ठेली जाती है। प्रकृतिके प्रवाहका, मान-प्रतिष्ठाकी इच्छाका स्वाभाविक ठेला (धक्का) लगता है। अनुकूल लगना, सुख प्रतीत होना- यह मानका ठेला है। बुरा लगना, अपमान-निन्दाको बुरा समझना- यह अपमानका ठेला लगना है।
यदि अपना कल्याण चाहते हो तो अपमानको अमृतके समान समझना, मानको विषके समान समझना - तब बीचमें आकर समानता होगी।
इड़ा, पिंगलाकी समानताका नाम सुषुम्ना (सुषुम्णा नाड़ी) है। उसी समय योगीका ध्यान लगता है। मनुजीने यही बतलाया है।
यह बात तो दूर रही, आज तो फूलोंकी माला पहनते ही फूल जाते हैं। इसी प्रकारकी प्रसन्नता जूतोंकी माला पहनने पर भी हो, फूलोंकी माला भी जूतोंकी मालाकी तरह प्रतीत हो, तब मान-अपमानमें समानता सिद्ध होगी।
पतंजलि कहते हैं-
वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम् ।
(पातञ्जल योगदर्शन साधनपाद सूत्र ३३)
अर्थात्- जब वितर्क (यम और नियमोंके विरोधी हिंसादिके भाव) यम-नियमके पालनमें बाधा पहुँचावें, तब उनके प्रतिपक्षी विचारोंका बारम्बार चिन्तन करना चाहिये।
सूत्रकी व्याख्या- जब कभी संगदोषसे या अन्यायपूर्वक किसीके द्वारा सताये जाने पर बदला लेनेके लिये या अन्य किसी भी कारणसे मनमें अहिंसादिके विरोधी भाव बाधा पहुँचावें अर्थात् हिंसा, झूठ, चोरी आदिमें प्रवृत्त होकर यम-नियमादिका त्याग कर देनेकी परिस्थिति उत्पन्न कर दें तो उस समय उन विरोधी विचारोंका नाश करनेके लिये उन विचारोंमें दोषदर्शनरूप प्रतिपक्षकी भावना करनी चाहिये।
हिंसाको हटानेके लिये- अहिंसाका पालन करना।
किसीने इत्र लगा दिया- हम प्रसन्न होते हैं। वास्तवमें अगर उस समय हमको यह प्रतीत हो कि मानो किसीने पेशाब लगा दिया है- तब समझना चाहिये कि मनमें वैराग्य है।
भक्तोंकी, महात्माओंकी गति उलटी ही तो है। उनकी महिमा तुलसीदासजी कहते हैं-
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥
(रा.च.मा. सुन्दरकाण्ड दोहा ४)
अर्थ- हे तात ! स्वर्ग और मोक्षके सब सुखोंको तराजूके एक पलड़ेमें रखा जाय, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुखके बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण)-मात्रके सत्संगसे होता है।
ऐसी महिमा गायी है।
विचार करो- जितने काम वे (भक्त और महात्मा) करते हैं, उनके प्रत्येक काममें विलक्षणता रहती है, जैसे धनके दास, स्वार्थीके प्रत्येक काममें पैसेकी बात रहती है। वे हानिके कामके समीप नहीं जाना चाहते।
महात्माओंकी तो गति उलटी है।
बाढ़में हमने बारह आने (75 प्रतिशत) काम किया और माधवजीने चार आने (25 प्रतिशत) काम किया, परन्तु उसमें नाम माधवजीका हुआ। इसको सुनकर हमें इतनी प्रसन्नता हो कि- 'वाह ! बड़ा अच्छा हुआ। हम तो मान-बड़ाईसे बच गये।' - अगर ऐसा भाव हो तो समझना चाहिये कि निष्कामभाव है। यहाँ तो अभी गये ही नहीं, पहलेसे ही अखबारोंमें खबर छपवा दी जाती है कि- 'हम सेवा कार्यके लिये जाने वाले हैं !' और चले गये, तब तो आकर, बस, सीधी तरहसे नहीं, किसी-न-किसी बहानेसे ही अपनी बड़ाईकी बात करते हैं !
वास्तवमें सेवाका काम करते समय इतनी प्रसन्नता हो कि इन्द्रियोंमें अद्भुत चेतनता आ जाय ! भगवान् कहते हैं-
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥
(गीता २/६४)
अर्थात् - परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्तःकरण वाला साधक अपने वशमें की हुई, राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ अन्त:करणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है।
इससे चित्तकी प्रसन्नता होती है।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
(गीता २/६५)
अर्थात्- अन्तःकरणकी प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।
गीतामें प्रसाद तीन अर्थमें प्रयुक्त हुआ है-
(१) कृपाके अर्थमें-
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि ।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि ॥
(गीता १८/५८)
अर्थात् - उपर्युक्त प्रकारसे मुझमें चित्त वाला होकर तु मेरी कृपासे समस्त संकटोंको अनायास ही पार कर जायगा और यदि अहंकारके कारण मेरे वचनोंको न सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थसे भ्रष्ट हो जायगा।
सर्व कर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
(गीता १८/५६)
अर्थात्- मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है।
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।
(गीता १८/७३)
अर्थात्- (इस प्रकार भगवान्के पूछने पर अर्जुन बोले-) हे अच्युत ! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है; अब मैं संशयरहित होकर स्थित हूँ, अतः आपकी आज्ञाका पालन करूँगा।
(२) सात्त्विक सुख (प्रसादजं सुख)-के अर्थमें-
यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥
(गीता १८/३७)
अर्थात् - जो ऐसा सुख है, वह आरम्भकालमें यद्यपि विषके तुल्य प्रतीत होता है, परन्तु परिणाममें अमृतके तुल्य है; इसलिये वह परमात्मविषयक बुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न होने वाला सुख सात्त्विक कहा गया है।
आत्मशुद्धि विषयक प्रसन्नता यहाँ सात्त्विक है।
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥
(गीता २/६५)
अर्थात्- अन्तःकरणकी प्रसन्नता होने पर इसके सम्पूर्ण दुःखोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।
यहाँ चित्तकी प्रसन्नताका नाम 'प्रसाद' है।
निष्कामभाव वास्तवमें थोड़ा भी हो जाय तो कल्याण है। वहाँ राग-द्वेषका अत्यन्त अभाव होगा, ईर्ष्या नहीं होगी और काम करनेमें प्रसन्नता होगी।
राग होगा, वहाँ द्वेष होगा ही- ये दोनों मित्र हैं और काम-क्रोध पिता-पुत्र हैं- जहाँ ये हैं, वहाँ न दुःखोंकी कमी है, न दुर्गुणोंकी।
कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्तिकी १० वर्ष सेवा करे, यदि राग-द्वेष है तो वे निष्कामभावको उत्पन्न ही नहीं होने देंगे, खा जायेंगे, जैसे कि गर्म तवे पर पानी पड़ते ही 'छन्न' करके स्वाहा हो जाता है। राग-द्वेषका मूल कारण अज्ञान है।
अज्ञानका नाश ज्ञानसे होता है। इसके लिये उपाय बताये गये हैं-
(१) तत्त्वज्ञ (तत्त्व जानने वाले) महापुरुषकी शरण जाने से-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
(गीता ४/३४)
अर्थात् - उस ज्ञानको तू तत्त्वदर्शी ज्ञानियोंके पास जाकर समझ, उनको भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे, उनकी सेवा करनेसे और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे वे परमात्मतत्त्वको भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा तुझे उस तत्त्वज्ञानका उपदेश करेंगे।
(२) ईश्वरकी शरण जाने से; और
(३) ईश्वर-प्राप्त पुरुषकी शरण जाने से-
अन्ये त्वेवमजानन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥
(गीता १३/२५)
अर्थात् - परन्तु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्द बुद्धि वाले पुरुष हैं, वे इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जानने वाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको निःसन्देह तर जाते हैं।
तत्त्वके जानने वालेके कहनेके अनुसार उपासना करने वालेका भी उद्धार हो जाता है।
हम लोगोंको तो ईश्वर, महात्मा, ज्ञान, भक्ति, प्रेम, सत्संग- किसीका भी आश्रय नहीं है, उल्टा साढे तीन हाथके शरीरका आश्रय ले रखा है। यह तो खड्डेमें डालने वाला है।
भगवान् तो कहते हैं-
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्ग नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥
(गीता ४/२०)
अर्थात्- जो पुरुष समस्त कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्तिका सर्वथा त्याग करके संसारके आश्रयसे रहित हो गया है और परमात्मामें नित्य तृप्त है, वह कर्मोंमें भलीभाँति बरतता हुआ भी वास्तवमें कुछ भी नहीं करता।
इस जमानेमें सबसे बढ़कर आश्रय लेने योग्य- भगवान् - उनके नामका जप और उनका ध्यान- उनकी शरण लेकर, भरोसा रखकर करे।
क्रिया थोड़ी भी हो, परन्तु निष्कामभाव पूर्ण होना चाहिये, निष्कामभावमें कहीं भी कमी नहीं हो।
भले दान ही दो, एक गिलास जल ही पिला दो- भाव पूरा निष्काम होगा तो कल्याण हो जायेगा। बात यह है कि निष्कामभाव होगा तो मनमें अत्यन्त प्रसन्नता होगी, वहाँ ममता-अहंकार नहीं होगा, कामना नहीं होगी अपितु निष्कामता होगी।
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता २/७१)
अर्थात् - जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर ममतारहित, अहंकाररहित और स्पृहारहित हुआ विचरता है, वही शान्तिको प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्तिको प्राप्त है।
इस श्लोकमें चार चीजें बतायी- कामनाएँ, ममता, अहंकार और स्पृहा- इनका अभाव हो, बस वहीं शान्ति। कामकामी (गीता २/७०) (अर्थात्- भोगोंको चाहने वालेको शान्ति नहीं मिलती है।)
और भी सूक्ष्म बात - मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा- सबका वास्तवमें त्याग होने पर भी यदि यह भाव आ गया कि- 'मैं निष्कामी हूँ' - तो भी मामला खत्म हो जाता है ! क्योंकि यह अहंकार आ गया कि- 'मैं निष्कामी हूँ' - यही तो अहंकारका स्वरूप है।
भगवान् तो कहते हैं- निर्ममो निरहंकारः (गीता २/७१, १२/१३) (अर्थात् - ममतारहित और अहंकाररहित हुआ)। पर यहाँ (मैं निष्कामी हूँ) इसमें तो अहंता, ममता सब आ गयी।
ये चार बातें (अर्थात्- कामना, स्पृहा, ममता और अहंकार) हमारेमें न हों तो फिर शान्ति मिलती ही है।
पर हम तो अभी इन बातोंसे दूर पड़े हैं। पहली चीज- विहाय कामान् (गीता २/७१) (अर्थात्- सम्पूर्ण कामनाओंको त्यागकर) - इसीसे हम लोग दूर हैं।
प्रश्न- 'क्या कहें, शान्ति-सुख नहीं मिलता ?' उत्तर- 'अरे ! तुम क्या हमसे ठट्ठा करते हो ?'
दृष्टान्त- एक वेश्या और एक भाँडका दृष्टान्त, जो कि प्रवचन संख्या ४ में आया हुआ है।
ऐसी ही बात हमारे साथ है ! हम लोग देखते हैं कि भगवान् आवें ! हमारे जैसे लक्षण हैं, उससे कहीं भूकम्प न हो जाय ! यह मकान न गिर पड़े !
पतंजलि कहते हैं-
मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःख-
पुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम् ।
(योगदर्शन समाधिपाद सूत्र ३३)
अर्थात्- सुखी, दुखी, पुण्यात्मा और पापात्मा- ये चारों जिनके क्रमसे विषय हैं, ऐसी मित्रता, दया, प्रसन्नता और उपेक्षाकी भावनासे चित्त स्वच्छ हो जाता है।
सूत्रकी व्याख्या- सुखी मनुष्योंमें मित्रताकी भावना करनेसे, दुखी मनुष्योंमें दयाकी भावना करनेसे, पुण्यात्मा पुरुषोंमें प्रसन्नताकी भावना करनेसे और पापियोंमें उपेक्षाकी भावना करनेसे चित्तके राग, द्वेष, घृणा, ईर्ष्या और क्रोध आदि मलोंका नाश होकर चित्त शुद्ध (निर्मल) हो जाता है। अतः साधकको इसका अभ्यास करना चाहिये।
जैसे प्लेगके रोगीकी हम सेवा करते हैं, इलाज कराते हैं, पर साथ ही प्लेगसे भी बचते हैं। रोगीसे घृणा नहीं करते हैं, पर रोगसे बचते हैं।
जब तक राग-द्वेष है, तब तक कठिन काम है। वास्तवमें कोई ऐसी कठिन बात नहीं है। ईश्वरकी शरण लेनेसे काम सिद्ध हो- कमी इसी बातकी है कि शरण नहीं लेते। और कोई सहज उपाय नहीं है।
परमात्माकी शरण जाना नहीं जानते तो उनके नामकी ही शरण जाना चाहिये, भजन करना चाहिये- इससे बहुत जल्दी काम हो सकता है। भगवान् स्वयं गीताजीमें कहते हैं- इमं अनित्यं असुखं लोकं प्राप्य मां भजस्व (गीता ९/३३) (अर्थात्- सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।)
संसारमें कोई सार नहीं है। जल्दी काम बना लो, नहीं तो अचानक एक दिन मृत्युका वारन्ट आ जायेगा। वह टलनेका नहीं है।
जिसको थोड़ा भी ज्ञान हो जाय तो उसके मान, बड़ाई टिक नहीं सकते। जैसे जाग्रत् अवस्था होने पर स्वप्न नहीं टिक सकता, उसी प्रकारसे ज्ञान होने पर अज्ञान नहीं ठहर सकता। मान किसका होता है ? - शरीरका । पूजा, प्रतिष्ठा, मान, सत्कार- सब शरीरका ही तो होता है तो फिर तुम क्यों प्रसन्न होते हो ? क्या तुम शरीर हो ? शरीर तुम नहीं और शरीर तुम्हारा नहीं है। ज्ञान नहीं होनेके कारण ही तुम पूजा, प्रतिष्ठा, मान, बड़ाई, सत्कारसे प्रसन्न होते हो और पुकारते हो कि- 'मैं शरीर !' 'मेरा शरीर !'
अच्छे विद्वान् पुरुष भी निन्दा, अपमान नहीं सह सकते। जब तक यह बात है, तब तक हृदयमें अहंकार भयंकर रूप धारण करके स्थित है। सब बातोंको सोचकर इन मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाको विदा करना है। नहीं तो आप कमाते रहो, ये खाते रहेंगे। (नोट- यहाँ कमाईसे तात्पर्य पारमार्थिक कमाईसे है यानी आप साधन-भजन करते रहें और यह मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी चाह उस किये हुए साधन-भजनको खाती रहेगी)। सबकी जो दशा है, वही तुम्हारी होगी। यह ज्ञानका उपाय बताया है।
भक्तिका उपाय इससे सरल है- इसमें भगवान्का आश्रय लेना चाहिए। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा- स्वयंके लिये नहीं चाहना चाहिये और दूसरोंको खूब देना चाहिये। हमारे द्वारा (मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा) दूसरोंको नहीं देनेसे उनका लाभ नहीं है; वे स्वयं त्याग करेंगे, तभी उनका कल्याण होगा। अब भी चेतो। मान, बड़ाईका त्याग कर सको तो आपके कल्याणमें एक दिन भी नहीं लगे। यह मान, बड़ाई ही विष है। बढ़िया दूध है, दो बूँद विष मिल गया तो सब जहर हो गया। हम आपको कामिनी, कांचन छोड़े हुये लोग तो बतला सकते हैं, पर आप हमें मान, बड़ाई त्यागे हुए लोग बतलाइये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…