भगवान्, तीर्थ, सत्संग और परलोकमें जितनी ज्यादा श्रद्धा करे, उतना ही महान् फल है
भगवान्के भजनमें यह श्रद्धा करे कि भगवान्के भजनसे सब पाप नष्ट हो जाते हैं। इस भावसे भजन करनेसे लाभ नहीं होवे तो समझना चाहिये कि भजनमें कमी है। पारससे लोहा छुआया तो सोना होना ही चाहिये। नहीं होता है तो खोज करनी चाहिये कि कहाँ कमी है। ऐसे ही भजनमें क्या कमी है, यह खोज करनी चाहिये।
सत्संग करनेसे सदाचार, सद्गुण आते हैं। भगवान्की स्मृतिकी वृद्धि, भगवान्के स्वरूपमें स्थिति, आनन्द, शान्ति, विषयोंमें वैराग्य- इन बातोंकी यदि कमी है तो कमी रहनेका कारण सोचना चाहिये और उसका सुधार करना चाहिये। १० व्यक्ति मिलकर भगवान्की चर्चा करें तो सत्संग होगा। गंगा किनारे एकान्तमें बैठकर ध्यान करना चाहिये, यह भावना करनी चाहिये कि यह पवित्र भूमि है, तीर्थ है। यहाँ पर स्वाभाविक ही ज्ञान, वैराग्य और प्रसन्नता होनी चाहिये- यह भावना करनी चाहिये। भजन-ध्यान करे तो मन अच्छा लगता है। ये सब बातें प्रामाणिक हैं। श्रद्धा न होनेके कारण उस लाभसे वंचित रहते हैं।
गंगाजल पीनेसे, स्नान करनेसे, आचमनसे भगवान् मिल जाते हैं- यह श्रद्धा रखनी चाहिये। गंगाजीमें पवित्रता रखनी चाहिये। गंगाजीके पासमें टट्टी, पेशाब नहीं करना चाहिये। गंगाजीमें श्रद्धा करना बड़े महत्त्वकी बात है। गीताजीकी पुस्तक तथा और भी धार्मिक पुस्तकें हैं, उनमें खूब श्रद्धा करनी चाहिये। इन पुस्तकोंके अनुसार साधन करनेसे कल्याण हो जावे तो बात ही क्या है, इनके पढ़नेसे ही आगे जाकर कल्याण हो जाता है, इनसे ज्ञान होता है- इस तरह पुस्तकोंमें श्रद्धा करनी चाहिये।
भगवान्के श्रीविग्रह (चित्र) में और मानसिक ध्यानमें श्रद्धा करनी चाहिये। विश्वास करना चाहिये कि मानसिक ध्यानमें भगवान् बाध्य होकर दर्शन देते हैं। साधक चित्रके अनुसार जिस स्वरूपका ध्यान करता है, उसीके अनुसार दर्शन होते हैं। यथार्थ दर्शन तो बादमें होते हैं।
भगवान्में, तीर्थमें, सत्संगमें, परलोकमें जितनी ज्यादा श्रद्धा करे, उतना ही फल है। परमात्म-प्राप्त पुरुषसे मनुष्य जो चाहे, सो लाभ उठा सकता है, श्रद्धा होनी चाहिये।
परमात्माकी प्राप्तिका विषय एक साधारण मनुष्य कहता है तो उससे साधारण लाभ है; परमात्माकी प्राप्ति वाला पुरुष कहता है, तो उससे अधिक लाभ है। इसमें भी प्राप्ति वाला पुरुष होते हुए भी श्रोताकी श्रद्धा जैसी होगी, वैसा ही लाभ होगा। हम लोग महात्माओंके पास जाते हैं तो श्रद्धासे उनकी बातें बहुत असर करती है। वे ही बातें यदि शास्त्रोंसे पढ़ी जायँ तो उनसे कम असर पड़ता है। यह सामान्य लाभ है, महात्मा लोगोंसे विशेष लाभ होता है, जैसे- सूर्य, अग्निमें जो प्रकाश है, वह सामान्य भावसे तो सभीको प्राप्त है, किन्तु सूर्यकान्त मणि (मैग्निफाइंग ग्लास)-में विशेषता है, काठमें चिलका होता ही नहीं। प्रकाश तो सभीको मिलता है, किन्तु सामान्य काँच, सूर्यकान्त मणि और काठका भेद है, ऐसे ही आकाशसे जल एक-सा ही स्वच्छ बरसता है, किन्तु अलग-अलग बीजोंको अलग-अलग वृक्षोंके रूपमें परिणत करता है।
श्रद्धा न होनेमें नास्तिकताका संग और पूर्वकृत कर्म कारण हैं। पूर्वकृत कर्मोंके अन्तर्गत स्वभाव, वृत्ति- सब आ जाते हैं। गुण, स्वभाव, वृत्ति- सब कर्मसे ही बनते हैं-
फिरत सदा माया कर प्रेरा । काल कर्म सुभाव गुन घेरा ॥
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड ४४/५)
अर्थ- मायाकी प्रेरणासे काल, कर्म, स्वभाव और गुणसे घिरा हुआ (इनके वशमें हुआ) यह सदा भटकता रहता है।
जितने भी श्रद्धाके स्थल हैं- जप, ध्यान, महात्मा, ईश्वर- इनमें जो भाव है, जैसा माने, वैसा ही प्रभाव है। जितना माने, विश्वास करे, उतना ही उनका प्रभाव है।
ईश्वरका प्रभाव अपरिमित है, नाप-तौल नहीं है। हम मनसे जितना मान लें, उससे भी बहुत अधिक असीम प्रभाव है। वे असम्भवको भी सम्भव कर सकते हैं।
एक आदमी अणिमादि सिद्धियोंको दिखाता है- यह भी प्रभाव है, किन्तु परमात्माकी प्राप्तिके सामने यह कुछ भी नहीं है। प्रभावका मतलब समझना चाहिये। ईश्वर जो चाहे सो कर सकता है। चाहे तो एक क्षणमें सबका कल्याण कर सकता है। यों समझा जाय तो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस परमात्माके एक अंशमें स्थित है- ऐसा प्रभावशाली वह परमात्मा है।
प्रभाव- शक्ति विशेष है। प्रलय और उत्पत्ति करनेकी भगवान्में जो शक्ति है, उसका नाम प्रभाव है।
भगवान्के प्रेमकी बात अलौकिक है, अद्भुत है, बतायी नहीं जा सकती है, वाणीका विषय नहीं है। प्रेम फलरूप है। परमात्मा खास प्रेमस्वरूप, प्रेमकी मूर्ति हैं।
एक साधारण मनुष्य भगवान्से प्रेम करे तो भगवान् यह नहीं समझते हैं कि मैं इस तुच्छसे क्या प्रेम करूँ ! संसारके लोग तो अपने मतलबसे या रुपये वालोंसे प्रेम करते हैं, उनका आदर करते हैं, गरीबका नहीं। भगवान्के यहाँ यह बात नहीं है। सबसे समतासे प्रेम करना चाहिये। प्रेम करने लायक तो एक भगवान् ही हैं, और सब स्वार्थी हैं, देवता तक भी सब स्वार्थी हैं। भगवान् अपनेको चाहते हैं, हम भी भगवान्को चाहें। सब प्रकारसे प्रेम करनेके पात्र भगवान् हैं। भगवान् आनन्दकी खान हैं- इसमें विश्वास हो जावे तो हम संसारमें किसी भी चीजमें प्रेम नहीं कर सकते हैं। जब तक हम दूसरी चीजोंसे प्रेम करते हैं तो हमने भगवान्का प्रभाव समझा ही नहीं है।
प्रश्न- बिना देखी हुई चीजमें प्रेम कैसे हो ?
उत्तर - भगवान्से बढ़कर दुनियामें कोई चीज नहीं है। मेरा भगवान्में प्रेम होना चाहिये- यह लगन लग जावे तो हो जाता है।
प्रश्न- चाहते तो हैं ?
उत्तर- चाहनेमें एक शर्त है- भगवान्में प्रेम करना चाहे तो प्रेम हो सकता है। जब तक तुम दूसरी चीजोंमें प्रेम करोगे, तब तक भगवान्में विश्वास नहीं हुआ- यह विश्वास हो जाय तो प्रेम अपने आप ही हो जाय। बढ़िया चीजको छोड़कर घटिया चीजमें कोई भी प्रेम नहीं करना चाहता है। विश्वासकी जरूरत है। यही श्रद्धा है। भगवान्के सिवाय कुछ नहीं चाहते हैं- यह बात जब सोलह आना (१०० प्रतिशत) हो जायेगी, प्रभुके सिवाय सबसे प्रेम हट जायेगा तो भगवान् रुक नहीं सकते हैं।
भगवान्की यह घोषणा है कि- 'जो मेरे साथ प्रेम करता है, मैं भी उसके साथ प्रेम करता हूँ।' दूसरी चीजोंमें जो प्रेम है, यह अपने लिये कलंकके समान है।
भगवान्से एकनिष्ठ प्रेम कर लेवें तो भगवान् ठहर नहीं सकते हैं। बात तो बिल्कुल स्पष्ट है। भगवान्के सिवाय प्रेम करने लायक कोई है ही नहीं, सब मैलेके (विष्ठा-गंदगीके) समान है। भगवान्को छोड़कर किसी भी अन्य वस्तु, व्यक्तिमें प्रेम करना टट्टी, पेशाबमें प्रेम करना है। यह वेश्याके द्वारा प्रेम-प्रदर्शनके नाटकके समान है।
प्रभुमें प्रेम करके दूसरी चीजमें प्रेम करना कलंक है।
चाहे अपना सर्वस्व चला जाय, हमें तो भगवान्से प्रेम करना है- यह उत्तम बात है।
सर्वस्व जानेमें तो सर्वस्वको आदर दिया, सर्वस्व जाना तो अच्छा है, उसमें प्रेम करने लायक कोई चीज ही नहीं है, उससे भी उत्तम बात यह है कि प्रभुमें प्रेम करना है, प्राण देकर भी करना है- यह निश्चय हृदयमें कर लेवें तो प्रेम हो जाता है। प्रभुसे जल्दी मिलना हो तो दूसरी चीजोंसे प्रेम हटाकर भगवान्में लगाना चाहिये।
१. जिस बातको भगवद्भाव-विरोधी माने, उसे विचारपूर्वक त्याग दे।
२. जिस कामसे भगवान् राजी होते हैं, वही काम करना है- यह हरदम याद रखे।
३. भगवान्की याद आनेको दर्शनसे भी बढ़कर समझे। उनके वियोगमें अपनी दशा जलके बिना मछलीकी तरह हो जावे।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…