भगवान् को सब समय अपने साथमें समझें
ध्यान तो यहाँ स्वाभाविक ही लगता है। गंगाके किनारे बैठकर देख लीजिये, जिसका ध्यान नहीं लगता है, उसका ध्यान भी लग सकता है। गंगासे स्पर्श करके जो वायु चलती है, उससे प्रत्यक्षमें शान्ति मिलती है; शान्ति मिलनेसे ध्यान लगता है। ऐसी ध्यानकी तजवीज (अर्थात् संयोग) आपको कहीं नहीं लग सकती है। यहाँ तो सभी साज (अर्थात् समाज, सामान) ऐसा ही है, ईश्वरने कुदरती (अर्थात् प्राकृतिक रूपसे) बना रखा है। यह तपोभूमि है। कानोंमें ध्वनि पड़ती है तो गंगाकी, स्नान गंगाका, पान गंगाका, दर्शन गंगाका । यह गंगाकी रेणुकाका आसन- इस रेणुकाके आसनके समान कोई पवित्र आसन नहीं है। दर्शन भी इससे बढ़कर क्या होगा- साक्षात् भगवती गंगाजी ! वटका वृक्ष- इससे स्वाभाविक ही शान्ति मिलती है। हर एक वृक्षमें ऐसी बात नहीं है। भूमि समतल है। यह बनाई हुई नहीं है, कुदरती बनी हुई है। सब तजवीज देखो, जो बतलाया करते हैं, सारा समाज इसी तरहका जुटा हुआ है।
विरक्त पुरुषोंके लिये सात उपाय बताये गये हैं, वे सातों ही यहाँ पर हैं- १. गंगाजल २. वन (चारों तरफ वन हैं) ३. पहाड़-ही-पहाड़ ४. वटवृक्ष ५. गुफा ६. गंगाजीकी रेणुका ७. सत्संग। इस समय कमी तो इतनी ही है- परिश्रमकी (यानी इन चीजोंको काममें लेकर अपना भगवत्प्राप्तिका कार्य शीघ्र बना लेना चाहिये) ।
यह भूमि पवित्र है, जल पवित्र है, रेणुका पवित्र है। एकान्तवास यहाँ है ही। जो सत्संगके लिये आते हैं, उनका संग तो सत्संग ही है। रेणुकाका उत्तम आसन है। फिर- चैलाजिनकुशोत्तरम् (गीता ६/११) (अर्थात्- शुद्ध भूमिमें, जिसके ऊपर क्रमश: कुशा, मृगछाला और वस्त्र बिछे हैं)। यह रेणुका है ही, यह रेणुका तीनोंका काम करती है। हाथ, पाँव सुविधाके अनुसार रख लो (यानी सुखपूर्वक बैठ जायँ) । दृष्टि नासिकाके अग्रभागमें रख लो, इससे आलस्य नहीं आता है। यदि आपको आलस्य नहीं आ रहा हो तो चाहे आँखोंको बंद कर लो । जब आलस्य आयेगा, तब समं कायशिरोग्रीवं (गीता ६/१३) (अर्थात्- काया, सिर और गलेको समान एवं अचल धारण करके) रह ही नहीं सकते। जब आलस्य आता है, तब नाड़ (अर्थात् गर्दन) और कमर झुक जाते हैं।
इस प्रकारसे बैठकर फिर क्या करना चाहिये ? संकल्पका त्याग कर दे। फिर परमात्माका ध्यान करे। मनमें यह विश्वास रखे कि संकल्प आ ही कैसे सकता है ? मनसे पूछे कि- 'तू क्या चाहता है ?' तो यही उत्तर मिलेगा कि- 'कुछ नहीं चाहता।' संकल्पका त्याग कर दे। उसके बादमें परमात्माके स्वरूपका ध्यान करे। जो भी अपना इष्टदेव हो- राम, कृष्ण, विष्णु- किसीका भी करे, बात एक ही है।
बड़ा विकट समय है। संकटकाल है। इस समय तो सत्संग करें और दुखी, अनाथ लोगोंकी सेवा करे। अपने पास जो कुछ है- तन या मन- आँख मूँदकर लगावे, जितना लगाया जा सकता हो।
ज्यों जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़े दाम ।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम ॥
इनको खर्च नहीं करे, तो डूबे। खूब उदारताके साथ सेवा करे। शरीरसे सेवा, वाणीसे जप और मनसे ध्यान। सत्संग, भजन और ध्यान- इन तीनोंका नाम ही भक्ति है।
कानोंसे श्रवण, वाणीसे नामका जप, मनसे स्वरूपका ध्यान- तीनोंसे भगवान्को पकड़ो। एकमें भी भगवान् अटक जायेंगे, तो भी बेड़ा पार है ! यह भक्तिकी बात बता दी। यही प्रह्लादका सिद्धान्त है, यही शाण्डिल्यका, यही रामायणका सिद्धान्त है।
एक भाईने भक्त प्रवीरकी कथाके लिये कहा, उसे बीचमें बता दें, फिर भगवान्के ध्यानकी बात कही जाय।
भगवान्का ध्यान करते-करते प्रवीरकी मृत्यु हुई। हमें भी भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये- 'हे प्रभो ! इसी प्रकार आपका ध्यान करते हुए हमारी मृत्यु हो !' इस बातको ध्यानमें रखकर भगवान्का ध्यान करना चाहिये। 'वे हमारे हृदयमें बसें' और कुछ नहीं चाहते।
एक भाईने भगवान् रामके ध्यानके लिये कहा था। ध्यानके पूर्व श्रीरामका आवाहन करना चाहिये, जैसे भरतजीने किया था। चौदह वर्ष समाप्त होनेको आते हैं, एक दिन बाकी है। भरतजी व्याकुल हो गये तो भगवान् तुरन्त ही आ पहुँचे। इसी प्रकार यदि हम लोग भी व्याकुल हो जायेंगे तो भगवान् आ जायेंगे। हम भगवान्से प्रार्थना करें- 'हे नाथ! हे दीनबन्धो ! आप अभी तक क्यों नहीं आये ?'
कारन कवन नाथ नहिं आयउ ।
जानि कुटिल किधौं मोहि बिसराय ॥
(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड १/२)
व्याख्या ( श्रीसेठजी द्वारा ) - 'हे नाथ ! हे प्रभो ! अभी तक क्यों नहीं आये ? सम्भव है, आपने कुटिल समझकर मेरा त्याग कर दिया है।'
हम लोग भगवान्से प्रार्थना करें- 'प्रभो ! ध्यानावस्थामें भी आप नहीं आये ? क्या उसके लायक भी हम लोग नहीं हैं ?'
एक बात मैं पूछहुँ तोही ।
कारन कवन बिसारेहु मोही ॥
मो से दास बहुत जग माहीं ।
तो से नाथ जगत कहुँ नाहीं ॥
'हे नाथ ! एक बात आपसे पूछी जाती है, आप कैसे भूल गये ? आपके जैसे तो बहुत हैं नहीं। आप जब हमको बिसार दोगे, तो फिर कैसे बसाइयेगा (अर्थात् कैसे काम चलेगा) हे नाथ! हे दीनबन्धो ! आप विलम्ब क्यों करते हो ? आप क्यों तरसा रहे हो ? यदि आप मेरी तरफ खयाल करोगे, तब तो आपका आना कठिन ही है। हे प्रभो ! ध्यानमें तो दर्शन दीजिये।'
आनन्दमय ! आनन्दमय ! आनन्दमय !
नाथ सकल साधन मैं हीना ।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥
(रा.च.मा. अरण्यकाण्ड ८/४)
व्याख्या ( श्रीसेठजी द्वारा )- 'हे नाथ! मैं सम्पूर्ण साध नोंसे हीन हूँ। न मुझमें ज्ञान है, न भक्ति है, आपने ध्यानमें आकर दर्शन दिये, यह आपकी बड़ी कृपा है।'
भगवान्का अलौकिक स्वरूप है। भगवान् राम अयोध्या में जगत् जननी जानकीके साथ खड़े हुए हैं। वह उनका स्वरूप मनरूपी नेत्रोंके सामने है, मानो १६ वर्षका राजकुमार हो ! प्रभुका स्वरूप बिजलीकी तरह चमक रहा है। प्रभुकी लम्बाई लगभग ६ १/, फुट है और चौड़ाई लगभग ११%, फुटकी है। प्रभुका कैसा अद्भुत स्वरूप है ! प्रभुके स्वरूपकी धातु दिव्य है। भगवान् दिव्य स्वरूपसे दर्शन दे रहे हैं। भगवान्के चरण चमकीले हैं। पीताम्बर चमचम चमकता है। अलौकिक स्वरूप है ! कटि जिनकी पतली है, रत्नोंकी तागड़ी (अर्थात्- कमरकी करधनी) पहने हुये हैं, रेशमी दुपट्टा ओढ़े हुए हैं, दो भुजा हैं, धनुष कंधेमें धारण किया हुआ है, बाण हाथमें है। भगवान् आकाशमें खड़े हैं, हमारे सन्मुख खड़े हैं, गलेमें अनेक प्रकारकी मालायें धारण किये हुए हैं- स्वर्णकी मालायें हैं, मोतियों की माला है, कौस्तुभमणि है और वनमाला पहने हुये हैं। हृदयके ऊपर भृगुलताका चिह्न है, उनके कंधे हृष्ट-पुष्ट हैं, भुजायें लम्बी और बहुत ही सुन्दर तथा चमकीली हैं। हाथोंकी अँगुलियों में अँगूठियाँ पहने हुये हैं और हाथोंकी कलाइयोंमें कड़े हैं। उनकी ग्रीवा ऊँची है, ठोडी रमणीय है। उनके ओष्ठ लाल-लाल चमक रहे हैं, दाँतोंकी पंक्ति मानो हीरोंकी पंक्ति हो। नासिका चमक रही है, कानोंमें मकराकृत कुण्डल सुशोभित हो रहे हैं। गाल चमक रहे हैं। भगवान्के नेत्र गुलाबके पुष्पकी भाँति खिले हुये हैं, अद्भुत रोशनी है। आप ज्ञानके सागर हैं। आपके नेत्रों में प्रेम भरा हुआ है, आनन्दकी वर्षा कर रहे हैं।
आप सबको समानभावसे देख रहे हैं। प्रभु आकर्षित कर रहे हैं। अद्भुत प्रेम और शान्ति भरी हुई है। आपकी भृकुटि बड़ी सुन्दर है और मस्तक पर चन्दनका श्रीधारी तिलक है। केश छल्लेदार हैं और चमक रहे हैं, मस्तकपर स्वर्णजटित मुकुट है।
'प्रभु ! आपका यह दर्शन अलौकिक है ! आपका स्पर्श भी अलौकिक है ! छूनेसे सारे शरीरमें रोमाञ्च होने लग जाता है, वाणी गद्गद हो जाती है।'
दिव्य गन्ध आ रही है, मानो नासिकाके द्वारा अद्भुत पान कर रहा हूँ ! कैसी आपकी रोशनी है, सूर्यकी रोशनी भी फीकी हो गई है ! आपका स्वरूप दिव्य है। आपकी वाणी मधुर है। आप बोलते हैं, उससे मनुष्य मुग्ध हो जाता है, आप जादू कर देते हो। पशु-पक्षी भी आपके स्वरूपको देखकर मुग्ध हो जाते हैं ! आप दयाके सागर हैं। आपके समान कोई नहीं है। आपके नेत्रोंसे नेत्र मिलाता हूँ तो मानो शुद्ध प्रकाश आपसे निकल कर मुझमें प्रवेश कर रहा है, मानो मेरे ऊपर आपकी दया और प्रेमकी वर्षा हो रही है, मेरे सारे शरीरमें दिव्यता आ जाती है।
'हे प्रभो ! मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि जैसे आप बाहर विराजमान हो रहे हैं, उसी तरह मेरे हृदयमें भी विराजमान होइये।'
इतना कहते ही भगवान् हृदयमें प्रवेश कर गये। वहाँ मैं भगवान्को हवा कर रहा हूँ। चारों तरफ भक्त लोग भगवान्की स्तुति गा रहे हैं। सभी जातिके भक्त लोग हैं- गोपियाँ, अम्बरीष, ध्रुव, प्रह्लाद, विभीषण, हनुमानजी, काकभुशुण्डिजी आदि । शंकरजी भी खुद स्तुति गा रहे हैं। आपका अद्भुत स्वरूप है ! आप हमारे हृदयकमलमें विराजमान हैं, सब आपकी स्तुति गा रहे हैं, मुग्ध हो रहे हैं। बाहरमें भी वे ही भगवान्, भीतरमें भी वे ही भगवान् दिख रहे हैं, जिस प्रकार प्रवीरको रथ पर और वृक्षसे बँधे हुए दोनों जगह भगवान् दिखते थे। इतना ही फर्क है कि उनको नेत्रोंसे दिखते थे, मुझे मनसे दिख रहे हैं।
'प्रभो ! आप अनन्य भक्तिसे दर्शन देते हैं। मेरेमें तो उसकी कमी है। उसकी पूर्ति भी आप ही करेंगे। ध्यानावस्थामें दर्शन देना भी तो आपकी कृपाका ही फल है। '
अहा ! एक आनन्दके सिवाय दूसरी वस्तु नहीं है। यह आनन्द भगवान्का निराकार स्वरूप है। देखो, कैसी प्रसन्नता हो रही है, मानो शान्ति, आनन्दकी बाढ़ आ गई हो ! वे ही विज्ञानानन्दघन परमात्मा रामरूपसे प्रकट हुये थे। सफेद और नीला रंग मिला दिया जावे- वह रंग हो, उसी तरहका आपका स्वरूप है। मधुर-मधुर हरियाली-सी है, जिस प्रकार दूर्वाके अग्रभागमें हो- ऐसी भगवान्की रोशनी है, यह ज्योति है।
यही मिलकर भगवान्का एक स्वरूप बँध जाता है। कितनी प्रसन्नता, शान्ति और आनन्द है ! इस समय क्या विक्षेप आ सकता है ? चैलेन्ज कर देने पर भी विक्षेप नहीं आ सकता है। यहाँ तो आनन्द-ही-आनन्द है। श्रद्धा, प्रेम होनेसे भगवान् प्रत्यक्ष नेत्रोंसे दिखने लग जाते हैं। वह (साधक) प्रेममय बन जाता है। पापोंसे शुद्ध होकर शरीर दिव्य बन जाता है। सारे शरीरमें दया, प्रेमका प्रादुर्भाव हो जाता है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी ||
(गीता १२/१३)
अर्थात्- जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममता से रहित, अहंकारसे रहित, सुख-दुःखोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करने वालेको भी अभय देने वाला है।
ये गुण उसमें आ जाते हैं। भगवान्के स्वरूपको हर समय देखते रहें। सब समय उसे साथमें ही रखें। प्रभु तो प्रेम भण्डार हैं। इस प्रकार देखते हुए ही हम सारे काम करें। काममें नुकसान होता हो तो हो, प्रभुके ध्यानमें कमी नहीं होनी चाहिये।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...