बड़ोंको प्रणाम और सन्ध्या नित्य करना एवं भगवान्के कर्मोंकी दिव्यता
जिस प्रकारसे स्त्रियोंको अपनेसे बड़ोंको प्रणाम करनेके लिये कहा गया था, उसी प्रकारसे पुरुषोंको भी कहा जाता है कि कम-से-कम एक बार तो सबको प्रणाम कर लें। प्रात:काल कर लें, यदि उस समय मौका नहीं लगे तो शौच-स्नान करनेके बाद कर लें। कोई भी अपनेसे उम्रमें, जातिमें, कायदेमें (अर्थात् सम्बन्ध अथवा रिश्तेमें), गुणोंमें- किसी प्रकारसे भी बड़ा हो, उसको प्रणाम कर लें। शास्त्र तो प्रणाम करनेसे आयु, विद्या आदि बढ़नेके लिये भी कहता है, लेकिन हमें कामना नहीं रखनी है, इसलिये स्वाभाविक ही प्रणामके लिये कहा गया है। प्रणाम करनेमें भाव आदरका, श्रद्धाका होना जरूरी है। भाव होना बहुत आवश्यक है। यदि कोई प्रणाम करनेके लिये मना करे तो उनको दूरसे ही कर लेवे । यदि दूरसे करनेके लिये भी मना करे तो मनसे कर लेवे।
पहले जिस प्रकारसे सन्ध्योपासनाके लिये मेरे नामसे कल्याणमें लेख निकाला गया था, उसके कारणसे ऐसा अनुमान होता है कि हजारों भाई, जो दिनमें एक बार सन्ध्योपासना किया करते थे, वे दोनों समय करने लग गये हैं, उसी तरहसे सबको एक बार तो प्रणाम कर लेनेके लिये भी एक लेख निकालनेका विचार किया गया है। हम समझते हैं कि इसमें किसीको भी आपत्ति नहीं होनी चाहिये, जो इस लेखकी बातको काममें नहीं लेवें। जो माता-पिता आदिके कृतघ्नी हैं, उन्हींका इस उत्तम काममें प्रेम नहीं होता है।
जिस तरह महात्मा गाँधी कई बार हड़ताल करवाया करते थे। उनका ध्येय था कि सब लोग इस काममें लगेंगे तो स्वराज्य मिल जायेगा। सो इस कार्य (चरण-स्पर्श, प्रणाम आदि) में तो त्रिलोकीका राज्य मिल जाये। तथा इसमें यह भी सुगमता है कि जितने भी इस काममें शामिल हुए, उन सबको ही मिल सकता है। उस गाँधीजी वाले काममें तो स्वराज्य मिले अथवा नहीं भी मिले, इस काममें तो अवश्य ही मिलता है, कारण कि यह तो अपने पुरुषार्थके ऊपर निर्भर है। भगवत्प्राप्तिमें प्रारब्ध बाधा नहीं लगा सकता है। उस काममें तो हजारों आदमी कैद हो गये, इस काममें तो फाँसी अथवा कैद भी नहीं होती है, यह बात तो सब जानते ही हैं।
साकारका ध्यान करने वालोंको, जो कि परमात्माका प्रभाव जानकर ध्यान करते हैं, उन्हें परमात्मा शीघ्र ही प्राप्त हो जाते हैं। ध्यान करने वाला यदि इच्छा करे तो वे शीघ्र ही दर्शन भी देते हैं, बिना इच्छा भी दे देते हैं। परमेश्वरके प्रभाव, तत्त्वको समझे बिना जो ध्यान है, वह उच्च श्रेणीका नहीं है।
परमेश्वरके कर्मोंमें कोई स्वार्थ नहीं है, इसलिये वे शुद्ध हैं। उनके जो कर्म हैं, वे अद्भुत हैं, इसलिये अलौकिक हैं और उज्ज्वल हैं। ऐसे कर्मोंका संसारमें विस्तार हो जाता है, त्रिलोकीमें उनका यश छा जाता है, इसलिये उनके कर्म अलौकिक हैं। ऐसी कोई बात नहीं है, जो वे नहीं कर सकते हैं। उनके कर्म स्वार्थरहित, प्रकाशमान हैं। प्रकाशमानका मतलब यह है कि भासने लग जाते हैं, दुनियामें चारों तरफ छा जाते हैं, उज्ज्वल हैं। वहाँ इतना प्रकाश हो जाता है कि पासमें रहने वालोंको भी ज्ञान हो जाता है, वे अन्धकार मिटा देते हैं। वे मलरहित हैं, उनमें किसी भी प्रकारका स्वार्थ नहीं है, सब प्रकारका अन्धकार नाश करने वाले हैं।
उनका प्रकट होना, शान्त होना- इस प्रकार की प्रतीति होती है। वे अपनी लीला सब दिखाते हैं। वे संसारके हितके लिये एकदम प्रेम और दयासे भरे हुए हैं। वे प्रेमकी मूर्ति हैं, प्रेमीको ही उनकी प्रतीति होती है।
जो उनके परमभावको और सामर्थ्यको जानकर उनका ध्यान करता है, उसको बहुत जल्दी फलकी प्राप्ति हो जाती है। जैसे सूर्य देखनेमें तो छोटे-से दिखते हैं, परन्तु उनका प्रकाश समस्त संसारमें फैल रहा है। यह भी मोटेरूपमें ही समझाना है। इस प्रकारसे समझकर जो ध्यान करना है, यह सब प्रकारसे उच्च श्रेणीका ध्यान है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…