Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

आराम, भोग, शौक और स्वादकी तो जड़ ही काट देवे; शौक, व्यसन, नशा भगवान्‌के ध्यानका करे

प्रवचन सं. १७
आश्विन शुक्ल १५ विक्रम सम्वत् १९९५ (सन् 1938)बाँकुड़ा (कारखानेमें)

प्रश्न- पत्ते-पत्तेमें राम-राम लिखा हुआ है- इस तरहके नामका चिन्तन कैसे हो ?

उत्तर- यह सबसे बड़ा भगवान्‌का चिन्तन है। यह मानसिक जप है। वाचिक जपसे १० गुणा फल उपांसु जप का और उससे भी १० गुणा फल मनसे करनेका बताया गया है। १०० वर्षका वाचिक जप १ वर्षके मानसिक जप के बराबर है। मानसिक संकल्पोंकी जगह भगवान्‌के नामका संकल्प किया जाय तो मानसिक जप होता है। यदि साधक का किसी समय भगवान्‌का ध्यान छूट जावे तो वह तो बिना मौत ही मारा गया।

(वाचिक जप उसे कहते हैं, जो कि स्पष्ट उच्चारण करके किया जाता है। उपांशु जप में होठ तो हिलते हैं, परन्तु आवाज स्वयंको ही सुनाई देती है। मानसिक जप मनसे होता है।)

जैसे नटनीका उदाहरण है- वह रस्से पर चलती हुई, गाना-बजाना करती हुई भी उसकी मुख्य वृत्ति अपने पैरोंकी तरफ ही रहती है। नटनीके द्वारा गाने-बजानेकी तरह ही हमें संसारका काम करना चाहिये। मुख्य वृत्ति भगवान्‌की तरफ और गौणी वृत्ति संसारकी तरफ रखनी चाहिये।

भगवान्‌को अपने समग्रका अर्पण करना चाहिये - बुद्धिसे भगवान्‌का निश्चय करे तथा मनसे जप और ध्यान करे, उससे ऊँचा और कोई काम नहीं है। शरीरसे भगवान्‌के जनोंकी सेवा करते रहना चाहिये।

दामोदरजीसे सत्संगकी बात हुई, वह भी कहनेका विचार है।

स्वयं पर खर्च कम लगाना- यह सांसारिक बातोंका सार है। बीमार होनेपर और परमार्थके काममें अपने घरके अनुसार (सामर्थ्यके अनुसार) खर्च कर सकते हो।

मनुष्य अपने शरीरके लिये जितना कम खर्च लगा सकता है, उतना ही लगाये - यह साधुता है। साधुकी तरह अपनी आवश्यकताओंको जितना कम कर देवे, उतना ही वैराग्य है। उदाहरणके लिये समझ लो कि यह चद्दर में रखता हूँ, जिसकी कीमत बारह आना है, जो कि ३ वर्ष चल जाती है। इस प्रकार इस पर चार आने एक सालके पड़े। वही चद्दर मैं गर्म भी रख सकता हूँ, ७५ रुपये की तो मैं रख ही सकता हूँ। इस चद्रसे उसका सौ गुणा फर्क हो गया। इज्जतमें थोड़ा फर्क होगा, परन्तु उससे असली काम नहीं होता है। वह इज्जत उसी कोटिके आदमियोंमें ही है। अगर वह इज्जत ईश्वरके घर पर होवे तो ७५ रुपये हम भी खर्च कर दें। अगर वस्त्रोंसे साधुपना होता होवे तो सबके वस्त्र रँगा देवें।

अपने शरीरके लिये कम खर्च करना चाहिये। आराम, भोग, शौक, स्वादकी जड़ ही काट देनी चाहिये। शौक, व्यसन तो भगवान्‌के ध्यानका करना चाहिये।

नशा - भगवान्‌के ध्यानका करे, ऐसा नशा कि कोई शरीरको काट देवे तो भी पता नहीं लगे।

दुःखसे पीड़ित मनुष्योंको आराम पहुँचाना सेवा है और उनको सदाके लिये मुक्त कर देना परमसेवा है। यह सेवा अपनी शक्तिके अनुसार सबको करनी चाहिये। उस सेवाके लायक योग्यता बनानेकी कोशिश करनी चाहिये। आज एक व्याकरण जानने वाला आदमी १००० आदमियोंको भी पढ़ा सकता है, ऐसे ही हम लोग भी हजारों की सेवा और परमसेवा कर सकते हैं, जैसे राजा जनक ऋषियोंकी कितनी सेवा करते थे !

हमें अपनेको परमसेवा करनेके लायक बनाना चाहिये। दूसरोंको इस काममें लगाना है, यह भी परमात्माकी प्राप्तिका साधन है। इसके बहुत-से प्रकार हैं। सिद्धान्त यह बना लेना चाहिये कि संसारमें भगवान्‌के प्रेम और श्रद्धाका प्रचार हो। गीताका प्रचार करे तो उसका भाव दूसरोंमें भर देवे। गीताकी पुस्तकोंका प्रचार बिक्री द्वारा करे- यह भी परमसेवा है। गीताप्रेसमें काम करो- यह भी परमसेवा है। गीता प्रचारके कार्यमें मदद देनी चाहिये। गीता मुफ्तमें देना भी प्रचार है। किसी व्यक्तिने यह विचार किया और उसका यह भाव हो गया कि संसारमें गीताका प्रचार होवे तो बहुत अच्छा हो- वह भी बहुत बड़ी भारी सेवा कर रहा है।

'भगवान् सबका उद्धार करें', 'सब लोग आपके भक्त बन जायँ' – इस प्रकारकी जो प्रार्थना है, यह निष्काम प्रार्थना है, सकाम नहीं है। अपना उद्देश्य यह नहीं रखना चाहिये कि केवल अपना उद्धार हो जावे। सब संसारका उद्धार होवे तो उसका तो स्वयं ही हो जाय। मेरे बदलेमें सबका होवे यह तो और भी अच्छी बात है। इस तरहकी भावना है, यह बहुत ऊँचे दर्जेकी भावना है।

गीताका प्रचार करना और हरेक भाईको भजन-ध्यानमें लगाना - यह परमसेवा है।

मैं कोई भी शब्द कहता हूँ, स-हेतु ही कहता हूँ, बिना हेतु नहीं कहता हूँ।

एकान्तमें बैठकर ध्यान कर रहे हैं, उस समय यदि कोई व्यर्थकी स्फुरणा होवे, संकल्प होवे तो मन को समझाना चाहिये कि- 'यह समय न तो परमार्थमें गया, न ही स्वार्थमें गया। यदि इस समय मृत्यु आ जायेगी तो खा जायेगी, इस व्यर्थकी स्फुरणा, संकल्पसे तेरेको किस बातकी सिद्धि होगी ?'

- इस प्रकार मनको समझाना चाहिये, इसका नाम विवेक है। हमारे तो ये सब धन्धे किये हुए हैं।

अपनेमें यदि मुँहसे 'साला' आदि कहनेकी आदत हो तो ऐसी बुरी आदतको शीघ्र हटावे और मनको समझावे कि आगे से ऐसे शब्दोंको काममें नहीं लेना है।

मनका संकल्प तो बीज है। उस बीजमें सब कुछ भरा पड़ा है। उसका संस्कार मनमें पड़ता है- यह विचारमें दिखना चाहिये।

पाप करनेसे क्या होगा ? - उसका फल ही तो मिलेगा, केवल यह ही मतलब नहीं है, बल्कि यह तो आग है। मनसे पाप करे तो भी उसके तीन फल हैं-

१. नरकमें जाना।

२. पशु, पक्षी आदि योनिमें जाना।

३. इसी जन्ममें भोग लेना।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…