आनन्दके लिये साधन नहीं, साधनके लिये ही साधन है
साधनमें आनन्द न भी मिले तो भी साधन करते ही रहना चाहिये।
आनन्दके लिये साधन नहीं, साधनके लिये ही साधन है। फिर तो आगे जाकर साधन किये बिना रहा ही नहीं जाता है।
भजन नहीं करने वालोंसे तो सकामभावसे भजन करने वाला भी हजारों गुणा श्रेष्ठ है। जो सकामभावसे तो भजन नहीं करता है, परन्तु आतुर अवस्थामें प्रार्थना करता है, वह उस (सकामभाव वाले)-से श्रेष्ठ है। इससे भी वह श्रेष्ठ है, जो आर्त अवस्थामें तो प्रार्थना नहीं करता, परन्तु ज्ञान, शान्ति आदिके लिये प्रार्थना करता है।
'सब ही भगवान्के प्यारे बन जायँ', 'लायक बन जायँ', 'हम भगवान्के होते हुए भी उनको नहीं मान रहे हैं- यह अज्ञता नष्ट हो जाय', 'सुहृद् भगवान्को सब लोग सुहृद् जान लें'- इस प्रकारकी प्रार्थना सकाम नहीं है, यह तो बड़ी उच्च भावना है। इसको वास्तवमें निष्कामभाव कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं है।
हमारा साधन ही हमारा धन, जीवन और प्राण है। जैसे पपीहा मेघोंको देखकर ही मुग्ध हो जाया करता है, ऐसे ही हम भगवत्-विषयकी चर्चा किसीसे भी सुनें तो सुनकर ही मुग्ध हो जाय। भगवान्के कीर्तनकी, भगवान्के गानकी कहींसे कोई ध्वनि कानमें आ जाय तो हम इतने मुग्ध हो जायँ कि जैसे बेहोश-से हो जायँ ! यह स्थिति न भी हो तो कम-से-कम वे शब्द कानोंको अमृतके समान प्रिय तो लगें !
जहाँ नेत्र जायँ, वहाँ भगवान् ही दिखें। भगवान् हैं तो सही ही, हमको नहीं दिखते तो भी इस बात को मान लें। महात्मा लोग कहते हैं कि- 'भगवान् प्रत्यक्ष हैं' - उनकी बातको हम मान लें। उनके कहे अनुसार पहले मान लें, फिर मनसे देखने लगें, फिर बुद्धिसे देखने लगें, निश्चय कर लें, फिर आगे जाकर नेत्रोंसे भी दिखने लगेंगे।
वाणीसे भगवान्की ही बातें करें। हमारी वाणीकी सारी क्रियामें भगवान्को जोड़ लें।
भगवान् कहते हैं- 'मां अप्राप्य' (गीता ९/३, १६/२०) (अर्थात् - मुझको न प्राप्त होकर...) - 'मतलब मेरी प्राप्तिका अधिकार होते हुए भी उसने मुझे प्राप्त नहीं किया ! मैंने ही मनुष्योंको यह अधिकार दिया था कि वह मनुष्य जन्म पाकर मुझे प्राप्त कर ले, परन्तु आज मुझे इनको कैदमें (यानी 84 लाख योनियोंमें) डालना पड़ता है।' भगवान् पश्चात्ताप-सा करते हैं और कहते हैं कि- 'जिसे मैं राज्य देने वाला था, उसीने राज्यमें विद्रोह फैला दिया, इसीलिये तो आज उसीको कैदमें डालना पड़ रहा है !'
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…