ये बातें स्वर्ण अक्षरोंमें लिखने योग्य हैं
भाईजीने कहा कि- 'जो बात किसीसे प्राप्त हुई है, वही मैं अनुवाद करता हूँ।' वास्तवमें जिससे यह बात प्राप्त हुई, उसे महापुरुष ही समझना चाहिये।
भजनके लिये प्रयत्न करना, भजनमें सन्तोष नहीं करना और जो प्रयत्न होता है, वह भगवान्की कृपासे ही होता है- यह बातें स्वर्ण अक्षरोंमें लिखनेकी हैं। लिखनेकी ही नहीं, काममें लानेकी हैं।
एक भाईने कहा- भरतजीकी बात सुनाओ। भरतजीकी जो महिमा है, चरित्र है, हम तो उसके पासमें ही नहीं फटक सकते, सुनावें क्या ?
उनका चरित्र ऐसा है कि जिसका हृदय कठोर हो, वह भी द्रवित हो जाय। भरतजीका संसारमें प्रकट होना प्रेमको मूर्तिमान करना है। यदि संसारमें भरतका ऐसा चरित्र नहीं होता तो प्रेम क्या चीज है- इसका लोगोंको पता ही नहीं चलता। पादसेवन-भक्तिकी शिक्षा हमें भरतजीसे ही मिलती है।
जब भगवान् किसी प्रकारसे भी अयोध्या लौटना स्वीकार नहीं करते हैं तो भरतजी प्रार्थना करते हैं- 'प्रभो ! मेरे प्राणोंकी रक्षाके लिये मुझे कुछ आसरा मिलना चाहिये।' भगवान्ने अपनी चरण-पादुकाएँ दे दी। भरतजीने कहा- '१५वें वर्षके पहले रोज यदि आप अवधमें नहीं पहुँचेंगे तो मैं अग्निमें प्रवेश करके प्राण त्याग कर दूँगा।' भरतजी नन्दीग्राममें आये, सिंहासन पर चरण-पादुकाओंको रख दिया। कोई भी मिसल (आवेदन, प्रार्थना) आती तो चरण पादुकाओं पर रख देते। तब जो हृदयमें स्फुरणा होती, उसे भगवान्की आज्ञा समझते। अपने हाथों से चरण-पादुकाओं पर चॅवर करते। धन्य है भरतजीको। चरण-पादुकाओंको वे साक्षात् भगवान्का स्वरूप समझते हैं।
वाल्मीकि रामायणमें दिखाया है कि- जब भरतजी भगवान्को लौटाने गये, तब रास्तेमें भारद्वाजजीके आश्रममें ठहरे। सबका मन यह हुआ कि कुछ दिन यहाँ ठहरें, किन्तु भरतजी महाराजको वह समय कल्पके समान व्यतीत हुआ। वहाँ भरतजीके लिये जो गद्दी बनायी गई थी, उसे उन्होंने समझा कि यह भगवान्की गद्दी है, मैं तो सेवक हूँ। वे रात भर उस पर चॅवर, छत्र करते रहे। बड़े भावकी बात है !
नन्दीग्राममें चरण पादुकाओंकी सेवा कर रहे हैं, उस समय वे मुनि वेषमें रहा करते- वल्कल वस्त्र पहनते, जमीनपर शयन करते आदि।
श्रीलक्ष्मणजीका श्रीरामचन्द्रके साथ १४ वर्ष बिताना विशेष महत्त्वकी बात नहीं है, क्योंकि भगवान् सच्चिदानन्दके साथ रहना है, वहाँ तो नरक भी वैकुण्ठ है, किन्तु भरतजी चरण-पादुकाओंको भगवान् समझकर सेवा कर रहे हैं- यह महत्त्वकी चीज है। उनकी श्रद्धा, उनकी सेवा, उनका प्रेम हमें अंशमात्र भी प्राप्त हो जाय तो हम संसारको पवित्र करनेवाले बन सकते हैं।
जिस समय रावण मारा गया, भगवान् श्रीरामकी विजय हो गई, विभीषण आकर प्रार्थना करने लगा- 'महाराज ! कुछ दिन आप यहाँ रहिये।' भगवान् रामने कहा- 'ठीक है, किन्तु मुझे भरतकी स्मृति हो रही है। समय हाथमें नहीं है। यदि विलम्ब हो जायगा तो प्राण प्यारे भाई भरतसे मिलना नहीं होगा !!
विमान पर बैठकर भगवान् चले। भगवान्ने हनुमान्जीको भेजा, कहा- 'तुम खबर देना। यदि भरतजी आनन्दपूर्वक राज्य करते हैं तो अपने वहाँ जाकर क्या करना है ?'
हनुमान्जी आये। भरतजीके वेषको देखकर बड़े ही प्रेममें मग्न हो गये। मंत्रीगण भी उसी वेषमें रहा करते थे। हनुमान्जीने सारी खबर दी कि 'महाराज विमान पर बैठकर आ रहे हैं।'
भरतजीने शत्रुघ्नको आज्ञा दी कि- 'शहर सजाओ।' शत्रुघ्न अयोध्याको गये। भरतजी मंत्रियोंको साथ लेकर चरण पादुकाओंको मस्तक पर लेकर अगवानीके लिये चले। बहुत दूर जानेपर भी जब विमान नहीं दीखा तो भरतजीने हनुमान्जीसे कहा- 'कहीं आपने विनोद तो नहीं किया है ?' उनमें कितनी व्याकुलता है ! उनसे रहा नहीं जाता, व्याकुल हो रहे हैं !
इतनेमें हनुमान्जीने कहा- 'विमान आ गया।' विमान उतरा। भगवान्ने भरतजीको गोदमें उठा लिया।
तुलसीकृत रामायणमें लिखा है- भरतजी महाराजकी रामके विरहमें प्राण निकलनेकी तैयारी हो गई, उस समय हनुमान्जी पहुँच गये। हनुमान्जी देख रहे हैं-
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृस गात ।
राम राम रघुपति जपत स्त्रवत नयन जलजात ॥
रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा १ ख)
( नेत्रोंमें आसुओंकी धारा है, मुखसे राम-राम जपते हैं। हनुमान्जी प्रेममें उनकी यह दशा देखकर विह्वल हो गये। उन्होंने सूचना दी कि भगवान् आ गये। यह खबर सुनकर चमक उठे कि- 'ऐसी खबर मुझे कौन सुना रहा है !' देखा तो हनुमान्जीको सामने पाया। भरतजीने कहा- 'हे तात ! तुम कौन हो ? तुम कहाँसे आये हो ?' हनुमान्जीने कहा- 'मेरा नाम हनुमान् है। मैं रघुनाथजीका किंकर हूँ।' भरतने उन्हें गलेसे लगा लिया। उनकी दशा अद्भुत हो गई। हनुमान्जीसे कहा- 'तुमने मुझे यह खबर सुनाई है, इसके बदलेमें मैं क्या देऊँ ? संसारमें इस सन्देशके समान मुझे कोई भी चीज नहीं दीखती। यह ऋण मेरे मस्तकपर सदा कायम रहेगा। भगवान्के वियोगमें मेरी मृत्यु हो रही थी, तुमने मुझे जीवनदान दिया। अब मुझे प्रभुके चरित्र सुनाओ, मुझे और ऋणी बनाओ।'
हनुमान्जीने देखा कि- 'प्रभुके दास तो वास्तवमें ये ही हैं, मेरे तो केवल अभिमान ही है ! भगवान् जिनकी बड़ाई किया करते थे, उन्हें आँखोंसे देख लिया।' इस प्रकार प्रेममें मग्न होकर हनुमान्जी लौटे और प्रभुसे कहा- 'प्रभु ! जल्दी चलो। आपके वियोगमें भरतकी दशा देखने लायक है ! आप जल्दी चलें।'
जिस समय खबर पहुँची कि भगवान् आ रहे हैं, सारी अयोध्या उनके दर्शनोंके लिये उलट गई। बालक और वृद्धोंको कोई साथ नहीं ला सके। सबके हृदयमें प्रेमका समुद्र उँडल गया। इस दशाको लक्ष्य करके भगवान् सुग्रीव, विभीषण आदिसे कह रहे हैं कि- 'यहाँके वासी मुझे अति प्रिय हैं। यहाँके वासी मुझे चाहते हैं। ऐसी लालसा वैकुण्ठके वासियोंकी शायद ही हो !'
भगवान् भरत, शत्रुघ्नसे मिलने लगे। सब लोग मुग्ध हो गये। भगवान्ने देखा- 'सब लोग मेरेसे मिलने आये हैं, मैं सबसे कैसे मिलूँ ?' भगवान्ने वहाँ अनन्त रूप धारण कर लिये और सबसे यथायोग्य मिले। किसीको यह खबर नहीं कि भगवान् दूसरेसे भी मिल रहे हैं। फिर माताओंके चरणोंमें प्रणाम करते हैं। सब लोग मुग्ध होते हैं। धन्य है उन पुरुषोंको, जो उस समय थे।
भगवान्का राज्याभिषेक हुआ। उन्होंने ११००० वर्ष तक राज्य किया। आज भी अच्छे राज्यको राम-राज्यकी उपमा देते हैं।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण…