Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

साधकोंके लिये उपयोगी सत्संगकी बहुत ही महत्त्वकी बातें

प्रवचन सं. १
ज्येष्ठ कृष्ण १० संवत् १९८९ सन् - 1932, सायँकालऋषिकेश, वटवृक्षके नीचे

ऋषिकेशके इस सत्रके अन्तिम दिन- खूब जोर की बातें- बातें तो इतने दिनोंमें बहुत ही कही गई, शेषमें दो बात प्रधन बताई गई थी-

१. यावन्मात्र जीवों की सेवा करनी और सुख पहुँचाना।

२. परमात्माको हर समय याद रखना।

दोनोंमेंसे एक बातको धारण करनेसे सब बात आप ही आ जायँ।

संसारके विषय-भोगोंसे वैराग्य और उसका उपाय है - (१) वैराग्यवान् पुरुषोंका संग। (२) हर समय उद्यमशील होना, ५ मिनट भी व्यर्थ नहीं बिताना, समय दामी-से-दामी काममें बिताना। फालतू आदमियोंसे बात करनेकी फुरसत ही नहीं रहे, समय परमार्थके काममें बितावें। जिस काममें न स्वार्थ हो, न परमार्थ हो- ऐसे कामके तो नजदीक ही नहीं जायें।

मनुष्यको तीन प्रकार की कमाई करनी चाहिये - (१) मनसे भजन-ध्यान। (२) वाणीके द्वारा सत्य वचन, प्रिय वचन और नाम जप। (३) शरीरके द्वारा परोपकार।

ये बातें खूब कामकी हैं। जो काममें लाये उसकी आत्माका जल्दी ही उद्धार हो जाय। यह शास्त्रोंका निचोड़ है, सब बातोंका सार है।

मनुष्यको सहनशील बनना चाहिये। भारी से भारी आपत्तियोंको हर्ष के साथ सहना । संकट सहनेसे मनुष्य धैर्यवान् होता है।

कल एक बात बताई थी- समय किस तरह बिताना चाहिये-

१. इस (ऋषिकेशके) दृश्यको याद कर लें और भगवान् कहें 'हे प्रभु! हे दीनबन्धु !! आपकी प्रेम-भक्तिमें इस तरह समय बितानेके दिन फिर कब आवेंगे?"

२. सत्संगमें सुनी हुई बातों, गीता इत्यादिकों का मनन, निदिध्यासन करना। मन लगाकर समय बिताना।

जिनके पास सत्संगकी लिखी हुई बातें हों, उनके अनुसार मनन करें, एकान्तमें चिन्तन करें, फिर उन बातोंको काममें लावें। उन बातोंको सब प्रकारसे समझ लें और काममें लानेवाली नहीं हो, वह छोड़ दें। युक्तिसंगत जँचें, उनको काममें लानेके लिये कटिबद्ध हो जायँ।

इन सब बातोंका प्रत्यक्ष फल मिलेगा, परमात्माका दर्शन होगा और उनकी प्राप्ति होगी। जिनको आज परमात्मा कोसों दूर दिखते हैं, उन्हीं पुरुषोंको वह परमेश्वर रोम-रोममें, पत्ते-पत्तेमें दर्शन देगा। संसार दुःखमयके बदले आनन्दमय हो जायगा । भगवत्-स्वरूपमें निष्ठावाली परम शान्ति प्राप्त होगी, चारों तरफ शान्ति-ही-शान्ति होगी।

समयकी अमोलकताको जाननेके साथ ही वैराग्य हो जायगा। देवताओंके समयकी इतनी कीमत नहीं है, जितनी मनुष्यके समयकी कीमत है। ऐसा साधन प्राप्त होनेपर भी जो मुक्तिका साधन न करे, उसको धिक्कार है।

सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताड़ ।

कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा ४३)

अर्थ- वह परलोकमें दुःख पाता है, सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) कालपर, कर्मपर और ईश्वरपर मिथ्या दोष लगाता है।

भावनाके अनुसार फल- एक स्त्री पाँच मनुष्योंको जिमावे (भोजन करावे) - (१) परमेश्वर-बुद्धिसे। (२) महात्मा - बुद्धिसे । (३) कुटुम्बी-बुद्धिसे । (४) बेगार-बुद्धिसे। जो स्त्री सबको परमेश्वर-बुद्धिसे जिमावे तो उसको परमात्माको ही जिमानेका फल होवेगा। सकामभावसे जिमावे तो स्वर्गकी प्राप्ति होगी। पंक्तिभेद कर दे तो नरक होता है (भोजन करवाते समय भोजन सामग्रीमें भेदभाव रखना पंक्तिभेद कहलाता है)। भावना के अनुसार ही फल होता है।

मनुष्यका जन्म पाकर भलाई लेकर ही जावे, बुराई लेकर नहीं जावे। अपने साथ बुराई करनेवालोंकी भी भलाई ही करे। अपकार करनेवालोंके साथ उपकार करना चाहिये - इससे बढ़कर संसारमें ऊँचा दर्जा नहीं है। वह मनुष्य रूपमें साक्षात् नारायण ही है। स्त्री है तो साक्षात् लक्ष्मी ही है। उत्तम से उत्तम पुरुष वही है, जो भलाई करके मनमें अभिमान न लावे, वह तो भगवद्-रूप ही है।

सबसे बढ़कर बात यह है कि समयको उत्तरोत्तर दामी (कीमती) बनाना चाहिये। जो समयकी कीमत जान गया, उसका कल्याण तो हुआ ही पड़ा है।

परमात्माकी प्राप्ति मनुष्य जन्ममें एक क्षणमें हो सकती है। जिस कालमें परमात्मा मिले, वह क्षण कैसी है? वह दशा अभी हो जाय तो परमात्मा अभी मिल जाय। इसको वही पुरुष जानता है, जिनको परमात्माके दर्शन होते हैं। वह क्षण हठात् भी आ सकता है, वह क्षण समयपर तो आता ही है। कोई क्षण नाम उच्चारण करते-करते वह प्रेम आ जाय तो उसको उसी क्षण परमात्मा मिल जायें। वह प्रेम उसकी दयासे आता है। उसके लिये रोना चाहिये, उससे प्रार्थना करनी चाहिये। उसकी कितनी दया है- खयाल करो, परमात्माकी कितनी दया है । परमार्थकी तरफ वृत्ति जानी- यह परमात्माकी कितनी दया है! अध्यात्म-शास्त्र प्रचारवाली जातिमें जन्म होना यह परमात्माकी कितनी भारी दया है ! यहाँ भागीरथीके किनारे आना हुआ यह भी परमात्माकी कितनी दया हुई !

गंगातट, वटवृक्ष, भगवत् - चर्चा और यह रेणुका- जो कि मुँह और नासिकाके द्वारा पेटमें जाकर बाहर-भीतरसे रोम-रोमको पवित्र करती है। गंगाजीका जल बाहर-भीतर रोम-रोमको पवित्र कर रहा है। ऐसे देशमें आकर वैराग्य न हो तो फिर कब होगा ? इससे बढ़कर ईश्वरकी क्या दया होगी ? इससे बढ़कर क्या भाग्योदय होगा ? अगर परमात्माकी प्राप्ति न हो तो फिर क्या कहा जाय ?

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ ।

सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा ४४)

अर्थ- जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागरसे न तरे, वह कृतघ्न और मन्द-बुद्धि हैं और आत्महत्या करनेवालेकी गतिको प्राप्त होता है।

यह दोहा रामचन्द्रजीके का है। उस समय अयोध्या तीर्थभूमि थी। यह गंगाजी अयोध्यासे भी पहलेका तीर्थ है। उस समय साक्षात् भगवान् थे- इस समय भगवान्का गुणानुवाद है। कलियुगमें भगवान्से भी बढ़कर भगवान्का गुणानुवाद तारनेवाला है।

कलिजुग सम जुग आन नहिं जो नर कर बिस्वास ।

गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहि प्रयास ॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड दोहा १०३ क )

अर्थ- यदि मनुष्य विश्वास करे तो कलियुग के समान दूसरा युग नहीं है (क्योंकि) इस युगमें श्रीरामजीके निर्मल गुणसमूहको गा-गाकर मनुष्य बिना ही परिश्रम संसार (रूपी समुद्र) से तर जाता है।

उस समय ध्यानसे कल्याण होता था. इस समय भगवान्के नामसे कल्याण होता है।

कृते यद् ध्यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखैः ।

द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात् ॥

(श्रीमद्भागवत १२/३/५२)

अर्थात्- सत्ययुगमें भगवान्का ध्यान करनेसे, त्रेता बड़े-बड़े यज्ञोंके द्वारा उनकी आराधना करनेसे और द्वापरमें विधिपूर्वक उनकी पूजा-सेवासे जो फल मिलता है, वह कलियुगमें केवल भगवन्नामका कीर्तन करनेसे ही प्राप्त हो जाता है।

हरेनाम हरेनम हरेनामैव केवलम् ।

कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा ॥

अर्थात्- कलियुगमें केवल हरिका नाम ही सार है। मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ, कलियुगमें हरिनामको छोड़कर दूसरी गति नहीं है, नहीं है, नहीं है।

इसलिये तुलसीदासजी कहते हैं-

कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिर नर उत्तरहिं पारा ॥

सत्युगमें भगवान् नृसिंहका अवतार था और कलियुग में नाम साक्षात् अवतार है। नामकी महिमा तो सदा ही है, पर कलियुग में तो नाम साक्षात् राजा है, साक्षात् नृसिंह भगवान्का अवतार है। नामको जपनेवाले (भगवान्‌के लिये जो जपते हैं), वे प्रह्लादके समान हैं। हिरण्यकशिपु खुद कलियुग है। भगवान्के भजनसे वही काम सिद्ध होगा।

ऐसा मौका पाकर उद्धार न हो तो क्या समझा जावे ? साथमें ध्यान हो तो भगवान्से वार्ता ही चले। फिर तो सब विघ्नोंका नाश होकर परमात्माकी प्राप्ति हुई ही पड़ी है। बस ! ध्यानसे बेड़ा पार है।

इसमें समयका नियम नहीं, एक क्षणके स्मरणसे भगवान् मिल जायें। एक श्वासके बदले में त्रिलोकीके राज्यकी भी कीमत नहीं है। एक क्षणमें भगवान् मिल सकते हैं, उस समयकी कीमत क्या कही जाय ! शास्त्रोंमें समयका मूल्य भगवान्‌की प्राप्तिसे भी बढ़कर बताया है, वहाँ तक अपनी दृष्टि पहुँचती नहीं। जो रत्नकी बिक्री कौड़ियोंके बदले करता है, वह समयकी कीमत क्या जाने ? समय तो रत्न है। कौड़ियोंके बदले बेचना - यानी भोगोंके द्वारा रस लेना ही समय रूपी रत्नको कौड़ियोंके बदले बेचना है। मनुष्यको परमात्माकी प्राप्ति एक क्षणमें हो सकती है।

इससे भी बढ़कर सत्संगकी महिमा गाई है, जबकि सत्संगसे एक क्षणमें नारद मुनिने दस हजारकी मुक्ति करवा दी। तब सत्संगका मूल्य कितना हुआ। जिसकी कोई तुलना ही नहीं की जा सकती है ।

तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग ।

तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥

(रा.च.मा. सुन्दरकाण्ड दोहा ४)

अर्थ- हे तात! स्वर्ग और मोक्षके सब सुखोंको तराजूके एक पलड़े में रक्खा जाय तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़ेपर रक्खे हुए) उस सुखके बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्रके सत्संगसे होता है।

सत्संगका इतना महत्त्व है, यह हमलोगोंने कभी जाना नहीं, सनकादि जानते हैं। नारदके उपदेशसे क्षण मात्रमें हजारोंका उद्धार हो जाता था। दृष्टान्त- दक्ष प्रजापति ने प्रजाकी वृद्धिके लिये १०,००० पुत्र उत्पन्न किये थे, वे सब नारदके उपदेशसे तप करनेको चले गये। जब वे तप करके तैयार हो गये, तब नारद पहुँचे और उनसे बोले- 'तुम्हारे पिताने तुमको संसार फैलाने के लिये उत्पन्न किया है। तुम लोग किनारे लगी नौकाको डुबा मत देना।'

बस ! उनकी आँखें खुल गई। सब-के-सब मुक्त हो गये यानी महात्मा, जीवन्मुक्त हो गये। दक्षने फिर दस हजार पुत्र उत्पन्न किये, उनकी भी वही दशा हुई। तब नारदकी ऐसी करतूत देखकर दक्षने उनको शाप दिया कि- 'हे नारद ! तू दो घड़ीसे ज्यादा कहीं नहीं ठहर सकेगा।'

नारदने कहा कि- 'दो घड़ी तो बहुत है। दो घड़ीमें तो बहुतों का उद्धार हो सकता है।'

नारदकी ऐसी महिमा है कि ब्रह्मा और शिव भी दौड़-दौड़कर भगवान्‌के गुणानुवाद उनसे सुनते हैं। सनकादि तो समाधि छोड़कर सुनते हैं। सत्संगमें उस माफिक (मुकाबले) की श्रद्धा और प्रेम हमलोगोंका नहीं है।

परमात्मामें श्रद्धा और प्रेम होनेसे और उनके गुणानुवाद सुननेसे क्षण-क्षणमें रोमाञ्च और नेत्रोंसे अश्रुधारा बहने लगती है। भगवान्का नाम कानोंमें सुनाई देते ही आनन्दकी लहरें आने लग जाती हैं। भगवान्के चिन्तनसे, नाम-कीर्तनसे और गुणानुवादसे अद्भुत आनन्द होने लग जाता है।

इस मनुष्य जीवनकी कीमत भगवत्प्राप्ति है, फिर पारसकी तो कीमत ही क्या है ?

एक विरक्त महात्माके एक भोला मूर्ख शिष्य था। वह भजन- ध्यान तो करता था, पर मूर्खताके कारण लोगोंको पुत्र, धन इत्यादि के लिये आशीर्वाद दे देता था । गुरुने उससे कहा- 'तू मूर्ख है ! तू यह क्या करता है ? तेरी ऐसी आदत कैसे पड़ गई ?'

शिष्यने कहा- 'ये लोग अन्न-वस्त्र इत्यादिक की सेवा करते हैं। आशीर्वाद न देनेसे फिर क्यों कर करेंगे ?' तब गुरुने उसको एक पत्थर लाकर दिया और कहा कि- 'इसकी कीमत बाजारमें जाकर करा ला, परन्तु इसे किसी भी भावमें बेचना नहीं है।' शिष्य बाजारमें गया। उस पत्थरकी कीमत मालिनने तीन पैसे, बनियेने एक रुपया, कपड़े वालेने १०० रुपये, छोटे सुनारने १००० रुपये, बड़े सुनारने १०,००० रुपये और जौहरीने दस लाख बताई। तब वह शिष्य आश्चर्य चकित होकर राजाके पास गया। राजाने बड़े-बड़े जौहरियोंको बुलाकर उस पत्थरकी कीमत कराई। उन जौहरियोंने कहा कि- 'हे राजन! आप अपना सारा राज्य डालें तो भी इस पत्थरकी कीमत नहीं हो सकती है।'

राजाने उस चेलेसे कहा- 'महाराज ! ५० करोड़ रुपये तो मैं अभी दे सकता हूँ। आप अपने गुरुसे पूछिये कि वे कितनेमें दे सकते हैं ? माँगेंगे, उतना ही दे सकता हूँ।'

शिष्य गुरुजीके पास गया। गुरुजीने कहा कि- 'इसको लोहेके छुआओ !' लोहेके छुआनेके साथ ही वह लोहा स्वर्ण बन गया। तब गुरुजीने कहा- 'इसको जितनेमें भी बेचो, ठगाई ही ठगाई है। अब जा ! इसको गंगाजीमें फेंक दे। यह चीज गुप्त रखनेकी है। लोगोंको मालूम हो जायगा तो वे लड़कर मर जायेंगे। हम इसका बोझा ढोकर क्या करेंगे ?' शिष्यसे वह पत्थर फेंका नहीं गया। तब महात्माने लेकर गंगाजीमें फेंक दिया। चेला बोला- 'महाराज ! यह क्या किया ?' गुरुजीने कहा- 'थोड़ा लोहा और ला।' उसको लेकर अपने सिर के रगड़ा तो वह भी सोना बन गया। शिष्य चकरा गया। गुरुजीने कहा- 'किसीको यह बात कहना नहीं, नहीं तो लोग हमारा सिर फोड़ देंगे। मूर्ख ! तू तो इसको तीन पैसेमें बेचनेको तैयार हो गया था !"

समय अमोलक है। ऐसा बना लो कि शरीर, वाणी पारस हो जाय। ऐसी योग्यता हो जाय कि उसकी दया दृष्टिसे पापी भी मुक्त हो जायँ ।

ऐसे मनुष्यका जीवन ही अमूल्य है। जो जितने कम दामों में अपने समयको बेचता है, वह उतना ही मूर्ख है, जैसे- पारसकी कीमत राजाका सर्वस्व देकर भी पूरी नहीं हुई।

चेतन आत्माकी कितनी कीमत है ! माथेके लगाकर लोहेको सोना बना दिया तो क्या हुआ ? वाणीके द्वारा वृक्षको कल्पवृक्ष बना दिया, पत्थरको पारस बना दिया तो क्या हुआ ? महान् विलक्षण पुरुषके तो दर्शन, भाषण, स्पर्शसे, उसकी दया दृष्टिसे पापी पुरुष भी परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।

लाखों बार ब्रह्मा होनेपर भी संसारके दुःखोंसे पिण्ड नहीं छूटता है। जब तक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी, तब तक ८४ लाख योनिके यन्त्रमें घूमना ही पड़ेगा।

हम ऐसे मनुष्य बन सकते हैं, जिससे स्वयंको तथा लाखों मनुष्योंको भगवत्प्राप्ति हो सकती है। समयकी ऐसी कीमतको समझकर भी ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो समयको व्यर्थ खोवेगा ? 'हे परमात्मा ! हे प्रभो !! जब यहाँ तक सुननेमें आता है तो है नाथ! मुझे तो आप ऐसा सेवक बना दो कि (काशीमें शिवजीकी तरह) मुक्तिका सदाव्रत बाँटता रहूँ। आपका ही सदाव्रत है, मैं तो बाँटकर अपना जी खुश कर लूँ।'

इस तरहकी योग्यता मनुष्यकी बन सकती है। मनुष्य इतना ऊँचा बन सकता है तो भी हमलोग तो अभी तक अपना पेट भी पाप करके ही भरते हैं, ऐसे जीवनको धिक्कार है ! मनुष्य जीवनमें इतनी उन्नति हो सकती है और हमलोग इतने गिरे हुए हैं! मनुष्यकी खोली (शरीर) में आकर नीची योनियोंमें जाना पड़े, उसको धिक्कार है।

जहाँ योग्यता है, जहाँ साधन है, जहाँ उपाय है, वहाँसे जो नीचे गिरता है, उसको बारम्बार धिक्कार है।

तुम्हारी बात पर ईश्वर तो क्या, तुम्हारी स्त्री, बालक भी विश्वास नहीं करते; तुम्हारे मुनीम, गुमास्ता भी विश्वास नहीं करते। तुम्हारी वाणीकी तो इतनी ही कीमत है। तुम्हारेमें और पशुओंमें क्या अन्तर है ? दोनों ही दयाके पात्र हैं। संसारमें व्यर्थ ही आये, माताको व्यर्थ ही बोझ मारी। पत्थर होता तो दिवाल बनानेके काम तो आता। अच्छे-अच्छे भोजनके पदार्थ खाकर पृथ्वी गन्दी की, क्या मनुष्यका जन्म इसी बात के लिये मिला था ?

मनुष्यका जीवन तो जीते हुए ही काममें आता है, पशुका शरीर तो मरनेके बाद भी काममें आता है। मनुष्यका हाड़, माँस, चमड़ी- कुछ भी काममें नहीं आता। राख होकर उड़ जायगी। जब तक यह राख नहीं उड़े, उसके पहले-पहले ही जिस कामके लिये आये हो, उसे पूरा कर लो। चूको मत। सब काम धरे रहने दो। बस, यह काम पूरा कर लो नहीं तो फिर तुम्हारा कौन धणी-धोरी (मालिक) होगा और तुम्हारी क्या दशा होगी ? तिर्यक् योनिमें पड़नेके बाद किसकी सामर्थ्य है, जो तुमको वहाँसे वापस लाये ? बद्रीनाथके पहाड़ोंसे कोई गिरे तो उसको उठानेवाला भी मिल सकता है, पर मनुष्य शरीरसे गिरे हुएको उठानेवाले नहीं मिलते। उत्तरोत्तर उन्नति करो। आपकी दृष्टिमें जो जरूरी-जरूरी संसारिक काम है वे चूल्हेमें जावो। तुम मर जावोगे तो दूसरे कर लेंगे। तुम्हारे बिना नहीं होवे तो मत होओ। परन्तु तुम्हारी मृत्यु आकर प्राप्त हो जाय और दूसरी योनिमें गिर गये तो फिर तुम्हारा कौन सुधार करेगा ? सब मतलबके यार हैं। क्यों अपने जीवनको धूलमें मिलाते हो ?

कोई लाख रुपया कमाता है और उसमें अपना समय लगाता है तो वह भी पशुसे ज्यादा गया-बीता है, पत्थर ही ढोता है। पत्थर और सोना-चाँदी एक ही पहाड़मेंसे निकलते हैं। वजन दोनोंमें ही है। दस करोड़ कमाया और मरकर कुत्ता हो गया तो वह तेरे क्या काम के ? इस भौतिक उन्नतिकी एक पैसा भी कीमत नहीं है, जिस प्रकार स्वप्नकी उन्नति जाग्रत्‌में कुछ भी काम नहीं आती है। जैसे जाग्रत्‌का भिखमंगा स्वप्नमें करोड़पति हो जाय तो वह वास्तवमें तो भिखमंगा ही है, ऐसे ही ये सब चीजें यहाँ ही रहनेवाली हैं। एक पाई भी साथ जानेवाली नहीं है।

जो ले जाना चाहे, वह ले जा भी सकता है। बुद्धिमान मनुष्य कोई वस्तु कहीं भेजना चाहे तो वह पार्सल या रजिस्ट्री द्वारा भेज सकता है। यों का यों नहीं जा सकता है, परन्तु डाक द्वारा जा सकता है। (दृष्टान्त- एक-एक वर्षके लिये राजा रहना, उसके बाद नदीके उस पार घोर जंगलमें जाना और वहीं पर सड़कर मर जाना; परन्तु एक राजाके द्वारा अपनी बुद्धिमानी से इधरकी सुखभोगकी सामग्रियोंको नदीके उस पार भेज देना, उधर नया नगर बसा लेना एवं जीवनभरके लिये राज्य करना ।)

उस तन, मन, धनको दुःखी अनाथोंकी सेवामें लगाना ही परलोकमें पहुँचानेका मार्ग है। परमात्माकी प्राप्ति कर ली, तब तो यह और वह सब राज्य अपना ही है।

और भी एक मार्ग है- मरे ही क्यों ? ऐसा जीवन्मुक्त बन जाय कि उसकी चाह भगवान् भी करें। भगवान्ने कहा है कि गीताके प्रचार करनेवालेके समान मेरा प्यारा न कोई है, न होगा-

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति ।

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥

(गीता १८/६८)

अर्थात्- जो पुरुष मेरेमें परम प्रेम करके, इस परम रहस्ययुक्त गीता - शास्त्रको मेरे भक्तोंमें कहेगा अर्थात् निष्कामभावसे प्रेमपूर्वक मेरे भक्तोंको पढ़ावेगा या अर्थकी व्याख्या द्वारा इसका प्रचार करेगा वह निःसन्देह मेरेको ही प्राप्त होगा।

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः ।

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥

(गीता १८/६९)

अर्थात्- न तो उससे बढ़कर मेरा अतिशय प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई है और न उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्यारा पृथ्वीमें दूसरा कोई होवेगा ।

जिस किसी प्रकारसे भी गीताका प्रचार हो, इसकी चेष्टा प्राण- पर्यन्त करे। गाँव-गाँव, घर-घरमें, पुस्तकोंके द्वारा, व्याख्यानके द्वारा, भावके द्वारा खूब प्रचार कर दे। गीता तो भगवान्‌का साक्षात् स्वरूप है और प्राण है। ऐसा अपनी आत्माको बना ले कि एक गीता भगवतीके प्रतापसे सब कुछ हो जाय - गीताके अनुकूल वर्ताव, वाणीमें गीता, गीताके अनुसार मन, गीताके अनुकूल आचरण, गीताके अनुकूल भाव, गीताके अनुकूल हृदय, गीताके गुण, गीताके अनुकूल चलना, सोना, उठना आदि क्रियाएँ और गीताकी ही चर्चा। उसके रोम-रोममें गीता रमी हुई है। भगवान्की प्रतिज्ञा है कि उससे बढ़कर मेरा प्यारा न तो कोई हुआ है और न कोई होगा।

गीताका उपदेश ही मुक्तिका सदाव्रत है। जो पुरुष उसके उपदेशको धारण करता है, वही मुक्त है। वही मुक्तिका सदाव्रत बाँटता है। पत्ते पत्ते में, गाछ गाछ (वृक्ष-वृक्ष) में, गाँव-गाँवमें जगह-जगह उसकी ध्वनि गुंजार करके व्यापक कर दे- ऐसा अपना जीवन बना ले।

मनुष्यका शरीर और बुद्धि इनको पाकर भी हमलोग यदि अपना पतन करें, फिर भी कोई हमें मनुष्य कहे तो वह सही नहीं है। प्रत्यक्षमें आत्माका कल्याण हो, ऐसे काममें समय न बिताकर, जो फालतू काममें समय बिताते हैं, वे गड्ढा खोदकर मर रहे हैं, उनको धिक्कार है।

मनुष्यको बार-बार जगानेकी, चेतानेकी, बल दिलाने की आवश्यकता है। यह जीव चेतन है, इसकी शक्ति अपार है- आगकी चिनगारीकी तरह । यदि वह चिनगारी अपने असली रुपको धारण करे तो सारे ब्रह्माण्डको जला सकती है। यह जीवात्मा परमात्माका अंश ही है। अग्निकी चिनगारी है, वह साक्षात् आग ही है। फूँक देनेवाला, हवा देनेवाला हो तो वही चिनगारी आगका रूप धारण कर लेती है। इसी प्रकार इस जीवात्माकी इतनी शक्ति है कि वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका उद्धार कर सकती है। मनुष्यको सत्संग रूपी पंखेकी हवा होती रहे तो सम्पूर्ण संसारको हिला दें, जैसे हनुमानजीको जाम्बवान्ने वल याद दिलाया और वे समुद्रको एक खाईकी तरह लाँच गये।

हम सबमें वह चेतन शक्ति परिपूर्ण है। जाम्बवान्‌की तरह कोई चेतानेवाला हो, फिर इस संसार समुद्रको लाँघना कौन बड़ी बात है ?

प्रभाव तो सब जगह परिपूर्ण हो रहा है, हमें सावधान होना चाहिये, सचेत होना चाहिये, जागना चाहिये- उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । (कठोपनिषद् अ. १ वल्ली ३ मंत्र १४)

अर्थात्- हे मनुष्यो ! उठो, जागो (सावधान हो जाओ और) श्रेष्ठ महापुरुषोंको पाकर उनके पास जाकर (उनके द्वारा) उस परब्रह्म परमेश्वरको जान लो ।

महान् पुरुषके समीप जाकर यह बात समझो और संसारसे पार हो जाओ। आप भी महान् बन सकते हो, उस परमात्माके साक्षात् रूपको प्राप्त हो सकते हो। वामन भगवान्ने एक ही पगमें सम्पूर्ण संसारको नाप लिया, ऐसे ही हमलोग सम्पूर्ण संसारको लाँघ सकते हैं। वही शक्ति अपनेमें है। उसीके तो हम अंश हैं। खूब हिम्मत रखो। भगवान् सहारा देनेवाले तैयार खड़े हैं। उनकी पूर्ण कृपा हो रही है। इस संसार सागरको लाँघना क्या बड़ी बात है ? खूब हिम्मत रखो। भगवान् कहते हैं कि हिम्मत रखो। भजन-साधन करते रहो। बँधेगा सो फँसेगा, फिरेगा सो चरेगा। मायाकी फाँसीसे बँधेगा, वह मरेगा। मायाका बन्धन काटकर हर समय भजन साधनकी चेष्टा करते रहो, कुछ ही दिनोंमें कायापलट हो जायगी। लोग कहेंगे कि ये महापुरुषोंके पास किस रूपमें गये थे और आये हैं किस रूपमें ।

भगवान्‌को याद रखनेका यही उपाय है कि उनको हृदयमें अंकित कर लो। नहीं तो कलमसे पकड़ लो, कापियोंको सामने रखो ये बातें बार-बार खयाल करके आचरणमें लाओ। बार-बार एकान्तमें बैठकर मनन करो, अमलमें लाओ।

गीताकी बातोंको आदर दो, उसकी महिमा समझो। जिस तरह व्यवसायमें बड़ी कमाईकी बातको याद रखते हो, उसी तरह गीताकी बातोंको भी याद कर-करके पक्की कर लो। इसमें बड़ा लाभ है। अमूल्य समयको अमूल्य काममें ही बिताना चाहिये।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...