राग-द्वेष ही साधनमें खास बाधा है
सभी आदमी अपनी बात रखना चाहते हैं। जिसमें यह दोष हो, उसे सुधार करना चाहिये। सुधार हो सकता है-भगवान्की कृपासे। मनुष्य यदि अपनी बात छोड़ दे तो सुधार हो सकता है।
यह मन्त्र पढ़ लो कि जो काम जिस प्रकारसे हो, उसीमें आनन्द मानना चाहिये। न अपनी बातका पक्ष ले, न किसी आदमीका पक्ष।
राग-द्वेष होनेका हेतु अहंकार है। हमलोग समझते हैं कि सोलह आना बुद्धि मेरेमें ही है। जिसमें जितना राग-द्वेष कम होगा, वह उतना ही भगवान्के नजदीक पहुँचेगा।
परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब क्यों है ?
- क्योंकि पक्षपात है, समता नहीं है। जो पक्षपात-रहित है, उसे महात्मा समझो।
आपसका मत भले ही न मिले, राग-द्वेषका नाश होना चाहिये।
बिल्कुल आशा नहीं हो, तब भी मनुष्यको आशावादी बनना चाहिये। जब तक जीवन है तब तक आशा रखनी चाहिये।
सत्संगके बारेमें बात है- रहस्य और तत्त्वकी बातें, जो पाँच वर्ष पहले कही जाती थी, वह तीन वर्ष पहले क़म कही गई, एक वर्ष पहले उससे कम कही गई, अब उससे भी कम कही गई, क्योंकि मेरे बात उपजती ही नहीं है। जो उपजती है, उसको कहनेमें हिचक होती है।
'क्यों होती है ?'
- मैं यदि आपको यह कहूँ कि- 'आप मेरे मनके अनुसार चलो।' उस प्रकारसे चलनेपर यदि मैं दावा करके कहूँ कि आपको निश्चित रूपसे परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है- तो यह मैं नहीं कह सकता हूँ। ऐसा कहनेमें मैं मेरा पतन समझता हूँ, क्योंकि न तो मैं ऐसा महापुरुष हूँ, न मेरे हाथमें अधिकार है, किन्तु मैं यह सिद्धान्त मानता हूँ कि आप यदि मान लो तो आपका कल्याण हो जावे, इसमें संशय नहीं है। यह मेरी सामर्थ्यका फल नहीं है, आपकी श्रद्धाका फल है।
मेरे सामर्थ्यकी क्या बात है ? ये स्वामीजी हैं, ये कहते हैं कि मुझे भगवान्की प्राप्ति नहीं हुई, किन्तु यदि किसीको श्रद्धा हो जावे कि- ये परमात्माकी प्राप्ति करा सकते हैं तो उसको परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है, इनको चाहे मत होओ।
श्रद्धाकी बात छोड़कर दूसरी बात कहता हूँ।
मैं तो वही हूँ, आप भी वे ही हो, फिर किस बातकी कमी आई ? दो ही बातकी कमी आ सकती है। या तो मेरी पात्रतामें कमी आ सकती है, या आपलोगोंकी पात्रतामें। किसमें कमी आई, यह तो परमात्मा ही जानें, किन्तु नीति यही कहती है कि मेरेको मेरेमें ही कमी माननी चाहिये, आपलोगोंको अपनेमें। वास्तवमें इस तरहकी मान्यतामें ही तो सुधार हो सकता है। आपलोग मेरेमें कमी मानो, मैं आपलोगोंमें कमी मानूँ तो इससे न तो आपलोगोंका हित है, न मेरा और न संसारका हित है।
क्या गलती है, क्यों गलती है- इसकी हर एक भाईको खोज करनी चाहिये। खोज करके सुधार करना चाहिये। दूसरेकी गलती प्रतीत हो तो उसे अपने दिलसे हटानी चाहिये। अपनी गलती खोज करके हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये। अपनी गलती हट जायगी तो दूसरेकी गलती आप ही हट जायगी।
मनुष्यमें नीयतका ही दोष सबसे ज्यादा समझा जाता है। यह नीयतका दोष अपने सबमें ही है, किन्तु किसीकी नीयतमें दोष प्रतीत हो तो उसकी नीयतमें दोष है- यह बात कायम नहीं करनी चाहिये। यदि उसकी समझमें आ गई कि आप उसकी नीयतमें दोष कायम कर रहे हो तो फिर सुधार होना कठिन है। दोष कायम करनेमें आपकी भूल भी हो सकती है, क्योंकि आप सर्वज्ञ नहीं हो। इतने पर भी आपका मन यदि नहीं माने तो भी उसकी नीयतमें दोष है- यह नहीं कहना चाहिये।
अपना जो व्यवहार है, यह श्रद्धाको छोड़कर कायदेके अनुसार कार्यमें लाया जावे तो अभी जो है, उससे ज्यादा सुधार हो सकता है।
प्रेमका यह नतीजा नहीं होना चाहिये कि अपना स्टैण्डर्ड (स्तर) गिर जावे- यह प्रेम नहीं, यह तो उद्दण्डता है। यदि दामी प्रेम हो तो प्रेमीको खुश करना चाहिये। अवहेलना तो वहीं पर होगी, जब हम उसे दामी नहीं समझेंगे।
आपलोग जो कर रहे हैं, यह बहुत अच्छा है, ऐसा करते हुए परस्परमें खूब प्रेम बढ़े, वह अच्छा ही है। परमात्माको लेकर आपसमें प्रेम बढ़े, वह प्रेम ईश्वरमें ही है। अपना वह प्रेम यदि विशुद्ध हो तो वह प्रेम ईश्वर प्राप्तिमें विशेष सहायक हो सकता है, श्रद्धाकी कोई आवश्यकता नहीं। मैं तो इस बातको माननेवाला हूँ कि आपसके प्रेमसे ही परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है, श्रद्धा चाहे मत हो।
कायदेके अनुसार काम करनेसे कार्य सुचारु रूपसे चल सकता है, किन्तु उसका फल परमात्माकी प्राप्ति नहीं है। हमलोग परस्परमें प्रेमका व्यवहार करें तो उसका दर्जा बहुत ऊँचा है। वह प्रेम निष्काम होना चाहिये। मेरे साथमें तो आपलोगोंका बहुत अच्छा प्रेम और भाव है, किन्तु मेरी तरफका लाभ भी आपको होना चाहिये, उसकी मैं कमी देख रहा हूँ। मैं यही समझ रहा हूँ कि मेरी योग्यता नहीं है। मेरी योग्यता हो तो भी मुझे मेरेमें कमी ही देखनी चाहिये।
अपनेमें सहन शक्ति नहीं है, यह दोष है। अहंकार है, यह भी दोष है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाकी इच्छा है, यह भी दोष है।
एक दूसरेकी महत्ता देखें, एक दूसरेकी बातको आदर देवें तो उसका क्या स्वरूप आयेगा ! हमारे यह बात काममें लायी हुई है। मैंने अपनी भूल मानी, उसने अपनी भूल मानी तो वहाँ सुधार ही देखा।
सामनेवालेकी शरण हो जावे और कहे कि- 'बोल ! तू क्या चाहता है ?'
हम सब अपना सुधार चाहते हैं, फिर भी सुधार नहीं हो रहा है। सबसे बढ़कर यही बात है कि अपने स्वार्थका त्याग करना चाहिये। यदि दूसरा भाई अपना दोष कायम करे तो अपनेको अपना दोष स्वीकार कर लेना चाहिये- इस बातसे बहुत फायदा है। झूठ भी नहीं है। इस जगह यदि हम यह कहें कि- 'हमारा दोष नहीं है'- तो यह कहना ठीक नहीं है, दोष मान लेना ठीक है।
यदि मैं किसीको आपके दो अवगुण बताऊँ, आप अपने चार अवगुण बताओ, तब तो ठीक है।
ईश्वरके ऊपर भरोसा रखें- ईश्वरके राज्यमें हमें दोषी नहीं होना चाहिये। किसीको अपने दोषी नहीं होनेका प्रमाण देनेकी आवश्यकता नहीं है। मौन होकर ईश्वरका न्याय देखना चाहिये। अगर दोषी नहीं होनेका प्रमाण देते हैं तो ईश्वरपर निर्भरताकी कमी है। सच्चे आदमीको घबड़ानेकी कोई जरूरत नहीं है, बल्कि यह समझना चाहिये कि सफाई देना लज्जाकी बात है। यदि मैं सच्चा हूँ तो भगवान् आकर सफाई देंगे। इससे भी ऊँचा दर्जा है कि सफाईकी इच्छा भी नहीं रखे। न्याय चाहनेकी अपेक्षा अपने ऊपर अन्याय हो, उसको सह लेना और भी उत्तम है। इस प्रकार हमें वास्तवमें अपना सुधार करना चाहिये। एक आदमी अपनेमें एक दोष बतावे तो अपने दो स्वीकार करें। वह कहे- 'तुम्हारेमें लोभका दोष है' तो कहें- 'लोभका ही नहीं, कामका भी दोष है, आपको मालूम नहीं है ?'
मैंने जो यह बात कही है, यदि उसके अनुसार साधन करो तो जितने वर्ष आपने साधन किया है, उतने महीने भी नहीं लगेंगे और परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी- यह बात लिखकर रख लो।
और एक बात- मैं भी आपको ठीक कहता हूँ और आप भी समझ गये कि ये यह चाहते हैं कि आपस का व्यवहार ठीक हो जाये, उत्तरोत्तर आपकी उन्नति हो, यह मेरा उद्देश्य है; आप भी समझते ही हो, कोई भी मेरा ध्येय मान लो।
मैं आपलोगोंको समझाता हूँ कि स्वार्थ सिद्धिके रास्तेपर जाओ ही मत। आपको कोई आपके फायदेकी बात बतलावे उसे आप अपना मित्र समझो।
एक तो स्वार्थका त्याग स्वार्थके लिये किया जाता है और एक स्वार्थका त्याग परमार्थके लिये किया जाता है। मेरा तो यह विश्वास है कि स्वार्थके त्यागसे दोनों ही सिद्ध होते हैं।
आप यहाँ जो पन्द्रह आदमी बैठे हैं, ऐसे पन्द्रह आदमी हमें जुटा दो, आपको एक लाख रुपया ईनामके देंगे।
आपलोगोंसे बाहर दृष्टि जानेमें हम इससे भी ज्यादा अंधकार देखते हैं। यदि ऐसी बात नहीं होती तो भाईजी इस्तीफा देनेकी बात कहते हैं, मैं उनसे भी पहले इस्तीफा दे देता।
मैं घनश्यामको कभी-कभी उलाहना भी दे देता हूँ, पर मुझे घनश्याम जैसा आदमी नहीं मिलता है और घनश्यामको मेरे जैसा। यदि घनश्याम अपने व्यवहारसे मुझे सन्तोष करा देता तो मैं घनश्यामको भगवान्की प्राप्ति करा देता।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...