Seeker of Truth
॥ श्रीहरिः ॥

पुरुषोंकी सीढ़ी-दर-सीढ़ी श्रेणियोंका वर्णन

प्रवचन सं. १४
दिनांक 27-11-1945, प्रात:काल

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥

(गीता ४/४०)

अर्थात्- हे अर्जुन ! भगवत्-विषयको न जाननेवाला तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थसे भ्रष्ट हो जाता है, उनमें भी, संशययुक्त पुरुषके लिये तो न सुख है और न यह लोक है, न परलोक है, अर्थात् यह लोक और परलोक दोनों ही उसके लिये भ्रष्ट हो जाते हैं।

ये तीन दोष जिसमें हैं- (१) जिसमें श्रद्धा नहीं है, (२) समझ नहीं है, (३) संशय-ही-संशय भरा हुआ है, उससे नीचा कोई नहीं है।

इससे भी नीचे पुरुष वे हैं- जो पापी हैं, झूठ, कपट और चोरी करनेवाले हैं। भगवान्की नजरमें भी पापीसे भी ज्यादा नीच वे हैं, जो ईश्वरको मटियामेट करना चाहते हैं। ईश्वरको मिटाया तो नहीं जा सकता। अन्य बातें असम्भव भी सम्भव हो सकती हैं, किन्तु यह असम्भव सम्भव नहीं हो सकता है (कि ईश्वरकी सत्ता ही उठ जाय)।

बालू (मिट्टी)-मेंसे तेल निकलना असम्भव है, जलमें घी निकलनेकी सम्भावना नहीं है, किन्तु ऐसी असम्भव बातको भी भगवान् सम्भव कर सकते हैं, वे सूर्यको शीतल बना सकते हैं, किन्तु जो ईश्वर है, उसका अभाव नहीं हो सकता है। वास्तवमें जो सत् (नित्य) वस्तु है, उसका अभाव करनेकी ईश्वरमें भी शक्ति नहीं है। ईश्वर मिटे तो ईश्वरका कानून मिटे। वह कानून ईश्वरके साथ ही है। ईश्वरका कानून कहो, चाहे धर्म कह दो। ईश्वर, धर्म और उसका कानून कभी मिटनेका नहीं है। इसलिये भगवान्ने गीतामें कहा है- 'शाश्वत धर्म है, वह मेरा स्वरूप ही है।' शाश्वत धर्म है, वही सनातन धर्म है-

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।

शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥

(गीता १४/२७)

अर्थात्- हे अर्जुन ! उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्यधर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् उपरोक्त ब्रह्म, अमृत, अव्यय और शाश्वतधर्म तथा ऐकान्तिक सुख- यह सब मेरे ही नाम हैं, इसलिये इनका मैं परम आश्रय हूँ।

सच्चिदानन्द ब्रह्म और ऐकान्तिक सुख- यह तो एक ही चीज हुई। किन्तु धर्म तो क्रिया रूप चीज है, उसके लिये बताया- ईश्वर और ईश्वरका कानून उसके साथ ही है। उसका कभी विनाश होनेका नहीं। कितने ही आदमी चाहे वोटिंग करके ईश्वरको गिरा दें, ईश्वर देखता है कि- 'कैसे मूर्ख हैं, मुझे वोटोंसे गिरा दिया। यों नहीं समझते कि तुम्हारा अस्तित्त्व किसके आधार पर है ?'

नास्तिक लोग पाप करनेवालेसे भी ज्यादा पापी हैं। उन नास्तिकोंसे भी ज्यादा पापी वे हैं, जो धर्म-ध्वजी (पाखण्ड़ी) हैं। नास्तिक तो अपनी नास्तिकताकी ध्वजा फड़काता है, उसके धोखेमें तो कोई नहीं आवेगा, किन्तु वह (धर्मध्वजी) तो धर्मात्मा होकर पाप करता है। बताया गया है कि ऐसा पुरुष बहुत नीच कोटिका है। ऐसे पुरुषसे बात भी नहीं करनी चाहिये। उसका दर्शन भी हानिकर है। जैसे- उच्चकोटिके महापुरुषके दर्शन, स्पर्श, भाषण लाभदायक हैं, वैसे ही ऐसे (धर्मध्वजी) पुरुषोंके दर्शन, भाषण नुकसानदायक हैं। ऐसे पुरुष रास्तेमें मिल जायँ तो आँखें बंद कर लो।

जो अश्रद्धालु हैं, उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो सकामी हैं। उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करते हैं। उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो कामनाके लिये नहीं, संकट निवारणके लिये भगवान्को भजते हैं, भजन-ध्यान करते हैं। उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो काम, क्रोध , लोभ आदि शत्रुओंको मारनेके लिये भजन करते हैं।

उनसे वे श्रेष्ठ हैं, जो अपनी आत्माके कल्याणके लिये चेष्टा करते हैं। इन जिज्ञासुओंसे भी वे श्रेष्ठ हैं, जो भगवान्का भजन निष्काम भावसे करनेवाले हैं।

जिज्ञासुओंसे निष्कामीको श्रेष्ठ क्यों बतलाया गया ? इसलिये कि वे (जिज्ञासु) मुक्ति तो चाहते हैं, किन्तु जो केवल भगवान्को ही चाहते हैं, भगवान्का प्रेम चाहते हैं, वे स्वाभाविक ही श्रेष्ठ हैं।

उनसे भी वे श्रेष्ठ हैं, जो अपना कर्तव्य मानकर भगवान्से प्रेम करते हैं, चाहते कुछ नहीं; जो होता है, देखते रहते हैं। वे कहते हैं- 'ईश्वरसे कोई तरहकी प्रार्थना-याचना करनेकी जरूरत नहीं है।' ईश्वरकी महिमा गाते हैं, ईश्वरके नाम, गुणं, प्रभाव, तत्त्वको गाते हैं, सुनते हैं और साधन करते हैं। सच्चे निष्कामी वे ही हैं।

इनसे भी श्रेष्ठ वे हैं, जिनको परमात्माकी प्राप्ति हो चुकी है। उनसे भी वे श्रेष्ठ हैं, जिनको ईश्वरने कुछ विशेष अधिकार दे दिया है। ऐसे जीवन्मुक्तोंमें भी वे महापुरुष श्रेष्ठ हैं, जो ईश्वरके भेजे हुए उसके परमधामसे यहाँ आते हैं, जिन्हें हम कारक पुरुष कहते हैं।

उनसे भी वे श्रेष्ठ हैं, जो सदा ही ईश्वरके पासमें रहते हैं। ईश्वर अवतार लेते हैं तो उनके परिकर बनकर आते हैं, फिर जब भगवान् जाते हैं तो वे उनके साथ ही चले जाते हैं।

उनसे भी श्रेष्ठ परमात्मा हैं। परमात्मासे श्रेष्ठ कोई है ही नहीं।

आज जो अभक्त हैं, उनसे लेकर परमात्मा तक विस्तारसे सब बातें कही कि सीढ़ी-दर-सीढ़ी कौन बड़ा है, कौन छोटा है।

इस प्रकार जो यह क्रम बतलाया, भेद बतलाया, ऐसे भेदमें भी जो अभेद समझते हैं, संसारमें वे ही महापुरुष हैं- समबुद्धिर्विशिष्यते । (गीता ६/९) (अर्थात्- जो समान भाववाला है, वह अति श्रेष्ठ है।)

अपनेको तो ऐसे ही बननेकी चेष्टा करनी चाहिये कि सबमें समभाव रखनेवाले बनें।

आप शास्त्रकी बातोंका, महात्माओंकी बातोंका आदर नहीं करते। आदरका मतलब यह है कि कोई दामी बात है तो उसी दिन धारण होनी चाहिये।

लोभी आदमी जिसमें अपना नफा देखता है, उसे झट धारण कर लेता है। झूठा जमा-खर्च करनेको भी तैयार हो जाता है; झूठ, कपट करनेको तैयार- बस, रुपया मिलना चाहिये। परन्तु साधक का इसी प्रकारका भाव होना चाहिये कि- कहो सो करें, ईश्वर मिलना चाहिये। वे रुपयोंके एकनिष्ठ भक्त हैं। ईश्वरमें एकनिष्ठा कैसी होनी चाहिये- यह उन रुपयोंके लोभियोंसे सीखनी चाहिये। पतिव्रता स्त्रीमें भी ऐसी एकनिष्ठा नहीं मिलेगी। उनके एक ही व्रत है कि रुपया मिलना चाहिये। इसी तरहकी एकनिष्ठा भगवान्में होनी चाहिये, फिर देखो - भगवान्के मिलनेमें देरी लगती है क्या ?

संसारमें नाना प्रकारके मत-मतान्तर हैं। तुलसीदासजीने कहा है- 'जब कलियुग आयेगा तो संसारमें नाना प्रकारके मत-मतान्तर हो जायँगे, असली मार्ग छिप जायँगे।' आज किसको असली मार्ग कहें ? एक-एक की दृष्टिसे एक दूसरे गलत हैं। इस प्रकार संसारमें नाना मत-मतान्तर होनेसे मामला गड़बड़ है। असली वस्तु तो एक है, मार्ग नाना हो सकते हैं, किन्तु वस्तुसे जो चीज है, वह नाना नहीं है। असली सिद्धान्त कौन समझता है ?

भगवान्से प्रार्थना करें कि भटकाओ मत।

भगवान् कहें कि- 'मूर्ख ! मैं भटकाता हूँ क्या ?'

- आप तो नहीं भटकाते, भटकानेवाले तो हमारे कर्म हैं, आप तो इन्जिन चलानेवाले हो। हमारा पट्टा उतार दीजिये। इन्जिन माया है, घुमानेवाले इन्जिनियर आप हैं। आप हमारे गलेसे पट्टा अलग कर दें तो सब काम ठीक हो जाय।

भगवान् कहें कि- 'हम कहाँ घुमाते हैं ?'

आपने ही तो गीतामें कहा है-

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥

(गीता १८/६१)

अर्थात्- हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमाता हुआ सब भूतप्राणियोंके (अर्थात् सब जीवोंके) हृदयमें स्थित है।

आपने ही तो गीतामें कहा है-

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।

तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ॥

(गीता १८/६२)

अर्थात्- (इसलिये) हे भारत ! सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो, उस परमात्माको कृपासे ही परम-शान्तिको और सनातन परम धामको प्राप्त होगा।

ये नाना प्रकारके प्रचारक हैं, नाना भेद हैं, यह संसारमें कैसे हुए ? इनका उत्पादक कौन है ?

-कलियुग।

इस समयका राजा ?

-कलियुग।

उसकी चल क्यों रही है ?

-चलनेका कारण यही हैं- अज्ञान, अहंकार और स्वार्थ। ये मूल जड़ हैं। ये सब जगह कलियुगकी गुप्त पुलिस हैं। इनको मार डालो तो काम ठीक हो जाय। फिर तो कलियुग मरा ही पड़ा है।

आप कहें कि 'ये (अज्ञान, अहंकार और स्वार्थ) सुननेवालोंपर तो अधिकार जमा लेते हैं, क्या वक्ताओंपर भी जमा लेते हैं ?'

-'हाँ, उनपर भी जमा लेते हैं; क्योंकि उनमें भी स्वार्थ और अहंकार रहता है। जिनमें यह नहीं रहता है, उनपर इस (कलियुग) की नहीं चलती।'

'तो जिनमें स्वार्थ नहीं, अहंकार नहीं, मैं नहीं, अज्ञता नहीं, उनके द्वारा तो प्रचार होना चाहिये ?'

जहाँ अज्ञान नहीं, स्वार्थ नहीं, अहंकार नहीं है, उनके मनमें, इस विषयकी न इच्छा है, न आग्रह है, न हठ है, न विरोध है। समता है और निर्भयता है और बुद्धि स्थिर है और गम्भीरता है, धीरता है, निश्चिन्तता है, वीरता है। पश्चात्ताप नहीं, वहाँ भय नहीं, यह सब कुछ नहीं। वहाँ परवाह नहीं।

वृद्धि तो यह कि भजन-ध्यान बढ़े; क्षति यह कि घटे। क्षतिमें शोक नहीं, वृद्धिमें प्रसन्नता नहीं। वहाँ समता है, निर्भीकता है। अटल है, अविचल है।

'विचलता क्या ?'

'भरमाने से भरमे नहीं, हटाने से हटे नही। कोई विघ्न नहीं डाल सकता। यमराजका भय नहीं, मृत्युका भय नहीं, ईश्वरका भय नहीं, गवर्नमेन्टका भय नहीं और बे-परवाह है, निरहंकार है। वहाँ अज्ञान नहीं है, वहाँ स्वार्थ नहीं है।

जहाँ अज्ञान नहीं है, स्वार्थ नहीं है, वहाँ है क्या ?

वहाँ समता है, शान्ति है, प्रसन्नता है, निर्भीकता है, गम्भीरता है।

गम्भीरता कैसे ?

- जैसे समुद्र गम्भीर है, इसी तरह उनके हृदयका भाव गम्भीर है। दूसरा नहीं जान सकता। वे बतावें तो ही जाना जाय। धीरता है, कि सारा संसार उनके विपक्षमें हो तो भी वे विचलित नहीं होते। समता ऐसी है कि विषमताको गुंजाइश ही नहीं। शास्त्रकी दृष्टिसे खूब प्रचार हो तो हर्ष नहीं। उसका विरोध हो तो कोई पश्चात्ताप नहीं, चिन्ता नहीं-

यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।

(गीता १२/१७)

अर्थात् - जो न कभी हर्षित होता है, न द्वेष करता है, न शोच करता है, न कामना करता है।

आरम्भ करते हुए-से प्रतीत होते हैं, किन्तु उनका आरम्भ आरम्भ नहीं। अनुकूलतामें राग, हर्ष और प्रतिकूलतामें शोक, द्वेष स्वाभाविक ही मनुष्योंमें होते हैं, किन्तु उनमें नहीं होते।

'तो फिर पहचानना कठिन क्यों है ?'

- यों है कि राग, द्वेष, हर्ष, शोक की क्रिया होती है, परन्तु वास्तवमें नहीं है, इसलिये पहचानना कठिन है।

'तो फिर इसमें दम्भी, पाखंडियोंकी भी दाल गलेगी ?'

- गलती ही है।

तो फिर दम्भी, पाखण्डियोंकी और असलीकी पहचान कैसे हो ?'

- ईश्वरसे प्रार्थना करे- 'हे गोविन्द ! हे नाथ !! तू दर्शन नहीं दे तो असलीसे तो पहचान करा दे।

नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...