पहले अपने दोष दूर करो
प्रश्न- दोष-दृष्टि कैसे दूर हो ?
उत्तर- यह समझ लें कि किसीमें भी दोष-दृष्टि करनेमें अपने लिये ही नुकसान है। जो दोषी है, उसका पतन तो हो चुका किन्तु जो उसमें दोष-दृष्टि करता है, उसका भी पतन हो सकता है। दोष दलदलकी तरह है, इसमें फँसे ही नहीं। मनको समझावे 'इसमें तेरे क्या फायदा है ? हम यदि किसीके दोष बतलावें तो कौन-से निकल जायँगे ? दोष तो तभी निकलेंगे, जब वह खुद 'चाहेगा।'
अपने दोष दूर करो; दूसरोंके दोषोंकी चिन्ता छोड़ो। दूसरोंके दोष दूर करनेके लिये भी पहले अपने दोष दूर करने चाहिए।
हमें तो आज तक ऐसा कोई आदमी नहीं मिला कि उसके दोष उसके हितके लिये बतावें तो वह राजी हो।
हमको यह बात जँची हुई है कि संसारमें कोई भी यदि हमें अपना दोष बतावे और हम सुनकर खुश हों तो वे दोष रह नहीं सकते।
काम-क्रोध आदि अपने हृदयमें डाकू हैं। इन दोषोंको हम पोसते हैं। कबीरदासजी तो यह कहते हैं कि- 'निन्दा करनेवालेको क्लुटी छवाकर पड़ोसमें बसाना चाहिये।' किन्तु अपनी तो कोई निन्दा करे तो उसको लाठी मारनेको तैयार हैं।
किसी आदमीने हमपर झूठा दोष लगा दिया तो अपने लिये कोई हानि नहीं है। हमारे ऊपर तो कोई झूठा दोष लगा देता है तो हम तो यही सोचते हैं कि इसमें हमारी क्या हानि है ?
यदि कोई हमारी सच्ची निन्दा करता है तो हमें सावधान होना चाहिये और उस दोषको निकालना चाहिये।
ईश्वर सर्वान्तर्यामी हैं। यदि दुनिया मुझे बेईमान बतावे, झूठा बतावे और मैं सच्चा हूँ तो लोगोंके कहनेका क्या मूल्य है ? यदि मैं दोषी हूँ तो लोगोंके सर्टिफिकेटका भी ईश्वरके दरबारमें क्या मूल्य है ?
संसारकी निन्दा-स्तुति मेंढकके शब्दकी तरह है। मेंढक टर्र-टर्र करता है, उससे क्या हानि-लाभ है ? कोई भी हमारेमें दोष आरोप करता है तो हमें उस दोषको निकालना चाहिये। यदि हमारेमें दोष नहीं है, फिर भी लोग निन्दा करते हैं तो उससे हमारे क्या हानि है ?
हम नहीं चाहते कि हमारी कोई अपकीर्ति करे, निन्दा करे- ऐसा तो सभी चाहते हैं। कुत्तेका भी सत्कार करें तो वह पूँछ हिलाता है।
मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा अमृतके समान और निन्दा, तिरस्कार विषके समान- ऐसा तो सभीको लगता है, किन्तु परमात्माकी प्राप्तिका मामला तो बिल्कुल इससे उलटा है।
थोड़ी देर के लिये मान लो- मान, बड़ाई, कीर्ति इस किनारे तथा अपमान तिरस्कार, अपकीर्ति उस किनारे है। हम यह चाहते हैं कि इस किनारेकी चीज इस किनारे रहे, उस किनारेकी उस किनारे रहे- यह बात तो सदासे ही है। हमें खूब जोर लगाना चाहिये कि उस किनारेकी चीज इस किनारे आ जाय और इस किनारेकी उस किनारे चली जाय, तभी हम समतामें ठहरेंगे। मान, बड़ाईको विषके समान और निन्दा, स्तुतिको अमृतके समान समझेंगे तो समतामें स्थित होंगे।
हमारी कोई स्तुति करता है तो फूल जाते हैं- यह खतरनाक चीज है, गलेमें पत्थर बाँधकर डूबना है।
मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाका बड़ा भारी बोझा है। इनका पत्थर गलेमें बाँध लेनेसे यह रसातलमें ले जाता है-
हल्के-हल्के तिर गये, डूबे जाँ सिर भार ।
निरहंकारता, विनय - यह हल्कापन है। वह (अहंकार, अविनय) है- पत्थर।
जो मनुष्य सबके चरणोंकी धूलि होकर रहता है, वह सबका सरदार रहता है। जो सबका सरदार बनकर रहता है, वह सबके चरणोंकी धूलि बन जाता है।
गौरांग महाप्रभुने कहा- 'मैं तो तीन ही बात जानता हूँ- नामे रुचि, जीवे दया और वैष्णव सेवा ।' हमलोगोंने इन तीनका छः बना लिया - भजन और ध्यान, सत्संग और स्वाध्याय, दुःखियोंकी सेवा तथा मन और इन्द्रियोंका संयम। ये छहों चीजें ही बहुत दामी हैं।
काम इन चारसे भी चल जाये और अज्ञानका नाश हो जाये-
संयम, सेवा, साधना, सत्पुरुषोंका संग ।
इन चारोंके साथ से मोह होवे भंग ॥
मन, इन्द्रियोंका संयम करे, इनको विषयोंसे रोके।
साधना यानी - जप और ध्यान।
उपरोक्तमें चार 'स'-कार हैं। इसी प्रकार से पाँच 'ग'-कार भी है-
गौ, गीता, गंगा, गायत्री अरु गोविन्दका नाम ।
इन पाँचों की शरण से, पूर्ण होय जाय काम ॥
यह तुक मिलाई हुई है। सार बातें है।
दस चीजके सेवनसे आत्माका कल्याण हो जाय-
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ॥
(मनुस्मृति ६/९२)
अर्थात् - धृति (धैर्य), क्षमा, मनको नियन्त्रणमें रखना, चोरी-ठगी न करना, बाहर-भीतरकी शुद्धि, इन्द्रियोंको वशमें रखना, बुद्धिको सात्त्विक बनाना, विद्या (जिससे परमात्माका यथार्थ अनुभव हो, ऐसा सात्त्विक ज्ञान प्राप्त करना), सत्य कहना और अक्रोध (किसीपर क्रोध न करना) - ये दस धर्मके लक्षण हैं।
दूसरे दस- यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इनका नाम यम है) और नियम (पवित्रता, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान- ये पाँच नियम हैं)। चाहे वे दस कर लो, चाहे ये दस कर लो। इनसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
ये दस न हों तो नौ कर लो। नौ कौन से ? नवधा भक्ति-
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
(श्रीमद्भागवत ७ /५/२३)
अर्थ- प्रह्लादजीने कहा- पिताजी ! विष्णु भगवान्की भक्तिके नौ भेद हैं-भगवान्के गुण-लीला-नाम आदिका स्मरण, उनके चरणोंकी सेवा, पूजा-अर्चा, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन।
यदि नौ नहीं कर सको तो आठ करो- अष्टांग योगका पालन करो- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि।
आठ नहीं हो सकें तो सात कर लो- ज्ञानकी सात भूमिकाएँ।
सात नहीं कर सकें तो छः करें - ब्राह्मणोंके लिये- ब्राह्मणके षट्कर्म। क्षत्रियोंके लिये-
शौर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् ।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥
(गीता १८/४३)
अर्थात् - शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्धमें भी न भागनेका स्वभाव एवं दान और स्वामीभाव अर्थात् निःस्वार्थभावसे सबका हित सोचकर, शास्त्राज्ञानुसार शासनद्वारा प्रेमके सहित पुत्रतुल्य प्रजाको पालन करनेका भाव- ये सब क्षत्रियके स्वाभाविक कर्म हैं।
वैश्यके लिये- यज्ञ करना, दान देना, विद्या पढ़ना, कृषि करना, गोपालन और व्यापार।
शूद्रके लिये- सेवा, जप, ध्यान, मनको वशमें करना, सत्संग, इन्द्रियोंका संयम।
चार ('स'-कार का) एवं पाँच ('ग'-कार का) साधन पहले बताया गया ही है।
चार नहीं हो सकें तो तीन ही कर लो- तीनसे भी काम चल जायगा - भजन, ध्यान और सत्संग।
तीन नहीं कर सको तो दो कर लो- भजन और सत्संग। दो नहीं हो सकें तो एक ही कर लो- ईश्वरकी शरण-
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत ।
तत्प्रसादात्परां शान्ति स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।।
(गीता १८/६२)
अर्थात्- (इसलिये) हे भारत ! सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो, उस परमात्माकी कृपासे ही परम-शान्तिको तथा सनातन परम धामको प्राप्त होगा।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गीता १८/६६)
अर्थात् - सर्व धर्मोको अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर, केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्य-शरणको प्राप्त हो, मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
भगवान् कहते हैं- सबको छोड़कर तू मेरी शरण आ जा-
वासुदेवाश्रयो मर्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ।।
(श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्र श्लोक १३०)
अर्थात् - जो मनुष्य वासुदेवके आश्रित और उनके परायण है, वह समस्त पापोंसे छूटकर विशुद्ध अन्त:करणवाला हो सनातन परब्रह्मको पाता है।
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
(गीता ७/१४)
अर्थात् - यह अलौकिक अर्थात् अति अद्भुत त्रिगुणमयी मेरी योगमाया बड़ी दुस्तर है, परन्तु जो पुरुष मेरेको ही निरन्तर भजते हैं, वे इस मायाको उल्लंघन कर जाते हैं अर्थात् संसारसे तर जाते हैं।
केवल ज्ञान, केवल ध्यान और केवल प्रेमसे भी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। इनमेंसे कोई एक को तो करना ही चाहिये। ११ पदार्थ ऐसे हैं, उनका आप सेवन करो तो आपका ही नहीं, आप चाहें तो सारे संसारका उद्धार कर सकते हैं। ११ पदार्थ ये हैं-
परमात्मामें प्रेम और श्रद्धा, जप और ध्यान, उपरति और वैराग्य, गुण और प्रभाव, भगवान्की महिमा, लीला और धाम- इनका सेवन करे तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। समता, शान्ति और आनन्दकी उसमें बाढ़ आ जाती है।
प्रश्न- उपरति किसे कहते हैं?
उत्तर- संसारको अत्यन्त भुला देना- यह उपरति है। संसारसे प्रीति हटानी और परमात्मासे प्रेम करना- यह वैराग्य है।
ये ११ पदार्थ खूब उच्चकोटिके हैं। शास्त्रोंमें, महात्माओंने एक-से-एक बढ़कर बातें कही हैं, आपकी जो इच्छा हो, चुन लो। सभी मुक्तिको देनेवाली हैं।
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् ।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥
(गीता १३/१४)
अर्थात् - वह सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है, परन्तु वास्तवमें सब इन्द्रियोंसे रहित है तथा आसक्तिरहित और गुणोंसे अतीत हुआ भी अपनी योगमायासे सबको धारण पोषण करनेवाला और गुणोंको भोगनेवाला है।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
(गीता ४/२४)
अर्थात् - उन यज्ञके लिये आचरण करनेवाले पुरुषोंमेंसे कोई तो इस भावसे यज्ञ करते हैं कि अर्पण अर्थात् सुवादिक भी ब्रह्म है और हवि अर्थात् हवन करने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है और ब्रह्मरूप अग्निमें ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा जो हवन किया गया है वह भी ब्रह्म ही है, इसलिये ब्रह्मरूप कर्ममें समाधिस्थ हुए उस पुरुषद्वारा जो प्राप्त होने योग्य है, वह भी ब्रह्म ही है।
- यह ब्रह्मयज्ञ है। कितने ही देवयज्ञ करते हैं, कितने ही इन्द्रियसंयम रूप यज्ञ करते हैं, कितने ही प्राणायाम-रूपी यज्ञ करते हैं।
भगवान् कहते हैं- 'सारे ही साधन मेरेको प्राप्त करानेवाले हैं।'
महर्षि पतञ्जलिने अनेक साधन बताये हैं। कोई भी एक साधन कर लें तो उससे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। सारे साधन दो निष्ठाओंके अन्तर्गत आ जाते हैं- सांख्यनिष्ठा और 'योगनिष्ठा; अर्थात् ज्ञानयोग और भक्तियोग।
ज्ञान और भक्तिके भी कई भेद हैं। भक्ति मार्गमें मुख्य है- शरणागति। ज्ञानके मार्गमें अजातवाद है- एक परमात्माके सिवाय अन्य कोई वस्तु नहीं।
हमें दोनों मार्ग अच्छे लगते हैं, कोई बड़ा, छोटा नहीं है। अधिकांश मनुष्य इस समय भक्तिके अधिकारी हैं, इसलिये भक्तिकी चर्चा अधिक की जाती है। ज्ञानकी चर्चा पुस्तकोंमें तो देखी हुई ही है। जिन्हें अनुभव है, उन्हें हम प्रणाम करते हैं।
प्रश्न- शरणागतिके प्रमाण और दृष्टान्त बताइये ?
उत्तर- शरणागतिके प्रमाण और दृष्टान्तसे शास्त्र भरे पड़े हैं। प्रमाण तो शास्त्रका है- गीताका-
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गीता १८ / ६६)
अर्थात् - सर्व धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर, केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्यशरणको प्राप्त हो, मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
विष्णुसहस्रनामस्तोत्रका प्रमाण-
वासुदेवाश्रयो मर्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥
(इस श्लोक का अर्थ पहले आ गया है।)
वेदोंका प्रमाण है- धर्मराज नचिकेताके प्रति कहते हैं - ॐ - यह एक अक्षर है।
दृष्टान्त- भक्ति कैसे करनी चाहिये ?
- मछली जैसे जलके शरणापन्न है, ऐसे ही भगवान्के शरण होना चाहिये। पपीहा स्वाति बूँदको छोड़कर दूसरा पानी छूता ही नहीं, इस तरह एकके परायण हो जाय। पतिव्रता स्त्री जैसे पतिके परायण रहती है, इसी तरह परमात्माके परायण रहे।
उदाहरण मिलता है- बलि का। उन्होंने अपने ऊपर भगवान्का चरण रखवाया। बलि भगवान्के शरण हो गये। उन्होंने अहंता, ममता सब कुछ भगवान्के समर्पण कर दी। जयन्त त्रिलोकीमें घूम आया, कहीं जगह नहीं मिली, आखिर भगवान्के शरण आया, तब शान्ति मिली। विभीषण भगवान्के शरण आये। इस तरह अनेक उदाहरण शरणके मिलते हैं। अर्जुन आखिर भगवान्के शरण ही हुये-
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव ।।
(गीता १८ / ७३)
अर्थात् - इस प्रकार भगवान्के पूछनेपर अर्जुन बोला- हे अच्युत ! आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हुई है, इसलिये मैं संशयरहित हुआ स्थित हूँ और आपकी आज्ञाका पालन करूंगा।
शरणागतका और उदाहरण है- कठपुतली का। वह जिस तरह सब कुछ समर्पण किये हुए सूत्रधारके आधीन रहती है, इसी तरह भगवान्की शरण होना चाहिये। केवल एक शरणसे ही कल्याण हो जाता है। आपलोगोंको कई शास्त्रोंकी बातें कही, कई साधन बतलाये।
भरतजी महाराजमें प्रेम तो था ही, वे सारे गुणोंके शिरोमणि थे। नवधा भक्ति उनके रोम-रोममें रमी हुई थी।
जितने गुण संसारमें हैं, उनका सेवन करना चाहिये और जितने अवगुण हैं, उनका त्याग कर देना चाहिये। भगवान्की भक्ति और प्रेम जब हृदयमें प्रकट हो जाता है तो सारे गुण आप ही आकर इकट्ठे हो जाते हैं। जैसे जल स्वभाविक ही नीचेकी ओर जाता है, इसी प्रकार जिसमें भक्ति होती है, वह नम जाता है (नम्र हो जाता है), विनय आदि सारे गुण उसमें आ जाते हैं।
सारे सद्गुणोंका खजाना बनना चाहिये। जिसमें भगवान्के सारे गुण आकर प्राप्त हो गये, वही भगवान्का अनुयायी है। भक्ति करनेसे सारे गुण आप ही आ जाते हैं।
भगवान्को मन, बुद्धि और वाणीसे पकड़ लेना चाहिये। बुद्धिसे पकड़ना तो यह है कि- भगवान् हैं यह दृढ़ निश्चय रखना और जो कुछ भी वे करें, उसमें खुश रहना। उनका ध्यान करना ही उनको मनसे पकड़ना है। नामका जप, कीर्तन करना- यह वाणीसे पकड़ना है। पुकार लगावे- 'हे नाथ ! हे नाथ !!'
शरीरसे भगवान्की सेवा करना, पूजा करना, आज्ञाका पालन करना, साष्टांग प्रणाम करना- यह शरीरसे भगवान्को पकड़ना है। इस प्रकारसे भगवान्की सब तरहसे शरण होना है।
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु ।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥
(गीता १८ / ६५)
अर्थात् - हे अर्जुन ! तू केवल मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मामें ही अनन्य प्रेमसे नित्य-निरन्तर अचल मनवाला हो और मुझ परमेश्वरको ही अतिशय श्रद्धा-भक्तिसहित, निष्काम भावसे नाम, गुण और प्रभावके श्रवण, कीर्तन, मनन और पठन-पाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो तथा मुझ शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और किरीट-कुण्डल आदि भूषणोंसे युक्त, पीताम्बर, बनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका मन, वाणी और शरीरके द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमसे विह्वलतापूर्वक पूजन करनेवाला हो और मुझ सर्वशक्तिमान् विभूति, बल, ऐश्वर्य, माधुर्य, गम्भीरता, उदारता, वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणोंसे सम्पन्न सबके आश्रयरूप वासुदेवको विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर। ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त होगा, यह मैं तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय सखा है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रजः ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
(गीता १८ / ६६)
अर्थात्- सर्व धर्मोको अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर, केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्यशरणको प्राप्त हो, मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।
चेतसा सर्वकर्माणि मयि सन्न्यस्य मत्परः ।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥
(गीता १८/५७)
अर्थात् - हे अर्जुन ! तू सब कर्मोको मनसे मेरेमें अर्पण करके, मेरे परायण हुआ समत्व बुद्धिरूप निष्काम कर्मयोगको अवलम्बन करके निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो।
सारे कर्म मेरेमें समर्पण कर दे, इससे इन्द्रियाँ समर्पण हुई।
मत्परः - मेरी शरण आ जा- इससे शरीरका समर्पण है।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य - इससे बुद्धिका समर्पण है।
मच्चित्तः - इससे मनका समर्पण है।
- इस प्रकार यह सार बात है।
और भी सार बात बताई जाती है। विनयभावकी वृद्धिके लिये अपनेसे जो बड़े हों, उनको नमस्कार करना चाहिये। इससे अहंकार तथा अभिमानका नाश होता है, अन्तःकरण शुद्ध होता है। सकामभावकी तरफ खयाल करें तो आयु, बुद्धि, बल की वृद्धि होती है। इसमें समय कम लगता है, पैसे भी खर्च नहीं होते, परिश्रम भी नहीं है, लाभ बड़ा भारी होता है। यह मनुष्योंके लिये एक सार चीज है। प्रणाम करनेसे बहुत फायदा होता है।
एक दूसरी सार बात है, इसमें कुछ परिश्रम है। वह है- सबको नारायण समझकर सबकी सेवा करना। इसमें परिश्रम तो है, किन्तु सबको नारायण समझकर सेवा करनेसे वह परिश्रम परिश्रम मालूम नहीं देता है।
एक भाईने पूछा था कि- भगवान्के दर्शन किस तरहसे जल्दी होते हैं। मैंने कहा था कि- 'आतुर, जो दुःखी आदमी हैं, उनकी नारायण समझकर सेवा करना। सेवा करनेसे भगवान् जल्दी प्रकट हो जाते हैं।' भगवान् जल्दी प्रकट होनेके दो स्थान हैं- एक महात्मा, दूसरा आतुर । महात्मा तो मिलते नहीं, उनको पहचानना मुश्किल है। आतुर पुरुष तो जगह-जगह मिल जाते हैं। उनमें भगवद्-भाव करके सेवा की जाय तो भगवान् बहुत जल्दी प्रकट हो जाते हैं। भगवान् वहाँ रुक नहीं सकते। आप कहें कि- 'है तो कठिन ?'
कठिन ? क्या पहाड़ उठाना है ? इसमें तो कोई कठिन बात है ही नहीं। तुम्हारी मूर्खतासे कठिन बात दीखती है। नामदेवजीकी बात देखो- कुत्ता रोटी लेकर भागा तो घी की कटोरी लेकर भागे। कहा- 'महाराज ! चुपड़ तो लो।' कुत्तेमें ही भगवान् प्रकट हो गये।
उनके घरमें आग लगी तो जो चीज बची थी, वह भी अग्निमें होमने लगे। भगवान् अग्निमें प्रकट हो गये। भगवान् कैसे रुक सकते थे ?
एकनाथजी महाराज रामेश्वरम्को जल चढ़ानेके लिये गंगोत्रीसे जल लेकर चले। जब तीन-चौथाई रास्ता तय हो गया तो रास्तेमें देखते हैं- एक गधा प्यासा तड़फ रहा है। उसे इस प्रकारसे तड़फते देखकर उनका उस गधेमें भगवद्भाव हो गया कि ये साक्षात् शिवशंकर हैं। उन्होंने अपने काँवड़का जल गधेको पिला दिया। साक्षात् शंकर भगवान् उस गधेसे प्रकट हो गये।
ऐसे ही रन्तिदेवकी कथा आती है। भोजन किये ४८ दिन हो गये। ४९वें दिन कुछ हलवा, खीर, पूड़ी आदि प्राप्त हुई। पूजा-पाठ करके भोग लगाना ही चाहते थे कि इतनेमें एक ब्राह्मण आ गये। उन्हें भोजन कराया। इतनेमें एक शूद्र आ गया, उसको भोजन कराया। फिर एक चाण्डाल आ गया, उसे भोजन कराया। जो कुछ भोजन था, वह उन सबने खा लिया। अब थोड़ा-सा जल बचा। राजा पीना ही चाहते थे कि इतनेमें एक चाण्डाल आ गया। कहा- 'मैं प्यासा हूँ।' राजाने वह जल उसे पिला दिया। बस, भगवान् प्रकट हो गये। भगवान् इस तरह परीक्षा लेनेके लिये आते हैं।
हमें सबको भगवान् समझकर सबकी सेवा करनी चाहिये, सबको नमस्कार करना चाहिये- यह शास्त्रोंका सिद्धान्त है।
गीता देखो, रामायण देखो, भागवत् देखो, सबका यही सिद्धान्त है कि- सबमें भगवद्बुद्धि करनी चाहिये - यह सब उपदेशका सार है।
नारायण नारायण नारायण श्रीमन्नारायण नारायण नारायण...